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राज्यों की राजकोषीय वित्तीय पर CAG रिपोर्ट

Lokesh Pal September 30, 2025 03:58 23 0

संदर्भ

हाल ही में नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) ने भारत के 28 राज्यों की राजकोषीय स्थिति का दशकीय विश्लेषण जारी किया है, जिसमें पिछले दशक में सार्वजनिक ऋण में तीव्र वृद्धि पर प्रकाश डाला गया है।

  • यह तथ्य कि राज्य सरकारें सामूहिक रूप से कल्याण और विकास पर केंद्र सरकार की तुलना में अधिक व्यय करती हैं, संघवाद, कल्याणकारी वितरण तथा सतत् विकास के लिए गहन निहितार्थ प्रस्तुत करता है।

महत्त्वपूर्ण शब्दावली

  • सकल राज्य घरेलू उत्पाद (GSDP): यह किसी राज्य की भौगोलिक सीमाओं के भीतर उत्पादित सभी तैयार वस्तुओं और सेवाओं का मूल्य है।
  • GSDP के प्रतिशत के रूप में ऋण (Debt as % of GSDP): यह किसी राज्य के कुल बकाया सार्वजनिक ऋण और उसके सकल राज्य घरेलू उत्पाद का अनुपात है।
    • प्रासंगिकता: राज्य की अर्थव्यवस्था के आकार के सापेक्ष ऋण के बोझ को दर्शाता है।
  • राजस्व के सापेक्ष बढ़ता ऋण (Rising Debt Relative to Revenues): यह किसी राज्य के कुल बकाया सार्वजनिक ऋण और उसकी राजस्व प्राप्तियों का अनुपात है।
    • प्रासंगिकता: यह इस बात को दर्शाता है कि उसकी आय कितनी बार उसके ऋण दायित्वों को पूरा करने में बाध्य है।
  • कुल गैर-ऋण प्राप्तियों के प्रतिशत के रूप में ऋण: यह उधार को छोड़कर सभी प्राप्तियों और कुल सार्वजनिक ऋण का अनुपात है।
    • प्रासंगिकता: यह दर्शाता है कि किसी राज्य की नियमित आय उसके ऋण भार को किस सीमा तक पूरा कर सकती है।

राज्यों की राजकोषीय स्थिति पर CAG रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष

  • एक दशक में ऋण वृद्धि: राज्यों का कुल सार्वजनिक ऋण वर्ष 2013-14 में ₹17.57 लाख करोड़ से 3.39 गुना बढ़कर वर्ष 2022-23 में ₹59.60 लाख करोड़ हो गया।
    • GSDP के प्रतिशत के रूप में ऋण: संयुक्त GSDP के 16.66% से बढ़कर 22.96% हो गया, जो अधिक राजकोषीय बोझ दर्शाता है।
  • राज्यवार ऋण परिदृश्य
    • GSDP की तुलना में सर्वाधिक ऋण: पंजाब (40.35%) > नागालैंड (37.15%) > पश्चिम बंगाल (33.70%)।
    • GSDP की तुलना में सबसे कम ऋण: ओडिशा (8.45%) < महाराष्ट्र (14.64%) < गुजरात (16.37%)।
    • मार्च 2023 तक स्थिति
      • 8 राज्यों का ऋण GSDP के 30% से अधिक था।
      • 6 राज्यों का ऋण GSDP के 20% से कम था।
      • 14 राज्य 20-30% की सीमा में थे।
  • राजस्व के सापेक्ष बढ़ता ऋण: वर्ष 2014-15 में ऋण राजस्व प्राप्तियों का 128% था, जो वर्ष 2020-21 (कोविड वर्ष) में 191% के शिखर पर पहुँच गया।
    • औसतन, ऋण राज्यों के राजस्व का लगभग 150% रहा है, जिससे स्थिरता संबंधी चिंताएँ बढ़ रही हैं।
    • इसी अवधि में कुल गैर-ऋण प्राप्तियों के प्रतिशत के रूप में यह 127% से 190% के बीच था।
  • राजस्व पर निर्भरता: महाराष्ट्र जैसे राज्य अपनी राजस्व प्राप्तियों का लगभग 70% आंतरिक स्रोतों से जुटाते हैं, जबकि अरुणाचल प्रदेश केवल 9% और उत्तर प्रदेश लगभग 42% जुटा पाते हैं। अधिशेष होने के बावजूद, उत्तर प्रदेश, केंद्र सरकार के हस्तांतरण पर अत्यधिक निर्भर है।
    • कई राज्य अस्थिर गैर-कर स्रोतों पर निर्भर हैं: लॉटरी उद्योग (केरल), खनन रॉयल्टी (ओडिशा), भूमि बिक्री (तेलंगाना)। 
      • ये दीर्घकालिक रूप से स्थायी नहीं हैं।

