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राज्यपाल द्वारा विधेयकों के लिए स्वीकृति और न्यायिक अतिक्रमण

Lokesh Pal August 19, 2025 03:47 8 0

संदर्भ

राज्य विधानसभाओं द्वारा प्रस्तुत विधेयकों पर कार्रवाई करने के लिए राष्ट्रपति एवं राज्यपालों के लिए समयसीमा तय करने के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का विरोध करते हुए, केंद्र सरकार ने कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के पृथक्करण को रेखांकित किया है, और कहा है कि इस निर्णय से ‘राज्य के अंगों के बीच संवैधानिक संतुलन अस्थिर’ होने की संभावना है।

मामले की पृष्ठभूमि

  • सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय (8 अप्रैल, 2025): न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की दो न्यायाधीशों की पीठ ने निर्णय दिया कि राज्यपालों को एक निश्चित समय के भीतर विधेयकों पर निर्णय लेना होगा और वे राज्य मंत्रिमंडल की सहायता तथा सलाह के विरुद्ध विवेकाधिकार का प्रयोग नहीं कर सकते हैं।
  • मान्य स्वीकृति प्रावधान: न्यायालय ने विलंबित विधेयकों को ‘मान्य स्वीकृति’ प्रदान करने के लिए अनुच्छेद-142 का प्रयोग किया तथा राष्ट्रपति को राज्यपालों द्वारा भेजे गए विधेयकों पर तीन महीने के भीतर निर्णय लेने का निर्देश भी दिया।
  • राष्ट्रपति के संदर्भ में (मई 2025): इस निर्णय के बाद, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने अनुच्छेद-143 (सलाहकार क्षेत्राधिकार) के तहत पाँच न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ को 14 प्रश्न भेजे, जिसमें पूछा गया कि क्या संवैधानिक प्राधिकारियों पर ऐसी समय सीमाएँ लागू की जा सकती हैं?

केंद्र सरकार द्वारा उठाई गई प्रमुख चिंताएँ

  • शक्तियों के पृथक्करण का उल्लंघन: सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने तर्क दिया कि न्यायपालिका द्वारा लगाई गई समय सीमाएँ प्रभावी रूप से संविधान में संशोधन करती हैं और कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच संतुलन को बिगाड़ती हैं।
  • सहमति की गैर-न्यायसंगत प्रकृति: केंद्र सरकार ने रेखांकित किया कि अनुच्छेद-200 के तहत राज्यपाल की सहमति और अनुच्छेद-201 के तहत राष्ट्रपति की सहमति, पूर्ण और गैर-न्यायसंगत शक्तियाँ हैं, जो न्यायिक हस्तक्षेप से मुक्त हैं।
  • राष्ट्रीय प्रतिनिधि के रूप में राज्यपाल: प्रस्तुतिकरण में इस बात पर जोर दिया गया कि राज्यपाल ‘कोई बाहरी व्यक्ति’ नहीं हैं, बल्कि राष्ट्रीय लोकतांत्रिक इच्छा के प्रतिनिधि हैं, जिन्हें मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है।
  • सहमति की दोहरी प्रकृति: राज्यपाल की सहमति की दोहरी प्रकृति होती है, हालाँकि यह एक कार्यकारी कार्य है, लेकिन इसका परिणाम विधायी होता है।
    • इसलिए, न्यायिक रूप से निर्धारित समय सीमाएँ विधायी प्रक्रिया को विकृत कर सकती हैं।
  • स्पष्ट समय सीमाओं का अभाव: अनुच्छेद-200 और अनुच्छेद-201 में समय सीमाओं का अभाव एक जानबूझकर किए गए संवैधानिक विकल्प को दर्शाता है। न्यायिक रूप से समयबद्ध प्रक्रियाओं का निर्माण संसद के अधिकार क्षेत्र से बाहर एक संवैधानिक संशोधन के समान है।

शक्तियों के पृथक्करण के बारे में

  • शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत यह सुनिश्चित करता है कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका अपने-अपने अधिकार क्षेत्रों में कार्य संपादित करें, जिससे किसी एक अंग में सत्ता का संकेंद्रण न हो।
  • संवैधानिक प्रावधान: यद्यपि भारत का संविधान स्पष्ट रूप से शक्तियों के पृथक्करण का प्रावधान नहीं करता है, फिर भी अनुच्छेद-50, 121, 122, 211 और 212 संस्थागत कार्यप्रणाली के लिए सीमाएँ निर्धारित करते हैं।
    • उदाहरण के लिए, अनुच्छेद-50 राज्य को लोक सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक करने का आदेश देता है।
  • मूल संरचना के रूप में न्यायिक मान्यता: केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) और इंदिरा नेहरू गांधी बनाम राज नारायण (1975) में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि शक्तियों का पृथक्करण मूल संरचना सिद्धांत का एक हिस्सा है, जिसे संशोधन से मुक्त रखा जा सकता है।
  • पृथक्करण पूर्णतः सुरक्षित नहीं है: यद्यपि नियंत्रण और संतुलन मौजूद हैं, फिर भी प्रत्येक अंग के लिए विशिष्ट संवैधानिक क्षेत्र आरक्षित हैं और कार्यपालिका के विवेकाधिकार में न्यायिक अतिक्रमण से इस संतुलन के बिगड़ने का खतरा है।

