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भारत में मलिन बस्तियाँ

Lokesh Pal July 30, 2025 02:59 23 0

संदर्भ 

मूडीज (Moody) की वर्ष 2024 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में बाढ़ के मैदानों में असुरक्षित बस्तियों में रहने वाले झुग्गीवासियों की संख्या विश्व में सर्वाधिक है, जिनमें से अधिकांश गंगा नदी के प्राकृतिक रूप से बाढ़-प्रवण डेल्टा में केंद्रित हैं।

अध्ययन के मुख्य निष्कर्ष

  • वैश्विक भेद्यता (Global Vulnerability): बाढ़ से प्रतिवर्ष 2.3 अरब से अधिक लोग प्रभावित होते हैं।
    • ग्लोबल साउथ’ में, 33% अनौपचारिक बस्तियाँ (445 मिलियन लोग, 9,08,077 परिवार, 67,568 समूह) बाढ़ के मैदानों में स्थित हैं।
  • भारत की भेद्यता
    • भारत में बाढ़-प्रवण क्षेत्रों में झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों की संख्या दुनिया भर में सर्वाधिक [158 मिलियन (रूस की आबादी से भी अधिक)] है।
    • अधिकतर झुग्गी-झोपड़ियाँ गंगा नदी के डेल्टा क्षेत्र में केंद्रित हैं, जो प्राकृतिक रूप से बाढ़-प्रवण क्षेत्र है।
    • सस्ती जमीन और आवास की वजह से झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों की बाढ़ के मैदानों में बसने की संभावना 32% अधिक होती है।
  • क्षेत्रीय हॉटस्पॉट: दक्षिण एशियाई देश (भारत, इंडोनेशिया, बांग्लादेश, पाकिस्तान) बाढ़ के मैदानों में झुग्गी-झोपड़ियों की आबादी के मामले में सबसे आगे हैं। अन्य हॉटस्पॉट में रवांडा, उत्तरी मोरक्को और तटीय रियो डी जेनेरो शामिल हैं।
  • शहरीकरण प्रतिरूप
    • लैटिन अमेरिका और कैरेबियन: 80% शहरीकरण, 60% अनौपचारिक बस्तियाँ शहरी क्षेत्रों में हैं।
    • उप-सहारा अफ्रीका: सबसे कम शहरीकरण, 63% अनौपचारिक बस्तियाँ ग्रामीण हैं।
    • भारत: शहरी/उपनगरीय क्षेत्रों में 40% झुग्गी-झोपड़ियाँ हैं।

भारत में मलिन बस्तियाँ

  • यूएन-हैबिटैट (UN-HABITAT) के अनुसार, झुग्गी-झोपड़ी वाले परिवार की परिभाषा शहरी क्षेत्र में एक ही छत के नीचे रहने वाले व्यक्तियों के समूह के रूप में की जाती है, जिनमें निम्नलिखित में से एक या अधिक का अभाव होता है:
    • स्थायी आवास, जो चरम जलवायु परिस्थितियों से सुरक्षा प्रदान करता है।
    • पर्याप्त रहने की जगह, अर्थात् एक ही कमरे में तीन से अधिक लोग न रहते हों।
    • वहनीय दामों पर पर्याप्त मात्रा में सुरक्षित जल की आसान पहुँच हो।
    • उचित संख्या में लोगों द्वारा साझा किए जाने वाले निजी या सार्वजनिक शौचालय के रूप में पर्याप्त स्वच्छता की सुविधा होनी चाहिए।
    • जबरन बेदखली को रोकने हेतु भूमि संबंधी सुरक्षा।
  • स्लम क्षेत्र (सुधार और निकासी) अधिनियम, 1956 (Slum Areas (Improvement and Clearance) Act, 1956) के तहत, “स्लम क्षेत्र” को एक आवासीय क्षेत्र के रूप में परिभाषित किया गया है, जिन्हें जीर्ण-शीर्ण इमारतें, रोशनी, वेंटिलेशन और स्वच्छता जैसी आवश्यक सुविधाओं की कमी के कारण मानव निवास के लिए अनुपयुक्त माना जाता है।
  • मानक
    • वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, 2,543 शहरों में 65.5 मिलियन लोग (शहरी आबादी का 17%) झुग्गी-झोपड़ियों में रहते हैं।
    • मुंबई: भारत की झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाली आबादी का 41%; कोलकाता: झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाली शहरी आबादी का 32%
  • शहरीकरण: भारत की शहरीकरण दर वर्ष 2011 में 31% थी, जिसके वर्ष 2030 तक 40% तक पहुँचने का अनुमान है, जिससे अनियोजित शहरी विस्तार के कारण झुग्गी-झोपड़ियों का प्रसार बढ़ रहा है।

