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सोशल मीडिया शिष्टाचार को परिभाषित करने की आवश्यकता

Lokesh Pal August 27, 2025 02:00 18 0

संदर्भ

हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने सोशल मीडिया प्रभावितों द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दुरुपयोग, विशेषतः सुभेद्य समूहों (Vulnerable Groups) पर इसके प्रभाव पर चिंता व्यक्त की।

  • इसने सरकार को समाचार प्रसारकों और डिजिटल एसोसिएशन (News Broadcasters and Digital Association- NBDA) के परामर्श से सोशल मीडिया दिशा-निर्देश तैयार करने का निर्देश दिया है।

मामले की पृष्ठभूमि

  • याचिकाकर्ता: ‘स्पाइनल मस्कुलर एट्रॉफी क्योर फाउंडेशन’ (Spinal Muscular Atrophy Cure Foundation) ने शीर्ष हास्य कलाकारों और सोशल मीडिया प्रभावशाली लोगों के विरुद्ध याचिका दायर की है।
  • मुद्दा: दिव्यांग व्यक्तियों के बारे में अपमानजनक टिप्पणियाँ, जिनमें स्पाइनल मस्कुलर एट्रॉफी (Spinal Muscular Atrophy) के उपचार की लागत भी शामिल है, गरिमा और समावेशिता का उल्लंघन करती हैं।

PWOnlyIAS विशेष

स्पाइनल मस्कुलर एट्रॉफी (Spinal Muscular Atrophy- SMA) के बारे में

  • परिभाषा: एक दुर्लभ आनुवंशिक तंत्रिकापेशी विकार, जो रीढ़ की हड्डी और ‘ब्रेन स्टेम’ में मोटर न्यूरॉन्स की कमी के कारण वृद्धिशील मांसपेशी दुर्बलता और क्षय का कारण बनता है।
  • कारण: SMN1 (सर्वाइवल मोटर न्यूरॉन 1) जीन में उत्परिवर्तन, जिसके परिणामस्वरूप मोटर न्यूरॉन के लिए आवश्यक SMN प्रोटीन की कमी हो जाती है।
    • ऑटोसोमल रिसेसिव पैटर्न में वंशानुगत होता है।
  • प्रकार: (प्रारंभिक आयु और गंभीरता के आधार पर)
    • टाइप 1 [(शिशु अवस्था में शुरुआत / वेर्डनिग-हॉफमैन रोग (Werdnig-Hoffmann Disease)]: लक्षण 6 महीने से पूर्व दिखाई देते हैं; सबसे गंभीर स्थिति होती है।
    • टाइप 2: 6-18 महीने के बीच लक्षण दिखाई देते हैं; बच्चे बैठ तो सकते हैं, लेकिन बिना सहारे के चल नहीं सकते हैं।
    • टाइप 3 [(कुगेलबर्ग-वेलेंडर रोग (Kugelberg-Welander Disease)]: 18 महीने के बाद लक्षण दिखाते हैं; हल्का रूप दिखता है।
    • टाइप 4: वयस्क अवस्था में शुरुआत होती है; धीमी प्रगति देखी जाती है।
  • इसका कोई स्थायी उपचार नहीं है, लेकिन उपचार से जीवन की गुणवत्ता और उत्तरजीविता में सुधार होता है।