न्यायिक समीक्षा, सक्रियता और अतिक्रमण

अवधारणा परिभाषा उदाहरण (भारत)
न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) न्यायपालिका की कानूनों, कार्यकारी आदेशों और विधायी कार्यों की संवैधानिकता की जाँच करने की शक्ति।

यह सुनिश्चित करती है कि वे संविधान के अनुरूप हों।

केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973): बुनियादी संरचना सिद्धांत को बरकरार रखा।
न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism) अधिकारों की रक्षा, न्याय को बढ़ावा देने और शासन की विफलताओं को दूर करने के लिए विधायी/कार्यकारी अंतराल को समाप्त करने में न्यायपालिका की सक्रिय भूमिका। विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (1997): कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न पर दिशा-निर्देश तैयार किए गए।
न्यायिक अतिक्रमण (Judicial Overreach) जब न्यायपालिका अपनी संवैधानिक सीमाओं को पार कर जाती है और कार्यपालिका या विधायी कार्यों में हस्तक्षेप करती है, जिससे शक्तियों का पृथक्करण बाधित होता है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पटाखों पर प्रतिबंध (2017): इसे नीतिगत दायरे में प्रवेश के रूप में देखा गया।

न्यायिक अतिक्रमण के हालिया मामले

  • तमिलनाडु राज्यपाल मामला (2025): सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य विधेयकों पर राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए तीन महीने की समय सीमा निर्धारित की, जिससे अनुच्छेद-142 के तहत ‘मान्य स्वीकृति’ की अवधारणा का सृजन हुआ।
  • राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) मामला (2015): सर्वोच्च न्यायालय ने NJAC अधिनियम को रद्द कर दिया, जिससे कॉलेजियम प्रणाली पुनर्स्थापित हो गई, जिसके बारे में कई लोगों का तर्क था कि स्पष्ट प्रावधानों के अभाव में यह न्यायिक कानून निर्माण था।
  • कोयला आवंटन मामला (2014): सर्वोच्च न्यायालय ने 200 से अधिक कोयला ब्लॉक आवंटन रद्द कर दिए, जो आमतौर पर कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में एक नीतिगत निर्णय होता है, जिससे न्यायिक हस्तक्षेप के कारण होने वाले आर्थिक व्यवधानों के बारे में चिंताएँ बढ़ गईं।
  • राजमार्गों पर शराब प्रतिबंध (2017): सर्वोच्च न्यायालय ने राजमार्गों के 500 मीटर के दायरे में देशव्यापी शराब की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया, जो पारंपरिक रूप से विधायी और कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत एक नियामक मुद्दा है।

न्यायिक अतिक्रमण का प्रभाव

  • संवैधानिक संतुलन में अस्थिरता: कार्यकारी विवेकाधिकार में अतिक्रमण राज्य के विभिन्न अंगों के बीच संतुलन को बाधित कर देता है।
  • नीतिगत पक्षाघात: शासन संबंधी निर्णयों में अत्यधिक हस्तक्षेप से आर्थिक और प्रशासनिक मामलों में अनिश्चितता उत्पन्न होने का खतरा रहता है।
  • लोकतांत्रिक जनादेश का क्षरण: संवैधानिक प्रावधानों का न्यायिक पुनर्लेखन निर्णय लेने में निर्वाचित प्रतिनिधियों की भूमिका को कम करता है।
  • संस्थागत विश्वसनीयता का ह्रास: बार-बार अतिक्रमण से न्यायपालिका में एक तटस्थ मध्यस्थ के रूप में जनता का विश्वास कमजोर हो सकता है।

आगे की राह

  • संवैधानिक सीमाओं का सम्मान करना: न्यायपालिका को संयम बरतना चाहिए तथा संविधान के तहत जहाँ कोई स्पष्ट समय सीमा प्रदान नहीं की गई है, वहाँ निर्णय देने से बचना चाहिए, उदाहरण के लिए, अनुच्छेद 200-201 के तहत।
  • संघीय संवाद को मजबूत करना: केंद्र, राज्यों और राज्यपालों के बीच बेहतर कार्यपालिका-विधायी परामर्श मुकदमेबाजी को कम कर सकता है और राज्यपाल की सहमति की भूमिका को स्पष्ट कर सकता है।
  • न्यायिक न्यूनतमवाद (Judicial Minimalism): न्यायालयों को न्यायिक न्यूनतमवाद के सिद्धांत को लागू करना चाहिए, केवल स्पष्ट अवैधता को ठीक करने के लिए हस्तक्षेप करना चाहिए, न कि कानून बनाने या नई प्रक्रियाएँ निर्धारित करने के लिए।
  • संसदीय सुधार: यदि सहमति के लिए समयबद्ध तंत्र आवश्यक समझे जाते हैं, तो उन्हें संवैधानिक संशोधन या संसदीय कानून के माध्यम से आना चाहिए, न कि न्यायिक निर्देशों के माध्यम से।

निष्कर्ष

केंद्र की दलीलें न्यायिक नवाचार और संवैधानिक निष्ठा के बीच संघर्ष को उजागर करती हैं। शक्तियों के पृथक्करण और मूल संरचना सिद्धांत का हवाला देकर, सरकार इस बात पर बल देती है कि केवल संसद ही (न कि न्यायालय), अनुच्छेद 200-201 के तहत राष्ट्रपति एवं राज्यपालों की शक्तियों को नियंत्रित करने वाले संवेदनशील ढाँचे में परिवर्तन कर सकती हैं।

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