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भारत में मानसून की परिवर्तनशीलता और उसका पूर्वानुमान

Lokesh Pal May 01, 2025 02:49 18 0

संदर्भ 

नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित एक अध्ययन से पता चला है कि पिछले 22,000 वर्षों में मजबूत और कमजोर भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून (Indian Summer Monsoons-ISM) ने बंगाल की खाड़ी की समुद्री उत्पादकता पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डाला है। 

संबंधित तथ्य

  • यह अध्ययन महत्वपूर्ण है क्योंकि कई जलवायु मॉडल मानव-प्रेरित गर्मी के प्रभाव के तहत मानसून में महत्त्वपूर्ण व्यवधान की चेतावनी देते हैं।
  • कार्यप्रणाली: वैज्ञानिकों ने फोरामिनिफेरा (foraminifera) के जीवाश्म आवरण का विश्लेषण किया।
    • फोरामिनिफेरा (Foraminifera) छोटे एकल-कोशिकीय समुद्री जीव हैं, जो अपने कैल्शियम कार्बोनेट के आवरण में पर्यावरण संबंधी डेटा रिकॉर्ड करते हैं।
    • ये माइक्रोफॉसिल्स (Microfossils) अंतरराष्ट्रीय महासागर खोज कार्यक्रम (International Ocean Discovery Program) के तहत संचालित एक शोध जहाज ‘JOIDES रिजॉल्यूशन’ (JOIDES Resolution) पर सवार वैज्ञानिकों द्वारा समुद्री तलछट से प्राप्त किए गए थे।

अध्ययन के मुख्य बिंदु

  • महत्त्वपूर्ण समुद्री योगदानकर्ता: बंगाल की खाड़ी वैश्विक महासागर क्षेत्र के 1% से भी कम क्षेत्र को शामिल करने के बावजूद वैश्विक मत्स्य उत्पादन का लगभग 8% प्रदान करती है।
  • मानसून-समुद्री उत्पादकता के बीच संबंध: मजबूत और कमजोर मानसून ने महासागर मिश्रण में बड़े व्यवधान पैदा किए, जिससे सतही जल में समुद्री जीवन के लिए भोजन में 50% की कमी आई।
    • अत्यधिक मानसून की घटनाएँ पोषक तत्त्वों से युक्त गहरे जल के ऊर्ध्वाधर मिश्रण में बाधा डालती हैं, जिससे प्लवक की वृद्धि कम होती है जो समुद्री खाद्य शृंखला का आधार है।
  • तंत्र: मानसून की वर्षा बंगाल की खाड़ी में नदी के प्रवाह को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है, जिससे समुद्र की लवणता और परिसंचरण में बदलाव होता है।
    • सशक्त मानसून सतह पर ताजे जल की मात्रा में वृद्धि करता है, जिससे पोषक तत्त्वों का संचार बाधित होता है।
    • कमजोर मानसून वायु संचालन को कम करता है, साथ ही सतही जल में पोषक तत्त्वों की कमी भी होती है।
    • दोनों चरम स्थितियों से समुद्री संसाधनों की उपलब्धता को खतरा है।
  • ऐतिहासिक साक्ष्य: हेनरिक स्टैडियल 1 (17,500 और 15,500 वर्ष पहले के बीच एक ठंडा चरण) और प्रारंभिक होलोसीन (10,500-9,500 वर्ष पहले) के दौरान असामान्य मानसून की तीव्रता के कारण उत्पादकता में गिरावट आई।
  • आधुनिक समय की चेतावनी: वर्तमान जलवायु प्रवृत्तियाँ उत्पादकता हानि से जुड़े पिछले पैटर्न से मिलती-जुलती हैं, जैसे- समुद्र का गर्म होना, नदियों का तेज बहाव और कमजोर पवनें आदि (कमजोर पवनें = कोई मिश्रण नहीं = सतह पर कम पोषक तत्त्व = कम प्लवक = कम मछलियाँ)।
  • खाद्य सुरक्षा जोखिम: समुद्री उत्पादकता में गिरावट से उत्पन्न मत्स्य भंडार में कमी से क्षेत्र में मत्स्यपालन पर निर्भर लाखों लोगों की खाद्य सुरक्षा को खतरा है।