सोशल मीडिया आचरण पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बारे में

  • पीठ की मुख्य टिप्पणियाँ
    • अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का व्यावसायीकरण: जब भाषण का मुद्रीकरण किया जाता है, तब वक्ता की जिम्मेदारी और अधिक बढ़ जाती है; प्रभावशाली व्यक्तियों को सुभेद्य समूहों को नुकसान पहुँचाकर लाभ अर्जित करने की अनुमति नहीं हो सकती है।
    • हास्य की सीमाएँ: हास्य जीवन का एक अभिन्न अंग है, लेकिन इससे संवेदनशीलता का हनन नहीं होना चाहिए।
    • दिव्यांग व्यक्तियों को मुख्यधारा में लाना: दिव्यांग व्यक्तियों के विरुद्ध टिप्पणियाँ समावेशिता और समानता के संवैधानिक उद्देश्य को कमजोर करती हैं।
    • आनुपातिक दंड: प्रतीकात्मक क्षमा पर्याप्त नहीं है; प्रभावी एवं प्रवर्तन योग्य दंड की आवश्यकता है।
    • व्यापक दिशा-निर्देशों की आवश्यकता: नियमों का दायरा व्यापक होना चाहिए, जिसमें पॉडकास्ट और ऑनलाइन कॉमेडी शो जैसे उभरते हुए प्लेटफॉर्म शामिल हों।
  • न्यायालय के निर्देश
    • हास्य कलाकारों द्वारा माफी मांगी गई: उन्हें अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सार्वजनिक रूप से माफी माँगने और दिव्यांगता अधिकारों के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए अपने प्रभाव का प्रयोग करने का आदेश दिया गया।
    • दिशा-निर्देशों का निर्माण: केंद्र सरकार को न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एंड डिजिटल एसोसिएशन और सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के परामर्श से सोशल मीडिया आचरण नियमों का मसौदा तैयार करने का निर्देश दिया गया।
    • समय-सीमा: दिशा-निर्देशों का मसौदा नवंबर तक तैयार हो जाएगा; ये भविष्योन्मुखी और व्यापक होने चाहिए, न कि केवल त्वरित घटनाओं पर त्वरित प्रतिक्रियाएँ।
  • व्यापक नैतिक और सामाजिक निहितार्थ
    • इन्फ्लुएंसर्स की भूमिका: सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर जनमत-निर्माता की भूमिका निभाते हैं और उन्हें अपनी नैतिक जिम्मेदारियों का निर्वहन करना चाहिए।
    • प्लेटफॉर्म जवाबदेही: नियमन का विस्तार व्यक्तियों से आगे बढ़कर यूट्यूब, पॉडकास्ट और ऑनलाइन शो जैसे डिजिटल प्लेटफॉर्म तक होना चाहिए।
    • अधिकारों का संतुलन: अनुच्छेद-19 के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अनुच्छेद-21 के तहत सम्मान के अधिकार के साथ संरेखित किया जाना चाहिए।
    • सीमाएँ: सोशल मीडिया अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, व्यावसायिक अभिव्यक्ति और निषिद्ध अभिव्यक्ति के बीच की रेखाओं को धुँधला कर देता है, जिससे विनियमन आवश्यक हो जाता है।
  • निर्णय का महत्त्व
    • डिजिटल जवाबदेही: डिजिटल उत्तरदायित्व के लिए एक राष्ट्रीय उदाहरण प्रस्तुत करता है।
    • डिजिटल नैतिकता ढाँचे को बढ़ावा देता है: डिजिटल क्षेत्र में औपचारिक नैतिक आचरण को प्रोत्साहित करता है।
    • संस्थागत परामर्श: सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय और समाचार प्रसारकों एवं डिजिटल एसोसिएशन को शामिल करके वैधता और व्यापक स्वीकृति सुनिश्चित करता है।
    • हाशिये पर स्थित समुदायों का संरक्षण: दिव्यांग व्यक्तियों, महिलाओं, बच्चों, अल्पसंख्यकों और वरिष्ठ नागरिकों की गरिमा की रक्षा करके संवैधानिक मूल्यों को सुदृढ़ करता है।

PWOnlyIAS विशेष

  • भारत में सोशल मीडिया और सुभेद्य समूहों पर आँकड़े: भारत में 80 करोड़ से अधिक उपयोगकर्ता हैं, जिनका जनसांख्यिकी पर व्यापक प्रभाव है। हालाँकि, इससे कुछ जोखिम भी हैं:-
    • लैंगिक स्थिति: वर्ष 2023 तक, 70% उपयोगकर्ता पुरुष और 30% महिलाएँ हैं।
      • महिलाएँ, विशेषकर पत्रकार, ऑनलाइन उत्पीड़न के उच्च स्तर का सामना करती हैं। वर्ष 2021 के एमनेस्टी अध्ययन से पता चलता है कि भारतीय महिला पत्रकार दुनिया में ऑनलाइन दुर्व्यवहार का सर्वाधिक सामना करती हैं।
    • दिव्यांग व्यक्ति: वर्ष 2022 में ‘सेंटर फॉर इंटरनेट एंड सोसायटी’ द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया कि 58% दिव्यांग व्यक्तियों को खराब पहुँच के कारण ऑनलाइन सामग्री तक पहुँचने में बाधाओं का सामना करना पड़ता है।
      • वर्ष 2020 के ‘डिसेबिलिटी राइट्स अलायंस’ के एक अध्ययन में बताया गया है कि 72% दिव्यांग व्यक्तियों को ऑनलाइन साइबर हैकिंग या अपमानजनक टिप्पणियों का सामना करना पड़ता है।
    • आयु: अधिकांश उपयोगकर्ता 18-35 वर्ष की आयु के हैं।
      • वर्ष 2024 की यूनिसेफ की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में 85% किशोरों (13-18 वर्ष) की सोशल मीडिया प्रोफाइल है।
      • राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग द्वारा वर्ष 2022 में किए गए अध्ययन में पाया गया कि 10 में से 4 बच्चे ऑनलाइन उत्पीड़न का सामना करते हैं।

