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प्रांतीय नागरिकता

Lokesh Pal September 29, 2025 01:55 28 0

संदर्भ

नागरिकता, अधिवास और प्रवास पर वर्तमान में संचालित बहस प्रांतीय नागरिकता (Provincial Citizenship) के उदय को रेखांकित करती है, जो मूलनिवासीवाद (Nativism) से प्रेरित होकर एकल भारतीय नागरिकता की अवधारणा को चुनौती देती है और बहिष्कार, भेदभाव तथा क्षेत्रीय विखंडन के जोखिम को बढ़ाती है।

संबंधित तथ्य   

  • बहस का संदर्भ: NRC अपडेट, अधिवास नीतियों और शहरी भारत में प्रवासियों के साथ दुर्व्यवहार के संदर्भ में प्रांतीय नागरिकता के विचार पर बहस चल रही है।
  • विद्वानों का दृष्टिकोण: कई विद्वान इस ओर संकेत करते हैं कि झारखंड, जम्मू-कश्मीर और असम जैसे राज्यों में अधिवास की राजनीति एक ऐसे नए स्तर का निर्माण कर रही है, जो राष्ट्रीय नागरिकता की अवधारणा से प्रतिस्पर्द्धा करता प्रतीत होता है।
  • वैश्विक आयाम: यह प्रवृत्ति एक व्यापक वैश्विक परिघटना का हिस्सा है, जहाँ गतिशीलता और प्रवासन जैसे मुद्दे स्थायित्व आधारित राजनीति से टकराते हैं और इसके परिणामस्वरूप ‘स्थानीय’ तथा ‘बाहरी’ के बीच का संघर्ष उभरता है।

ऐतिहासिक और सैद्धांतिक संदर्भ

  • प्रगति के रूप में गतिशीलता: व्यापारियों और पशुपालकों के प्राचीन व्यापार मार्गों से लेकर आज के वैश्वीकृत श्रम प्रवाह तक, गतिशीलता ने ऐतिहासिक रूप से सभ्यता को गति दी है।
    • इसके विपरीत, स्थायी निवास वंश, भूमि और संसाधनों को बहिष्कारवादी राजनीति से जोड़ता है।
  • संवैधानिक ढाँचा: भारत में एकल और राष्ट्रीय नागरिकता का प्रावधान है, जो नागरिकता अधिनियम, 1955 द्वारा विनियमित है, वहीं समानता, भेदभाव रहित और मुक्त आवागमन के अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद-14 (कानून के समक्ष समानता और कानूनों का समान संरक्षण), अनुच्छेद-15 (भेदभाव का निषेध), अनुच्छेद-16 (सार्वजनिक रोजगार में अवसर की समानता) और अनुच्छेद-19 (नागरिकों के अधिकारों का संरक्षण) के अंतर्गत संरक्षित हैं।।
  • राज्य पुनर्गठन आयोग (States Reorganisation Commission- SRC) की चेतावनी (1955): SRC ने चेतावनी दी कि अधिवास नियम सामान्य भारतीय नागरिकता (Common Indian Citizenship) की अवधारणा को कमजोर कर देंगे और यदि सुधारात्मक कानून न बनाए गए तो संवैधानिक प्रावधान निरर्थक हो जाएँगी।

महत्त्वपूर्ण अवधारणाएँ

  • नागरिकता: भारतीय संविधान और नागरिकता अधिनियम, 1955 के तहत गारंटीकृत एक विशिष्ट राष्ट्रीय पहचान है। प्रत्येक भारतीय नागरिक को सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में समान अधिकार प्राप्त हैं।
  • निवास: एक कानूनी निवास स्थिति, जिसका उपयोग राज्य प्रायः सरकारी नौकरियों, शैक्षणिक प्रवेश, भूमि अधिकारों और कल्याणकारी योजनाओं के लिए पात्रता निर्धारित करने के लिए करते हैं।
  • प्रवासी: आंतरिक प्रवासी (जो आजीविका के लिए राज्यों के मध्य प्रवास करते हैं) भारत की शहरी अर्थव्यवस्थाओं के लिए महत्त्वपूर्ण हैं, लेकिन प्रायः अधिवास नियमों के कारण उन्हें बहिष्कार और पहुँच की कमी का सामना करना पड़ता है।
  • प्रांतीय नागरिकता: एक अनौपचारिक, राजनीतिक रूप से निर्मित पहचान, जहाँ अधिकारों, लाभों तक पहुँच किसी विशेष राज्य के ‘मूल निवासी’ या ‘स्थानीय’ होने पर निर्भर करती है।

