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बहुध्रुवीय विश्व में भारत की सामरिक स्वायत्तता

Lokesh Pal September 08, 2025 03:32 81 0

संदर्भ

वर्तमान में ‘सामरिक स्वायत्तता की अवधारणा’ भारतीय विदेश नीति के केंद्र में है और यह अवधारणा तेजी से बहुध्रुवीय और अस्थिर होती दुनिया में वैश्विक निर्णयों को आकार दे रही है। जैसे-जैसे वैश्विक शक्ति परिवर्तन तेज हो रहे हैं और पारंपरिक गठबंधन कमजोर पड़ रहे हैं, भारत, प्रतिस्पर्द्धी शक्तियों (संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन और रूस) के बीच संतुलित कूटनीति अपनाने का प्रयास कर रहा है।

  • इस प्रकार ‘सामरिक स्वायत्तता की अवधारणा’ अब एक सैद्धांतिक आकांक्षा नहीं रह गई है। यह एक दैनिक कूटनीतिक अभ्यास है, जो जटिलताओं एवं सकारात्मक परिणामों पर आधारित है।

सामरिक स्वायत्तता (Strategic Autonomy) के बारे में 

  • परिभाषा: सामरिक स्वायत्तता किसी राष्ट्र की विदेश और रक्षा नीति में गठबंधनों, बाह्य दबावों या प्रमुख शक्तियों पर निर्भरता से बाधित हुए बिना संप्रभु निर्णय लेने की क्षमता को संदर्भित करती है।
  • अलगाववाद से प्रेरित नहीं है: इसका अर्थ तटस्थ या अलग-थलग रहना नहीं, बल्कि परिस्थितियों के अनुसार ढलना, स्वतंत्र रहना और अपनी शर्तों पर अनेक साझेदार देशों से संबंध स्थापित करना है।

भारत में सामरिक स्वायत्तता का ऐतिहासिक आधार

  • औपनिवेशिक अधीनता: औपनिवेशिक अनुभव ने स्वतंत्रता और स्वायत्तता को भारत के वैश्विक दृष्टिकोण का केंद्र बिंदु बना दिया।
  • शीतयुद्ध का दौर: जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में, भारत ने अमेरिका-सोवियत प्रतिद्वंद्विता में कूटनीतिक उलझाव से बचने के लिए गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) का नेतृत्व किया।
  • वर्ष 1991 के बाद का युग: आर्थिक सुधारों और सोवियत संघ के पतन के बाद, भारत बहु-गठबंधन की ओर बढ़ा और अमेरिका, रूस एवं अन्य शक्तियों के साथ व्यावहारिक रूप से जुड़ता गया।
  • वर्तमान युग: नरेंद्र मोदी सरकार ने स्वायत्तता को ‘बहु-गठबंधन’ के रूप में पुनर्परिभाषित किया और बिना किसी बाध्यकारी गठबंधन के विविध साझेदारियों (क्वाड, ब्रिक्स, G20 और ‘ग्लोबल साउथ’ नेतृत्व) में सक्रिय रूप से शामिल रही हैं।

