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भारत में संसदीय विधायी प्रक्रिया और विधेयकों की न्यायिक जाँच

Lokesh Pal August 26, 2025 05:00 13 0

संदर्भ:

भारतीय संविधान ने पूर्ण संसदीय संप्रभुता को अस्वीकार कर दिया, जिससे कानून संविधान के अधीन हो गए। हाल ही में वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 को भी कुछ ही दिनों में न्यायिक जाँच का सामना करना पड़ा, जो संसद और  न्यायालय के मध्य बढ़ते तनाव को दर्शाता है।

संवैधानिक लोकतंत्र और संसदीय सीमाएँ:

  • पूर्ण संप्रभुता नहीं: संविधान सभा ने ब्रिटिश मॉडल को अस्वीकार कर दिया और यह सुनिश्चित किया, कि संसद संवैधानिक प्रावधानों को रद्द नहीं कर सकती।
  • न्यायिक समीक्षा: कानूनों को समाप्त या उनमें संशोधन करने की शक्ति एक अपवाद के रूप में दी गई थी, न कि एक नियमित अभ्यास के रूप में।
  • न्यायिक सक्रियता: न्यायालयों ने समानांतर विधायिका के रूप में कार्य करना शुरू कर दिया है, जिसका आंशिक कारण संसद की कमजोर विधि निर्माण पद्धति है।
  • समानांतर विधायिका के रूप में संवैधानिक न्यायालय: समय के साथ, संवैधानिक न्यायालय समानांतर कानून बनाने वाली संस्थाएँ बन गए हैं, जिसका मुख्य कारण यह है कि संसद संवैधानिक परिशुद्धता के साथ कानूनों का मसौदा तैयार करने में विफल रही है
    • उदाहरण: वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 को लागू होने के कुछ ही दिनों के भीतर न्यायालय में चुनौती दी गई, और चुनौती देने वाले स्वयं सांसद थे

निरंतर विधिक चुनौतियाँ:

  • बढ़ती न्यायिक जाँच प्रणाली: पिछले दशक में, न्यायालय विधायी जवाबदेही का एक  स्थल बन गए हैं
  • लंबित मामले: केंद्रीय कानून मंत्री (2022) के अनुसार, 2016 से 35 केंद्रीय कानून और संवैधानिक संशोधन सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती के अधीन थे।

विधि निर्माण में क्रियान्वयन की समस्या:

  • चुनौतियों की श्रेणियाँ: इनमें संवैधानिक जाँच, राजनीतिक शक्ति और त्रुटिपूर्ण मसौदा तैयार करना शामिल हैं
  • मसौदा तैयार करने में समस्याएँ: कानून अक्सर अस्पष्ट परिभाषाओं, असंगत धाराओं, संविधान के साथ विरोधाभासों और मौजूदा कानूनों के साथ सामंजस्य की कमी से प्रभावित होते हैं।
  • प्रभाव: उपर्युक्त समस्याएँ आर्थिक समृद्धि, सामाजिक सद्भाव और विधायिका एवं न्यायपालिका के मध्य विश्वास को कमजोर करती हैं।

कागज़ पर प्रणाली बनाम व्यावहारिक प्रक्रिया:

  • औपचारिक प्रक्रिया: संसदीय प्रक्रिया नियमावली में नीतिगत प्रस्ताव, हितधारक परामर्श, विधि मंत्रालय और मंत्रिमंडल की मंजूरी, तथा संसद में तीन बार वाचन, संभावित समिति जाँच और खंड-दर-खंड विश्लेषण का प्रावधान है।
  • वास्तविकता: विधेयक अक्सर जल्दबाजी में पारित किए जाते हैंसमितियों को नजरअंदाज कर दिया जाता है, तथा चर्चा को न्यूनतम कर दिया जाता है
    • उदाहरण: ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 की धारा 18(D) भारतीय न्याय संहिता, 2023 के तहत महिलाओं की तुलना में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के यौन शोषण के लिए कम सजा का प्रावधान करती है , जिससे इसे संवैधानिक चुनौती दी जा सकती है।

विधि निर्माण में लोकतांत्रिक प्रक्रिया का अभाव:

  • कानूनी भाषा का अत्यधिक प्रयोग: कानून अक्सर सघन कानूनी भाषा में तैयार किए जाते हैं, जो सांसदों की समझ से परे होती है।
  • कम भागीदारी: विधायक ठोस चर्चा में शामिल होने की बजाय पार्टी लाइन पर चलने की प्रवृत्ति रखते हैं।
  • लोकतंत्र का कमजोर होना: जब सांसद कानूनों की जाँच या पूछताछ नहीं कर सकते, तो लोकतांत्रिक प्रक्रिया कमजोर हो जाती है।

रिटेनर अटॉर्नी-जनरल के लिए मामला:

  • संवैधानिक मार्गदर्शन की आवश्यकता: संसद को किसी कानून पर मुकदमा चलाने से पहले उसकी जाँच के लिए एक गैर-पक्षपाती संवैधानिक विशेषज्ञ की आवश्यकता होती है।
  • अनुच्छेद 88 के अंतर्गत भूमिका: अटॉर्नी जनरल (AG) को संसदीय कार्यवाही में भाग लेने का अधिकार है, हालाँकि इसका प्रयोग शायद ही कभी किया जाता है।
  • लाभ: अटॉर्नी जनरल चर्चा के दौरान संवैधानिक खामियों को उजागर कर सकते हैं और मतदान के दौरान सांसदों को स्वतंत्र विशेषज्ञ सलाह प्रदान कर सकते हैं।

आगे की राह:

  • संसदीय समितियों को मजबूत बनाना: प्रमुख विधेयकों के लिए समिति की जाँच अनिवार्य बनाना।
  • मसौदा तैयार करने की क्षमता में वृद्धि: सांसदों को कानूनों के निहितार्थों का विश्लेषण करने के लिए कानूनी और अनुसंधान सहायता प्रदान करना।
  • अटॉर्नी जनरल की सक्रिय भूमिका: विधेयकों की संवैधानिक जाँच के लिए अनुच्छेद 88 का अधिक बार प्रयोग करना।
  • विधायी पारदर्शिता: पर्याप्त सूचना, खुले परामर्श और सरल भाषा में मसौदा तैयार करना सुनिश्चित करें।
  • क्षमता निर्माण: संवैधानिक न्यायशास्त्र, न्यायिक उदाहरणों और विधायी प्रथाओं पर विधायकों के लिए नियमित प्रशिक्षण आयोजित करना

निष्कर्ष

विधायी प्रारूपण को सुदृढ़ करना तथा विधि निर्माण के दौरान एक मजबूत संवैधानिक समीक्षा तंत्र की स्थापना करना न्यायिक अमान्यता को कम कर सकता है, संसद के अधिकार की रक्षा, तथा विधायिका और न्यायपालिका के मध्य संतुलन स्थापित कर सकता है।

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न:

संसदीय विधान को अधिनियमित होने के तुरंत बाद न्यायालयों में चुनौती देने की प्रथा विधायी प्रक्रिया में अंतर्निहित कमज़ोरियों की ओर संकेत करती है। इस संदर्भ में, विधान-पूर्व जाँच के महत्त्व पर चर्चा कीजिए और अनुच्छेद 88 के अंतर्गत इसे सुदृढ़ बनाने में महान्यायवादी की संभावित भूमिका का मूल्यांकन कीजिए।

(15 अंक, 250 शब्द)

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