‘सन ऑफ द साइल’ (Sons of the Soil)

  • यह मूलनिवासी राजनीति को संदर्भित करता है, जहाँ स्थानीय पहचान को प्रवासियों की तुलना में प्राथमिकता दी जाती है, जिससे मूल निवासियों और बाहरी लोगों के बीच विभाजन उत्पन्न होता है। इस अवधारणा का उपयोग रोजगार, शिक्षा और कल्याण में क्षेत्रीय प्राथमिकताओं को उचित ठहराने के लिए किया जाता है।

प्रांतीय नागरिकता के बारे में

  • परिभाषा: प्रांतीय नागरिकता, क्षेत्र-आधारित संबद्धता की परिभाषाओं को संदर्भित करती है, जहाँ निवास स्थान या नृजातीय पहचान अधिकारों, नौकरियों अथवा कल्याण तक पहुँचने का आधार बन जाती है।
  • प्रकृति: यह आधिकारिक नागरिकता कानून का हिस्सा नहीं है, बल्कि राज्य की नीतियों, निवास आवश्यकताओं और राजनीतिक बयानबाजी के माध्यम से कार्य करता है।
  • केस स्टडीज
    • झारखंड: वर्ष 2000 में राज्य के निर्माण के बाद अधिवास नियम लागू हुए, जो प्रवासी अभिजात वर्ग के प्रति बहुसंख्यकों की शिकायतों को दर्शाते हैं और अनुच्छेद-16(2) के भेदभाव निषेध को कमजोर करते हैं।
    • जम्मू और कश्मीर: वर्ष 2019 के बाद, अधिवास प्रावधानों को हाशिए पर स्थित समूहों (वाल्मीकि, गोरखा, पश्चिमी पाकिस्तान के शरणार्थी) को शामिल करने के लिए नया रूप दिया गया, जिससे अधिवास को एक समावेशी और बहिष्कृत करने वाले साधन के रूप में प्रदर्शित किया गया।
    • असम (NRC): राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) जैसी बहिष्करण संबंधी गतिविधियाँ दर्शाती हैं कि कैसे स्वदेशी बनाम बाहरी होने का प्रश्न प्राथमिकताओं को नए सिरे से परिभाषित करता है।

राष्ट्रीय नागरिकता बनाम प्रांतीय नागरिकता

आयाम

राष्ट्रीय नागरिकता (National Citizenship)

प्रांतीय नागरिकता (Provincial Citizenship)

संवैधानिक आधार अनुच्छेद-5-11 के तहत पूरे भारत के लिए एकल नागरिकता का प्रावधान किया गया है।  अनौपचारिक निर्माण, अधिवास नियमों और राज्य स्तरीय राजनीति द्वारा आकार दिया गया।
पहचान अखिल भारतीय; विविधता में एकता को बढ़ावा देता है। क्षेत्रीय/नृजातीय/भाषायी; ‘सन ऑफ द साइल’  की भावना से जुड़ा हुआ।
गतिशीलता और अधिकार राज्यों में मुक्त आवागमन, निवास और समान अवसर सुनिश्चित करता है (अनुच्छेद-14, 15, 16, 19)। गैर-स्थानीय लोगों के लिए नौकरियों, भूमि, शिक्षा तक पहुँच को प्रतिबंधित किया जा सकता है।
संघवाद राष्ट्रीय एकीकरण को मजबूत करना; नागरिकता के मामले में राज्य संघ के अधीन हैं राज्य की स्वायत्तता को बढ़ाता है; संघीय संतुलन को चुनौती देता है।
राजनीतिक उपकरण चुनावी लामबंदी में कम प्रयोग मूलनिवासी राजनीति के लिए सशक्त उपकरण, विशेष रूप से संसाधन-विहीन राज्यों में।
न्यायिक समीक्षा न्यायालयों ने एकल नागरिकता सिद्धांत को बरकरार रखा। सीमित सहनशीलता (उदाहरण के लिए, निवास-आधारित आरक्षण जाँच के दायरे में)।
उदाहरण वर्ष 1947 के बाद अखिल भारतीय अधिकार झारखंड, महाराष्ट्र, पूर्वोत्तर राज्य, जम्मू-कश्मीर (वर्ष 2019 के बाद के अधिवास नियम)।