PWOnlyIAS विशेष

भारत में सामरिक स्वायत्तता का विकास

  • प्रथम चरण – गुटनिरपेक्षता (1947-1961)
    • द्विध्रुवीय विश्व संदर्भ: युद्धोत्तर व्यवस्था पर दो शक्ति केंद्रों, संयुक्त राज्य अमेरिका (USA) और सोवियत समाजवादी गणराज्य संघ (USSR) का प्रभुत्व था।
    • गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM): भारत ने वर्ष 1961 में NAM में एक संस्थापक भूमिका निभाई, ‘तीसरी दुनिया’ के विश्व का समर्थन किया और शीतयुद्ध की गुटीय राजनीति का विरोध किया।
    • पंचशील समझौता (1954): प्रधानमंत्री नेहरू के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के पाँच सिद्धांतों ने संप्रभुता, पारस्परिक सम्मान और अहस्तक्षेप पर जोर दिया।
    • स्वायत्तता का संरक्षण: भारत ने सैन्य गठबंधनों में शामिल होने का विरोध किया, आर्थिक पुनर्निर्माण पर ध्यान केंद्रित किया और अपनी क्षेत्रीय अखंडता को मजबूत करने के लिए कार्य किया।
  • दूसरा चरण – यथार्थवाद (1962-1971)
    • वर्ष 1962 के चीन-भारत युद्ध: इस युद्ध में भारत की हार ने सुरक्षा संबंधी कमजोरियों को प्रदर्शित किया और आदर्शवाद से रणनीतिक व्यावहारिकता की ओर परिवर्तन के लिए मजबूर किया।
    • सुरक्षा सहयोग: भारत ने वर्ष 1964 में अमेरिका के साथ अस्थायी रक्षा सहयोग की माँग की, जबकि वैश्विक स्तर पर गुटनिरपेक्ष दृष्टिकोण बनाए रखा।
    • व्यावहारिक विकल्प: यह दौर कठोर गुटनिरपेक्षता से सावधानीपूर्वक हटने और विचारधारा पर राष्ट्रीय सुरक्षा को प्राथमिकता देने का प्रतीक था।
  • तीसरा चरण – क्षेत्रीय दावा (1971-1991)
    • सोवियत संघ की ओर झुकाव: वर्ष 1971 की भारत-सोवियत शांति, मैत्री और सहयोग संधि पर हस्ताक्षर ने बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान समर्थन सुनिश्चित किया।
    • बांग्लादेश युद्ध (1971): भारत के हस्तक्षेप से बांग्लादेश का निर्माण हुआ, जिसने भारत को एक निर्णायक क्षेत्रीय शक्ति के रूप में स्थापित किया।
    • पोखरण-I (1974): भारत का शांतिपूर्ण परमाणु विस्फोट संप्रभुता का एक ऐतिहासिक दावा था, हालाँकि इसके कारण अमेरिकी प्रतिबंध भी लगे।
    • श्रीलंका में शांति स्थापना (1987): भारत ने भारत-श्रीलंका समझौते के तहत भारतीय शांति सेना (IPKF) के माध्यम से हस्तक्षेप किया।
    • भू-राजनीतिक चुनौतियाँ: अमेरिका-चीन-पाकिस्तान धुरी के निर्माण ने भारत की क्षेत्रीय महत्त्वाकांक्षाओं को बाधित किया।
  • चौथा चरण – सामरिक स्वायत्तता (1991-2005)
    • आर्थिक सुधार (1991): उदारीकरण और उच्च आर्थिक विकास ने भारत के रणनीतिक दृष्टिकोण को नया रूप दिया।
    • बहु-संरेखण की शुरुआत: भारत ने रूस के साथ संबंध स्थापित रखते हुए, अमेरिका, इजरायल और आसियान (दक्षिण-पूर्व एशियाई राष्ट्र संघ) के साथ अपने संबंधों को गहन किया।
    • पोखरण-II (1998): परमाणु परीक्षणों ने प्रतिबंधों के बावजूद भारत की स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता की पुष्टि की।
    • वर्ष 2005 भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु समझौता: वाशिंगटन के साथ सहयोग के एक नए चरण की शुरुआत हुई, लेकिन भारत ने रूस और अन्य देशों के साथ संतुलित संबंध बनाए रखे।
  • 5वाँ चरण – बहुध्रुवीय विश्व में सामरिक स्वायत्तता (वर्ष 2005 से वर्तमान तक)
    • बहु-संरेखण दृष्टिकोण: भारत ने P2 फोकस (अमेरिका-चीन) से आगे बढ़कर P5+2 दृष्टिकोण (पाँच स्थायी UNSC सदस्य और उभरती शक्तियाँ) अपनाया है।
      • शंघाई सहयोग संगठन (SCO), क्वाड, आसियान साझेदारियों में सदस्यता बहुध्रुवीय कूटनीति को दर्शाती है।
    • मुक्त एवं खुला हिंद-प्रशांत: भारत नौवहन संबंधी स्वतंत्रता और समावेशी क्षेत्रीय व्यवस्था सुनिश्चित करने वाले बहुध्रुवीय हिंद-प्रशांत का समर्थन करता है।
    • संतुलनकारी कूटनीति: रूस-भारत-चीन (RIC) और जापान-अमेरिका-भारत (JAI) संवादों में एक साथ भागीदारी लचीले संतुलन को दर्शाती है।
    • डि-हाइफनेशन (De-hyphenation) नीति: इजरायल और फिलिस्तीन के साथ संबंधों को अलग-अलग प्रबंधित किया जाता है, जिससे मुद्दा-आधारित जुड़ाव सुनिश्चित होता है।
    • मध्य पूर्व कूटनीति: भारत ने सऊदी अरब, इजरायल और ईरान के साथ संबंधों का विस्तार किया और वर्ष 2019 में उसे इस्लामिक सहयोग संगठन (OIC) में आमंत्रित किया गया।
    • ‘हार्ड पॉवर’ का उपयोग: ऑपरेशन सिंदूर (2025), पुलवामा-बालाकोट हवाई हमले (2019) जैसी कठोर प्रतिक्रियाओं और अमेरिका, फ्राँस, सिंगापुर, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया के साथ सैन्य रसद समझौतों ने विश्वसनीयता को बढ़ाया।
    • ‘सॉफ्ट पॉवर टूल्स’: अंतरराष्ट्रीय योग दिवस, अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन, दक्षिण एशिया उपग्रह और सार्क कोविड-19 फंड जैसी पहल भारत के सभ्यतागत प्रभाव को दर्शाती हैं।
    • मुद्दा-आधारित सहयोग: भारत ने रूस से S-400 सिस्टम खरीदने के लिए अमेरिकी प्रतिबंधों की अनदेखी की, जो महत्त्वपूर्ण रक्षा विकल्पों में स्वायत्तता को दर्शाता है।
    • आर्थिक व्यावहारिकता: क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (RCEP) से वापसी ने चीन की नेतृत्व आधारित आर्थिक व्यवस्था के प्रति भारत के प्रतिरोध का संकेत दिया।

