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आर्कटिक भू-राजनीति और व्यापार पुनर्संरेखण

Lokesh Pal April 24, 2025 03:33 12 0

संदर्भ 

आर्कटिक की बर्फ पिघलने से ‘उत्तरी समुद्री मार्ग’ (NSR) खुल रहा है, जिससे क्षेत्र में नए अवसर उत्पन्न हो रहे हैं और साथ ही पर्यावरण के लिए भी खतरा उत्पन्न हो रहा है।

उत्तरी समुद्री मार्ग (NSR)

उत्तरी समुद्री मार्ग (NSR) यूरोप और एशिया-प्रशांत को जोड़ने वाला सबसे छोटा शिपिंग मार्ग है, जो चार आर्कटिक समुद्रों से होकर लगभग 5,600 किमी. तक विस्तृत है।

  • मार्ग विवरण: यह बैरेंट्स और कारा सागर के मध्य कारा जलडमरूमध्य से शुरू होता है और बेरिंग जलडमरूमध्य पर समाप्त होता है।
  • लाभ: NSR, स्वेज नहर जैसे पारंपरिक मार्गों की तुलना में पारगमन दूरी को 50% तक कम कर सकता है, जिससे तेजी से माल परिवहन को बढ़ावा मिलता है।

जलवायु प्रभाव और परिवर्तित आर्कटिक सागर

  • जलवायु सीमा का उल्लंघन: वर्ष 2024 में, वैश्विक तापमान अस्थायी रूप से पूर्व-औद्योगिक स्तरों से 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा को पार कर गया, जो पेरिस समझौते के लक्ष्यों का संभावित दीर्घकालिक उल्लंघन है।
  • तात्कालिक रूप से हिम में कमी: नासा के अनुसार, आर्कटिक समुद्री बर्फ, वर्ष 1981-2010 के औसत की तुलना में प्रति दशक (सितंबर डेटा) 12.2% की दर से कम हो रही है, जो एक तात्कालिक पर्यावरणीय परिवर्तन का संकेतक है।
  • भारत पर जलवायु प्रतिक्रिया: आर्कटिक में बर्फ पिघलने से भारत के जलवायु पैटर्न, विशेष रूप से मानसून पर व्यापक प्रभाव पड़ता है, जिसका कृषि और खाद्य सुरक्षा पर प्रभाव पड़ता है।
  • उत्तरी समुद्री मार्ग का विस्तार: इसे यूरोप और एशिया के बीच शिपिंग के लिए एक महत्त्वपूर्ण ‘शॉर्टकट’ के रूप में देखा जा रहा है, जो संभावित रूप से वैश्विक व्यापार प्रवाह को नया आकार दे सकता है।
    • इससे माल की आवाजाही तेज होगी और माल ढुलाई की लागत कम होगी, जिससे रणनीतिक और आर्थिक लाभ होगा।

वर्ष 1920 की स्वालबार्ड संधि

  • यह एक अंतरराष्ट्रीय समझौता है, जो नॉर्वे को आर्कटिक महासागर में स्थित द्वीपों के समूह स्वालबार्ड द्वीपसमूह पर संप्रभुता प्रदान करता है, साथ ही सभी हस्ताक्षरकर्ता देशों के लिए द्वीप के संसाधनों तक समान पहुँच सुनिश्चित करता है।

आर्कटिक क्षेत्र में भारत की संभावनाएँ

  • वैश्विक व्यापार पुनर्गठन: बढ़ते भू-राजनीतिक तनाव, विशेषतः अमेरिका-चीन के बीच टकराव के कारण राष्ट्र व्यापार मार्गों में विविधता लाने के लिए प्रेरित हो रहे हैं।
    • आर्कटिक एक रणनीतिक विकल्प के रूप में उभरा है।
  • भारत की सक्रिय भागीदारी: भारत का आर्कटिक के साथ लंबे समय से जुड़ाव रहा है, जो वर्ष 1920 की स्वालबार्ड संधि से शुरू हुआ है और आर्कटिक क्षेत्र में हिमाद्री नामक एक शोध केंद्र मौजूद है।
  • रणनीतिक आर्कटिक विजन: भारत की वर्ष 2022 आर्कटिक नीति का उद्देश्य वैज्ञानिक अनुसंधान, जलवायु जागरूकता और आर्थिक हितों के बीच संतुलन निर्माण करना  है, साथ ही कार्यान्वयन के लिए नए सिरे से ध्यान केंद्रित करना है।
  • समुद्री बुनियादी ढाँचे को बढ़ावा: वर्ष 2025-26 के बजट में समुद्री विकास के लिए 3 बिलियन डॉलर आवंटित किए गए, जिसमें आर्कटिक नेविगेशन के लिए उपयुक्त जहाज निर्माण क्लस्टर और हिम-श्रेणी के जहाज शामिल हैं।
  • अंतरराष्ट्रीय भागीदारी: भारत आर्कटिक और गैर-आर्कटिक राज्यों के साथ वार्ता कर रहा है। मई 2025 में ‘आर्कटिक सर्कल इंडिया फोरम’ आगे के सहयोग और नीति संरेखण को उत्प्रेरित कर सकता है।
  • अनुसंधान और क्षमता निर्माण: भारत आर्कटिक जलवायु मॉडलिंग में निवेश कर रहा है और बहुपक्षीय ज्ञान विनिमय और क्षमता निर्माण पहल को बढ़ावा देना चाहता है।

आर्कटिक क्षेत्र में चुनौतियाँ

  • पारिस्थितिकीय संवेदनशीलता: आर्कटिक पर्यावरण पारिस्थितिकीय रूप से बेहद संवेदनशील है, जिसके कारण भारत को किसी भी वाणिज्यिक या शोध उपक्रम में कम प्रभाव वाले संचालन को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है।
  • कठोर समुद्री परिस्थितियाँ: आर्कटिक जल में नेविगेट करने के लिए उन्नत, हिम-श्रेणी के जहाजों और अप्रत्याशित मौसम एवं चुनौतीपूर्ण समुद्री मार्गों के कारण महत्त्वपूर्ण तैयारी की आवश्यकता होती है।
  • रणनीतिक संरेखण दुविधा: भारत को चीन की बढ़ती आर्कटिक महत्त्वाकांक्षाओं में शामिल हुए बिना, रूस और पश्चिमी शक्तियों के बीच संबंधों को संतुलित करते हुए, अपने आर्कटिक गठबंधनों को सावधानीपूर्वक नेविगेट करना चाहिए।
  • निवेश और प्रभाव अंतराल: उच्च बुनियादी ढाँचा लागत और क्षेत्र में भारत की दावेदार रहित स्थिति आर्कटिक मामलों में इसकी वित्तीय व्यवहार्यता और कूटनीतिक लाभ दोनों को सीमित करती है।

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