प्रांतीय नागरिकता की आवश्यकता

  • स्थानीय पहचान और संसाधनों की रक्षा: समर्थकों का तर्क है कि प्रांतीय नागरिकता मूलनिवासी और आदिवासी समूहों की भूमि, रोजगार तथा  सांस्कृतिक विरासत की रक्षा करती है, विशेषकर उन परिस्थितियों में, जहाँ उन्हें बाहरी लोगों के प्रभुत्व का डर रहता है।
  • हाशिये पर होने की समस्या का समाधान: यह ऐतिहासिक रूप से विकास लाभों से वंचित समुदायों को राजनीतिक मान्यता प्रदान करता है, यह सुनिश्चित करते हुए कि प्रतिस्पर्द्धी संघीय राजनीति में उनके मुद्दे पीछे न रह जाए।
  • चुनावी लामबंदी: प्रांतीय नागरिकता क्षेत्रीय दलों के लिए ‘सन ऑफ द साइल’ की भावनाओं को आकर्षित करके मतदाताओं को लामबंद करने का एक शक्तिशाली साधन है, जिससे प्रायः तत्काल चुनावी लाभ प्राप्त होता है।
  • सुधारात्मक उपकरण: इसे प्रवासन के जनसांख्यिकीय दबावों को कम करने के एक तंत्र के रूप में देखा जाता है, विशेष रूप से उन राज्यों में जहाँ गरीब क्षेत्रों से तीव्र गति से लोग आ रहे हैं।

प्रांतीय नागरिकता का महत्त्व 

  • राजनीतिक दृश्यता और स्थानीय सौदेबाजी की शक्ति: स्थानीय समुदायों और हाशिए पर स्थित समूहों (आदिवासी, दलित, जनजातियाँ) को एक दृष्टिकोण और लाभ प्रदान करता है,  जो राष्ट्रीय नीति-निर्माण में पर्याप्त रूप से प्रतिनिधित्व नहीं पा सकते।
  • क्षेत्रीय स्वायत्तता और संघीय अभिकथन: राज्यों को रोजगार, भूमि, संसाधनों और कल्याण पर नियंत्रण स्थापित करने की अनुमति देकर संघीय ढाँचे को मजबूत करता है, जिससे ‘उप-राष्ट्रीय’ पहचान की राजनीति को बल मिलता है।
  • राष्ट्रीय बहस के लिए उत्प्रेरक: यह प्रवासन, अधिवास कानूनों और कल्याणकारी उपलब्धियों पर संचालित चर्चा को प्रोत्साहन देता है, जिन्हें प्रायः मुख्यधारा की नीतिगत चर्चाओं में अनदेखा कर दिया जाता है।
  • लोकतांत्रिक संवेदनशीलता: राज्य की स्वायत्तता और राष्ट्रीय एकजुटता के बीच संचालित तनाव को दर्शाता है, यह दर्शाता है कि कैसे क्षेत्रीय आकांक्षाएँ नागरिकता के केंद्रीकृत मॉडलों को चुनौती दे सकती हैं।
  • वैश्विक रुझानों की प्रतिध्वनि: यह प्रवासन और इसकी संबद्धता पर विश्व स्तर पर चल रही बहसों के अनुरूप है; जहाँ एक ओर गतिशीलता वैश्विक रूप से प्रशंसनीय है, वहीं दूसरी ओर भारत अंतर-राज्यीय प्रवासन को विरोधाभासी रूप में संदेह की दृष्टि से देखता है।