भारत में मलिन बस्तियों के विकास के लिए जिम्मेदार कारक

  • तीव्र शहरीकरण: शहरीकरण के कारण शहरों में भीड़भाड़ बढ़ जाती है, जिसके परिणामस्वरूप झुग्गी-झोपड़ियों का निर्माण होता है।
    • वर्ष 2011 में, भारत की 34.5% आबादी शहरी क्षेत्रों में रहती थी, जिससे मुंबई और दिल्ली जैसे शहरों में झुग्गी-झोपड़ियों की संख्या में वृद्धि हुई।
  • उच्च जनसंख्या वृद्धि: जनसंख्या विस्फोट से आवास पर दबाव बढ़ता है, जिससे झुग्गी-झोपड़ियों की संख्या में वृद्धि होती है।
    • भारत की जनसंख्या वार्षिक रूप से 1.2% की दर से बढ़ी, और वर्ष 2011 तक 6.55 करोड़ लोग झुग्गी-झोपड़ियों में रहते थे।
  • वहनीय आवास की कमी: वहनीय आवास की कमी के कारण कम आय वाले लोग अनौपचारिक क्षेत्रों में बसने को मजबूर हैं।
    • प्रधानमंत्री आवास योजना (Pradhan Mantri Awas Yojana) का लक्ष्य 2 करोड़ घरों का निर्माण है, फिर भी माँग पूरी नहीं हो पा रही है।
  • गरीबी और सामाजिक-आर्थिक कमजोरी: आर्थिक तंगी के कारण निम्न-आय वर्ग के लोग झुग्गी-झोपड़ियों में रहने को मजबूर हैं।
    • शहरों में निर्माण कार्य में सलग्न लगभग 90% श्रमिक कम वेतन के कारण झुग्गी-झोपड़ियों में रहते हैं।
  • अपर्याप्त शहरी नियोजन और प्रशासन: खराब शहरी नियोजन के कारण अनौपचारिक बस्तियों का अनियंत्रित विकास होता है।
    • पारंपरिक और अकुशल नियोजन के कारण बंगलूरू और कोलकाता जैसे शहरों में झुग्गी-झोपड़ियाँ हैं।
  • आजीविका के अवसरों के लिए प्रवास: कार्य की तलाश में ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों की ओर पलायन के कारण झुग्गी-झोपड़ियों का निर्माण होता है।
    • उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों से आने वाले प्रवासी मुंबई जैसे शहरों में झुग्गी-झोपड़ियों के विकास में योगदान करते हैं।
  • भूमि बाजार और रियल एस्टेट की गतिशीलता: भूमि की बढ़ती कीमतें निम्न-आय वर्ग के लोगों को बाढ़-प्रवण क्षेत्रों में धकेल रही हैं।
    • मुंबई की सबसे बड़ी झुग्गी बस्ती धारावी, पुनर्विकास प्रयासों के बावजूद, रियल एस्टेट के दबाव का सामना कर रही है।