मानसून परिवर्तनशीलता (Monsoon Variability) के बारे में

  • भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून एक बड़े पैमाने पर मौसमी पवन प्रणाली है, जो जून से सितंबर तक भारतीय उपमहाद्वीप पर प्रभावी रहती है, जो भारत की वार्षिक वर्षा का लगभग 70% प्रदान करती है। 
  • मानसून परिवर्तनशीलता मानसून के मौसम के दौरान वर्षा के समय, तीव्रता और स्थानिक वितरण में उतार-चढ़ाव को संदर्भित करती है।

मानसून परिवर्तनशीलता के प्रकार

  • मानसून का आगमन और निवर्तन संबंधी परिवर्तनशीलता: मानसून के आगमन और निवर्तन के समय में परिवर्तन होता है।
  • स्थानिक परिवर्तनशीलता: कुछ क्षेत्रों में अत्यधिक वर्षा हो सकती है, जबकि अन्य क्षेत्रों में उसी वर्ष सूखा पड़ सकता है।
    • उदाहरण: उत्तर-पश्चिम भारत (राजस्थान, हरियाणा) में कम वर्षा होती है।
    • उत्तर-पूर्व और पश्चिमी घाट में भारी वर्षा होती है।
  • अंतर-मौसमी परिवर्तनशीलता: एक ही मौसम के भीतर होने वाले बदलाव, जैसे कि सक्रिय वर्षा और अंतराल अवधि (कम वर्षा के साथ शुष्क अवधि)।
  • अंतर-वार्षिक परिवर्तनशीलता: कई वर्षों में मानसून की वर्षा में वर्ष-दर वर्ष होने वाले बदलाव को मानसून की अंतर-वार्षिक परिवर्तनशीलता के रूप में जाना जाता है।

मानसून परिवर्तनशीलता के कारण

  • मानसून गर्त: यह एक लंबा निम्न दाबयुक्त क्षेत्र है, जो भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून (जून-सितंबर) के दौरान पाकिस्तान के ऊपर स्थित निम्न दाबयुक्त क्षेत्र से लेकर बंगाल की खाड़ी के शीर्ष तक फैला हुआ है।
    • यह मानसून प्रणाली की एक अर्द्ध-स्थायी विशेषता है।
    • मानसून गर्त का उत्तर-दक्षिण दोलन सक्रिय (दक्षिण की ओर बदलाव) और निष्क्रिय (उत्तर की ओर बदलाव) चरणों को संचालित करता है, जिससे वर्षा पैटर्न प्रभावित होता है।
  • अल नीनो दक्षिणी दोलन (El Nino Southern Oscillation-ENSO): प्रशांत महासागर का गर्म होना (अल नीनो) या ठंडा होना (ला नीना) मानसून को प्रभावित कर सकता है।
    • अल नीनो कमजोर पड़ता है, जबकि ला नीना भारतीय मानसून को मजबूत बनाता है।
  • हिंद महासागर द्विध्रुव (Indian Ocean Dipole-IOD): यह हिंद महासागर में समुद्र की सतह के तापमान का एक अनियमित दोलन है, जो पश्चिमी और पूर्वी भागों के बीच अंतर की विशेषता है।
    • इसके दो चरण हैं: एक धनात्मक चरण, जिसमें पश्चिमी हिंद महासागर गर्म होता है, और एक ऋणात्मक चरण, जिसमें यह ठंडा होता है।
    • सकारात्मक IOD मानसून को बढ़ाता है, जबकि नकारात्मक IOD इसे दबाता है।
  • हिमालयी हिम आवरण: उच्च हिम आवरण ऐतिहासिक रूप से कमजोर मानसून से जुड़ा हुआ है।
  • मैडेन-जूलियन ऑसिलेशन (MJO): मैडेन-जूलियन ऑसिलेशन (MJO) एक उष्णकटिबंधीय वायुमंडलीय तरंग है, जो पूर्व की ओर बढ़ती है, जिसमें सक्रिय चरण मानसून की वर्षा को बढ़ाते हैं और अन्य चरण शुष्क अवधि का कारण बनते हैं।
  • भूमि-वायुमंडल प्रतिक्रियाएँ: मिट्टी की नमी, वनस्पति और एरोसोल भी स्थानीय वर्षा को प्रभावित करते हैं।
  • भूमध्यरेखीय हिंद महासागर समुद्र की सतह का तापमान (SST): समुद्र की सतह के तापमान में असामान्य गर्माहट या संवहन और वायु के पैटर्न को प्रभावित करती है, जिससे मानसून की तीव्रता में बदलाव होता है।

