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भारत में वर्ष 1975 के आपातकाल के 50 वर्ष पूर्ण

Lokesh Pal June 26, 2025 02:50 16 0

संदर्भ

वर्ष 1975 में लगाए गए आपातकाल की 50वीं वर्षगाँठ के अवसर पर, भारतीय प्रधानमंत्री ने उस कालखंड को भारत के इतिहास का एक काला अध्याय करार देते हुए, लोकतंत्र की रक्षा के लिए संघर्ष करने वाले सभी भारतीयों को श्रद्धांजलि अर्पित की।

  • 25 जून को संविधान हत्या दिवस के रूप में मनाया जाता है।

वर्ष 1975 के आपातकाल के बारे में

  • घोषणा की तिथि: 25 जून, 1975
  • अवधि: आपातकाल 25 जून, 1975 से 21 मार्च, 1977 तक 21 महीने तक चला।
  • घोषणा: राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद द्वारा अनुच्छेद 352 के तहत, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सलाह पर।
  • घोषणा का कारण: राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा उत्पन्न करने वाली ‘आंतरिक अशांति’ के आधार पर लागू किया गया।

वर्ष 1975 के आपातकाल के प्रमुख कारण

  • चुनावी और कानूनी चुनौतियाँ: इंदिरा गांधी के वर्ष 1971 के निर्वाचन को राज नारायण ने चुनौती दी थी।
    • उत्तर प्रदेश राज्य बनाम राज नारायण (1975) मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उन्हें चुनावी कदाचार का दोषी पाया, उन्हें संसद से अयोग्य घोषित कर दिया और छह वर्ष के लिए फिर से चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी।
  • राजनीतिक अस्थिरता एवं विपक्षी आंदोलन: जयप्रकाश नारायण (JP) ने ‘संपूर्ण क्रांति’ आंदोलन का नेतृत्व किया।
    • महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के विरुद्ध गुजरात और बिहार में व्यापक छात्र विरोध प्रदर्शनों ने राजनीतिक अराजकता उत्पन्न कर दी।
  • बाह्य भू-राजनीतिक कारक: बांग्लादेश युद्ध (1971) के कारण आर्थिक तनाव उत्पन्न हुआ।
    • अमेरिकी सहायता बंद होने और वैश्विक तेल की बढ़ती कीमतों ने भारत की वित्तीय चुनौतियों को और बदतर बना दिया।
  • आर्थिक संकट: उच्च मुद्रास्फीति (वर्ष 1973 में 23%, वर्ष 1974 में 30%) ने कठिनाई उत्पन्न की।
    • बेरोजगारी और आर्थिक ठहराव ने जनता में असंतोष को बढ़ावा दिया।
  • न्यायिक संघर्ष: केशवानंद भारती (1973) और गोलकनाथ (1967) मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों ने संसद की शक्तियों को सीमित कर दिया, विशेषकर मौलिक अधिकारों के संबंध में।
    • इंदिरा गांधी ने इन निर्णयों को अपने राजनीतिक नियंत्रण के लिए खतरे के रूप में देखा।
  • सत्ता का संकेंद्रण: इंदिरा गांधी ने लोकतांत्रिक संस्थाओं और नियंत्रणों को दरकिनार करते हुए सत्ता को अपने हाथों में केंद्रित कर लिया।
    • इससे उन्हें सत्ता बनाए रखने के लिए आपातकाल की घोषणा करनी पड़ी।
  • आंतरिक राजनीतिक एवं सामाजिक दबाव: जनता पार्टी और अन्य विपक्षी समूह मजबूत हुए।
    • मार्क्सवादी और नक्सलवादी आंदोलनों ने भी प्रभाव प्राप्त किया, जिससे राजनीतिक अस्थिरता बढ़ गई।
  • व्यक्तिगत सत्ता संघर्ष: इंदिरा गांधी की सत्तावादी शैली और सत्ता को बनाए रखने की इच्छा ने उन्हें चुनौतियों को व्यक्तिगत हमलों के रूप में देखने के लिए प्रेरित किया। 
    • गरीबी हटाओ अभियान की विफलता और बढ़ते विरोध ने आपातकाल को प्रेरित किया।

