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संसदीय बहस और निर्णय प्रक्रिया में महिलाओं की असमान भागीदारी का मुद्दा

Lokesh Pal April 26, 2025 05:15 15 0

संदर्भ:

106वें संविधान संशोधन द्वारा महिलाओं के लिए एक-तिहाई आरक्षण सुनिश्चित करने के बावजूद , 18वीं लोकसभा के हालिया आंकड़ों से पता चलता है कि संसद में उनकी उपस्थिति और सक्रिय भागीदारी के बीच बहुत बड़ा अंतर है। 

संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व:

  • ऐतिहासिक कानून: एनडीए सरकार की प्रमुख उपलब्धियों में से एक 106वें संविधान संशोधन अधिनियम का पारित होना है , जिसे नारी शक्ति वंदन अधिनियम के रूप में भी जाना जाता है , जिसमें संसद और राज्य विधानसभाओं दोनों में महिलाओं के लिए एक तिहाई आरक्षण का प्रावधान किया गया है
  • संख्या से अधिक महत्त्वपूर्ण प्रतिनिधितत्व : जबकि राजनीतिक दल अक्सर प्रगति के संकेतक के रूप में महिला सांसदों, विधायकों और स्थानीय नेताओं की संख्या का बखान करते हैं, वास्तविक प्रतिनिधित्व सिर्फ सीटों पर कब्जा करने में नहीं बल्कि बहस को आकार देने, समितियों का नेतृत्व करने और निर्णयों को प्रभावित करने में निहित है
  • उपस्थिति एवं भागीदारी में अंतराल: हाल की संसदीय गतिविधियों, विशेषकर 18वीं लोकसभा के विश्लेषण से उपस्थिति और भागीदारी के बीच महत्वपूर्ण अंतर का संकेत मिलता है।
    • अतः स्पष्ट है कि महिलाओं के प्रतिनिधित्व पर बातचीत संख्याओं पर समाप्त नहीं हो सकती – इसका मूल्यांकन सक्रिय भागीदारी के घंटों के माध्यम से किया जाना चाहिए

विधायी बहसों में महिला सांसदों की भागीदारी:

  • वक्फ बिल, 2025 पर बहस: यह बहस करीब 14 घंटे तक संचालित की गई थी , जिसमें 61 सदस्यों ने हिस्सा लिया। केवल पांच महिलाओं ने बात की, जो वक्ताओं का सिर्फ 8% था।
  • बोलने के समय में असमानता: महिला सांसदों ने कुल मिलाकर केवल 32 मिनट ही चर्चा में अपने विचार प्रस्तुत किए, जो बोलने के समय का लगभग 3.5% है । यह सदन में उनकी 14% उपस्थिति से काफी कम है।
  • बैंकिंग कानून (संशोधन) विधेयक, 2024: यह बहस करीब पांच घंटे तक चली । इसमें केवल एक महिला सांसद सुप्रिया सुले ने भाग लिया, जिन्होंने केवल नौ मिनट तक बात की
  • संख्या के बावजूद बहिष्कार: भाजपा और कांग्रेस दोनों ने , कई महिला सांसदों के होने के बावजूद, इस चर्चा के लिए केवल पुरुष सदस्यों को ही विचार प्रस्तुत करने का अवसर प्रदान किया।
  • केंद्रीय बजट पर बहस: भाजपा द्वारा अपनी महिला वित्त मंत्री को उजागर करने के बावजूद , पार्टी की किसी भी महिला सांसद ने वित्त विधेयक, 2025 पर बहस के दौरान बात नहीं की।
  • अन्य दलों का योगदान: सुप्रिया सुले, इकरा चौधरी और हरसिमरत कौर बादल जैसे वरिष्ठ नेताओं ने इसमें सक्रिय रूप से भाग लिया।
  • बोलने के समय के आंकड़े: सामूहिक रूप से, महिला सांसदों ने 8 घंटे और 43 मिनट तक चली चर्चा के दौरान लगभग एक घंटे तक बात की
  • रेल मंत्रालय की अनुदान मांग: इस चर्चा में कुल 90 सांसदों में से केवल 9 (10%) महिलाएं थीं। 11 घंटे और 35 मिनट तक चले सत्र के दौरान महिला सांसदों ने लगभग 1 घंटे और 18 मिनट तक बात की
  • समान अवसरों का अभाव: महिला सांसदों को बोलने का समय आवंटित करने में लगातार संरचनात्मक पूर्वाग्रह देखा जा सकता है । कुछ अपवादों को छोड़कर, अधिकांश पार्टियाँ महिला नेताओं को पर्याप्त भागीदारी मंच प्रदान नहीं करती हैं।

पार्टी-वार बोलने के समय का विश्लेषण:

  • भाजपा का आवंटन: 31 महिला सांसदों वाली भाजपा को बोलने के लिए 145 मिनट का समय प्रदान किया गया था। लेकिन पार्टी की सिर्फ़ दो महिला सांसदों ने 14 मिनट तक ही भाषण दिया
  • कांग्रेस को आवंटित समय: 14 महिला सांसदों वाली कांग्रेस को 92 मिनट आवंटित किए गए थे । केवल एक महिला ने मात्र 4.5 मिनट तक चर्चा में प्रतिभाग किया
  • पुरुष समकक्षों की तुलना में अनुपातहीनता : यहां तक कि जब महिला सांसदों को वक्ताओं के रूप में सूचीबद्ध किया जाता है, तब भी उनके बोलने का समय उनके पुरुष समकक्षों की तुलना में अनुपातहीन रूप से कम रहता है।