वैश्विक व्यवस्था में परिवर्तन

  • द्विध्रुवीय विश्व (1945-1991)
    • शीतयुद्ध के दौरान अमेरिका और सोवियत संघ का प्रभुत्व रहा है।
    • वैचारिक प्रतिस्पर्द्धा, छद्म युद्ध और गुटीय राजनीति की विशेषता परिलक्षित हुई।
    • भारत ने संप्रभुता की रक्षा करते हुए गुटबाजी का विरोध किया।
  • एकध्रुवीय विश्व (1991–2008)
    • सोवियत संघ के पतन के बाद अमेरिका एकमात्र महाशक्ति बन गया।
    • इराक (2003) और अफगानिस्तान में अमेरिकी हस्तक्षेपों ने उसे ‘ग्लोबल पुलिसमैन’ (Global Policeman)  की भूमिका के रूप में प्रतिबिंबित किया।
    • भारत ने स्वायत्तता बनाए रखते हुए अमेरिका के साथ व्यावहारिक रूप से संबंध बनाए रखे।
  • बहुध्रुवीय विश्व (वर्ष 2008 के वर्तमान)
    • नई शक्तियों के उदय के साथ एकध्रुवीयता का ह्रास हुआ।
    • चीन की मुखरता: दक्षिण चीन सागर में विस्तार, बेल्ट एंड रोड पहल, और वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर भारत के साथ संघर्ष।
    • ब्रिक्स का उदय: वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (क्रय शक्ति समता) के लगभग एक-तिहाई के साथ, ब्रिक्स ने न्यू डेवलपमेंट बैंक (NDB) और ‘आकस्मिक रिजर्व व्यवस्था’ (Contingent Reserve Arrangement- CRA) का गठन किया।
    • क्षेत्रीय समूह: आसियान, एशिया-प्रशांत आर्थिक सहयोग (APEC), और अफ्रीकी संघ का विकास विविध शक्ति केंद्रों को दर्शाता है।
    • रूस का पुनः उदय: रूस का पुनः उदय सीरिया में उसकी सक्रिय भूमिका, क्रीमिया के विलय और चीन के साथ घनिष्ठ संबंधों में स्पष्ट दिखाई देता है।
    • भारत का उदय: SCO, G20, मेकांग-गंगा सहयोग, अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन, SAGAR (क्षेत्र में सभी के लिए सुरक्षा और विकास) और क्वाड में सक्रिय भूमिका।
    • संरेखण में असमानता
      • रूस यूक्रेन संघर्ष (वर्ष 2022 से वर्तमान तक): अमेरिका और यूरोप ने यूक्रेन का समर्थन किया; भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका ने तटस्थता बनाए रखी, जबकि चीन रूस की ओर रणनीतिक रूप से उन्मुख हुआ।
      • इजरायल-हमास संकट (2023-25): अमेरिका और उसके सहयोगियों ने इजरायल का समर्थन किया; भारत सहित कई ‘ग्लोबल साउथ’ के देशों ने संतुलन का आह्वान किया, आतंकवाद की निंदा की, लेकिन मानवीय सहायता और ‘टू स्टेट’ समाधान का समर्थन किया।