भारत में राज्यों पर अत्यधिक ऋण होने के कारण

  • GST के बाद राजकोषीय स्वायत्तता में कमी: GST (2017) ने अप्रत्यक्ष कर संग्रह को केंद्रीकृत कर दिया, जिससे राज्यों की राजस्व जुटाने की शक्ति सीमित हो गई।
    • केंद्रीय उपकरों और अधिभारों में वृद्धि से विभाज्य पूल और संकुचित हो गया, जिससे राज्यों की राजकोषीय क्षमता कम हो गई।
      • उदाहरण के लिए: उपकर और अधिभार वर्ष 2011-12 में 10.4% से बढ़कर वर्ष 2021-22 में 20% हो गए। यह प्रवृत्ति राज्यों के साथ साझा किए जाने वाले करों के पूल को प्रभावी रूप से कम कर देती है।

  • उपकर (Cess): उपकर एक प्रकार का कर है, जो किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिए लगाया जाता है। यह ‘कर पर कर’ होता है, जो उत्पाद शुल्क या आयकर जैसे किसी मौजूदा कर के अतिरिक्त लगाया जाता है, और इसका राजस्व किसी विशेष उपयोग के लिए निर्धारित होता है।
    • उपकरों को संविधान में अनुच्छेद-277 और अनुच्छेद-270 (जो केंद्र और राज्यों के मध्य राजस्व-साझाकरण ढाँचे को रेखांकित करता है) के तहत मान्यता प्राप्त है।
  • अधिभार (Surcharge): अधिभार मौजूदा शुल्कों या करों पर लगाया गया एक अतिरिक्त कर या लेवी है। यह अनिवार्य रूप से एक “कर पर कर” है और भारतीय संविधान के अनुच्छेद-270 और 271 में इसका उल्लेख किया गया है।

  • राजस्व और खर्च में असंतुलन: राज्य कुल राजस्व का एक-तिहाई से भी कम संग्रह करते हैं, लेकिन सार्वजनिक व्यय का लगभग दो-तिहाई हिस्सा उनका ही है।
    • यह असंतुलन संरचनात्मक रूप से अधिक उधार लेने के लिए बाध्य करता है।
  • लोकलुभावन व्यय और सब्सिडी: मुफ्त विद्युत, कृषि ऋण माफी और व्यापक कल्याणकारी योजनाएँ आवर्ती लागतों को बढ़ाती हैं।
    • कई मामलों में, उधार ली गई धनराशि का उपयोग बुनियादी ढाँचे के बजाय सब्सिडी, वेतन और पेंशन के लिए किया जाता है।
  • कोविड 19 महामारी का प्रभाव: कोविड-19 महामारी के दौरान कर संग्रह में भारी गिरावट आई। राज्यों का स्वास्थ्य और कल्याण पर आपातकालीन खर्च बढ़ गया, जिससे ऋण का स्तर विकृत हो गया।
  • बाजार उधार (SDL) पर बढ़ती निर्भरता: बाजार ऋण अब राज्य ऋण के सबसे बड़े घटक बन गए हैं। इन पर केंद्रीय उधार की तुलना में अधिक ब्याज दरें होती हैं, जिससे पुनर्भुगतान का दबाव बढ़ जाता है।
    • कुछ राज्य राजस्व प्राप्तियों का 20-25% केवल ब्याज भुगतान पर खर्च करते हैं।

गोल्डन रूल ऑफ बॉरोइंग (Golden Rule of Borrowing)

  • सरकारों को केवल पूँजीगत व्यय (बुनियादी ढाँचे जैसे दीर्घकालिक निवेश) के लिए उधार लेना चाहिए, न कि वर्तमान व्यय (जैसे- वेतन, सब्सिडी या पेंशन) के वित्तपोषण के लिए, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि ऋण, उत्पादक परिसंपत्तियों का निर्माण करे, जिससे भावी पीढ़ियों को लाभ हो।