भारत में मानसून पूर्वानुमान

  • भारत में मानसून का पूर्वानुमान, जो कृषि, जल संसाधन और आपदा तैयारी के लिए महत्त्वपूर्ण है, इसे मुख्य रूप से भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) द्वारा प्रबंधित किया जाता है, जो विभिन्न स्थानिक और लौकिक पैमानों पर पूर्वानुमान प्रदान करता है।
  • स्थानिक पैमाने
    • राष्ट्रीय स्तर: पूरे देश के लिए पूर्वानुमान।
    • क्षेत्रीय/राज्य: व्यापक या स्थानीयकृत क्षेत्र।
  • टेंपोरल स्केल
    • दीर्घावधि पूर्वानुमान (Long Range Forecast-LRF): मौसमी/मासिक (4 महीने तक)। यह 8 जलवायु पूर्वानुमानकर्ताओं का उपयोग करके सांख्यिकीय समूह पूर्वानुमान प्रणाली (SEFS) पर आधारित है।
    • विस्तारित सीमा पूर्वानुमान (ERF): 10-30 दिन आगे।
    • लघु से मध्यम सीमा: 1-10 दिन आगे।
    • नाउकास्ट (Nowcast): 6 घंटे तक आगे। पूर्वानुमान स्थानीय मौसम विज्ञान केंद्रों द्वारा जारी किया जाता है।
      • नाउकास्टिंग का लक्ष्य स्थानीय मौसम की घटनाएँ, विशेषकर तीव्र वर्षा और भयंकर तूफान का पता लगाना होता है।

भारत में मानसून भविष्यवाणी मॉडल

  • सांख्यिकीय मॉडल: ये मॉडल मानसून की शुरुआत और वर्षा वितरण जैसे रुझानों और पैटर्न की भविष्यवाणी करने के लिए ऐतिहासिक डेटा पर निर्भर करते हैं।
  • गतिशील मॉडल: ये मॉडल मानसून सहित मौसम की स्थिति का पूर्वानुमान लगाने के लिए वैश्विक जलवायु डेटा पर आधारित संख्यात्मक सिमुलेशन का उपयोग करते हैं।
  • ‘मल्टी-मॉडल असेंबल’ दृष्टिकोण: पूर्वानुमानों की सटीकता में सुधार करने के लिए, IMD प्रायः अधिक विश्वसनीय पूर्वानुमान प्रदान करने के लिए कई मॉडलों का उपयोग करता है।

भारत में मानसून की भविष्यवाणी में हालिया प्रगति और नवाचार

  • मिशन मौसम (Mission Mausam): वर्ष 2024 में शुरू की गई इस पहल का उद्देश्य अवलोकन एवं मॉडलिंग प्रणालियों में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और मशीन लर्निंग को एकीकृत करके मौसम पूर्वानुमान में तीव्र परिवर्तन लाना है।
  • उन्नत मानसून मिशन युग्मित पूर्वानुमान प्रणाली (Monsoon Mission Coupled Forecasting System- MMCFSv2): उन्नत MMCFSv2 मॉडल में उन्नत महासागर और वायुमंडलीय घटक शामिल हैं, जो मानसून पूर्वानुमानों की सटीकता में सुधार करते हैं।
  • पूर्वानुमान त्रुटि में कमी: वर्ष 2007 और वर्ष 2024 के बीच, मौसमी वर्षा पूर्वानुमानों में औसत निरपेक्ष पूर्वानुमान त्रुटि में लगभग 21% की कमी आई, जो पूर्वानुमान विश्वसनीयता में महत्त्वपूर्ण सुधार दर्शाता है।

