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वैश्विक सूखा परिदृश्य 2025

Lokesh Pal June 20, 2025 01:18 71 0

संदर्भ

आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (Organisation for Economic Co-operation and Development-OECD) द्वारा प्रस्तुत वैश्विक सूखा परिदृश्य-2025, वैश्विक स्तर पर सूखे की आवृत्ति और गंभीरता में बढ़ती प्रवृत्ति को रेखांकित करता है।

  • इसमें इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि भारत जैसे देशों को (OECD) देशों की तुलना में जलवायु-संवेदनशील क्षेत्रों में काफी अधिक जोखिम, कम अनुकूलन क्षमता और अधिक आजीविका निर्भरता का सामना करना पड़ता है।

मुख्य निष्कर्ष

  • सूखे की गंभीरता
    • हाल के दशकों में वैश्विक भूमि क्षेत्र के 40% हिस्से में सूखे की आवृत्ति और तीव्रता में वृद्धि देखी जा रही है।
      • उल्लेखनीय उदाहरणों में मेक्सिको में 20 वर्ष लंबा सूखा और यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका में वर्ष 2022 में आने वाला विनाशकारी सूखा शामिल है।
    • वर्ष 1900 और वर्ष 2020 के बीच सूखे से प्रभावित वैश्विक भूमि क्षेत्र दोगुना हो गया है।
  • कारक 
    • जलवायु परिवर्तन: बढ़ते तापमान से वाष्पीकरण बढ़ता है, वर्षा के पैटर्न में बदलाव आता है, तथा बर्फ और ग्लेशियर भंडार कम होते हैं।
      • 4°C से अधिक वार्मिंग परिदृश्य के तहत, सूखे की आवृत्ति और तीव्रता गैर-जलवायु-परिवर्तन आधार रेखा की तुलना में सात गुना तक बढ़ सकती है।
    • मानवीय गतिविधियाँ: वनों की कटाई, शहरी विस्तार और असंवहनीय कृषि पद्धतियाँ पारिस्थितिकी तंत्र और जल स्रोतों को नष्ट करती हैं, जिससे सूखे का जोखिम बढ़ता है।
    • ये दबाव समय के साथ बढ़ते हैं, जिससे मीठे जल की उपलब्धता के लिए खतरा बढ़ता है।

सूखे का प्रभाव

  • पारिस्थितिकीय प्रभाव
    • जल की उपलब्धता में कमी से मृदा का क्षरण तीव्र  होता है और वनों एवं आर्द्रभूमि पर गंभीर प्रभाव पड़ता है, जिससे पौधों के बायोमास और वितरण में परिवर्तन आता है।
    • वैश्विक स्तर पर, निगरानी किए गए 62% जलभृतों में गिरावट आ रही है, और कई नदियों में जलप्रवाह में महत्त्वपूर्ण कमी देखी गई है।
  • सूखे के सामाजिक-आर्थिक निहितार्थ
    • वैश्विक स्तर पर सूखे से संबंधित आर्थिक नुकसान प्रतिवर्ष 3-7.5% की दर से बढ़ रहे हैं।
    • कृषि: सूखे के वर्षों में, फसल की उत्पादकता 22% तक गिर सकती है, सूखे की अवधि को दोगुना करने से सोया और मकई की उत्पादकता 10% तक कम हो सकती है।
    • ऊर्जा और व्यापार: गंभीर सूखे से नदी के व्यापार की मात्रा 40% तक और जलविद्युत उत्पादन 25% से अधिक कम हो सकती है।
      • उदाहरण: पनामा नहर में सूखे से संबंधित व्यवधान।
    • मानवीय प्रभाव: प्राकृतिक आपदाओं में केवल 6% हिस्सा होने के बावजूद, सभी आपदा-संबंधित मौतों में से 34% मौतें सूखे के कारण होती हैं और विस्थापन, गरीबी या सामाजिक असमानता में वृद्धि होती है।
    • भू-राजनीतिक जोखिम: जल की कमी से प्रेरित तनाव राजनीतिक अस्थिरता और सामाजिक अशांति को बढ़ावा दे सकता है।

भारत में सूखा से संबंधित निष्कर्ष

  • फ्लैश ड्राउट हॉटस्पॉट: भारत में अचानक सूखे की स्थिति उत्पन्न होने की संभावना बढ़ती जा रही है, विशेषकर ग्रीष्मकालीन मानसून (जून-सितंबर) के दौरान।
    • वर्ष 2100 तक ‘फ्लैश ड्राउट’ के लिए कृषि जोखिम में 20-30% की वृद्धि होने का अनुमान है।
    • ‘फ्लैश ड्राउट’ की आवृत्ति और गति में वृद्धि होने की संभावना है, साथ ही चेतावनी अवधि भी कम होगी।

