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भारत में भाषा, संस्कृति और पहचान

Lokesh Pal July 19, 2025 03:02 27 0

संदर्भ

हाल ही में महाराष्ट्र में हिंदी-मराठी तनाव ने भारत में भाषा, संस्कृति और पहचान पर बहस को पुनः उत्पन्न कर दिया है, जिस पर गहन विचार-विमर्श की आवश्यकता है।

  • राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 में कथित हिंदी थोपे जाने के प्रावधानों का तमिलनाडु द्वारा विरोध, भारत की भाषायी विविधता और संघीय ढाचे की रक्षा के प्रयास के रूप में देखा जा रहा है, हालाँकि कुछ वर्ग इसे राष्ट्रीय एकता और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के लिए चुनौती भी मानते हैं।

भाषा क्या है?

  • भाषा संचार की एक प्रणाली है, जो अर्थ, विचार, भावनाएँ और सूचनाएँ व्यक्त करने के लिए प्रतीकों (मौखिक, लिखित या सांकेतिक) का उपयोग करती है।
  • यह व्याकरण, वाक्य विन्यास और शब्दावली के साथ नियमों द्वारा नियंत्रित होती है, जिससे वक्ता असंख्य अभिव्यक्तियों का सृजन कर उन्हें समझ सकता है।
  • भाषा केवल संचार नहीं है, यह एक प्रतीकात्मक प्रणाली है।
  • जो इतिहास, विश्वदृष्टि और पहचान का प्रतिनिधित्व करती है।
    • यूनेस्को का दृष्टिकोण: भाषा सांस्कृतिक विविधता और अमूर्त विरासत का केंद्र है।

सांस्कृतिक और राजनीतिक पहचान के रूप में भाषा

  • भाषा सांस्कृतिक पहचान का एक प्रमुख घटक है, जो परंपराओं, मूल्यों और सामाजिक अंतःक्रियाओं को आकार देती है।
    • यह संस्कृति के भंडार के रूप में कार्य करती है, इतिहास, साहित्य और सामूहिक स्मृति को संरक्षित करती है।
  • भारत में विविधता: भारत में 19,500 से अधिक बोलियाँ हैं, जिनमें 22 अनुसूचित भाषाएँ (संविधान की आठवीं अनुसूची) और कई गैर-अनुसूचित भाषाएँ शामिल हैं।
    • प्रमुख भाषायी परिवारों में इंडो-आर्यन, द्रविड़ियन, ऑस्ट्रोएशियाटिक और तिब्बती-बर्मी शामिल हैं।
  • राज्यों का पुनर्गठन: राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 ने भाषायी आधार पर राज्यों की सीमाओं का पुनर्निर्धारण (उदाहरण के लिए, तेलुगु भाषियों के लिए आंध्र प्रदेश, तमिल भाषियों के लिए तमिलनाडु) किया।
    • भाषायी पहचान ने राज्य के दर्जे की माँग को बढ़ावा दिया (उदाहरण के लिए, तेलंगाना, गोरखालैंड)।

‘भाषा मानव पहचान का मूल है और उससे छेड़छाड़ करना या तो कविता है या फिर देशद्रोह।’ -टेरी ईगलटन

  • भाषा और संघवाद: भाषा राजनीतिक लामबंदी और क्षेत्रीय आकांक्षाओं को आकार देती है, जिससे कभी-कभी संघर्ष भी होते (जैसे- तमिलनाडु में हिंदी विरोधी प्रदर्शन) हैं।
    • राजनीतिक दल वोट बैंक मजबूत करने के लिए भाषायी पहचान का प्रयोग करते हैं।