बाढ़ के मैदानों के बसावट के कारण

  • सामाजिक-आर्थिक कारक
    • आर्थिक बाधाएँ: बाढ़ के मैदान वहनीय भूमि/आवास उपलब्ध कराते हैं, जिससे कम आय वाले परिवार (जैसे- मुंबई, जकार्ता) आकर्षित होते हैं।
    • नौकरियों तक पहुँच: शहरी केंद्रों से निकटता बाढ़-प्रवण क्षेत्रों की ओर पलायन को बढ़ावा देती है।
    • सामाजिक भेद्यता: शिक्षा, संसाधनों और संस्थागत समर्थन की कमी से बाढ़ का जोखिम बढ़ जाता है।
  • भौगोलिक कारक: भारत और बांग्लादेश में गंगा-ब्रह्मपुत्र डेल्टा निचले क्षेत्र में अवस्थित है और प्राकृतिक रूप से बाढ़ की चपेट में है।
    • बड़ी आबादी असुरक्षित बस्तियों की संख्या को और बढ़ा देती है।
  • समृद्ध क्षेत्रों के साथ तुलना: यूरोप में, बाढ़ के मैदानों में बस्तियाँ को वांछनीय स्थानों (जैसे- समुद्र तट) पर सब्सिडी के माध्यम से प्रबंधित किया जाता है।
    • ग्लोबल साउथ’ में बुनियादी ढाँचे (तटबंध, जल निकासी) की कमी और सस्ती जमीन के कारण गरीब लोग उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में चले जाते हैं।

भारत में झुग्गी-झोपड़ी निवासियों के सामने आने वाली चुनौतियाँ

  • बुनियादी सुविधाओं तक पहुँच का अभाव: झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों को प्रायः स्वच्छ जल, स्वच्छता और बिजली जैसी आवश्यक सेवाओं तक पहुँच नहीं होती है।
    • कई झुग्गी-झोपड़ियों में, केवल 40-50% घरों में ही पाइप से जल और उचित स्वच्छता की सुविधा उपलब्ध है, जिससे स्वास्थ्य संबंधी गंभीर जोखिम पैदा होते हैं।
  • खराब आवास और भीड़भाड़: झुग्गी-झोपड़ियों में आवास आमतौर पर अस्थायी और खराब गुणवत्ता के होते हैं, जैसे टिन के शेड या प्लास्टिक के टेंट, जो प्राकृतिक आपदाओं के प्रति संवेदनशील होते हैं।
    • भीड़भाड़ सामान्य है, जहाँ प्रति कमरे में 3-4 लोग रहते हैं, जिससे आवासीय स्थिति खराब होती है और तपेदिक जैसी बीमारियों का प्रसार बढ़ता है।
  • अपर्याप्त स्वच्छता और अपशिष्ट प्रबंधन: कई झुग्गी-झोपड़ियों में उचित सीवेज सिस्टम का अभाव है, जिससे निवासियों को खुले में शौच और अव्यवस्थित अपशिष्ट निपटान करना पड़ता है।
    • धारावी जैसे क्षेत्रों में, प्रति 1,440 लोगों पर एक शौचालय है, जिससे स्वच्छता संबंधी समस्याएँ और भी बदतर हो जाती हैं।
    • खराब जल निकासी और आर्द्रभूमि पर अतिक्रमण कोलकाता जैसे शहरों में बाढ़ के जोखिम को बढ़ा देते हैं।
  • स्वास्थ्य सेवाओं तक सीमित पहुँच: झुग्गी-झोपड़ियों में स्वास्थ्य सेवाएँ प्रायः अपर्याप्त होती हैं, जिससे निवासियों की चिकित्सा सेवाओं तक पहुँच सीमित हो जाती है।
    • रिपोर्टों के अनुसार, कि 50% झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों के पास स्वास्थ्य सेवाओं तक आसान पहुँच नहीं है, जिससे मातृ एवं शिशु मृत्यु दर उच्च है।
  • अनिश्चित रोजगार और आजीविका: अधिकतर झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोग अनौपचारिक क्षेत्र में कार्य करते हैं, जहाँ उन्हें कम वेतन, नौकरी की अनिश्चितता और खराब कामकाजी परिस्थितियाँ मिलती हैं।
    • वे मुख्य रूप से निर्माण, घरेलू कार्य या स्ट्रीट वेंडर्स के रूप में कार्य करते हैं, जहाँ उन्हें शोषण और सामाजिक सुरक्षा का अभाव झेलना पड़ता है।
  • सामाजिक बहिष्कार और भेदभाव: झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों को सामाजिक उपेक्षा का सामना करना पड़ता है और प्रायः उनकी आर्थिक और जीवन स्थितियों के कारण उन्हें मुख्यधारा के समाज से अलग कर दिया जाता है।
    • हाशिए पर स्थित समूहों, विशेषतः दलितों और महिलाओं को जाति तथा लैंगिक आधार पर अतिरिक्त भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
  • प्राकृतिक आपदाओं और बेदखली के प्रति संवेदनशीलता: झुग्गी-झोपड़ियाँ प्रायः बाढ़-प्रवण या भूकंप-प्रवण क्षेत्रों में स्थित होती हैं, जिससे वे प्राकृतिक आपदाओं के प्रति संवेदनशील हो जाती हैं।
    • इसके अतिरिक्त, झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले कई लोग बिना किसी सुरक्षा के रहते हैं, जिससे उन्हें अधिकारियों द्वारा जबरन बेदखल किए जाने का खतरा बना रहता है, क्योंकि उनके पास प्रायः जमीन के कानूनी अधिकार नहीं होते।
  • जलवायु परिवर्तन का प्रभाव: गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना नदियों में बाढ़ के प्रवाह में अनुमानित वृद्धि: वर्ष 1986-2005 की तुलना में 8% (1.5°C), 24% (2°C), 63% (4°C)