भारत में मानसून पूर्वानुमान का विकास

  • पूर्वानुमान के प्रारंभिक प्रयास (1870 का दशक-1900)
    • वर्ष 1877: भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (IMD) की स्थापना ‘अकाल’ (1876-78) की अवधि के दौरान की गई थी।
    • हेनरी ब्लैनफोर्ड (Henry Blanford) (पहले मौसम संबंधी रिपोर्टर): हिमालय के हिम आवरण को मानसूनी वर्षा से विपरीत रूप से जोड़ा।
    • सर जॉन इलियट (Sir John Eliot) (1889): क्षेत्रीय मौसम एवं समुद्री स्थितियों का उपयोग करके पूर्वानुमानों का विस्तार किया, लेकिन अकाल की गलत भविष्यवाणियों को रोक नहीं सके (उदाहरण के लिए, 1899-1900)।
    • सर गिल्बर्ट वॉकर (Sir Gilbert Walker) (1904): 28 वैश्विक भविष्यवाणियों का उपयोग करके सांख्यिकीय मॉडल विकसित किए, दक्षिणी दोलन (SO) की पहचान की, जिसे बाद में अलनीनो से जोड़ा गया।
  • स्वतंत्रता के बाद के घटनाक्रम
    • वॉकर का मॉडल वर्ष 1987 तक प्रयोग में रहा, लेकिन इसकी सटीकता सीमित और कम विश्वसनीय थी। 
    • गोवारिकर मॉडल (Gowariker Model) (1988): 16 वायुमंडलीय चरों का उपयोग किया गया; अखिल भारतीय पूर्वानुमानों में स्थानांतरित किया गया। हालाँकि, 2002 के सूखे ने मौजूदा मॉडलों की विफलताओं को उजागर किया।
  • दो-चरणीय पूर्वानुमान और SEFS (2003–2018)
    • वर्ष 2003: IMD ने दो-चरणीय पूर्वानुमान (अप्रैल और जून) के साथ नए 8 और 10 पैरामीटर मॉडल अपनाए।
    • वर्ष 2007: पाँच-पैरामीटर मॉडल (अप्रैल) और छह-पैरामीटर मॉडल (जून) का उपयोग करके सांख्यिकीय एनसेंबल पूर्वानुमान प्रणाली (Statistical Ensemble Forecasting System-SEFS) की शुरुआत।
    • SEFS ने असेंबल विधियों का उपयोग करके ओवरफिटिंग को कम किया, जिससे सटीकता में सुधार हुआ।
    • वर्ष 1989-2006 की तुलना में वर्ष 2007-2024 के बीच पूर्वानुमान त्रुटि 21% कम हुई।
  • युग्मित मॉडल (Coupled Models) और बहु-मॉडल समूह (Multi-Model Ensemble) (वर्ष 2012-वर्तमान तक)
    • वर्ष 2012: महासागर-वायुमंडल-भूमि डेटा का उपयोग करके मानसून मिशन युग्मित पूर्वानुमान प्रणाली (Monsoon Mission Coupled Forecasting System-MMCFS) का शुभारंभ। 
    • वर्ष 2021: बेहतर पूर्वानुमान के लिए वैश्विक जलवायु मॉडल (Global Climate Models-GCMs) को शामिल करते हुए मल्टी-मॉडल एनसेम्बल (Multi-Model Ensemble-MME) दृष्टिकोण को अपनाना।