भारत का भाषायी परिदृश्य

  • भारत भाषायी रूप से सर्वाधिक विविध राष्ट्रों में से एक है:
    • यहाँ 121 भाषाएँ और 19,500 से अधिक बोलियाँ बोली जाती  (जनगणना 2011) हैं।
    • कोई राष्ट्रीय भाषा नहीं; हिंदी और अंग्रेजी संघ स्तर पर आधिकारिक भाषाएँ हैं।
  • भाषा का पहचान, संस्कृति और क्षेत्रीय गौरव से गहरा संबंध है।
  • भारतीय धर्मनिरपेक्षता, जिसमें भाषायी धर्मनिरपेक्षता भी शामिल है, किसी भी धर्म या भाषा का न तो पक्ष लेती है और न ही विरोध करती है, फिर भी तटस्थ नहीं है।
    • संविधान में राज्य की नीति के रूप में सन्निहित, यह राज्य को सांप्रदायिकता, चाहे वह धार्मिक हो या भाषायी, से लड़ने तथा एकता और विविधता को बढ़ावा देने का अधिकार देता है।
  • ऐतिहासिक संदर्भ
    • औपनिवेशिक विरासत: अंग्रेजों द्वारा अंग्रेजी थोपे जाने से भारतीय भाषाएँ हाशिए पर चली गईं, जिससे एक भाषायी अभिजात वर्ग का निर्माण हुआ और आम जनता का ध्यान प्रशासन से विमुख हो गया।
      • भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ने भाषायी विविधता पर जोर दिया और गांधी जैसे नेताओं ने हिंदुस्तानी (हिंदी-उर्दू) को एक एकीकृत भाषा के रूप में अपनाने की वकालत की।
    • स्वतंत्रता के बाद की चुनौतियाँ: हिंदी को आधिकारिक भाषा के रूप में चुनने पर बहस छिड़ गई, गैर-हिंदी राज्यों, विशेषकर तमिलनाडु ने इस कथित थोपे जाने का विरोध किया (उदाहरण के लिए, 1960 के दशक में हिंदी-विरोधी प्रदर्शन)।
      • राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 ने भाषाई आधार पर राज्य की सीमाओं का पुनर्निर्धारण किया, जिससे राष्ट्रीय एकता बनाए रखते हुए क्षेत्रीय भाषायी पहचान को बल मिला।
    • नीति का विकास: त्रि-भाषा सूत्र और अंग्रेजी की सहयोगी स्थिति का विस्तार (1967 का संशोधन) क्षेत्रीय चिंताओं को संबोधित करता है और भाषायी धर्मनिरपेक्षता को मूर्त रूप देता है।
      • बोडो, डोगरी, मैथिली और संथाली जैसी भाषाओं को आठवीं अनुसूची (2003) में शामिल करना समावेशिता के प्रति निरंतर प्रतिबद्धता को दर्शाता है।

भाषायी धर्मनिरपेक्षता

  • भाषायी धर्मनिरपेक्षता वह सिद्धांत है, जिसके अनुसार किसी भी भाषा को राज्य द्वारा विशेषाधिकार नहीं दिया जाना चाहिए या उस पर धार्मिक तटस्थता की तरह कोई थोपा नहीं जाना चाहिए।
  • यह सार्वजनिक संवाद, शासन और शिक्षा में सभी भाषाओं के लिए सम्मान और स्थान को बनाए रखता है।
  • यह भारत के बहुसांस्कृतिक और संघीय लोकाचार के अनुरूप है और यह सुनिश्चित करता है कि राष्ट्रीय एकता के साथ-साथ भाषायी पहचान भी सुरक्षित रहे।

संवैधानिक ढाँचा

  • अनुच्छेद-343: देवनागरी लिपि में हिंदी को संघ की राजभाषा घोषित करता है और अंग्रेजी को 15 वर्षों के लिए (जो विस्तार योग्य है) सहयोगी भाषा के रूप में मान्यता देता है, जो भाषा थोपे जाने से बचने के लिए एक संतुलित दृष्टिकोण को दर्शाता है।
  • अनुच्छेद-345: राज्यों को किसी भी भाषा को अपनी राजभाषा के रूप में अपनाने की अनुमति देता है, क्षेत्रीय भाषायी पहचान को मान्यता देता है।
  • अनुच्छेद-347: राष्ट्रपति को किसी क्षेत्र में किसी भाषा को, यदि किसी महत्त्वपूर्ण जनसंख्या द्वारा माँग की जाती है, आधिकारिक उपयोग के लिए मान्यता देने का अधिकार देता है, जिससे समावेशिता को बढ़ावा मिलता है।
  • अनुच्छेद-350A: प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की सुविधा प्रदान करना अनिवार्य करता है, जिससे अल्पसंख्यकों और क्षेत्रीय समुदायों के भाषायी अधिकार सुनिश्चित होते हैं।
  • अनुच्छेद-29: नागरिकों के किसी भी वर्ग के अपनी विशिष्ट भाषा, लिपि या संस्कृति के संरक्षण के अधिकार की रक्षा करता है, जिससे भाषायी धर्मनिरपेक्षता को बल मिलता है।
  • आठवीं अनुसूची: 22 भाषाओं (मूल रूप से 14, समय के साथ विस्तारित) को सूचीबद्ध करता है ताकि उनके विकास को बढ़ावा दिया जा सके, जिससे समान दर्जा और विकास के अवसर सुनिश्चित हों।