अनुच्छेद 358 ने अनुच्छेद 19 के तहत सुरक्षा को निलंबित कर दिया, जिससे भाषण, अभिव्यक्ति, सभा और आवागमन की स्वतंत्रता प्रभावित हुई।

अनुच्छेद 359 राज्य को अनुच्छेद 14, 21 और 22 के तहत मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन को निलंबित करने की अनुमति देता है, जिसमें कानून के समक्ष समानता, जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार और गिरफ्तारी के विरुद्ध संरक्षण शामिल है।

आपातकाल के दौरान विधायी संशोधन (Legislative Amendments During the Emergency)

राष्ट्रीय आपातकाल के निहितार्थ

  • मौलिक अधिकारों का निलंबन: राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान अनुच्छेद 19 (भाषण, आवागमन, सभा आदि की स्वतंत्रता) को निलंबित किया जा सकता है।
    • नागरिकों को बिना किसी सुनवाई के मनमाने ढंग से गिरफ्तार किया जा सकता है और हिरासत में लिया जा सकता है, जैसा कि वर्ष 1975 के आपातकाल के दौरान देखा गया था।
    • अनुच्छेद 358 और अनुच्छेद 359 लागू किए गए।
  • कार्यपालिका की शक्तियों में वृद्धि: केंद्र सरकार को सामान्य जाँच और संतुलन के बिना निर्णय लेने की विस्तारित शक्तियाँ प्राप्त होती हैं।
    • प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल के पास संसद और राज्य सरकारों को दरकिनार करते हुए निर्णय लेने पर अधिक नियंत्रण होता है।
    • आपातकालीन प्रावधान कार्यपालिका को अध्यादेशों के माध्यम से कानून पारित करने की क्षमता देते हैं।
  • संघीय ढाँचे का निलंबन: राज्य सरकारें स्वायत्तता खो सकती हैं क्योंकि केंद्र सरकार राज्य के मामलों पर नियंत्रण रखती है।
    • निर्वाचित राज्य सरकारों को दरकिनार करते हुए राज्यों में अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है।
    • केंद्र सरकार राज्य के विषयों पर कानून बना सकती है, भले ही वे राज्य सूची के अंतर्गत आते हों।
  • लोकसभा का कार्यकाल बढ़ाने की शक्ति: आपातकाल के दौरान लोकसभा का कार्यकाल 5 वर्ष से अधिक बढ़ाया जा सकता है, जिससे चुनावी प्रक्रिया कमजोर हो जाती है।
    • यह प्रावधान लोकसभा के अनिवार्य विघटन को रोकता है, जिससे सत्तारूढ़ सरकार का कार्यकाल संभवतः लंबा हो जाता है।
  • न्यायपालिका की भूमिका में परिवर्तन: आपातकाल के दौरान की गई सरकारी कार्रवाइयों की समीक्षा करने की न्यायपालिका की शक्ति सीमित हो सकती है।
    • आपातकालीन कार्रवाइयों की न्यायिक समीक्षा, विशेष रूप से मौलिक अधिकारों के संबंध में, कमजोर हो सकती है, जैसा कि वर्ष 1975 के आपातकाल में देखा गया था, जब सर्वोच्च न्यायालय ने बड़े पैमाने पर कार्यपालिका के अधीन कार्य किया था।