सोशल मीडिया के बारे में

  • सोशल मीडिया उन डिजिटल प्लेटफॉर्म और एप्लिकेशन को संदर्भित करता है, जो लोगों को वास्तविक समय में जानकारी, विचार और सामग्री साझा करने और आदान-प्रदान करने की अनुमति देते हैं।
  • उदाहरण: फेसबुक, ट्विटर (X), इंस्टाग्राम, यूट्यूब, लिंक्डइन, व्हाट्सऐप, टेलीग्राम।
  • मुख्य विशेषताएँ
    • अंतरक्रियाशीलता: उपयोगकर्ता ‘डुप्लेक्स’ संचार में संलग्न होते हैं।
    • उपयोगकर्ता-जनित सामग्री: केवल संस्थाओं द्वारा नहीं, बल्कि व्यक्तियों द्वारा निर्मित सामग्री।
    • नेटवर्किंग: व्यक्तिगत, व्यावसायिक और रुचि-आधारित समुदायों के निर्माण में सक्षम बनाती है।
    • वायरल होना: जानकारी विविध दर्शकों तक तेजी से फैलती है।
  • सोशल मीडिया का दोहरा चरित्र: सोशल मीडिया एक दोधारी हथियार है, जो अपने नियमन और उपयोग के तरीके के आधार पर या तो लोकतंत्र को सशक्त बना सकता है अथवा सामाजिक सद्भाव को कमजोर कर सकता है।
  • सोशल मीडिया की सकारात्मक भूमिका: सोशल मीडिया कनेक्टिविटी, लोकतांत्रिक भागीदारी, सक्रियता और आर्थिक अवसरों को सक्षम बनाता है, जिससे यह आधुनिक समाजों के लिए एक शक्तिशाली उपकरण बन जाता है।
  • सोशल मीडिया से संबंधित चुनौतियाँ: सोशल मीडिया का दुरुपयोग फर्जी खबरें, गलत सूचना, ट्रोलिंग, अभद्र भाषा और रूढ़िवादिता को मजबूत करने के लिए भी किया गया है, जिससे प्रायः ध्रुवीकरण होता है।
  • प्रमुख हितधारक और उनके हित
    • नागरिक और उपयोगकर्ता: सुरक्षित ऑनलाइन स्थान, गोपनीयता, गरिमा और अभिव्यक्ति की तलाश करना।
    • सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म: उपयोगकर्ता का विश्वास बनाए रखते हुए लाभप्रदता, विकास और अनुपालन का लक्ष्य रखना।
    • राजनीतिक दल: प्रचार और मतदाता संपर्क के लिए सोशल मीडिया का उपयोग करना।
    • सरकार और नियामक: डिजिटल बाजारों में अधिकारों की सुरक्षा, राष्ट्रीय सुरक्षा और निष्पक्ष प्रतिस्पर्द्धा सुनिश्चित करना।
    • अंतरराष्ट्रीय संगठन: डिजिटल प्लेटफॉर्म के नैतिक उपयोग पर वैश्विक सहमति को बढ़ावा देना।
  • भारत में सोशल मीडिया के लिए कानूनी ढाँचा
    • सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000: यह अधिनियम सरकार को धारा 69A के तहत आपत्तिजनक सामग्री को ब्लॉक करने का अधिकार देता है और धारा 79 के तहत मध्यस्थ के दायित्व को परिभाषित करता है।
    • श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ (2015): सर्वोच्च न्यायालय ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन करने के कारण IT अधिनियम की धारा 66A को रद्द कर दिया और मध्यस्थ दायित्व की सीमाएँ स्पष्ट कीं।
    • सूचना प्रौद्योगिकी नियम, 2021: ये नियम शिकायत अधिकारियों, अनुपालन अधिकारियों की नियुक्ति और सरकारी निगरानी तंत्र के साथ एक आचार संहिता स्थापित करने का आदेश देते हैं।
    • उच्च न्यायालय के हालिया निर्णय: कुणाल कामरा मामले में बॉम्बे उच्च न्यायालय ने ऑनलाइन सामग्री की फैक्ट-चेक में सरकार के अत्यधिक अधिकारों को कम कर दिया, जिससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर मनमाने प्रतिबंधों से सुरक्षा मिली।
    • प्रसारण सामग्री मानक (NBSA): समाचार प्रसारकों के लिए स्व-नियामक दिशा-निर्देश जारी करता है।
    • भारतीय दंड संहिता (IPC), सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम और दिव्यांगता अधिकार कानून: आक्रामक, भेदभावपूर्ण या हानिकारक ऑनलाइन सामग्री के विरुद्ध सीमित सुरक्षा उपाय प्रदान करना।