  • समकालीन विकास
    • शीत युद्ध के बाद, यह गुटनिरपेक्षता से बहु-गठबंधन की ओर अग्रसर हुआ।
    • वर्तमान परिदृश्य में भारत अमेरिका, रूस, चीन, यूरोप और ‘ग्लोबल साउथ’ के साथ सक्रिय संबंध बनाए हुए है, मगर किसी स्थायी गठबंधन में शामिल नहीं है।
    • निर्भरता रहित साझेदारी पर जोर देता है।
  • प्रमुख विशेषताएँ
    • विदेश और रक्षा नीतियों में स्वतंत्र निर्णय लेना।
    • मुद्दा-आधारित संरेखण (जैसे- अमेरिका और सहयोगियों के साथ क्वाड, रूस और चीन के साथ ब्रिक्स)।
    • प्रतिद्वंद्वी देशों के बीच संतुलन: तकनीकी और रक्षा के लिए अमेरिका, ऊर्जा के लिए रूस और बहुपक्षीय मंचों पर चीन के साथ सहयोग।
    • संप्रभुता, न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के संवैधानिक मूल्यों पर आधारित।

PWOnlyIAS विशेष

गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) के बारे में

  • उत्पत्ति: वर्ष 1961 (बेलग्रेड सम्मेलन) में नेहरू (भारत), टीटो (यूगोस्लाविया), नासिर (मिस्र), सुकर्णो (इंडोनेशिया), और नक्रूमा (घाना) द्वारा स्थापित किया गया।
    • पंचशील सिद्धांतों द्वारा निर्देशित, बांडुंग सम्मेलन (1955) से उत्पन्न हुआ।
  • मूल विचार: शीतयुद्ध की गुटबाजी आधारित राजनीति से बचना।
    • संप्रभुता, स्वतंत्रता, शांति, निरस्त्रीकरण और समानता को बनाए रखना।
  • उद्देश्य
    • नव-उपनिवेशित राज्यों की रक्षा करना।
    • उपनिवेशवाद, रंगभेद और साम्राज्यवाद का विरोध करना।
    • नई अंतरराष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था (NIEO) को बढ़ावा देना।
    • ‘ग्लोबल साउथ’ को अभिव्यक्ति प्रदान करना।
  • भारत की भूमिका
    • नेहरू के अधीन एक वास्तुकार और वैश्विक नेता के रूप में।
    • गुटनिरपेक्ष आंदोलन का उपयोग सामरिक स्वायत्तता के लिए किया, दोनों महाशक्तियों के साथ बिना किसी निर्भरता के सहयोग किया।
    • उपनिवेशवाद-विरोध, निरस्त्रीकरण और समतामूलक वैश्विक व्यवस्था का समर्थन किया।
  • शीतयुद्ध के बाद की प्रासंगिकता: कमजोर होने के बावजूद, गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) निम्नलिखित के लिए एक मंच बना हुआ है:-
    • जलवायु, व्यापार और संयुक्त राष्ट्र सुधारों पर ‘ग्लोबल साउथ’ एकजुटता।
    • नव-उपनिवेशवाद और एकतरफावाद का विरोध।
    • भारत की बहुध्रुवीय सामरिक स्वायत्तता का समर्थन।
  • आलोचना
    • विभाजन और परिणामों को आकार देने में कम प्रभावी।
    • कई सदस्यों ने महाशक्तियों के साथ गठबंधन किया।
  • निष्कर्ष: NAM की स्वायत्तता, समता और न्याय की विरासत आज भी प्रासंगिक है। भारत के लिए, यह उसकी सामरिक स्वायत्तता का पूरक है, जिससे बहुध्रुवीय विश्व में संतुलित जुड़ाव संभव होता है।

भारत के लिए सामरिक स्वायत्तता क्यों महत्त्वपूर्ण है?