भाषायी एकीकरण में प्रवासियों की भूमिका

  • सांस्कृतिक अनुकूलन के अभिकर्ता के रूप में प्रवासी
    • आर्थिक आवश्यकता भाषा सीखने को प्रेरित करती है: प्रवासी—विशेषकर श्रम-निर्यातक राज्यों (उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल) से मेजबान शहरों में जीवनयापन के लिए स्थानीय भाषाएँ (कन्नड़, मराठी, तमिल) सीखते हैं।
      • उदाहरण: चेन्नई और बंगलूरू में प्रवासी ग्राहकों या नियोक्ताओं से वार्ता करने के लिए बुनियादी तमिल/कन्नड़ सीखते हैं।
    • दूसरी पीढ़ी की प्रवाहशीलता: स्थानीय स्कूलों में पढ़ने वाले प्रवासियों के बच्चे प्रायः क्षेत्रीय भाषाओं में पारंगत हो जाते हैं, जिससे समुदायों के बीच संबंध बनते हैं।
    • सँकर भाषा पारिस्थितिकी तंत्र: शहरी अनौपचारिक स्थानों, जैसे बाजार, भाषायी नवाचार के केंद्र बन जाते हैं, जहाँ विभिन्न भाषाओं के अंतःक्रियात्मक उपयोग से क्रियोलीकृत या सँकर भाषाएँ उभरती हैं। 
    • मुंबई में हिंदी, मराठी और अंग्रेजी के सम्मिश्रण से विकसित लोक-भाषा इसका सटीक उदाहरण है, जो न केवल संवाद का माध्यम है, बल्कि सांस्कृतिक सह-अस्तित्व की अभिव्यक्ति भी है।
  • दैनिक संपर्क के माध्यम से सांस्कृतिक एकीकरण
    • सेवा क्षेत्र से जुड़ाव: ड्राइवर, नौकरानी, दुकान कर्मचारी आदि के रूप में प्रवासी, निवासियों के साथ सामंजस्य स्थापित करने के लिए स्थानीय मुहावरों का उपयोग करते हैं।
      • स्थानीय भाषा का ऐसा प्रयोग शहर से जुड़ाव की भावना को मजबूत करता है और अलगाव को कम करता है।
    • सांस्कृतिक भागीदारी: कई प्रवासी स्थानीय त्योहारों और कार्यक्रमों में स्थानीय भाषा के मुहावरों, नारों या गीतों का उपयोग करते हुए भाग लेते हैं।
      • इससे भाषा का सहज आत्मसातीकरण और पारस्परिक स्वीकृति संभव होती है।
  • तनाव और असमानताएँ
    • असमान भाषायी अपेक्षाएँ: कामकाजी वर्ग के प्रवासियों से स्थानीय भाषाएँ सीखने की अपेक्षा की जाती है; कुलीन प्रवासियों (कॉरपोरेट, तकनीकी कर्मचारी) पर ऐसा कोई दबाव नहीं होता।
      • मेजबान राज्यों में वर्ग आधारित भाषायी आक्रोश पैदा होता है।
    • राजनीतिक शोषण: प्रवासी-विरोधी बयानबाजी प्रायः कमजोर बाहरी लोगों को निशाना बनाने के लिए ‘भाषा’ का प्रयोग करती है।
      • उदाहरण: मराठी ‘साइनेज’ के मुद्दे पर मुंबई में हिंदी भाषी दुकानदारों पर मनसे कार्यकर्ताओं द्वारा हमला।

