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महाराष्ट्र का विशेष जन सुरक्षा विधेयक

Lokesh Pal July 30, 2025 03:05 19 0

संदर्भ

हाल ही में महाराष्ट्र ने ‘शहरी नक्सलवाद’ का मुकाबला करने के लिए विशेष जन सुरक्षा विधेयक पारित किया, जिसकी अस्पष्टता और संभावित रूप से दमनकारी होने के कारण इसकी आलोचना हुई।

विधेयक के प्रमुख प्रावधान

  • नक्सली समूहों के अग्रणी संगठनों पर निशाना: यह विधेयक उन शहरी नक्सली समूहों की बढ़ती उपस्थिति को संबोधित करने का दावा करता है, जो महाराष्ट्र के शहरी क्षेत्रों में लॉजिस्टिक सहायता और आश्रय प्रदान कर सशस्त्र कैडरों का समर्थन करते हैं।
  • संगठनों को ‘गैर-कानूनी’ घोषित करना: सरकार को किसी भी संगठन को गैर-कानूनी घोषित करने का अधिकार है यदि उसे संदेह है कि वह सार्वजनिक सुरक्षा के लिए खतरा है।
  • अनिश्चितकालीन प्रतिबंध: विधेयक संगठनों पर प्रतिबंधों को अनिश्चित काल तक बढ़ाने की अनुमति देता है, जिसकी अवधि की कोई निर्दिष्ट सीमा नहीं है, जिससे अनियंत्रित कार्यकारी शक्ति के बारे में चिंताएँ उत्पन्न होती हैं।
  • सीमित न्यायिक निगरानी: इस विधेयक के अधिकार क्षेत्र से निचली अदालतों को बाहर रखा गया है, जिससे इसके प्रावधानों से प्रभावित व्यक्तियों या अभियुक्तों के लिए त्वरित और सुलभ न्यायिक राहत की संभावनाएँ सीमित हो जाती हैं।
  • सद्भावना संरक्षण: यह विधेयक के प्रावधानों के तहत कार्य करने वाले राज्य के अधिकारियों को पूर्ण कानूनी छूट प्रदान करता है।
  • अन्य राज्यों में समान कानून: महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और ओडिशा के साथ मिलकर एक विशेष जन सुरक्षा अधिनियम लागू कर रहा है।
    • हालाँकि, नागरिक अधिकार समूहों का तर्क है कि ये कानून विधिविरुद्ध क्रिया-कलाप (निवारण) अधिनियम जैसे सख्त राष्ट्रीय कानून के अस्तित्व में आने से पहले बनाए गए थे।

शहरी नक्सलवाद क्या है?

  • शहरी नक्सली’ शब्द का प्रयोग उन व्यक्तियों के लिए किया जाता है, जो शहरी क्षेत्रों में रहकर सक्रियता, बौद्धिक समर्थन के माध्यम से नक्सली विचारधारा का समर्थन और प्रचार करते हैं; इसके विपरीत, ‘सक्रिय नक्सली’ वनों तथा माओवादी-प्रभावित क्षेत्रों में प्रत्यक्ष सशस्त्र संघर्ष में संलग्न रहते हैं।
  • उत्पत्ति: ‘शहरी नक्सली’ शब्द, जो विशेष रूप से वर्ष 2018 के बाद व्यापक रूप से लोकप्रिय हुआ, का पहला प्रमुख प्रयोग महाराष्ट्र में एल्गार परिषद मामले से संबद्ध वामपंथी कार्यकर्ताओं एवं उदार विचारधारा से जुड़े व्यक्तियों पर की गई कार्रवाई के संदर्भ में हुआ। इसके पश्चात् यह शब्द प्रायः सत्ता-विरोधी प्रदर्शनकारियों तथा असहमति प्रकट करने वाले अन्य नागरिकों के लिए प्रयुक्त होने लगा।
    • यह जाँच 1 जनवरी, 2018 को हुई भीमा कोरेगाँव हिंसा से संबंधित दो सक्रिय मामलों में से एक है।

भारत में नक्सलवाद की उत्पत्ति

  • शब्द: ‘नक्सलवाद’ शब्द पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गाँव से लिया गया है।
  • भारत में विकास: भारत में नक्सलवाद की उत्पत्ति भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) से अलग हुए एक उग्रवादी गुट के रूप में हुई, जब पार्टी के एक छोटे लेकिन कट्टरपंथी समूह ने बड़े भू-स्वामियों और सत्ता प्रतिष्ठान के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष का निर्णय लिया।
  • चारु मजूमदार, कानू सान्याल और जगन संथाल के नेतृत्व में वर्ष 1967 में शुरू हुए इस विद्रोह का उद्देश्य मेहनती किसानों को भूमि का पुनर्वितरण करना था।
  • नक्सलवादी आंदोलन का प्रसार: पश्चिम बंगाल में प्रारंभ हुआ यह आंदोलन तब से पूर्वी भारत में, विशेष रूप से छत्तीसगढ़, ओडिशा और आंध्र प्रदेश जैसे अल्प विकसित क्षेत्रों में विस्तृत हो गया है।