  • भू-राजनीतिक सुरक्षा: भारत की सीमाएँ चीन और पाकिस्तान से लगती हैं। सामरिक स्वायत्तता भारत को अपनी रक्षा क्षमताओं का आधुनिकीकरण करने, कई साझेदारों से प्रौद्योगिकियाँ प्राप्त करने और किसी भी गठबंधन में कनिष्ठ साझेदार बनने से बचने में सक्षम बनाती है।
  • आर्थिक लचीलापन: भारत अपने 80% से अधिक कच्चे तेल का आयात करता है और व्यापार, पूँजी और प्रौद्योगिकी के लिए वैश्विक बाजारों पर निर्भर करता है। स्वायत्तता ऊर्जा और प्रौद्योगिकी के विविध स्रोतों को सुनिश्चित करती है और साथ ही आत्मनिर्भर भारत मिशन को आगे बढ़ाती है।
  • वैश्विक नेतृत्व: बहुध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था में भारत एक संप्रभु ध्रुव बनने की दिशा में अग्रसर है, जहाँ वह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता, ‘ग्लोबल साउथ’ का नेतृत्व, जलवायु परिवर्तन शासन, डिजिटल व्यापार और आपूर्ति शृंखला लचीलेपन पर अपनी भूमिका मजबूत करना चाहता है।
  • सभ्यतागत पहचान: जैसा कि वर्तमान भारतीय प्रधानमंत्री ने भारत के G20 अध्यक्ष पद (2023) के दौरान रेखांकित किया था, भारत लोकतंत्र, विविधता और एकता पर आधारित आशा का प्रतीक है। सामरिक स्वायत्तता भारत की इस पहचान को दुनिया के साथ साझा करने का अवसर प्रदान करती है।

बहुध्रुवीय विश्व में भारत का रणनीतिक मार्ग

संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ

  • रक्षा और प्रौद्योगिकी साझेदारी: भारत ने ‘क्वॉड्रिलैटरल सिक्योरिटी डायलॉग’ (क्वाड), भारत-इजरायल-संयुक्त अरब अमीरात-संयुक्त राज्य अमेरिका समूह (I2U2) और भारत-मध्य पूर्व-यूरोप आर्थिक गलियारे (IMEC) के माध्यम से संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ सहयोग को गहरा किया है, जो सामूहिक रूप से रक्षा, व्यापार और संपर्क को मजबूत करते हैं।
  • सुरक्षा सहयोग: इस साझेदारी में संयुक्त सैन्य अभ्यास, खुफिया जानकारी साझा करना और रक्षा प्रौद्योगिकी हस्तांतरण शामिल हैं, जिससे भारत अपनी सेनाओं का आधुनिकीकरण कर सकेगा और उन्नत सेनाओं के साथ अंतर-संचालन क्षमता विकसित कर सकेगा।
  • संघर्ष के बिंदु: हालाँकि, भारतीय वस्तुओं पर अमेरिकी शुल्क, रूसी तेल आयात पर प्रतिबंध और भारत पर अपनी हिंद-प्रशांत रणनीति के साथ और अधिक निकटता से जुड़ने के अमेरिकी दबाव को लेकर मतभेद बने हुए हैं।
  • भारत का दृष्टिकोण: भारत निर्भरता के बिना जुड़ाव की कोशिश करता है, समुद्री सुरक्षा और आतंकवाद-निरोध जैसी साझा चिंताओं पर सहयोग करता है, जबकि रूस, ईरान और व्यापार नीति जैसे मुद्दों पर कार्रवाई की स्वतंत्रता बनाए रखता है।