वर्सामना परियोजना (Varsamana Project) के बारे में 

  • वर्सामना परियोजना IMD आधुनिकीकरण कार्यक्रम की आधारशिला है।
  • इसकी शुरुआत वर्ष 2008 में हुई थी।

भारत में मानसून पूर्वानुमान में शामिल एजेंसियाँ

  • भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD): इसकी स्थापना वर्ष 1875 में हुई थी और यह पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के तहत मौसम और जलवायु सेवाओं के लिए प्रमुख एजेंसी है।
    • यह दक्षिण एशिया के लिए एक क्षेत्रीय जलवायु केंद्र है और संयुक्त राष्ट्र के ‘सभी के लिए प्रारंभिक चेतावनी’ कार्यक्रम में एक प्रमुख भागीदार है।
  • भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान (Indian Institute of Tropical Meteorology-IITM): यह पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के तहत पुणे में स्थित एक स्वायत्त संस्थान है। यह मौसम और मानसून के पूर्वानुमानों को बेहतर बनाने के लिए महासागर-वायुमंडल जलवायु प्रणाली पर शोध करता है।
  • राष्ट्रीय मध्यम अवधि मौसम पूर्वानुमान केंद्र (National Centre for Medium Range Weather Forecasting-NCMRWF): मध्यम अवधि के पूर्वानुमान और मॉडलिंग सहायता प्रदान करता है।
  • भारतीय राष्ट्रीय महासागर सूचना सेवा केंद्र (Indian National Centre for Ocean Information Services-INCOIS): मानसून की भविष्यवाणियों के लिए महत्त्वपूर्ण समुद्र विज्ञान संबंधी डेटा प्रदान करता है।
  • राष्ट्रीय महासागर प्रौद्योगिकी संस्थान (National Institute of Ocean Technology-NIOT): जलवायु अध्ययनों के लिए महासागर निगरानी और डेटा का समर्थन करता है।

मानसून पूर्वानुमान में चुनौतियाँ

  • जटिल वायुमंडलीय प्रणालियाँ: मानसून में बड़े पैमाने पर वायुमंडलीय परिसंचरण पैटर्न शामिल होते हैं, जैसे कि हिंद महासागर द्विध्रुव (IOD), अलनीनो, मैडेन-जूलियन ऑसिलेशन (MJO)।
    • इन प्रणालियों के बीच अंतःक्रिया की भविष्यवाणी करना जटिल है और इसके लिए प्रायः उन्नत मॉडलिंग तकनीकों की आवश्यकता होती है।
      • उदहारण: सकारात्मक IOD मानसूनी वर्षा में वृद्धि करता है, लेकिन ENSO के साथ इसकी अंतर्क्रिया पूर्वानुमान को जटिल बना देती है।
  • गैर-रेखीय वायुमंडलीय अंतःक्रियाएँ: एक कारक में छोटे-छोटे परिवर्तन अराजक वायुमंडलीय व्यवहार के कारण अप्रत्याशितता को बढ़ा सकते हैं।
  • अवलोकन डेटा में सीमाएँ: भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) वर्तमान में लगभग 800 स्वचालित मौसम स्टेशन (AWS), 1,500 स्वचालित वर्षा गेज (ARG) और 37 डॉपलर मौसम रडार (DWR) संचालित करता है, जो आवश्यक 3,00,000 ग्राउंड स्टेशन और 70 DWR से कम है।
  • मॉडल अनिश्चितताएँ और पूर्वानुमान त्रुटियाँ 
    • उदाहरण: मानसून मिशन युग्मित पूर्वानुमान प्रणाली (MMCFS) जैसे गतिशील मॉडल प्रारंभिक स्थिति त्रुटियों का सामना करते हैं, जहाँ समय के साथ छोटी-छोटी अशुद्धियाँ बढ़ जाती हैं, जिससे पूर्वानुमान की विश्वसनीयता कम हो जाती है।
  • जलवायु परिवर्तन के प्रभाव: जलवायु पैटर्न में बदलाव से मानसून का व्यवहार अप्रत्याशित हो जाता है। केरल बाढ़ (2018) में देखी गई वर्षा की तीव्रता में वृद्धि, पूर्वानुमान को चुनौती देती है।