महिला सांसदों द्वारा संसदीय उपकरणों का उपयोग:

  • संसदीय हस्तक्षेप: संसद में महिलाओं की भागीदारी का एक और महत्वपूर्ण मापदंड यह है कि वे कितने संसदीय हस्तक्षेप दर्ज करती हैं, जिन पर बाद में मतदान होता है । सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाने वाला हस्तक्षेप प्रश्नकाल के दौरान होता है
  • प्रश्नकाल का विश्लेषण: 18वीं लोकसभा के चौथे सत्र के विश्लेषण से ज्ञात होता है कि महिला सांसदों ने कुल तारांकित प्रश्नों में से 17.2% प्रश्न पूछे
    • हालाँकि, इनमें से कई प्रश्न अन्य सांसदों के साथ मिलकर पूछे गए थे , जिसका अर्थ है कि केवल 7.5% प्रश्न ही महिला सांसदों द्वारा स्वतंत्र रूप से पूछे गए थे।
  • निजी सदस्यों के विधेयक: कुल 628 निजी सदस्यों के विधेयकों में से , 572 विधेयक 90% से अधिक – पुरुष सांसदों द्वारा प्रस्तुत किए गए । महिला सांसदों ने केवल 56 विधेयक प्रस्तुत किए, जो कुल संसद सदस्य संख्या का मात्र 8.91% है।

संसदीय समितियों में लैंगिक अंतर

  • दुर्लभ प्रतिनिधित्व: 24 विभाग-संबंधित स्थायी समितियों में से केवल दो की ही अध्यक्षता महिलाओं द्वारा की जाती है । जबकि संयुक्त संसदीय समितियों (जेपीसी) में नेतृत्व पूरी तरह से पुरुष-प्रधान है
  • पुरुष अध्यक्षता वाली जेपीसी के उदाहरण: पीपी चौधरी की अध्यक्षता में एक राष्ट्र एक चुनाव पर गठित जेपीसी ।
    • जगदम्बिका पाल की अध्यक्षता में वक्फ अधिनियम पर जे.पी.सी. की बैठक हुई ।
    • संजय जायसवाल की अध्यक्षता में जैव विविधता (संशोधन) विधेयक, 2021 पर जेपीसी की बैठक हुई ।
    • जन विश्वास (प्रावधानों का संशोधन) विधेयक, 2022 पर जेपीसी की अध्यक्षता पीपी चौधरी ने की
    • बहु-राज्य सहकारी समितियां (संशोधन) विधेयक, 2022 पर संयुक्त संसदीय समिति की अध्यक्षता चंद्र प्रकाश जोशी ने की
  • आलोचनात्मक अवलोकन: सभी प्रमुख विधायी विचार-विमर्श का नेतृत्व पुरुष सांसद कर रहे हैं
  • ऐतिहासिक रूप से कम प्रतिनिधित्व: पिछले 16 वर्षों में एक भी महिला सांसद ने लोक लेखा समिति या प्राक्कलन समिति की अध्यक्षता नहीं की है ।
  • दुर्लभ अपवाद: केवल एक महिला , मीनाक्षी लेखी , ने सार्वजनिक उपक्रम समिति की अध्यक्षता की , और वह भी केवल तीन वर्षों के लिए
  • संस्थागत बहिष्कार: संसदीय व्यवस्था में यह निरंतर असमानता व अनुपस्थिति इस बात पर प्रकाश डालती है कि किस प्रकार महिलाओं को संसद में उपस्थित होने के बावजूद, सबसे प्रभावशाली संसदीय निकायों से नियमित रूप से बाहर रखा जाता है। 

संसद में लैंगिक चुनौतियाँ

  • आपत्तिजनक टिप्पणि: राजनीतिक रैलियों और संसदीय बहसों के दौरान महिलाओं को निशाना बनाकर की जाने वाली लैंगिकवादी और अपमानजनक टिप्पणियां अभी भी आम हैं ।
  • बुनियादी ढांचे की उपेक्षा: ऐतिहासिक रूप से, संसदीय बुनियादी ढांचे ने महिलाओं की ज़रूरतों को अनदेखा किया है। उदाहरण के लिए, पुराने संसद भवन में महिला पत्रकारों के लिए अलग से शौचालय की व्यवस्था नहीं थी। महिलाओं के लिए एक समर्पित भोजन कक्ष 2018 तक स्थापित नहीं किया गया था

निष्कर्ष:

अतः देखा जा सकता है कि राजनीति में महिलाओं की भूमिका गहरी चिंता का विषय बनी हुई है । केवल जानबूझकर किए गए सुधारों और महिला नेतृत्व को सक्रिय रूप से बढ़ावा देने के माध्यम से ही हम अधिक समावेशी और न्यायसंगत राजनीतिक वातावरण बनाने की उम्मीद कर सकते हैं ।

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न 

प्रश्न: संवैधानिक गारंटी और नीतिगत पहल के बावजूद, महिलाओं की भागीदारी संसदीय बहस और निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में सीमित रहती है। अंतर्निहित कारणों का आलोचनात्मक विश्लेषण करें, इस निरंतर कम प्रतिनिधित्व में योगदान देने वाले कारकों का उल्लेख कीजिए।

(15 अंक, 250 शब्द)

प्रश्न: ‘संवैधानिक नैतिकता’ संविधान में ही निहित है और इसकी अनिवार्यता पर आधारित है। प्रासंगिक न्यायिक प्रावधानओं के माध्यम से उचित न्याय-निर्णयन हेतु ‘संवैधानिक नैतिकता’ के सिद्धांत की व्याख्या कीजिए। 

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