भाषायी एकीकरण के लाभ

  • सामाजिक एकजुटता को मजबूत करता है: जब प्रवासी स्थानीय भाषाएँ अपनाते हैं, तो इससे सांस्कृतिक टकराव कम होता है और दैनिक विश्वास मजबूत होता है।
    • चेन्नई या बंगलूरू में तमिल/कन्नड़ बोलने वाले दूसरी पीढ़ी के प्रवासी बेहतर सामुदायिक बंधन बनाते हैं।
  • शहरी बहुभाषावाद को समृद्ध करता है: प्रवासी मिश्रित अभिव्यक्तियाँ, बोलचाल की भाषा और सांस्कृतिक मुहावरे अपनाते हैं, जिससे मेजबान भाषा समृद्ध होती है।
    • दखानी (हैदराबाद), बंबइया हिंदी (मुंबई) एकीकरण के भाषायी उत्पाद हैं।
  • आर्थिक भागीदारी को सशक्त बनाता है: भाषा प्रवाह स्थानीय रोजगार बाजारों, शासन प्रक्रियाओं और सार्वजनिक सेवाओं तक पहुँच खोलता है।
    • स्थानीय भाषा सीखने वाले प्रवासी ग्राहक सामना करने वाली और नागरिक भूमिकाओं में अधिक रोजगार योग्य होते हैं।
  • पारस्परिक सांस्कृतिक सम्मान को बढ़ावा देता है: भाषायी आदान-प्रदान मेजबान संस्कृति की सराहना को बढ़ावा देता है और भाषायी कट्टरता को कम करता है।
    • शौक के रूप में उर्दू सीखना (कला) और कन्नड़ भाषी क्षेत्रों में प्रवासी अनुकूलन।
  • प्रवासन, पहचान और भाषा की राजनीति: भाषा एकीकरण प्रवासी समुदायों के प्रति ‘बाहरी’ या ‘विदेशी’ होने की धारणा को कम करता है, जिससे वे स्थानीय समाज में सहज रूप से सम्मिलित हो पाते हैं और राजनीतिक स्तर पर उनका ‘अन्यीकरण’ किया जाता है या निशाना बनाया जाता है।
    • मराठी/कन्नड़ बोलने वाले प्रवासियों को मनसे जैसे राजनीतिक समूहों से कम विरोध का सामना करना पड़ता है।
  • सांस्कृतिक समन्वयता का निर्माण: मिश्रित भाषायी स्थान समावेशी शहरी संस्कृतियों को बढ़ावा देते हैं, जो संकीर्णतावाद से ऊपर उठती हैं।
    • मुंबई की बहुभाषी फिल्म, संगीत और सड़क संस्कृतियाँ गहन एकीकरण को दर्शाती हैं।