  • ‘गोल्डन रूल ऑफ बॉरोइंग’ का उल्लंघन: 11 राज्यों (आंध्र प्रदेश, पंजाब, बिहार, केरल, तमिलनाडु, आदि) ने निवेश के लिए नहीं, बल्कि चालू व्यय के लिए उधार लिया।
    • आंध्र प्रदेश और पंजाब में, पूँजीगत व्यय, शुद्ध उधारी का केवल 17-26% था।
    • यह राजकोषीय स्थिरता और अंतर-पीढ़ीगत समता को लेकर चिंताएँ उत्पन्न करता है।
  • कोविड-19 महामारी का प्रभाव: आर्थिक संकुचन और आपातकालीन उधारी के कारण ऋण-GSDP अनुपात 21% (2019-20) से बढ़कर 25% (2020-21) हो गया।
    • GST क्षतिपूर्ति में कमी ने तनाव को और बढ़ा दिया, जिसके कारण केंद्र को लगातार ऋण और विशेष सहायता प्रदान करनी पड़ी।
    • कुल मिलाकर, महामारी के दौरान राज्यों की केंद्र पर राजकोषीय निर्भरता और भी बढ़ गई।
  • कल्याण का विरोधाभास: अधिशेष का अर्थ हमेशा लोगों के लिए बेहतर कल्याण नहीं होता है।
    • कई राज्य केंद्रीय हस्तांतरण, प्रछन्न ऋणों या लागतों को स्थगित करने के कारण अधिशेष दिखाते हैं, न कि मजबूत वित्तीय स्थिति के कारण।
    • उदाहरण: आंध्र प्रदेश और उत्तर प्रदेश में कृषि ऋण माफी और मुफ्त बिजली का वित्तपोषण उधार या विलंबित भुगतान से किया जाता है।

भारत में बढ़ते राज्य सार्वजनिक ऋण के निहितार्थ

  • राजकोषीय संघवाद के लिए खतरा: बढ़ते ऋण ने कई राज्यों को केंद्रीय हस्तांतरण और ऋणों पर निर्भर बना दिया है, उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश का अधिशेष अभी भी 58% केंद्रीय हस्तांतरण पर निर्भर है।
    • GST ने पहले ही राज्यों की कराधान शक्तियों को कम कर दिया है, जबकि केंद्रीय उपकर/अधिभार उनके राजस्व हिस्से को और कम कर रहे हैं।
    • बढ़ती देनदारियों के साथ, केंद्र राज्य की व्यय प्राथमिकताओं पर अधिक नियंत्रण प्राप्त कर लेता है, जिससे वित्तीय स्वायत्तता कमजोर हो जाती है, जो प्रभावी सहकारी संघवाद के लिए आवश्यक है।
  • राजकोषीय भ्रम संबंधी जोखिम: कॉरपोरेट कर में कटौती, बजट से इतर उधारी और ‘प्रतीकात्मक कल्याणकारी योजनाएँ’ (पीएम-किसान, उज्ज्वला, आयुष्मान भारत) कल्याणकारी विस्तार का एक परिदृश्य प्रस्तुत कर सकती हैं, लेकिन वास्तव में राज्यों का राजकोषीय आधार कमजोर बना हुआ है, जिससे अस्थिरता का जोखिम बढ़ रहा है।
  • केंद्र-राज्य राजकोषीय संतुलन: केंद्र सरकार का अपना ऋण (वित्त वर्ष 2024 में सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 57%) तथा बढ़ता हुआ राज्य ऋण (GDP का लगभग 23%) भारत के सामान्य सरकारी ऋण को सकल घरेलू उत्पाद के लगभग 80% तक पहुँचा देते हैं, जो FRBM समीक्षा समिति के निर्धारित 60% लक्ष्य से काफी अधिक है।
  • अस्थिर राजस्व निर्भरता: कुछ राज्य लॉटरी राजस्व (केरल), खनन रॉयल्टी (ओडिशा), या भूमि बिक्री (तेलंगाना) जैसे अस्थिर आय स्रोतों पर निर्भर हैं। जब इन स्रोतों में उतार-चढ़ाव होता है, तो ऋण चुकाना कठिन हो जाता है।
  • अंतर-पीढ़ीगत समता: वर्तमान व्यय के लिए अत्यधिक उधार लेने से उत्पादक परिसंपत्तियाँ सृजित किए बिना ही भविष्य के करदाताओं पर बोझ पड़ता है।