चीन के साथ

  • सीमा तनाव: वर्ष 2020 में गलवान घाटी में हुई झड़पों ने स्थिर सह-अस्तित्व की धारणा को समाप्त कर दिया और चीन को भारत के लिए एक प्रमुख रणनीतिक खतरे के रूप में स्थापित कर दिया।
  • व्यापार बनाम प्रतिद्वंद्विता: चीन, भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार बना हुआ है, लेकिन आर्थिक निर्भरता के साथ-साथ गहरी सुरक्षा प्रतिद्वंद्विता और अविश्वास भी मौजूद है।
  • निरोध की रणनीति: चीनी आक्रामकता का मुकाबला करने के लिए भारत सीमावर्ती बुनियादी ढाँचे को मजबूत कर रहा है, रक्षा आधुनिकीकरण में तेजी ला रहा है और जापान, ऑस्ट्रेलिया एवं दक्षिण पूर्व एशियाई राष्ट्र संघ (आसियान) के साथ हिंद-प्रशांत साझेदारी का विस्तार कर रहा है।
  • संलग्नता की रणनीति: साथ ही, भारत प्रतिस्पर्द्धा को प्रबंधित करने और अनियंत्रित वृद्धि से बचने के लिए ब्राजील-रूस-भारत-चीन-दक्षिण अफ्रीका (ब्रिक्स) और शंघाई सहयोग संगठन (SCO) में चीन के साथ वार्ता जारी रख रहा है।
  • सामरिक स्वायत्तता: भारत का दृष्टिकोण प्रतिद्वंद्विता और चयनात्मक संबंध के बीच संतुलन स्थापित करता है, यह सुनिश्चित करता है कि वह न तो चीनी दबाव के आगे झुके और न ही संघर्ष में शामिल हो।

रूस के साथ

  • ऐतिहासिक साझेदारी: भारत-रूस संबंध शीतयुद्ध की एकजुटता पर आधारित हैं, जिसमें रक्षा, ऊर्जा, परमाणु और अंतरिक्ष क्षेत्रों में दीर्घकालिक सहयोग शामिल है।
  • वैश्विक अलगाव को संतुलित करना: रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद रूस के वैश्विक अलगाव के बावजूद, भारत ने तेल आयात और हथियारों की खरीद जारी रखी है, जो व्यावहारिक राष्ट्रीय हित को दर्शाता है, जबकि पश्चिमी आलोचना का भी सामना करना पड़ा है।
  • विविधीकरण रणनीति: साथ ही, भारत ने फ्राँस और संयुक्त राज्य अमेरिका से रक्षा उपकरण प्राप्त करके और आत्मनिर्भर भारत के तहत स्वदेशी रक्षा उत्पादन में निवेश करके विविधता लाई है।
  • सामरिक स्वायत्तता: यह दृष्टिकोण भारत को रूस के साथ ऐतिहासिक संबंध बनाए रखने के साथ-साथ अति-निर्भरता को कम करने के लिए साझेदारी को व्यापक बनाने में भी सक्षम बनाता है।

‘ग्लोबल साउथ’ और बहुपक्षीय मंचों के साथ

  • ‘ग्लोबल साउथ’ की अभिव्यक्ति: भारत ने वर्ष 2023 में ‘ग्रुप ऑफ ट्वेंटी’ (G20) की अध्यक्षता के दौरान, ऋण राहत, जलवायु वित्त और डिजिटल समावेशन जैसे मुद्दों पर जोर देते हुए, स्वयं को विकासशील दुनिया की अभिव्यक्ति के रूप में प्रस्तुत किया।
  • राष्ट्रीय हित का सिद्धांत: भारतीय विदेश मंत्री ने इस बात पर जोर दिया कि भारत की साझेदारियाँ राष्ट्रीय हितों से प्रभावित होती हैं, न कि शीतयुद्ध काल के विरासत में प्राप्त गठबंधनों से, जिससे सामरिक स्वायत्तता मजबूत होती है।
  • बहुपक्षीय नेतृत्व: भारत मध्यम शक्तियों और उभरती अर्थव्यवस्थाओं को वैश्विक स्तर पर और भी बड़ी भूमिका देने के लिए ग्रुप ऑफ ट्वेंटी (G20), ब्राजील-रूस-भारत-चीन-दक्षिण अफ्रीका (BRICS), शंघाई सहयोग संगठन (SCO), अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA), और बहु-क्षेत्रीय तकनीकी एवं आर्थिक सहयोग के लिए बंगाल की खाड़ी पहल (BIMSTEC) जैसे मंचों को सक्रिय रूप से आकार देता है।