नियम-निर्माण और दिशा-निर्देशों की आवश्यकता

  • जवाबदेही की कमियों को दूर करना: वर्तमान ढाँचा प्रभावशाली लोगों की सामग्री को पर्याप्त रूप से विनियमित नहीं करता है और जवाबदेही की कमियों को छोड़ देता है।
  • कमजोर समुदायों की सुरक्षा: दिशा-निर्देशों में दिव्यांग व्यक्तियों, महिलाओं, बच्चों और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा को प्राथमिकता दी जानी चाहिए ताकि रूढ़िबद्धता तथा उपहास को रोका जा सके।
  • उभरते खतरों का मुकाबला: फेक न्यूज, डीपफेक और कृत्रिम बुद्धिमत्ता से उत्पन्न गलत सूचना जैसी नई चुनौतियों के लिए सक्रिय नियम-निर्माण आवश्यक है।
  • उल्लंघनों के लिए स्पष्ट दंड: वैध अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को संरक्षित करते हुए कदाचार को रोकने के लिए प्रतिबंधों को स्पष्ट और आनुपातिक रूप से परिभाषित किया जाना चाहिए।
  • संवैधानिक और नैतिक आयाम
    • संवैधानिक प्रावधान
      • अनुच्छेद-19(1)(a): वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मौलिक अधिकार के रूप में सुनिश्चित करता है।
      • अनुच्छेद-19(2): नैतिकता, शालीनता और सार्वजनिक व्यवस्था के हित में उचित प्रतिबंधों की अनुमति देता है।
      • अनुच्छेद-21: सम्मान, गोपनीयता और समावेशिता के साथ जीवन के अधिकार की रक्षा करता है, जो आपत्तिजनक ऑनलाइन सामग्री द्वारा कमजोर हो जाते हैं।
    • डिजिटल स्पेस में नैतिक कर्तव्य: अधिकारों को सार्वजनिक और ऑनलाइन जीवन में निष्पक्षता, सहानुभूति, जिम्मेदारी और समावेशिता के साथ संतुलित किया जाना चाहिए।

नैतिक सोशल मीडिया के सिद्धांत

  • उचित परिश्रम: प्रसार से पहले सभी सामग्री का सत्यापन और फैक्ट-चेक आवश्यक है।
  • गोपनीयता: उपयोगकर्ता डेटा को उपयोग और साझा करने के लिए सूचित सहमति से सुरक्षित किया जाना चाहिए।
  • सहानुभूति और सहिष्णुता: विविध विचारों का सम्मान ध्रुवीकरण को कम करता है और समावेशिता को बढ़ावा देता है।
  • जिम्मेदारी: उपयोगकर्ताओं और प्रभावशाली लोगों को निष्पक्षता, न्याय और समावेशिता को बनाए रखना चाहिए।
  • आलोचनात्मक पक्ष: नागरिकों को ‘फेक न्यूज’ और ‘मॉब मेंटलिटी’ का विरोध करने के लिए विवेक का प्रयोग करना चाहिए।