आगे की राह

  • राज्यों के राजस्व आधार का विस्तार करना: संपत्ति कर को मजबूत करना, GST अनुपालन में सुधार करना और गैर-कर राजस्व में विविधता लाना ताकि राज्य लॉटरी, भूमि बिक्री या खनन रॉयल्टी जैसे अस्थिर स्रोतों पर अत्यधिक निर्भर न रहें।
  • उत्पादक व्यय को प्राथमिकता देना: उधारों को सब्सिडी या वेतन बिलों के बजाय सड़कों, स्वास्थ्य अवसंरचना और स्कूलों जैसे पूँजीगत निवेशों में अधिक लगाया जाना चाहिए।
    • यह ‘गोल्डन रूल ऑफ बॉरोइंग’ के अनुरूप है।
  • ऋण पुनर्गठन: राज्यों को महँगे ऋणों का पुनर्वित्त करना चाहिए, कम लागत वाले स्रोतों [जैसे- राष्ट्रीय लघु बचत कोष (National Small Savings Fund- NSSF), ग्रीन बॉण्ड, इन्फ्रास्ट्रक्चर बॉण्ड] का उपयोग करना चाहिए और ऋण सीमा के प्रति प्रतिबद्ध होना चाहिए, जो ऋण-GSDP अनुपात को FRBM अधिनियम (2003) की सीमाओं के अंतर्गत रखे।
  • सामाजिक सुरक्षा तंत्र को मजबूत बनाना: वहनीय, लक्षित सामाजिक सुरक्षा प्रणालियाँ स्थापित करना ताकि कमजोर समूहों को अत्यधिक बजटीय दबाव के बिना सहायता मिल सके।
  • वित्तपोषण में नवाचार: बुनियादी ढाँचे के स्थायी वित्तपोषण के लिए सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP), म्युनिसिपल बॉन्ड और मिश्रित वित्त मॉडल का उपयोग करना।
  • सार्वजनिक वित्तीय प्रबंधन में सुधार: परिणामों से जुड़े प्रदर्शन-आधारित बजट की शुरुआत करना, बेंचमार्किंग के लिए राजकोषीय स्वास्थ्य सूचकांक (FHI) जैसे उपकरणों का उपयोग करना और खरीद तथा व्यय में लीकेज एवं अक्षमताओं को रोकने के लिए डिजिटल प्रणालियों को अपनाना।

राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन (FRBM) अधिनियम, 2003 क्या है?

  • परिचय: वर्ष 2003 में अधिनियमित, FRBM अधिनियम का उद्देश्य राजकोषीय अनुशासन सुनिश्चित करना, घाटे को कम करना और अंतर-पीढ़ीगत समानता की रक्षा करते हुए दीर्घकालिक आर्थिक स्थिरता को बढ़ावा देना है। वैश्विक वित्तीय मंदी और कोविड-19 महामारी जैसे संकटों के दौरान लक्ष्यों को अद्यतन करने और लचीलापन प्रदान करने के लिए इसमें कई बार संशोधन (वर्ष 2004, 2012, 2015, 2018) किया गया है।
  • मुख्य प्रावधान
    • राजकोषीय उत्तरदायित्व: केंद्रीय वित्त मंत्री को संसद में राजकोषीय प्रदर्शन और सुधारात्मक उपायों पर नियमित रिपोर्ट प्रस्तुत करने की आवश्यकता होती है।
    • मध्य-अवधि राजकोषीय नीति (MTFP): राजस्व घाटा, राजकोषीय घाटा और सरकारी ऋण के लक्ष्यों को रेखांकित करने वाला एक तीन-वर्षीय सतत् ढाँचा अनिवार्य करता है।
    • पर्यवेक्षण: CAG अनुपालन का मूल्यांकन करता है, पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करता है।
  • FRBM लक्ष्य
    • ऋण लक्ष्य (वर्ष 2018 में संशोधन)
      • सामान्य सरकारी ऋण (केंद्र + राज्य): इसे GDP के 60% तक कम किया जाएगा।
      • केंद्र सरकार का ऋण: इसे वित्तीय वर्ष 2024-25 तक GDP के 40% तक कम किया जाएगा।
    • राजकोषीय घाटा लक्ष्य
      • पूर्व लक्ष्य: मार्च 2021 तक GDP का 3% (कोविड 19 महामारी के कारण स्थगित)।
      • वर्तमान प्रतिबद्धता: वित्त वर्ष 2025-26 तक GDP का 4.5% से कम।
      • जून 2025 में, भारत ने वित्त वर्ष 2024-25 के लिए सकल घरेलू उत्पाद के 4.8% का राजकोषीय घाटा हासिल किया।
    • ऋण गारंटी: भारत के संचित कोष पर अतिरिक्त गारंटी एक वर्ष में GDP का 0.5% से अधिक नहीं हो सकती।
  • राज्यों से संबंधित: 12वें वित्त आयोग ने राज्यों को अपने स्वयं के FRBM कानून बनाने की सिफारिश की थी, जिसमें आमतौर पर ऋण-GSDP अनुपात को लगभग 20-25% तक सीमित रखा जाता था।
    • आज कई राज्य इन सांकेतिक सीमाओं का उल्लंघन कर रहे हैं, जिससे राजकोषीय स्थिरता को लेकर चिंताएँ बढ़ रही हैं।

निष्कर्ष

राज्यों का बढ़ता हुआ ऋण, प्रछन्न राजकोषीय अंतराल और केंद्र पर अत्यधिक निर्भरता, कल्याणकारी योजनाओं के प्रभावी क्रियान्वयन और संघीय संतुलन दोनों के लिए गंभीर खतरा हैं। इसलिए राजस्व आधार को सुदृढ़ करना और उत्पादक तथा पारदर्शी उधारी सुनिश्चित करना सतत् विकास की कुंजी है।

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