भारत में स्लम पुनर्विकास की चुनौतियाँ

  • भूमि स्वामित्व और कानूनी मुद्दे: कई झुग्गीवासियों के पास जमीन का कानूनी हक नहीं होता है, जिससे बेदखली, पुनर्वास और पुनर्विकास की प्रक्रिया में बाधा आ रही है। इससे प्रायः विवाद और देरी होती है।
    • उदाहरण के लिए, बॉम्बे उच्च न्यायालय ने हाल ही में मुंबई विश्वविद्यालय के लिए अधिग्रहीत भूमि पर झुग्गी पुनर्वास प्राधिकरण (Slum Rehabilitation Authority- SRA) की एक परियोजना पर रोक लगा दी, जिसमें अतिक्रमण और अस्पष्ट भूमि स्वामित्व के मुद्दों को उजागर किया गया।
  • वित्तीय बाधाएँ: झुग्गी पुनर्विकास के लिए महत्त्वपूर्ण निवेश की आवश्यकता होती है, लेकिन प्रायः धन अपर्याप्त होता है और निजी निवेशक कम रिटर्न और संभावित जोखिमों के कारण इसमें भाग लेने से हिचकिचाते हैं।
  • झुग्गीवासियों का प्रतिरोध: झुग्गी-झोपड़ी निवासी प्रायः सामुदायिक संबंधों, आजीविका और सांस्कृतिक पहचान के नुकसान के कारण स्थानांतरण का विरोध करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप सामाजिक अशांति और कानूनी चुनौतियाँ पैदा होती हैं।
  • अपर्याप्त बुनियादी ढाँचा: पुनर्विकास के बाद भी, झुग्गी-झोपड़ियों में बुनियादी स्वच्छता, जल आपूर्ति और जल निकासी व्यवस्था का अभाव हो सकता है, जो आवास परियोजनाओं की प्रभावशीलता को कमजोर करता है।
    • दिल्ली में, शहरी गरीबों के लिए प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत बनाए गए लगभग 47% घर जल की आपूर्ति और स्वच्छता जैसी बुनियादी सुविधाओं के अभाव के कारण खाली पड़े हैं।
  • राजनीतिक और नौकरशाही विलंब: राजनीतिक हस्तक्षेप और नौकरशाही की अक्षमताएँ पुनर्विकास प्रक्रिया को धीमा कर देती हैं, स्थानीय राजनीतिक शक्तियाँ प्रायः मतदाताओं की चिंताओं के कारण बदलावों का विरोध करती हैं।
  • जनजातीयकरण और विस्थापन: पुनर्विकास से जनजातीयकरण हो सकता है, जहाँ धनी निवासी मूल झुग्गी निवासियों का स्थान ले लेते हैं, जिससे विस्थापन होता है और सामाजिक असमानता बढ़ती है।
    • महाराष्ट्र सरकार और अडानी समूह के बीच एक संयुक्त उद्यम, धारावी पुनर्विकास परियोजना (Dharavi Redevelopment Project) के तहत, मुंबई की धारावी झुग्गी बस्ती के लगभग 1,00,000 निवासियों को अत्यधिक विषैले ‘देवनार डंपिंग ग्राउंड’ में स्थानांतरित किया जाना है।