प्रांतीय नागरिकता की चुनौतियाँ

  • एकल नागरिकता का क्षरण: एकल भारतीय नागरिकता के विचार को स्तरित प्रांतीय पहचानों में विभाजित करती है, यह प्रश्न उठाती है कि क्या सभी भारतीयों को सभी राज्यों में समान अधिकार प्राप्त हैं।
    • उदाहरण: असम NRC (2019) – 19 लाख लोगों को बाहर करने से “मूल निवासी” और “बाहरी” के बीच विभाजन उत्पन्न हो गया, जिससे एकल भारतीय नागरिकता की अवधारणा कमजोर हुई।
  • संवैधानिक संघर्ष: अनुच्छेद-14, 15, 16 और 19 का उल्लंघन करती है, जो समानता, गैर-भेदभाव, समान अवसर और आवागमन व निवास की स्वतंत्रता की गारंटी देते हैं।
    • उदाहरण: महाराष्ट्र अधिवास कानून (2020) – राज्य की नौकरियों के लिए अधिवास आरक्षण का प्रावधान करके समान अवसर और आवागमन की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करके अनुच्छेद-14, 15, 16, 19 का उल्लंघन करता है।
  • प्रवासियों का बहिष्कार: यह द्वितीय श्रेणी के नागरिकों का निर्माण करता है, क्योंकि शहरी अर्थव्यवस्थाओं के लिए आवश्यक प्रवासियों को नौकरियों, कोटा, कल्याण और आवास से वंचित किया जाता है। कोविड-19 संकट ने इस भेद्यता को स्पष्ट रूप से उजागर किया है।
    • उदाहरण: कोविड-19 प्रवासी संकट (2020) ने निवास-आधारित प्रतिबंधों के कारण कल्याणकारी योजनाओं तक पहुँच से वंचित लाखों लोगों की स्थिति के माध्यम से भेद्यता और बहिष्कार को उजागर किया।
  • मूलनिवासी राजनीति और चुनावी शोषण: यह ‘सन ऑफ द सॉइल’ संबंधी अवधारणा को प्रोत्साहित करता है, बाहरी लोगों के प्रति विद्वेष और शत्रुता को बढ़ाता है, क्षेत्रीय विभाजन को तीव्र करता है तथा लोकतांत्रिक राजनीति को अस्थिर करता है।
    • उदाहरण: महाराष्ट्र में ‘सन ऑफ द सॉइल’ अवधारणा आधारित राजनीति (2019) ने बिहार और उत्तर प्रदेश के प्रवासियों को लक्षित करने वाली मूलनिवासी अवधारणा  के माध्यम से क्षेत्रीय विभाजन को और गहरा किया।

जेनोफोबिया (Xenophobia) के बारे में

  • परिभाषा: यह दूसरे देशों या संस्कृतियों के लोगों के प्रति भय, अविश्वास या द्वेष को दर्शाता है। यह प्रायः बाहरी लोगों, अप्रवासियों या सांस्कृतिक रूप से भिन्न माने जाने वाले लोगों के प्रति शत्रुता, पूर्वाग्रह और भेदभाव के रूप में प्रकट होता है।
  • जेनोफोबिया के प्रमुख पहलू
    • सांस्कृतिक भय: यह भय कि विदेशी या विभिन्न संस्कृतियों के लोग स्थानीय रीति-रिवाजों, मूल्यों और जीवन शैली को खतरे में डाल देंगे।
    • सामाजिक बहिष्कार: बाह्य लोगों के प्रति द्वेष कुछ समूहों को हाशिए पर धकेल देता है और उन्हें बहिष्कृत कर देता है, जिसके परिणामस्वरूप प्रायः समाज में भेदभावपूर्ण कानून, रूढ़िबद्धता और अलगाव उत्पन्न होता है।
    • आर्थिक प्रभाव: जेनोफोबिया प्रवासियों के लिए नौकरी, शिक्षा या आवास तक पहुँचने में बाधाएँ उत्पन्न कर सकती हैं, भले ही वे अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हों।