वर्ष 1975 के आपातकाल की मुख्य विशेषताएँ

  • मौलिक अधिकारों का निलंबन
    • अनुच्छेद 19 (स्वतंत्रता का अधिकार) को निलंबित कर दिया गया।
    • ADM जबलपुर मामले (1976) में, सर्वोच्च न्यायलय ने माना कि आपातकाल के दौरान अनुच्छेद 21 के उल्लंघन के लिए कानूनी उपाय माँगने का अधिकार निलंबित कर दिया गया था।
  • सामूहिक गिरफ्तारी और हिरासत: 35,000 से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया गया, जिनमें राजनीतिक नेता, कार्यकर्ता, सामाजिक कार्यकर्ता, छात्र और पत्रकार शामिल थे।
    • गिरफ्तारियाँ प्रायः बिना किसी सुनवाई के आंतरिक सुरक्षा अधिनियम (Maintenance of Internal Security Act- MISA) के तहत की जाती थीं।
  • प्रेस सेंसरशिप: समाचार-पत्रों पर पूर्व-सेंसरशिप लागू की गई और कई को प्रकाशन से पहले सरकारी स्वीकृति के लिए सामग्री प्रस्तुत करने के लिए बाध्य किया गया।
    • इंडियन एक्सप्रेस और अन्य पत्रिकाओं ने सिर्फ संपादकीय छापकर इसका विरोध किया।
  • जबरन नसबंदी अभियान: एक सामूहिक नसबंदी अभियान चलाया गया, जिसमें 10 मिलियन से अधिक नसबंदी की गई, जिनमें से कई लोगों को जबरन नसबंदी करानी पड़ी।
    • इस कार्यक्रम का मुख्य लक्ष्य गरीब लोग थे, जिनमें से कई लोगों को जबरन नसबंदी करवानी पड़ी।
  • सत्ता का केंद्रीकरण: सत्ता अत्यधिक रूप से प्रधानमंत्री के कार्यालय में केंद्रित थी।
    • 42वें संविधान संशोधन (1976) ने लोकसभा का कार्यकाल 5 वर्ष से बढ़ाकर 6 वर्ष कर दिया, जिससे कार्यपालिका को अधिक नियंत्रण प्राप्त हो गया।
  • राजनीतिक संगठनों पर प्रतिबंध: RSS और जमात-ए-इस्लामी सहित विपक्षी दलों पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
    • राजनीतिक असहमति को राष्ट्र-विरोधी माना गया और नेताओं को गिरफ्तार किया गया।

आपातकालीन अवधि के दौरान कानूनी परिवर्तन

  • संसदीय विधान
    • वर्ष 1975 का 38वाँ संविधान संशोधन अधिनियम: संसद द्वारा पारित, इसने आपातकाल की न्यायिक समीक्षा पर रोक लगा दी, जिससे न्यायपालिका की निगरानी शक्तियाँ सीमित हो गईं।
    • 39वाँ संविधान संशोधन अधिनियम: राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और लोकसभा अध्यक्ष के चुनाव को न्यायिक समीक्षा से परे रखा गया।
    • 42वाँ संविधान संशोधन अधिनियम: व्यापक संशोधन प्रस्तुत किया गया।
      • चुनाव याचिकाओं पर न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र को हटा दिया गया।
      • राज्य के विषयों पर संघ के अधिकार का विस्तार किया गया, जिससे शासन का केंद्रीकरण हुआ।
      • न्यायिक समीक्षा के बिना संविधान में संशोधन करने के लिए संसद को अप्रतिबंधित शक्ति प्रदान की गई।
      • राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों को लागू करने वाले कानूनों को न्यायिक जाँच से सुरक्षित रखा गया।
  • ADM जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला, 1976
    • बिना मुकदमे के हिरासत में रखना कानूनी बना दिया गया: एक ऐतिहासिक निर्णय में, सर्वोच्च न्यायालय की पाँच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने यह निर्णय दिया कि आपातकाल के दौरान बिना मुकदमे के लोगों को हिरासत में रखना कानूनन वैध था।
    • न्यायमूर्ति एच. आर. खन्ना एकमात्र असहमति व्यक्त करने वाले न्यायाधीश थे, जिन्होंने नागरिक स्वतंत्रताओं के पक्ष में खड़े रहते हुए बहुमत के निर्णय का विरोध किया।