भारत की भाषायी धर्मनिरपेक्षता की विशेषताएँ

  • शासन में तटस्थता: केंद्र सरकार के कार्यों में राज्य-विशिष्ट आधिकारिक भाषाओं के साथ-साथ हिंदी और अंग्रेजी का प्रयोग भाषायी आधिपत्य से बचाता है।
    • उदाहरण: आधिकारिक दस्तावेज, संसदीय कार्यवाही और न्यायिक प्रक्रियाएँ हिंदी और अंग्रेजी दोनों का उपयोग करती हैं, राज्यों में क्षेत्रीय भाषाओं के लिए प्रावधान हैं।
  • भाषायी संघवाद: राज्यों का निर्माण मुख्यतः भाषायी आधार पर होता (राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956) है।
    • प्रत्येक राज्य अपनी आधिकारिक भाषाएँ चुनने के लिए स्वतंत्र है (उदाहरण के लिए, तमिलनाडु में तमिल, महाराष्ट्र में मराठी, जम्मू-कश्मीर में उर्दू और कश्मीरी)।
  • बहुभाषावाद को बढ़ावा: त्रि-भाषा फॉर्मूला (1968) क्षेत्रीय भाषा, हिंदी और अंग्रेजी (या किसी अन्य भारतीय भाषा) सीखने को प्रोत्साहित करता है, जिससे भाषायी विविधता के लिए पारस्परिक सम्मान को बढ़ावा मिलता है।
    • उदाहरण: गैर-हिंदी राज्यों के विद्यालय हिंदी को एक संपर्क भाषा के रूप में पढ़ाते हैं, जबकि हिंदी भाषी राज्यों में तमिल या बंगाली जैसी भाषाएँ शामिल हैं।
  • सांस्कृतिक संरक्षण: साहित्य अकादमी और केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थान (Central Institute of Indian Languages- CIIL) जैसी संस्थाएँ सभी भारतीय भाषाओं में साहित्य और शोध को बढ़ावा देती हैं, यह सुनिश्चित करते हुए कि कोई भी भाषा हाशिए पर स्थित न रहे।
    • शास्त्रीय भाषाओं (जैसे, तमिल, संस्कृत, कन्नड़, तेलुगु, मलयालम, उड़िया) को मान्यता देना भाषायी विरासत के प्रति सम्मान को रेखांकित करता है।
  • गौण भाषाओं का समावेश: लुप्तप्राय भाषाओं के संरक्षण और संरक्षण योजना (Scheme for Protection and Preservation of Endangered Languages- SPPEL) जैसी योजनाओं के माध्यम से लुप्तप्राय भाषाओं का दस्तावेजीकरण और संरक्षण करने के प्रयास।
    • उदाहरण: सांस्कृतिक क्षरण को रोकने के लिए बोडो, संथाली और ग्रेट अंडमानी जैसी भाषाओं को समर्थन।
  • हिंदी का गैर-अधिरोपण: स्वतंत्रता के बाद, राजभाषा अधिनियम, 1963 ने गैर-हिंदी भाषी राज्यों, विशेष रूप से दक्षिण भारत में, की चिंताओं को दूर करने के लिए हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी के निरंतर उपयोग को सुनिश्चित किया।
    • भाषायी नीति में लचीलापन भाषायी अंधराष्ट्रवाद को रोकता है और क्षेत्रीय आकांक्षाओं का सम्मान करता है।

भाषाई धर्मनिरपेक्षता के लिए चुनौतियाँ

  • हिंदी थोपे जाने की आशंकाएँ: हिंदी को बढ़ावा देने के समय-समय पर किए गए प्रयासों (जैसे- सरकारी साइनेज, शिक्षा में) का विरोध होता है, विशेषतः दक्षिण भारत और पूर्वोत्तर में, जहाँ क्षेत्रीय भाषाओं का प्रभाव है।
    • उदाहरण: हाल ही में महाराष्ट्र सरकार ने ‘त्रि-भाषा नीति’ पर सरकारी प्रस्तावों (Government Resolutions- GR) को निरस्त कर दिया है, जिससे प्राथमिक विद्यालयों में हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में लागू किया गया है।
  • अंग्रेजी का प्रभुत्व: एक वैश्विक और संपर्क भाषा के रूप में अंग्रेजी की भूमिका एक भाषायी पदानुक्रम का निर्माण करती है, जो अंग्रेजी भाषियों के अलावा अन्य आबादी को हाशिए पर धकेलती है और अवसरों तक उनकी पहुँच को सीमित करती है।
    • शहरी-ग्रामीण विभाजन: अंग्रेजी दक्षता प्रायः शहरी अभिजात वर्ग तक ही सीमित रहती है, जिससे भाषायी समानता कमजोर होती है।
  • छोटी भाषाओं का हाशिए पर स्थित होना: गैर-अनुसूचित भाषाओं और बोलियों को शिक्षा, मीडिया और शासन में उपेक्षा का सामना करना पड़ता है, जिससे भाषायी विविधता को खतरा होता है।
    • उदाहरण: तुलु, खासी और कोकबोरोक जैसी भाषाओं को पर्याप्त संस्थागत समर्थन का अभाव है।
  • क्षेत्रीय भाषायी अंधराष्ट्रवाद: कुछ राज्य अपनी क्षेत्रीय भाषा को सांस्कृतिक पहचान और प्रशासनिक प्राथमिकता के रूप में आगे बढ़ाते हैं, लेकिन इससे उन क्षेत्रों में रहने वाली भाषायी अल्पसंख्यकों की स्थिति कमजोर हो सकती है। 
    • उदाहरणस्वरूप, तमिलनाडु में हिंदी के प्रति प्रतिरोध या महाराष्ट्र में मराठी के संस्थागत प्रभुत्व के चलते गैर-स्थानीय भाषाभाषियों को सामाजिक और प्रशासनिक हाशिए पर धकेले जाने की आशंका बढ़ जाती है।
  • डिजिटल विभाजन: क्षेत्रीय भाषाओं में सीमित डिजिटल सामग्री, विशेष रूप से कम लोगों द्वारा प्रयुक्त भाषाओं के लिए, प्रौद्योगिकी और सूचना तक पहुँच को प्रतिबंधित करती है।