  • न्यायिक अधिभार और अनिश्चितता: निवास-आधारित आरक्षण और बहिष्करण पर लगातार मुकदमेबाजी न्यायपालिका पर बोझ डालती है, जिससे मौजूदा कानूनी ढाँचे की अपर्याप्तता उजागर होती है।
    • उदाहरण: जम्मू और कश्मीर के अधिवास कोटा संबंधी मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय में दर्ज कई मामलों ने न्यायपालिका पर असाधारण बोझ डाला है, जो एक स्पष्ट विधायी ढाँचे की अनुपस्थिति और नीति-निर्माण में देरी का प्रतीक है।
  • पूर्व उदाहरण और संस्थाकरण: कई राज्य पहले से ही नौकरियों, शिक्षा और सब्सिडी में अधिवास नियमों का उपयोग करते हैं; प्रांतीय नागरिकता से बहिष्कार को और औपचारिक बनाने का जोखिम है।
    • उदाहरण: असम की अधिवास नीतियाँ तथा संस्थागत अधिवास-आधारित रोजगार आरक्षण अब अन्य राज्यों के लिए एक अनुकरणीय मॉडल बन चुका है।
  • राष्ट्रीय लक्ष्यों पर सीमांत प्रभाव: यह श्रम गतिशीलता और अंतर-राज्यीय बाजारों को सीमित करता है, जिससे आर्थिक विकास, प्रतिस्पर्द्धात्मकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और भारत के 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने के लक्ष्य में बाधा उत्पन्न होती है।
    • उदाहरण: COVID-19 संकट के दौरान प्रवासी प्रतिबंधों ने श्रम गतिशीलता में बाधा उत्पन्न की, जिससे भारत के 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था के लक्ष्य पर प्रभाव पड़ा।

प्रांतीय नागरिकता पर भारत की पहल और कार्यवाहियाँ

  • राज्य-स्तरीय अधिवास नीतियाँ
    • झारखंड: नौकरियों/शिक्षा में स्थानीय लोगों को प्राथमिकता (वर्ष 2000 के बाद राज्य का दर्जा)।
    • जम्मू और कश्मीर (वर्ष 2019 के बाद): जम्मू और कश्मीर (वर्ष 2019 के बाद) में लागू नए अधिवास नियम, स्थानीय सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए वाल्मीकि, गोरखा और पश्चिमी पाकिस्तान के शरणार्थियों के अधिकारों का संवर्द्धन करते हैं।
    • असम (NRC): लगभग 19 लाख निवासियों को छोड़कर, “मूल निवासियों” की पहचान करने का प्रयास किया गया।
    • अन्य राज्य: महाराष्ट्र, कर्नाटक और गुजरात नौकरियों, शिक्षा और भूमि अधिकारों में अधिवास मानदंड लागू करते हैं।
  • संवैधानिक सुरक्षा उपाय
    • अनुच्छेद 14-19 समानता, गैर-भेदभाव, समान अवसर और मुक्त आवागमन सुनिश्चित करते हैं।
    • सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय प्रायः भेदभावपूर्ण कोटा को रद्द कर देते हैं, लेकिन निवास-आधारित सीमित वरीयताओं की अनुमति देते हैं।
  • प्रवासन और कल्याण संबंधी सुगमता
    • एक राष्ट्र, एक राशन कार्ड (ONORC): राज्यों के मध्य खाद्य सुरक्षा संबंधी सुगमता को सक्षम बनाता है।
    • ई-श्रम पोर्टल: सुगम सामाजिक सुरक्षा के लिए प्रवासी/असंगठित श्रमिकों का राष्ट्रीय डेटाबेस।
    • श्रम संहिता (2020): अंतर-राज्यीय प्रवासी श्रमिकों के लिए कवरेज का सार्वभौमीकरण।
  • चुनावी समावेशन
    • भारत निर्वाचन आयोग (ECI): प्रवासियों के लिए दूरस्थ मतदान और बेहतर मतदाता पंजीकरण की संभावना तलाशना।
  • नीतिगत चेतावनियाँ
    • SRC रिपोर्ट (1955): चेतावनीपूर्ण अधिवास प्रतिबंध सामान्य नागरिकता की अवधारणा को कमजोर करते हैं।
    • कोविड के पश्चात् नागरिक समाज: प्रवासियों की भेद्यता पर प्रकाश डाला गया और उनके अधिकारों की राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत सुरक्षा सुनिश्चित करने पर जोर दिया गया।

वैश्विक पहल एवं सर्वोत्तम प्रथाएँ

  • यूरोपीय संघ (EU): 27 सदस्य देशों में मुक्त आवागमन, निवास अधिकार और समान व्यवहार की गारंटी प्रदान करता है, राष्ट्रीय संप्रभुता और क्षेत्रीय एकीकरण के बीच संतुलन बनाता है।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका: एकल संघीय नागरिकता सभी राज्यों पर समान रूप से लागू होती है, केवल निवास-आधारित कल्याण पात्रता स्थानीय स्तर पर भिन्न होती है।
  • दक्षिण अफ्रीका: रंगभेदोपरांत संरचना संवैधानिक अधिकारों के तहत प्रांतों के भीतर भेदभाव रहित, समान अवसर एवं गतिशीलता सुनिश्चित करने का आधार प्रदान करती है।
  • रवांडा और कनाडा: समावेशी प्रवासन नीतियों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व कोटा के साथ संयोजित करना, यह सुनिश्चित करते हुए कि प्रवासियों को शासन में एकीकृत किया जाए।