44वें संविधान संशोधन अधिनियम 1978 के तहत किए गए परिवर्तन

  • राष्ट्रीय आपातकाल: आपातकाल के दायरे को सीमित करने के लिए ‘आंतरिक अशांति’ के स्थान पर ‘सशस्त्र विद्रोह’ को शामिल किया गया।
    • आपातकाल की घोषणा करने से पहले कैबिनेट की संस्तुति की आवश्यकता को पेश किया गया।
    • लोकसभा को किसी घोषणा को अस्वीकृत करने की अनुमति दी गई।
    • युद्ध या बाहरी आक्रमण के कारण घोषित आपातकाल के दौरान अनुच्छेद 19 स्वतः ही निलंबित हो जाता है।
    • आपातकाल के दौरान अनुच्छेद 20 और अनुच्छेद 21 को निलंबित नहीं किया जा सकता है।
  • मौलिक अधिकार: संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची से हटा दिया गया और अनुच्छेद 300 A के तहत कानूनी अधिकार बना दिया गया।
    • संविधान के अनुच्छेद 19(1)(f) और अनुच्छेद 31 को हटा दिया गया, और अनुच्छेद 31 के स्थान पर अनुच्छेद 300A जोड़ा गया, जो केवल विधि द्वारा प्रदत्त अधिकार के आधार पर ही संपत्ति से वंचित करने की अनुमति देता है।
    • अनुच्छेद 30(1A) जोड़ा गया, जो अल्पसंख्यकों द्वारा स्थापित शैक्षणिक संस्थानों की संपत्ति की सुरक्षा सुनिश्चित करता है।
  • राष्ट्रपति की शक्ति: संविधान के अनुच्छेद 74(1) में संशोधन कर राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद की सलाह पर पुनर्विचार के लिए उसे वापस भेजने की अनुमति दी गई।
  • राज्य नीति के निदेशक सिद्धांत: अनुच्छेद 38 को जोड़ा गया, जिसमें लोक कल्याण के लिए सामाजिक व्यवस्था को सुरक्षित रखने की राज्य की जिम्मेदारी बताई गई।
  • संसद एवं राज्य विधानमंडल: अनुच्छेद 83 और अनुच्छेद 172 में संशोधन के माध्यम से लोकसभा और राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल पाँच वर्ष के लिए बहाल किया गया।
    • अनुच्छेद 361A को जोड़ा गया, जिससे विधायी कार्यवाही की सच्ची रिपोर्ट प्रकाशित करने वाले पत्रकारों को छूट मिल गई।
  • न्यायपालिका: राष्ट्रपति, राज्यपाल और लोकसभा अध्यक्ष के चुनावों पर न्यायिक समीक्षा सहित सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों को कुछ शक्तियाँ बहाल की गईं।
  • संसद की शक्ति पर प्रतिबंध: अनुच्छेद 356 के तहत आपातकालीन उद्घोषणाओं को एक वर्ष से अधिक समय तक बढ़ाने की सीमाएँ लागू की गईं।
  • संसदीय विशेषाधिकार: चुनाव आयोग की राय के आधार पर अयोग्यता संबंधी निर्णय लेने के लिए अनुच्छेद 103 और 192 में संशोधन किया गया।

शाह आयोग

आपातकाल में सत्ता के दुरुपयोग की की जाँच के लिए जनता सरकार द्वारा शाह आयोग का गठन किया गया था।

उद्देश्य और गठन

  • उद्देश्य: आपातकाल के दौरान सरकार द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन और सत्ता के अत्यधिक उपयोग की जाँच करना और उसका दस्तावेजीकरण करना।
  • न्यायमूर्ति जे. सी. शाह की अध्यक्षता में शाह आयोग का गठन वर्ष 1977 में आपातकाल के दौरान की गई ज्यादतियों की जाँच करने और संवैधानिक अधिकारों के उल्लंघन के लिए जिम्मेदार लोगों को जवाबदेह ठहराने के लिए किया गया था।

मुख्य निष्कर्ष

  • मौलिक अधिकारों का उल्लंघन: आयोग ने पाया कि मौलिक अधिकारों का व्यापक रूप से उल्लंघन किया गया, जिसमें हजारों लोगों को अवैध हिरासत में लिया गया और जबरन नसबंदी की गई।
    • आयोग ने पुष्टि की कि आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकारों का निलंबन असंवैधानिक था और नागरिक स्वतंत्रता का एक बड़ा उल्लंघन था।
  • सत्ता का दुरुपयोग: विश्लेषणों में इस तथ्य पर प्रकाश डाला गया कि संजय गांधी द्वारा लागू की गई नीतियाँ, जिनमें अनिवार्य नसबंदी अभियान और शहरी झुग्गियों का बलपूर्वक हटाया जाना शामिल था, अत्यंत कठोर और दमनात्मक मानी गईं।
    • राजनीतिक नेताओं और कार्यकर्ताओं को झूठे बहाने से गिरफ्तार किया गया, बिना किसी कानूनी उपाय के, जो उचित प्रक्रिया के अधिकार का उल्लंघन था।
  • मीडिया सेंसरशिप: शाह आयोग ने यह भी जाँच की कि कैसे सरकार ने प्रेस को सेंसर किया था, जिससे भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सीमित हो गई थी।
    • इसने ऐसे उदाहरणों का दस्तावेजीकरण किया, जहाँ समाचार पत्रों को सरकारी सेंसरशिप का पालन करना पड़ा या दंड का सामना करना पड़ा।