गैर-कानूनी गतिविधियाँ

  • कोई भी मौखिक, लिखित या प्रतीकात्मक कार्य, जो सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित करे, सार्वजनिक चिंता उत्पन्न करे या सार्वजनिक शांति के उल्लंघन का कारण बने।
    • उदाहरण: सरकार और उसके निकायों के विरुद्ध व्हाट्सऐप पर ऐसे संदेश भेजना और वितरित करना, जिनसे दंगा या अशांति उत्पन्न हो सकती है।
  • कानूनी प्रावधान: भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023 की धारा 150 उस अपराध से संबंधित है, जिसमें कोई व्यक्ति भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध छेड़ने की योजना को सुगम बनाने के उद्देश्य से किसी तथ्य को जानबूझकर छिपाता है।

अग्रणी संगठन (Frontal Organisations)

  • ये गैर-सशस्त्र, भूमिगत संगठन हैं, जो कथित तौर पर चरमपंथी या प्रतिबंधित समूहों से जुड़े हैं और उन्हें सैन्य या वैचारिक सहायता प्रदान करते हैं।
  • कानूनी कमियाँ: भारतीय कानून में कोई मानक कानूनी परिभाषा नहीं है, जिससे इसकी मनमानी व्याख्या होने का खतरा बना रहता है।

सार्वजनिक व्यवस्था

  • सार्वजनिक व्यवस्था किसी समुदाय के भीतर शांति, सुरक्षा और अच्छे आचरण की सामान्य स्थिति को संदर्भित करती है, जो यह सुनिश्चित करती है कि लोग बिना किसी व्यवधान या भय के सौहार्दपूर्वक रह सकें।
  • संवैधानिक प्रावधान: संविधान के अनुच्छेद-19(2) के तहत, राज्य सार्वजनिक व्यवस्था के हित में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर युक्तियुक्त  प्रतिबंध लगा सकता है।

प्रावधानों की आलोचना

  • अस्पष्ट परिभाषाएँ: “गैर-कानूनी गतिविधि” और “सार्वजनिक व्यवस्था” जैसे शब्दों को शिथिल रूप से परिभाषित किया गया है, जिससे व्यक्तिपरक व्याख्या और संभावित दुरुपयोग की संभावना बढ़ जाती है।
  • न्यायिक निगरानी को सीमित करता है: निचली अदालतों को इससे बाहर रखने से प्रभावित लोगों के लिए सुलभ कानूनी उपाय सीमित हो जाते हैं।
  • प्रतिबंधों की कोई समय-सीमा नहीं: आवधिक समीक्षा के बिना संगठनों पर अनिश्चितकालीन प्रतिबंध लगाने से वैध संगठनों का लंबे समय तक दमन हो सकता है।
  • अधिकारियों के लिए उन्मुक्ति: “सद्भावना” से की गई कार्रवाइयों के लिए व्यापक सुरक्षा प्रदान करना जवाबदेही को कमजोर करता है।
  • असहमति का दमन: यह विधेयक वैध असहमति, सक्रियता और विरोध को आपराधिक बनाने का जोखिम उठाता है, जिससे अनुच्छेद-19 के तहत अधिकारों का उल्लंघन होता है।

आगे की राह

  • मौजूदा कानूनी ढाँचों का उपयोग करना: अतिव्यापी कानून बनाने के बजाय UAPA और IPC/BNS प्रावधानों को लागू करना।
    • UAPA के मामले में मनमानी से बचने के लिए विशेष एजेंसियों के माध्यम से सख्त कानून लागू किए जाने चाहिए, जैसा कि गृह मंत्रालय द्वारा राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (NIA) और राज्य सरकारों के साथ मिलकर लागू किया जाता है।
  • न्यायिक सुरक्षा उपाय सुनिश्चित करना: निचली अदालतों के अधिकार क्षेत्र को बहाल करना और प्रतिबंधों की समय-समय पर समीक्षा की सुविधा प्रदान करना।
  • व्यापक सार्वजनिक और विधायी परामर्श: खुले विचार-विमर्श के माध्यम से नागरिक समाज और कानूनी विशेषज्ञों से प्राप्त प्रतिक्रिया को शामिल करना।
  • स्पष्ट और संकीर्ण परिभाषाएँ: मनमाने या राजनीतिक रूप से प्रेरित प्रवर्तन को रोकने के लिए शब्दों को सटीक रूप से परिभाषित करना।

निष्कर्ष

यद्यपि सरकार का दावा है कि यह विधेयक सार्वजनिक सुरक्षा के लिए आवश्यक है, लेकिन इसके व्यापक और अस्पष्ट प्रावधानों से संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक स्वतंत्रताओं पर अंकुश लगने का खतरा है।

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