भारत में मलिन बस्ती विकास के लिए सरकारी पहल और नीतियाँ

  • स्लम क्षेत्र (सुधार एवं निकासी) अधिनियम, 1956: इस आधारभूत कानून नेस्लम उन्मूलन’ के बजाय सुधार की ओर रुख अपनाया और स्लम बस्तियों को विकास की आवश्यकता वाले क्षेत्रों के रूप में मान्यता दी। इसका उद्देश्य जीवन स्तर में सुधार और किरायेदारों को बेदखली से बचाने के लिए कानूनी ढाँचा प्रदान करना था।
  • प्रधानमंत्री आवास योजना (Pradhan Mantri Awas Yojana- PMAY): वर्ष 2015 में शुरू की गई, PMAY का उद्देश्य वर्ष 2022 तक स्लमवासियों सहित सभी के लिए वहनीय आवास उपलब्ध कराना है।
    • इस योजना का लक्ष्य शहरी गरीबों के लिए 2 करोड़ घरों का निर्माण करना है, जिसमें स्लम पुनर्वास और बुनियादी सुविधाएँ प्रदान करने पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा।
  • राष्ट्रीय स्लम विकास कार्यक्रम (National Slum Development Programme- NSDP): वर्ष 1996 में शुरू की गई, NSDP का उद्देश्य स्लम क्षेत्रों में जल आपूर्ति, स्वच्छता और जल निकासी जैसी बुनियादी सेवाएँ प्रदान करना है।
    • यह भारत भर की स्लम बस्तियों में आश्रय और सामुदायिक बुनियादी ढाँचे के सुधार में भी सहायता करता है।
  • वाल्मीकि अंबेडकर मलिन बस्ती आवास योजना (Valmiki Ambedkar Malin Basti Awas Yojana- VAMBAY): वर्ष 2001 में शुरू की गई, VAMBAY का उद्देश्य झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों, विशेषतः हाशिए पर रहने वाले समुदायों को आवास उपलब्ध कराना था।
    • यह योजना शहरी झुग्गी-झोपड़ियों में घरों और बुनियादी ढाँचे के निर्माण के लिए सब्सिडी प्रदान करती है।
  • अटल कायाकल्प और शहरी परिवर्तन मिशन (Atal Mission for Rejuvenation and Urban Transformation- AMRUT): वर्ष 2015 में शुरू की गई, AMRUT विशेष रूप से झुग्गी-झोपड़ियों वाले क्षेत्रों में जलापूर्ति, सीवरेज और शहरी परिवहन जैसे शहरी बुनियादी ढाँचे के विकास पर केंद्रित है।
    • इसका उद्देश्य झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों सहित सभी नागरिकों को बुनियादी सेवाएँ प्रदान करके शहरों में जीवन की गुणवत्ता में सुधार करना है।
  • स्मार्ट सिटी मिशन: वर्ष 2015 में शुरू की गई, स्मार्ट सिटी मिशन का उद्देश्य शहरों को अधिक सतत् और समावेशी बनाना है।
    • झुग्गी-झोपड़ियों का पुनर्विकास एक प्रमुख घटक है, क्योंकि इसका उद्देश्य शहरी नवीनीकरण प्रक्रिया के हिस्से के रूप में झुग्गी-झोपड़ियों वाले क्षेत्रों में बुनियादी ढाँचे में सुधार और गुणवत्तापूर्ण आवास प्रदान करना है।