  • मृदा की नमी में कमी: वर्ष 1980-2023 के बीच 60% से अधिक भारतीय मृदा सूख गई।
    • वर्ष 2050 तक, मध्य, उत्तरी और प्रायद्वीपीय भारत को मृदा की नमी में गंभीर कमी का सामना करना पड़ सकता है।
  • भूजल तनाव: भारत विशेष रूप से सिंधु-गंगा के मैदान, पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र और कर्नाटक में सिंचाई के लिए सबसे अधिक भूजल निष्कर्षण वाले देशों में से एक है।
  • कृषि संवेदनशीलता: वर्षा आधारित कृषि, जो बोए गए क्षेत्र के 50% से अधिक को शामिल करती है, ‘फ्लैश ड्राउट’ के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है।
    • महाराष्ट्र, पंजाब और आंध्र प्रदेश में धान और गन्ना जैसी जल की अधिकता वाली फसलों को  खतरा उत्पन्न हो रहा है।
    • सूखे की अवधि दोगुनी होने से चावल, सोयाबीन और दालों की उत्पादकता में 10% तक की कमी आ सकती है।
  • शहरी जल संघर्ष: दिल्ली, चेन्नई और बेंगलुरु जैसे शहर भूजल की कमी, शहरी विस्तार और पुनर्भरण क्षेत्रों में कमी के कारण गंभीर जल तनाव का सामना कर रहे हैं।
    • मृदा अवरोधन और निर्माण कार्यों के कारण प्राकृतिक पुनर्भरण क्षमता कम हो गई है।
  • जल प्रशासन में कमी: वर्तमान शासन प्रणाली सिंचाई या फसल नियोजन में जलवायवीय अनुमानों को पर्याप्त रूप से शामिल नहीं करती है।
    • PMKSY और जल शक्ति अभियान जैसी योजनाओं के बावजूद, कई राज्यों में एकीकृत जलवायु-लचीली सूखा प्रबंधन रणनीतियों का अभाव है।
    • जल निकासी शुल्क नगण्य बना हुआ है, जो कि जल की कमी की वास्तविक आर्थिक लागत को प्रतिबिंबित करने में विफल है।
    • विखंडित मूल्यांकन ढाँचे के कारण सूखे से होने वाले नुकसान की प्रायः कम रिपोर्टिंग हो पाती है।

मुख्य अनुशंसाएँ

  • सक्रिय लचीलापन निर्माण
    • सूखे की रोकथाम पर खर्च किए गए प्रत्येक डॉलर से 2-3 डॉलर का लाभ प्राप्त होता है, तथा लचीलापन निवेश से संभावित रूप से दस गुना तक लाभ प्राप्त होता है।
  • प्रभावी जल नीति
    • कुशल उपयोग, समान वितरण और संरक्षण के लिए एकीकृत जल संसाधन प्रबंधन अपनाना।
    • आपूर्ति लचीलापन और जल निष्कर्षण तथा प्राकृतिक पुनःपूर्ति के बीच संतुलन को मजबूत करना।
  • पारिस्थितिकी तंत्र-आधारित दृष्टिकोण
    • जलवायु जोखिम को दीर्घकालिक योजना में एकीकृत करना।
    • जल विनियमन और उपलब्धता के लिए महत्त्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्रों की रक्षा करना और उन्हें बहाल करना।
  • सूखा-प्रतिरोधी कृषि
    • स्थायी भूमि उपयोग, पारिस्थितिकी तंत्र बहाली और अनुकूली कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देना।
    • उपज को बनाए रखने और जल के उपयोग को कम करने के लिए सूखा-प्रतिरोधी फसलों की कृषि को प्रोत्साहित करना।
  • जोखिम न्यूनीकरण और रणनीतिक योजना
    • सूखे के जोखिम आकलन को मजबूत करना, प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों में सुधार करना और लचीलापन-केंद्रित बुनियादी ढाँचे और नीतियों में निवेश करना।
    • भारत में, कृषि और जल क्षेत्रों में लचीलापन निवेश पर रिटर्न लागत से 5-10 गुना हो सकता है।
  • सहयोगात्मक कार्रवाई
    • तत्काल सूखे की चुनौतियों और दीर्घकालिक संसाधन स्थिरता दोनों को संबोधित करने के लिए अंतर-क्षेत्रीय और अंतर-राज्यीय सहयोग को बढ़ावा देना।
    • समन्वित शासन और ज्ञान साझाकरण के माध्यम से जल दक्षता, कृषि उत्पादकता और पारिस्थितिकी तंत्र संरक्षण को बढ़ाना।

निष्कर्ष

रणनीतिक और दूरदर्शी सूखा निवारण सतत् विकास का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। जल और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करके, जलवायु लचीलापन बढ़ाकर और पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा करके, ऐसे प्रयास भविष्य की पीढ़ियों के कल्याण की रक्षा के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।

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