सामरिक स्वायत्तता की चुनौतियाँ

  • चीन की हठधर्मिता: वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर निरंतर तनाव और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में प्रतिस्पर्द्धा, चीन को रोकने और तनाव बढ़ने से बचने की भारत की क्षमता परीक्षण के दौर से गुजर रही है।
  • रूस-पश्चिम विभाजन: रूसयूक्रेन युद्ध भारत को रूसी रक्षा और ऊर्जा पर अपनी ऐतिहासिक निर्भरता और पश्चिमी देशों की अपेक्षाओं के बीच संतुलन बनाने के लिए मजबूर कर रहा है।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका की माँगें: भारत को अपनी हिंद-प्रशांत रणनीति में पूरी तरह से शामिल करने के लिए वाशिंगटन का दबाव, अगर सावधानी से संतुलित नहीं किया गया, तो भारत की गतिशीलता की संभावना को कम कर सकता है।
  • प्रौद्योगिकी पर निर्भरता: भारत सेमीकंडक्टर, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) सिस्टम और डिजिटल बुनियादी ढाँचे के आयात पर अत्यधिक निर्भर करता है, जिससे आपूर्ति में व्यवधानों का खतरा बना रहता है।
  • बहुध्रुवीय अस्थिरता: एक खंडित वैश्विक व्यवस्था दीर्घकालिक साझेदारियों में अनिश्चितता उत्पन्न करती है, जिसके लिए निरंतर पुनर्संतुलन की आवश्यकता होती है।
  • घरेलू कमजोरियाँ: राजनीतिक ध्रुवीकरण, संस्थागत अंतराल और आर्थिक असमानताएँ भारत की स्वायत्तता से कार्य करने की क्षमता को कम करती हैं।
  • नए क्षेत्र: साइबर सुरक्षा, कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) युद्ध, अंतरिक्ष प्रतिस्पर्द्धा और आपूर्ति शृंखला लचीलेपन जैसे क्षेत्रों में स्वायत्तता का विस्तार होना चाहिए, जो वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा के क्षेत्र के रूप में उभर रहे हैं।

वैश्विक तुलना

  • यूरोपीय संघ (EU): संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन दोनों पर अत्यधिक निर्भरता कम करने के लिए रक्षा और प्रौद्योगिकी में ‘सामरिक स्वायत्तता’ का समर्थन करता है।
  • दक्षिण-पूर्व एशियाई राष्ट्र संघ (आसियान): बिना किसी बाध्यकारी गठबंधन के महाशक्तियों के साथ संबंधों को संतुलित करने वाले एक सिद्धांत का अनुसरण करता है ।
  • ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका: मध्यम शक्तियाँ जो ‘ग्लोबल साउथ’ के लिए एक स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर जोर देती हैं, गुटीय राजनीति का विरोध करती हैं और क्षेत्रीय शांति एवं विकास को प्राथमिकता देती हैं।

आगे की राह

  • घरेलू नींव को मजबूत करना: भारत को अपनी आर्थिक वृद्धि, रक्षा निर्माण, डिजिटल संप्रभुता और महत्त्वपूर्ण खनिजों तक पहुँच को मजबूत करना होगा, यह सुनिश्चित करते हुए कि स्वायत्तता आंतरिक शक्ति पर आधारित हो।
  • साझेदारियों में विविधता लाना: अफ्रीका, लैटिन अमेरिका, आसियान और यूरोप के साथ गहरे संबंध स्थापित कर अमेरिका-रूस-चीन त्रिकोण पर निर्भरता से आगे बढ़ना।
  • बहुपक्षवाद में सुधार: उभरती अर्थव्यवस्थाओं को अधिक अधिकार देने के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के विस्तार, विश्व व्यापार संगठन (WTO) के अधिक न्यायसंगत नियमों और जलवायु वित्त न्याय के लिए पहलों का नेतृत्व करना।
  • वैश्विक मानदंडों को आकार देना: भारत को साइबर सुरक्षा, कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) शासन, बाह्य अंतरिक्ष कानून और डेटा प्रवाह पर मानक स्थापित करने और नए वैश्विक नियमों को आकार देने में अग्रणी भूमिका निभानी चाहिए।
  • यथार्थवाद को मूल्यों के साथ संतुलित करना: भारत को व्यावहारिक राजनीति को लोकतंत्र, बहुलवाद और नियम-आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के साथ जोड़ना होगा, जिससे वैश्विक क्षेत्र में विश्वसनीयता सुनिश्चित हो सके।

निष्कर्ष

सामरिक स्वायत्तता भारत को प्रमुख शक्तियों के साथ समान शर्तों पर जुड़ने में सक्षम बनाती है, साथ ही संप्रभुता, न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की रक्षा करते हुए, स्वयं को स्थिरता और समावेशी वैश्विक नेतृत्व के एक संप्रभु ध्रुव के रूप में स्थापित करती है।

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