भारत में झुग्गी-झोपड़ी विकास और बाढ़ की संवेदनशीलता के लिए आगे की राह

  • उन्नत स्लम पुनर्विकास नीतियाँ: आवास, बुनियादी ढाँचे और बाढ़ के प्रति लचीलेपन में सुधार पर केंद्रित अधिक लक्षित स्लम पुनर्विकास नीतियों को लागू करना।
    • इसमें सतत् शहरी नियोजन तकनीकों का उपयोग और स्लम पुनर्वास को प्राथमिकता देना शामिल है।
  • किफायती आवास पहल: बाढ़-प्रवण क्षेत्रों में अधिक वहनीय आवास और बुनियादी ढाँचा प्रदान करने के लिए प्रधानमंत्री आवास योजना (Pradhan Mantri Awas Yojana- PMAY) जैसी योजनाओं का विस्तार करना, यह सुनिश्चित करते हुए कि ये घर जलवायु-प्रतिरोधी हों।
  • बाढ़ अनुकूलन और लचीलापन रणनीतियाँ: प्राकृतिक आपदाओं से संवेदनशील स्लम क्षेत्रों की रक्षा के लिए जल निकासी प्रणालियों, तटबंधों और तूफानी जल प्रबंधन में सुधार करके बाढ़ शमन रणनीतियों पर ध्यान केंद्रित करना।
  • व्यापक डेटा और कमजोरियों का मानचित्रण: बाढ़ की आशंका वाले उच्च-जोखिम वाले स्लम क्षेत्रों की पहचान करने के लिए उपग्रह डेटा और उन्नत मानचित्रण उपकरणों का उपयोग करना, जिससे लक्षित हस्तक्षेप और तैयारी के उपाय संभव हो सके।
  • नियोजन में सामुदायिक भागीदारी में वृद्धि: शहरी नियोजन और बाढ़ प्रतिरोधक रणनीतियों में झुग्गी-झोपड़ी समुदायों को शामिल करना, यह सुनिश्चित करते हुए कि उनकी आवश्यकताओं और दृष्टिकोणों को निर्णय लेने में, विशेष रूप से पुनर्विकास परियोजनाओं में, शामिल किया जाए।
  • स्थायी आजीविका को बढ़ावा: झुग्गी-झोपड़ी निवासियों के लिए बेहतर आजीविका के अवसर सृजित करना, औपचारिक रोजगार, कौशल विकास और वित्तीय सहायता तक उनकी पहुँच पर ध्यान केंद्रित करना ताकि गरीबी तथा सामाजिक-आर्थिक असमानताओं के प्रति उनकी संवेदनशीलता कम हो सके।
  • भूमि स्वामित्व के लिए कानूनी ढाँचे को सुदृढ़ बनाना: झुग्गी-झोपड़ी निवासियों को कानूनी भूमि स्वामित्व प्रदान करना ताकि स्वामित्व की सुरक्षा सुनिश्चित हो, उन्हें जबरन बेदखली से बचाया जा सके और उन्हें सरकारी योजनाओं तथा सुरक्षाओं तक पहुँच प्राप्त करने में सक्षम बनाया जा सके।

निष्कर्ष 

भारत के बाढ़-प्रवण क्षेत्रों, विशेष रूप से गंगा-ब्रह्मपुत्र डेल्टा में, 158 मिलियन झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोग, तेजी से हो रहे शहरीकरण, गरीबी और जलवायु परिवर्तन के कारण गंभीर संकटों का सामना कर रहे हैं। सतत् शहरी विकास के लिए लचीले बुनियादी ढाँचे, किफायती आवास और सामुदायिक भागीदारी को एकीकृत करने वाली व्यापक नीतियाँ अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं।

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