मानसून की परिवर्तनशीलता से निपटने के लिए सरकारी पहल

  • राष्ट्रीय मानसून मिशन (2012): राष्ट्रीय मानसून मिशन पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय (MoES) द्वारा शुरू किया गया एक राष्ट्रीय कार्यक्रम है, जिसका उद्देश्य विभिन्न समय-सीमाओं में मानसून की वर्षा के लिए अत्याधुनिक गतिशील पूर्वानुमान प्रणाली विकसित करना है।
  • राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (RKVY): राज्यों को राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (RKVY) के तहत आवंटित निधि का लगभग 5 से 10% हिस्सा कृषि क्षेत्र पर असामान्य मानसून के प्रतिकूल प्रभाव को कम करने हेतु हस्तक्षेप करने के लिए अलग रखने की सलाह दी गई है।
  • जलवायु अनुकूल कृषि (NMSA के तहत): मानसून की परिवर्तनशीलता से निपटने के लिए अनुकूल कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देता है।

आगे की राह

  • अवलोकन नेटवर्क का विस्तार: डेटा संग्रह को बढ़ाने और पूर्वानुमान सटीकता में सुधार करने के लिए स्वचालित मौसम स्टेशनों (AWS), डॉपलर रडार और महासागरीय प्लवक (Oceanic Buoys) की संख्या बढ़ाना।
  • उच्च-रिजॉल्यूशन मॉडलिंग: उच्च-रिजॉल्यूशन जलवायु मॉडल स्थानीय मौसम की घटनाओं (जैसे- बादल फटना, चक्रवात और क्षेत्रीय वर्षा परिवर्तनशीलता) को ग्रहण करते हुए महीन स्थानिक और लौकिक पैमाने पर वायुमंडलीय और महासागरीय प्रक्रियाओं का अनुकरण करते हैं। 
    • बेहतर मानसून और चरम मौसम की भविष्यवाणियों के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस/मशीन लर्निंग को एकीकृत किया जा सकता है।
  • एकीकृत पूर्वानुमान प्रणाली: बेहतर सटीकता के लिए अधिक मजबूत पूर्वानुमान ढाँचा निर्माण के लिए सांख्यिकीय और गतिशील मॉडल को मिलाना।
  • अंतरराष्ट्रीय सहयोग: बेहतर डेटा साझाकरण और वैश्विक पूर्वानुमान क्षमताओं के लिए विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO) और राष्ट्रीय महासागरीय और वायुमंडलीय प्रशासन (NOAA) जैसे संगठनों के साथ साझेदारी को मजबूत करन।
  • मौसम संबंधी डेटा तक खुली पहुँच: शोधकर्ताओं और उद्यमियों के लिए मौसम संबंधी डेटा को खुले तौर पर उपलब्ध कराना, ताकि वे चरम मौसम संबंधी घटनाओं के पीछे के कारणों को बेहतर ढंग से समझने के लिए सही प्रक्रिया विकसित कर सकें।
    • यह स्थानीयकृत प्रारंभिक चेतावनी उपकरणों के निर्माण में भी मदद करता है।
    • उदाहरण: संयुक्त राज्य अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, फ्राँस और यूरोपीय संघ ने अपने मौसम पूर्वानुमान डेटा को क्लाउड पर उपलब्ध करा दिया है, ताकि कोई भी व्यक्ति उस तक पहुँच सके।

निष्कर्ष

भारत में कृषि, समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र और आजीविका की सुरक्षा के लिए बेहतर मानसून पूर्वानुमान महत्त्वपूर्ण है। पूर्वानुमान प्रणालियों को मजबूत करने से मानसून व्यवधानों के विरुद्ध तैयारी और लचीलापन बढ़ेगा।

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