सोशल मीडिया को विनियमित करने में चुनौतियाँ

  • क्षेत्राधिकार संबंधी मुद्दे: प्लेटफॉर्म की वैश्विक प्रकृति किसी एक देश के कानूनों के लिए उन्हें प्रभावी ढंग से नियंत्रित करना मुश्किल बना देती है। इसके अलावा, डेटा स्थानीयकरण का मुद्दा भी टकराव उत्पन्न करता है, क्योंकि कंपनियाँ प्रायः परिचालन और गोपनीयता संबंधी चिंताओं का हवाला देते हुए भारत में उपयोगकर्ता डेटा संगृहीत करने से बचती हैं।
  • अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम विनियमन: जहाँ अनुच्छेद-19(1)(a) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी प्रदान करता है, वहीं अनुच्छेद-19(2) केवल ‘उचित प्रतिबंधों’ की अनुमति देता है, जिन पर विवाद बना हुआ है। वैध आलोचना, व्यंग्य और हानिकारक भाषण के बीच की सीमा अत्यधिक व्यक्तिपरक है और दुरुपयोग की चपेट में है।
  • गोपनीयता और डेटा सुरक्षा: सोशल मीडिया कंपनियाँ लक्षित विज्ञापनों के माध्यम से अत्यधिक डेटा संग्रह और मुद्रीकरण में संलग्न हैं। कमजोर सहमति तंत्र का अर्थ है कि अधिकांश उपयोगकर्ता इस बात से अनभिज्ञ रहते हैं कि उनका डेटा कैसे संगृहीत या साझा किया जाता है।
    • भारत का डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण अधिनियम, 2023, हालाँकि महत्त्वपूर्ण है, लेकिन अभी भी कार्यान्वयन में विकसित हो रहा है।
  • फेक न्यूज: ‘फेक न्यूज’ तेजी से वायरल हो जाती हैं, प्रायः आधिकारिक स्पष्टीकरणों से पहले ही। यह उपयोगकर्ताओं के लिए सूचना के वास्तविक स्रोत का पता लगाना जटिल बना देती हैं, इसके सामाजिक प्रभाव अत्यंत गंभीर होते हैं, जिनमें सांप्रदायिक हिंसा, टीकाकरण को लेकर संकोच तथा राजनीतिक ध्रुवीकरण तक शामिल हैं।
  • एल्गोरिदमिक पूर्वाग्रह: एल्गोरिदम मौजूदा पूर्वाग्रहों को मजबूत करते हैं और ‘फिल्टर बबल’ का निर्माण करते हैं, जिससे सामाजिक विभाजन और गहरा होता है। इन ब्लैक-बॉक्स एल्गोरिदम में पारदर्शिता का अभाव होता है, जिससे जवाबदेही मुश्किल हो जाती है।
    • ‘फिल्टर बबल’ एक ऐसी स्थिति है, जहाँ उपयोगकर्ता केवल उन्हीं सूचनाओं, विचारों या मतों के संपर्क में आता है, जो उसके मौजूदा विश्वासों को पुष्ट करते हैं, जबकि वैकल्पिक दृष्टिकोणों को व्यवस्थित रूप से फिल्टर कर दिया जाता है। ऐसा सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर एल्गोरिदमिक वैयक्तिकरण के कारण होता है।
  • राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा: सोशल मीडिया का प्रयोग सीमा पार दुष्प्रचार, आतंकवादी भर्ती और दुष्प्रचार अभियानों के लिए किया जाता है। यह वित्तीय धोखाधड़ी और तस्करी जैसे साइबर अपराधों का भी एक साधन है।
    • हालाँकि ‘एंड-टू-एंड एन्क्रिप्शन’ गोपनीयता की रक्षा करता है, यह वैध निगरानी और जवाबदेही के लिए एक गंभीर चुनौती प्रस्तुत करता है।
  • नियामक क्षमता अंतराल: प्रतिदिन पोस्ट की जाने वाली सामग्री की विशाल मात्रा के कारण वास्तविक समय में निगरानी लगभग असंभव हो जाती है। इसके अलावा, सरकारी एजेंसियों में प्रायः निजी प्लेटफॉर्म जैसी तकनीकी विशेषज्ञता का अभाव होता है।
    • परिणामस्वरूप, प्रवर्तन निवारक के बजाय प्रतिक्रियात्मक और घटना-आधारित होता है।
  • कॉरपोरेट प्रतिरोध: प्लेटफॉर्म की लाभ-केंद्रित प्रकृति हानिकारक सामग्री को बढ़ावा देती है, क्योंकि यह जुड़ाव को बढ़ाती है।
    • इसके अतिरिक्त, बड़ी तकनीकी कंपनियाँ प्रायः मुकदमेबाजी और अंतरराष्ट्रीय दबाव के माध्यम से सख्त नियमों का विरोध करती हैं।
  • नैतिक चिंताएँ: प्रभावशाली लोगों द्वारा भाषण के व्यावसायीकरण में जिम्मेदारी की बजाय लाभ को प्राथमिकता दी जाती है। हाशिए पर स्थित समूह, जिनमें महिलाएँ, बच्चे, अल्पसंख्यक और दिव्यांग व्यक्ति शामिल हैं, विशेष रूप से ऑनलाइन दुर्व्यवहार के प्रति संवेदनशील बने हुए हैं।
    • जवाबदेही का अभाव है, क्योंकि प्लेटफॉर्म, सामग्री निर्माता और उपयोगकर्ता के मध्य उत्तरदायित्व अस्पष्ट है।
  • कानूनी एवं संस्थागत अंतराल: भारत की नियामक व्यवस्था खंडित है, जो IT अधिनियम, 2000, IT नियम, 2021 और न्यायिक निर्णयों में निहित है। कमजोर प्रवर्तन और स्पष्ट दंड का अभाव प्रभावशीलता को और सुभेद्य बना देता है। दूसरी ओर, अत्यधिक विनियमन से राज्य के अतिक्रमण, सेंसरशिप और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने का खतरा रहता है।