आगे की राह

  • संसदीय विधान: संसद को एक राष्ट्रीय ढाँचा बनाना चाहिए, जो अधिवास नीतियों की अनुमेय सीमाओं को स्पष्ट रूप से परिभाषित करे और यह सुनिश्चित करे कि राज्य एकल भारतीय नागरिकता के सिद्धांत का उल्लंघन न करें।
  • प्रवासी सुरक्षा को मजबूत करना: स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, आवास और रोजगार में कल्याणकारी उपलब्धियों का व्यापक विस्तार, जैसे ‘एक राष्ट्र, एक राशन कार्ड’ जैसी योजनाएँ, आंतरिक प्रवासियों को स्थानांतरित होने पर भी समान अधिकार एवं अवसर प्रदान करने के लिए आवश्यक है।
  • संतुलित संघवाद: राज्यों को निवास-आधारित लाभ या समयबद्ध पात्रता (जैसे- 3-5 वर्षों के निवास के बाद) डिजाइन करने की सीमित शक्ति प्रदान करना, लेकिन उन्हें समानता और अन्य मूल संवैधानिक अधिकारों के हनन को रोकना।
  • न्यायिक निगरानी और संवैधानिक सीमाएँ: राज्य-स्तरीय कल्याणकारी योजनाओं में भिन्नताएँ कहाँ मान्य हैं, यह निर्धारित करने के लिए स्पष्ट न्यायशास्त्र स्थापित करना, साथ ही अनुच्छेद-14, 15, 16 और 19 के उल्लंघन को रोकना।
  • भारत निर्वाचन आयोग (ECI) निगरानी: प्रवासियों को लक्षित करने वाले मूलनिवासी अभियानों को हतोत्साहित करने और दलगत मान्यता एवं वित्तपोषण नियमों में आचार संहिताओं और समावेशी सुरक्षा उपायों को एकीकृत करने के लिए ECI को सशक्त बनाना।
  • जन जागरूकता और समावेशन: शहरों और अर्थव्यवस्थाओं के निर्माण में प्रवासियों की भूमिका को प्रदर्शित करने वाले व्यापक जन अभियान आरंभ किए जाने चाहिए, जिससे उन्हें ‘बाहरी’ की बजाय ‘राष्ट्र निर्माता’ के रूप में देखने की सामाजिक धारणा विकसित हो। यह बाह्य लोगों के प्रति-द्वेष को कम करने और सामाजिक एकता को सुदृढ़ करने में सहायक होगा।
  • राजनीतिक जवाबदेही: राजनीतिक दलों एवं नेताओं को प्रवासन संबंधी मुद्दों पर जिम्मेदार बयानबाजी और संतुलित नीतियाँ अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, जिससे लोकलुभावन बहिष्कार की बजाय सतत् एवं विचारशील एकीकरण की प्रक्रिया को बल मिले।
  • दूसरों से सीख: भारत को राष्ट्रीय एकता बनाए रखने के लिए समान नागरिकता सिद्धांत बनाए रखना चाहिए, साथ ही पहचान-आधारित बहिष्करण को बढ़ावा देने के बजाय निवास-संबंधी कल्याणकारी समावेशन को मजबूत करना चाहिए, जिससे समानता और एकीकरण दोनों सुनिश्चित हों।

निष्कर्ष

प्रांतीय नागरिकता स्थानीय स्तर पर असुरक्षाओं को संबोधित कर सकती है, किंतु इससे भारत की एकता और समानता के सिद्धांतों का विघटन होने का खतरा है। बंधुत्त्व, न्याय एवं समानता जैसे संवैधानिक मूल्यों और सतत् विकास लक्ष्य 10 के अनुरूप, भारत को समावेशी एवं स्थायी एकता सुनिश्चित करने हेतु ‘एक राष्ट्र, एक नागरिकता’ के सिद्धांत को पुनः स्थापित करना आवश्यक है।

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