प्रमुख न्यायिक ऐतिहासिक मामले

  • डी.ए.वी. कॉलेज बनाम पंजाब राज्य (1971): सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि एक ही भाषा को लागू करना अनुच्छेद-29(1) और अनुच्छेद-30(1) का उल्लंघन है, क्योंकि यह भाषायी अल्पसंख्यकों के अपनी भाषा के संरक्षण और शैक्षणिक संस्थानों के संचालन के अधिकारों का उल्लंघन करता है।
  • टी.एम.ए. पाई फाउंडेशन बनाम कर्नाटक राज्य (2002): सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद-30(1) के तहत भाषायी अल्पसंख्यकों को उचित नियमों के अधीन, शिक्षण माध्यम के चयन सहित, शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और संचालन के अधिकार को बरकरार रखा।
  • अंग्रेजी माध्यम छात्र अभिभावक संघ बनाम कर्नाटक राज्य (1994): सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद-350A का हवाला देते हुए कहा कि माता-पिता को अपने बच्चों के लिए शिक्षा का माध्यम चुनने का अधिकार है, और राज्य एक ही भाषा नहीं थोप सकता।
  • उत्तर प्रदेश राजभाषा (संशोधन) अधिनियम मामला (2014): सर्वोच्च न्यायालय ने पुष्टि की कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद-345 किसी राज्य विधानमंडल को हिंदी के अलावा, राज्य में प्रचलित एक या एक से अधिक भाषाओं को आधिकारिक भाषाओं के रूप में अपनाने की अनुमति देता है।

सरकारी पहल

  • राष्ट्रीय शिक्षा नीति (National Education Policy- NEP) 2020: कक्षा 5 तक मातृभाषा आधारित शिक्षा को बढ़ावा देती है, जिससे भाषायी समावेशिता सुनिश्चित होती है।
    • भाषायी विभेदों को पाटने के लिए बहुभाषावाद को प्रोत्साहित करती है।
  • राजभाषा अधिनियम, 1963: केंद्र सरकार में हिंदी और अंग्रेजी के प्रयोग में संतुलन स्थापित करता है, साथ ही राज्यों में क्षेत्रीय भाषाओं के लिए प्रावधान करता है।
  • सांस्कृतिक संस्थान
    • साहित्य अकादमी: भाषायी विविधता को बढ़ावा देते हुए 24 भाषाओं में साहित्यिक योगदान को मान्यता प्रदान करती है।
    • केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थान (Central Institute of Indian Languages- CIIL): भारतीय भाषाओं के विकास हेतु अनुसंधान और प्रशिक्षण आयोजित करता है।
  • डिजिटल इंडिया और भारतनेट: क्षेत्रीय भाषाओं में डिजिटल सामग्री को बढ़ावा देना, सुगम्यता और समावेशिता को बढ़ाना।
  • शास्त्रीय भाषा का दर्जा: भाषायी विरासत को संरक्षित करने के लिए तमिल (2004), संस्कृत (2005) और अन्य भाषाओं को शास्त्रीय भाषाओं के रूप में मान्यता।