प्रमुख नैतिक दुविधाएँ

  • गोपनीयता बनाम लाभ: प्लेटफॉर्म बिना सूचित सहमति के उपयोगकर्ता डेटा का मुद्रीकरण करते हैं।
  • मुक्त अभिव्यक्ति बनाम हानि: व्यंग्य और हास्य के आक्रामक तथा हानिकारक भाषण में परिवर्तित हो जाने का खतरा सदैव बना रहता है।
  • राष्ट्रीय सुरक्षा बनाम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता: सुरक्षा आवश्यकताएँ प्रायः मुक्त अभिव्यक्ति सुरक्षा से ओवरलैप करती हैं।
  • एन्क्रिप्शन बनाम जवाबदेही: एन्क्रिप्शन गोपनीयता की रक्षा करता है, लेकिन अपराध का पता लगाने की क्षमता को सीमित करता है।
  • समाज का ध्रुवीकरण: एल्गोरिदम प्रतिध्वनि कक्ष और ‘फिल्टर बबल’ का निर्माण करते हैं, जिससे सामाजिक विभाजन बढ़ता है।

आगे की राह

  • परामर्शी नियम-निर्माण: न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एंड डिजिटल एसोसिएशन, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, नागरिक समाज और सामग्री निर्माताओं के परामर्श से दिशा-निर्देश तैयार किए जाने चाहिए।
  • स्वतंत्र निगरानी निकाय: अनुपालन लागू करने, शिकायतों का निवारण करने और सामग्री की निगरानी के लिए एक डिजिटल नैतिकता आयोग बनाया जाना चाहिए।
  • आनुपातिक और लागू करने योग्य दंड: दंड में बार-बार उल्लंघन करने वालों के लिए सार्वजनिक माफी, जुर्माना और मुद्रीकरण का निलंबन शामिल होना चाहिए।
  • राष्ट्रव्यापी जागरूकता अभियान: सरकार और प्लेटफॉर्मों को संवेदनशीलता अभियानों के माध्यम से समावेशिता और डिजिटल जिम्मेदारी को बढ़ावा देना चाहिए।
  • नियमों की आवधिक समीक्षा: डीपफेक, कृत्रिम बुद्धिमत्ता और नए खतरों से निपटने के लिए दिशा-निर्देशों को अद्यतन किया जाना चाहिए।
  • दलों और प्लेटफॉर्मों के लिए आचार संहिता: राजनीतिक दलों और प्लेटफॉर्मों को अपने आचरण को विनियमित करने के लिए आंतरिक नैतिक संहिताओं को अपनाना चाहिए।

निष्कर्ष

सर्वोच्च न्यायालय का निर्देश संवैधानिक नैतिकता के सार को दर्शाता है। अनुच्छेद-19 के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अनुच्छेद-21 के तहत गरिमा के अधिकार के साथ सामंजस्य बिठाना होगा। भारत में सुभेद्य समुदायों की सुरक्षा, समावेशिता को बनाए रखने और डिजिटल लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए सोशल मीडिया का नैतिक विनियमन अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।

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