वर्ष 1975 के आपातकाल से चर्चा में आए बिंदु

  • संवैधानिक सुरक्षा उपायों और नागरिक स्वतंत्रता का महत्त्व: आपातकाल ने संवैधानिक अधिकारों के संरक्षण के महत्त्व को दर्शाया। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और स्वतंत्रता के अधिकार जैसे मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया।
    • संकट के समय में भी मौलिक अधिकारों की रक्षा की जानी चाहिए।
  • न्यायिक स्वतंत्रता और जवाबदेही: सर्वोच्च न्यायालय ने आपातकाल के दौरान सरकार की कार्रवाइयों को बरकरार रखा, लेकिन नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा करने में विफल रहा।
    • स्वतंत्र न्यायपालिका कार्यकारी शक्ति की जाँच करने और कानून के शासन की रक्षा करने के लिए महत्त्वपूर्ण है।
  • सत्ता का केंद्रीकरण: आपातकाल के कारण सत्ता का केंद्रीकरण प्रधानमंत्री कार्यालय में हो गया।
    • सत्ता का विकेंद्रीकरण होना चाहिए। नियंत्रण और संतुलन बहुत ज़रूरी है।
  • प्रेस की स्वतंत्रता की सुरक्षा: आपातकाल के दौरान मीडिया सेंसरशिप ने सार्वजनिक बहस को दबा दिया।
    • सरकार को जवाबदेह बनाए रखने के लिए स्वतंत्र और स्वतंत्र मीडिया आवश्यक है।
  • चुनावी सुधार और राजनीतिक स्वतंत्रता: चुनाव स्थगित कर दिए गए और विपक्ष की आवाजों को दबा दिया गया।
    • लोकतंत्र के लिए निष्पक्ष चुनाव और राजनीतिक स्वतंत्रता महत्त्वपूर्ण है।
  • सत्तावाद के खिलाफ सतर्कता: आपातकाल ने दिखाया कि राष्ट्रीय सुरक्षा की आड़ में सत्तावाद कैसे उभर सकता है।
    • लोकतंत्र को सत्तावाद से बचाने के लिए सतर्कता की आवश्यकता है।
  • जन भागीदारी और प्रतिरोध: जनता सरकार की जीत ने जनता की भागीदारी की शक्ति को दिखाया।
    • लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए सक्रिय भागीदारी और प्रतिरोध महत्त्वपूर्ण हैं।

आपातकाल के बारे में

  • आपातकाल को ‘अचानक उत्पन्न होने वाली ऐसी परिस्थिति के रूप में परिभाषित किया जाता है, जिसके लिए सार्वजनिक प्राधिकारियों को उन्हें दी गई शक्तियों के अंतर्गत तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता होती है।’

भारतीय संविधान में आपातकाल: भारतीय संविधान में तीन प्रकार की आपात स्थितियों का प्रावधान है। ये आपात स्थितियाँ संकट के समय देश की संप्रभुता, अखंडता और लोकतांत्रिक कामकाज की रक्षा के लिए होती हैं।

  • राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352)
    • घोषणा के लिए शर्तें
      • यदि युद्ध, बाहरी आक्रमण या आंतरिक अशांति के कारण राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा हो तो राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा की जा सकती है।
      • 44वें संशोधन (1978) द्वारा ‘आंतरिक अशांति’ शब्द को ‘सशस्त्र विद्रोह’ में बदल दिया गया।
    • प्रक्रिया: राष्ट्रपति कैबिनेट की सलाह पर आपातकाल की घोषणा जारी करता है, जिसे संसद के दोनों सदनों द्वारा एक महीने के भीतर विशेष बहुमत से अनुमोदित किया जाना चाहिए।
    • प्रभाव
      • मौलिक अधिकार: मौलिक अधिकारों को निलंबित करता है (अनुच्छेद 20 और 21 को छोड़कर)
        • केंद्र सरकार को कठोर और व्यापक कार्रवाई करने का अधिकार देता है।
        • अनुच्छेद 19 के तहत, भाषण, सभा और आंदोलन जैसी स्वतंत्रता को निलंबित किया जा सकता है।
      • कार्यपालिका को अधिक शक्ति प्राप्त होती है, जबकि न्यायपालिका की समीक्षा सीमित होती है। 
      • संसद का कार्यकाल 5 वर्ष से अधिक बढ़ाया जा सकता है। 
      • राज्य अपनी स्वायत्तता खो सकते हैं, क्योंकि केंद्र सरकार राज्य के मामलों पर नियंत्रण कर सकती है।
    • ऐतिहासिक उदाहरण: वर्ष 1975 में आपातकाल की घोषणा इसी अनुच्छेद के तहत की गई थी, जिसका कारण आंतरिक अशांति बताया गया था, जिससे इंदिरा गांधी को सत्ता को केंद्रीकृत करने और नागरिक स्वतंत्रता को निलंबित करने का अवसर प्राप्त हो गया था।
  • राज्य आपातकाल राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356)
    • घोषणा के लिए शर्तें: यदि राष्ट्रपति का मानना ​​है कि राज्य में सरकार संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार कार्य नहीं कर सकती है, तो राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है।
    • प्रक्रिया: राष्ट्रपति अनुच्छेद 356 का उपयोग करके राष्ट्रपति शासन लगा सकते हैं, जो आमतौर पर राज्य के राज्यपाल की सलाह पर आधारित होता है; दो महीने के भीतर संसद के दोनों सदनों द्वारा अनुमोदित किया जाता है।
    • प्रभाव
      • राज्यपाल राज्य सरकार के कार्यों को स्वयं करता है, और केंद्र सरकार राज्य पर नियंत्रण रखती है।
      • राज्य के विधानमंडल को भंग या निलंबित किया जा सकता है।
      • केंद्र सरकार आमतौर पर राज्य द्वारा प्रबंधित मामलों पर कानून बना सकती है।
    • ऐतिहासिक उदाहरण: उत्तर प्रदेश, कश्मीर और पंजाब जैसे राज्यों में विभिन्न परिस्थितियों में राष्ट्रपति शासन लगाया गया है, जहाँ सरकारें व्यवस्था या संवैधानिक कामकाज बनाए रखने में विफल रहीं।
  • वित्तीय आपातकाल (अनुच्छेद 360)
    • घोषणा के लिए शर्तें: यदि राष्ट्रपति को लगता है कि देश या उसके किसी हिस्से की वित्तीय स्थिरता या साख को खतरा है, तो वित्तीय आपातकाल की घोषणा की जा सकती है।
      • यह आपातकाल केंद्र सरकार को वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाने की अनुमति देता है।
    • प्रक्रिया: यदि देश की वित्तीय स्थिरता को खतरा है, तो राष्ट्रपति वित्तीय आपातकाल की घोषणा कर सकते हैं; इसे दो महीने के भीतर संसद के दोनों सदनों द्वारा अनुमोदित होना चाहिए।
    • प्रभाव
      • केंद्र सरकार वित्तीय मामलों के संबंध में राज्यों को निर्देश जारी कर सकती है। 
      • राष्ट्रपति न्यायपालिका और संसद के सदस्यों सहित सार्वजनिक पद पर आसीन व्यक्तियों के वेतन और भत्ते कम कर सकते हैं।
    • ऐतिहासिक उदाहरण: भारत में कभी भी वित्तीय आपातकाल घोषित नहीं किया गया।

राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा का निरसन

  • राष्ट्रपति द्वारा निरस्त: आपातकाल की घोषणा को राष्ट्रपति किसी भी समय बाद में किसी घोषणा द्वारा निरस्त कर सकते हैं। 
    • ऐसी घोषणा के लिए संसदीय अनुमोदन की आवश्यकता नहीं होती है।
  • लोकसभा द्वारा प्रस्ताव पारित करना: इसके अलावा, यदि लोकसभा द्वारा किसी घोषणा को जारी रखने को अस्वीकृत करने वाला प्रस्ताव पारित किया जाता है, तो राष्ट्रपति को उस घोषणा को रद्द करना होगा। यह सुरक्षा उपाय वर्ष 1978 के 44वें संशोधन अधिनियम द्वारा प्रस्तुत किया गया था।
    • वर्ष 1978 का 44वाँ संशोधन अधिनियम: जहाँ लोकसभा के कुल सदस्यों की संख्या का दसवाँ हिस्सा अध्यक्ष को (या यदि सदन सत्र में नहीं है, तो राष्ट्रपति को) लिखित सूचना देता है, तो घोषणा को जारी रखने को अस्वीकृत करने वाले प्रस्ताव पर विचार करने के उद्देश्य से सदन की एक विशेष बैठक 14 दिनों के भीतर आयोजित की जानी चाहिए।
    • आवश्यकताएँ: अस्वीकृति का प्रस्ताव केवल लोकसभा द्वारा पारित किया जाना चाहिए और इसे केवल साधारण बहुमत द्वारा अपनाया जाना चाहिए।

आगे का राह : लोकतंत्र की रक्षा और संविधान को मजबूत करना

  • चुनावी और राजनीतिक सुधार: चुनावी हस्तक्षेप को रोकने वाले सुधारों को लागू करके चुनावी पारदर्शिता सुनिश्चित करना और स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करना।
    • राजनीतिक दलों की जवाबदेही को मजबूत करना, यह सुनिश्चित करना कि पार्टियाँ लोकतांत्रिक और पारदर्शी तरीके से काम करना।
  • मीडिया की भूमिका को मजबूत करना: राजनीतिक या कॉर्पोरेट दबावों के विरुद्ध मीडिया की स्वतंत्रता की रक्षा की जानी चाहिए।
    • सार्वजनिक क्षेत्र में विविध अभिव्यक्तियों को सुनिश्चित करने के लिए मीडिया की एकाग्रता को विनियमित करना, मीडिया को सरकारी शक्ति पर एक प्रभावी जाँच के रूप में करना।
  • संस्थागत जवाबदेही को बढ़ावा देना: सरकारी संस्थाओं के लिए मजबूत जवाबदेही प्रणाली बनाना, यह सुनिश्चित करना कि वे जनहित में काम करें।
    • पारदर्शिता तंत्र के माध्यम से, विशेष रूप से संकट या आपातकाल के समय में कार्यकारी कार्यों की सार्वजनिक जाँच सुनिश्चित करना।
  • नागरिक सहभागिता और सार्वजनिक सतर्कता: संवैधानिक अधिकारों और संस्थाओं की भूमिका पर शिक्षा के माध्यम से लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में सक्रिय सार्वजनिक सहभागिता को बढ़ावा देना।
    • लोकतांत्रिक मानदंडों की रक्षा करने और अधिनायकवाद की ओर किसी भी तरह के झुकाव को रोकने के लिए नागरिक समाज से सतर्कता को प्रोत्साहित करना।
  • अतीत से सीख: लोकतांत्रिक अधिकारों के महत्त्व और सत्ता के दुरुपयोग के बारे में लोगों में जागरूकता सुनिश्चित करने के लिए आपातकालीन अवधि से प्राप्त सीख को शैक्षिक पाठ्यक्रम में शामिल करना।
    • नियमित कानूनी और संवैधानिक शिक्षा अभियान नागरिकों को उनके अधिकारों को समझने और उनकी रक्षा करने के लिए सशक्त बना सकते हैं।

निष्कर्ष

वर्ष 1975 का आपातकाल लोकतांत्रिक दुर्बलता के एक कठिन दौर की याद दिलाता है, जो सत्तावाद को रोकने के लिए मजबूत संवैधानिक सुरक्षा उपायों, संस्थागत स्वतंत्रता और सतर्क नागरिकों की जरूरत को रेखांकित करता है। इससे प्राप्त सीख आज भी भारत के लोकतांत्रिक ताने-बाने को मजबूत करने के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।

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