भारत में भाषा आंदोलन और संरक्षणवाद संबंधी केस स्टडीज

  • तमिलनाडु में हिंदी विरोधी आंदोलन (वर्ष 1937- 1940, वर्ष 1965): अनिवार्य हिंदी शिक्षा और इसे एकमात्र राजभाषा के रूप में थोपे जाने के विरुद्ध विरोध प्रदर्शन, जिसका नेतृत्व पेरियार (1930 के दशक में) और DMK (1965) ने किया।
    • परिणाम: हिंदी अधिदेश वापस लिया गया (1940); अंग्रेजी को एक सहयोगी राजभाषा के रूप में बरकरार रखा गया (1967)।
    • तमिलनाडु की द्वि-भाषा नीति (तमिल + अंग्रेजी) और तमिल सांस्कृतिक पहचान को सुदृढ़ किया गया।
  • गोवा में कोंकणी भाषा आंदोलन (वर्ष 1980-1987): मराठी प्रभुत्व के विरुद्ध कोंकणी को गोवा की आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता दिलाने के लिए आंदोलन।
    • परिणाम: कोंकणी को गोवा की आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता मिली (वर्ष 1987) और इसे आठवीं अनुसूची (1992) में शामिल किया गया।
  • असम में बोडो भाषा आंदोलन (वर्ष 1970-2003): असमिया प्रभुत्व के विरुद्ध बोडो को एक अलग भाषा के रूप में मान्यता दिलाने की माँग।
    • परिणाम: बोडो को आठवीं अनुसूची (वर्ष 2003) में शामिल किया गया और बोडोलैंड में एक सहयोगी आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता दी गई।

आगे की राह

  • बहुभाषी शिक्षा को सुदृढ़ बनाना: ‘त्रि-भाषा’ फॉर्मूला को समान रूप से लागू करना, क्षेत्रीय प्राथमिकताओं को समायोजित करने हेतु लचीलापन सुनिश्चित करना।
    • ऐसे पाठ्यक्रम विकसित करना, जिनमें गौण और संकटग्रस्त भाषाएँ शामिल हों।
  • भाषायी समावेशिता को बढ़ावा देना: भोजपुरी, तुलु और खासी जैसी भाषाओं को शामिल करने के लिए आठवीं अनुसूची का विस्तार करना, ताकि समान प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो सके।
    • गैर-अनुसूचित भाषाओं में साहित्य और मीडिया के लिए प्रोत्साहन प्रदान करना।
  • हिंदी थोपने संबंधी चिंताओं का समाधान: गैर-हिंदी भाषी राज्यों के साथ मिलकर यह सुनिश्चित करना कि भाषागत नीतियाँ समावेशी और सर्वमान्य हों।
    • क्षेत्रीय भाषाओं को कमजोर किए बिना हिंदी को एक संपर्क भाषा के रूप में बढ़ावा देना।
  • संकटग्रस्त भाषाओं का समर्थन: गौण भाषाओं के दस्तावेजीकरण और पुनरुद्धार के लिए SPPEL और इसी तरह की योजनाओं के लिए धन में वृद्धि करना।
    • मौखिक परंपराओं और बोलियों के संरक्षण के लिए समुदाय-नेतृत्व आधारित पहलों को प्रोत्साहित करना।
  • प्रौद्योगिकी का लाभ उठाना: संचार अंतराल को पाटने के लिए क्षेत्रीय भाषाओं के लिए AI-आधारित अनुवाद उपकरण और डिजिटल प्लेटफॉर्म विकसित करना।
    • डिजिटल विभाजन को कम करने के लिए स्थानीय भाषाओं में डिजिटल साक्षरता कार्यक्रमों का विस्तार करना।
  • सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देना: भारत की भाषायी विविधता का जश्न मनाने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर भाषायी उत्सव और कार्यक्रम आयोजित करना।
    • भाषाओं के प्रति आपसी सम्मान बढ़ाने के लिए अंतर-राज्यीय सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देना।

निष्कर्ष

भारत की भाषायी धर्मनिरपेक्षता इसकी बहुलवादी पहचान की आधारशिला है, जो यह सुनिश्चित करती है कि शासन, शिक्षा या संस्कृति में किसी भी भाषा को दूसरों पर विशेषाधिकार न दिया जाए। क्षेत्रीय प्रतिरोध, अंग्रेजी के प्रभुत्व और कम बोली जाने वाली भाषाओं के हाशिए पर होने जैसी चुनौतियों के बावजूद, संवैधानिक प्रावधान, नीतियाँ तथा साहित्य अकादमी जैसी संस्थाएँ भाषायी तटस्थता को बनाए रखती हैं।

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