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न्यायिक सुधार: NJAC पुनरुद्धार याचिका और राष्ट्रीय न्यायिक नीति का आह्वान

Lokesh Pal November 28, 2025 01:50 5 0

संदर्भ 

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने संकेत दिया कि वह राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) पर पुनर्विचार करने और कॉलेजियम प्रणाली को समाप्त करने की याचिका पर विचार करेगा।

संबंधित तथ्य 

  • हाल ही में भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) ने विभिन्न न्यायक्षेत्रों में न्यायिक कार्यप्रणाली में सामंजस्य स्थापित करने के लिए एक राष्ट्रीय न्यायिक नीति बनाने का आह्वान किया।

NJAC पुनरुद्धार याचिका की पृष्ठभूमि

  • वर्ष 2015 के निर्णय को चुनौती: याचिका में तर्क दिया गया है कि NJAC और 99वें संविधान संशोधन को रद्द करने से संसद की लोकतांत्रिक सहमति का स्थान न्यायिक व्याख्या ने ले लिया है, जिससे नियंत्रण और संतुलन के सिद्धांत का उल्लंघन हुआ है।
  • लोकतांत्रिक वैधता की माँग: याचिका में जोर देकर कहा गया है कि NJAC को लगभग सर्वसम्मत संसदीय समर्थन और राज्य का अनुमोदन प्राप्त था, जिससे असाधारण लोकतांत्रिक वैधता प्राप्त हुई, जिसे वर्ष 2015 के निर्णय ने कम कर दिया।
  • कॉलेजियम की अस्पष्टता पर प्रकाश डाला गया: इसमें दावा किया गया है कि कॉलेजियम प्रणाली में पारदर्शिता, वस्तुनिष्ठ मानदंड और सार्वजनिक जवाबदेही का अभाव है, जिससे संस्थागत विश्वास कमजोर होता है।
  • भाई-भतीजावाद के आरोप: याचिका में तर्क दिया गया है कि कॉलेजियम भाई-भतीजावाद, पक्षपात और आंतरिक लॉबिंग के प्रति संवेदनशील है, जिससे योग्यता आधारित विश्वसनीयता कमजोर होती है।
  • शक्तियों के पृथक्करण का मुद्दा: यह NJAC को शक्तियों के पृथक्करण की एक संतुलित व्याख्या को पुनर्स्थापित करने के प्रयास के रूप में प्रस्तुत करता है, जहाँ नियुक्तियों में कार्यपालिका और विधायिका की संवैधानिक रूप से वैध भूमिका होती है।
  • संवैधानिक आशय की गलत व्याख्या: याचिका में यह तर्क दिया गया है कि संविधान निर्माताओं का न्यायाधीश-नियंत्रित नियुक्ति प्रणाली के प्रयोग का कोई उद्देश्य नहीं था, क्योंकि संविधान के मसौदे को प्रस्तुत करते समय उन्होंने न्यायिक “सहमति” के विचार को स्पष्ट रूप से अस्वीकार कर दिया था।
  • आरंभ से ही शून्य घोषित करने की माँग: याचिका में वर्ष 2015 के फैसले को शुरू से ही शून्य घोषित करने और NJAC को वैध तंत्र के रूप में बहाल करने की माँग की गई है।
  • संविधान दिवस पर प्रतीकात्मक उल्लेख: संविधान दिवस पर दायर की गई यह याचिका संवैधानिक जवाबदेही और लोकतांत्रिक निगरानी के बारे में चिंताओं को उजागर करती है।

मुख्य न्यायाधीश का राष्ट्रीय न्यायिक नीति का आह्वान – सुसंगतता के लिए एक रूपरेखा

  • राष्ट्रीय न्यायिक नीति सभी न्यायालयों के लिए एक समान मानकों का पालन करने हेतु एक सामान्य मार्गदर्शक ढाँचे के रूप में कार्य करेगी।
  • उद्देश्य: न्याय प्रदान करने में केवल प्रशासनिक प्रबंधन से आगे बढ़कर वास्तविक संस्थागत समानता सुनिश्चित करना।
  • राष्ट्रीय न्यायिक नीति की आवश्यकता: यह नीति विधि के शासन और समानता को कमजोर करने वाले मुद्दों को संबोधित करती है।
    • व्याख्यात्मक सुसंगतता की आवश्यकता: भारत के 25 उच्च न्यायालयों में असंगत निर्णयों के कारण कानूनी व्याख्या में अपरिहार्य विचलन उत्पन्न होता है।
      • मुख्य न्यायाधीश ने जोर देकर कहा कि यह विविधता मूलतः विधि के समक्ष समानता और विधि की निश्चितता के लिए खतरा है।
    • “न्यायिक समरूपता” संबंधी विजन: इस नीति का उद्देश्य न्यायालयों को एकीकृत “न्यायिक समरूपता” की अवधारणा पर संचालित करना है, जहाँ विविध न्यायिक दृष्टिकोण एक समान संवैधानिक मार्गदर्शक सिद्धांत से संचालित हों, जिससे न्यायपालिका की संस्थागत पहचान सुदृढ़ हो सके।
    • अधिकार बनाम उपचार के अंतर को संबोधित करना: यह नीति न्याय तक पहुँच (अनुच्छेद-32 (संवैधानिक उपचारों का अधिकार) और 39A (समान न्याय और निःशुल्क कानूनी सहायता) प्राप्त करने के लिए महत्त्वपूर्ण है।
      • मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि लागत, भाषा और विलंब जैसी प्रणालीगत बाधाएँ असमान पहुँच पैदा करती हैं, जिससे हाशिए पर स्थित लोगों के लिए न्याय अप्राप्य हो जाता है और यह धन या भूगोल आधारित विशेषाधिकार बन जाता है।
    • संस्थागत समता: प्रक्रियात्मक और कानूनी अनुप्रयोग में असमानताओं को न्यूनतम करके, यह नीति सुनिश्चित करती है कि न्याय की गुणवत्ता स्थान पर निर्भर न हो।

राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) के बारे में 

NJAC को न्यायाधीशों की नियुक्ति को विनियमित करने और आयोग को सशक्त बनाने के लिए 99वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2014 द्वारा पेश किया गया था।

  • विशेषता: NJAC में भारत के मुख्य न्यायाधीश (अध्यक्ष के रूप में), सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीश, विधि एवं न्याय मंत्री और दो प्रतिष्ठित व्यक्ति शामिल थे।
  • अस्वीकार: सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने NJAC को असंवैधानिक घोषित करते हुए कहा कि यह भारत के संविधान के मूल ढाँचे का उल्लंघन करता है।
    • न्यायालय ने यह निर्धारित किया कि नियुक्ति प्रक्रिया में निष्पक्षता और वस्तुनिष्ठता को खतरे में डाल सकता है, जिससे न्यायिक स्वतंत्रता खतरे में पड़ सकती है।

भारत में न्यायाधीशों की नियुक्ति

कॉलेजियम प्रणाली के माध्यम से देश भर के सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण किया जाता है।

  • संवैधानिक प्रावधान
    • अनुच्छेद-124: सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श के बाद की जानी चाहिए, जिन्हें राष्ट्रपति आवश्यक समझें।
    • अनुच्छेद-217: उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा मुख्य न्यायाधीश और राज्य के राज्यपाल से परामर्श के बाद की जानी चाहिए।
  • नियुक्ति की प्रक्रिया
    • सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश
      • कॉलेजियम द्वारा सिफारिशें: सभी नियुक्तियों की सिफारिश कॉलेजियम द्वारा की जानी चाहिए।
      • सरकारी अनुमोदन: यह सिफारिश राष्ट्रपति की स्वीकृति से पहले विधि मंत्री और फिर प्रधानमंत्री के माध्यम से केंद्र सरकार को भेजी जाती है।
    • उच्च न्यायालय के न्यायाधीश
      • कॉलेजियम की सिफारिशें: उच्च न्यायालय कॉलेजियम को राज्य के मुख्यमंत्री और राज्यपाल को सिफारिश भेजनी होगी।
      • राज्य कार्यपालिका की सिफारिशें: राज्यपाल इसके बाद केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्री को सिफारिश भेजेंगे, जो इसे मुख्य न्यायाधीश को भेजेंगे।
      • सरकार की स्वीकृति: सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों द्वारा सूचित किए जाने के बाद, मुख्य न्यायाधीश को केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्री को सिफारिश भेजनी होगी।
        • इसके बाद वह सिफारिशें प्रधानमंत्री के समक्ष रखेंगे, जो नियुक्ति के बारे में राष्ट्रपति को सलाह देंगे।

कॉलेजियम प्रणाली के बारे में

सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि कॉलेजियम प्रणाली न्यायपालिका की स्वतंत्रता की रक्षा करती है।

  • सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम: कॉलेजियम प्रणाली भारत के मुख्य न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों वाला एक मंच है, जो न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण की सिफारिश करता है।
  • उच्च न्यायालय कॉलेजियम: इसमें उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और उसके दो वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होते हैं।
    • इन नियुक्तियों में उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सर्वोच्च न्यायालय में पदोन्नति और वरिष्ठ अधिवक्ताओं की सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के रूप में सीधी नियुक्ति शामिल है।
    • उच्च स्तरीय न्यायपालिका के न्यायाधीशों की नियुक्ति केवल कॉलेजियम प्रणाली के माध्यम से की जाती है और कॉलेजियम द्वारा नाम तय होने के बाद ही सरकार की भूमिका प्रारंभ होती है।

  • कॉलेजियम का विकास
    • प्रथम न्यायाधीश वाद (1981): कार्यपालिका की प्रधानता का समर्थन करते हुए यह माना गया कि परामर्श का अर्थ सहमति नहीं है।
    • द्वितीय न्यायाधीश वाद (1993): न्यायिक प्रधानता की ओर स्थानांतरित होकर कॉलेजियम की स्थापना की गई।
    • तृतीय न्यायाधीश वाद (1998): न्यायाधीश-नियंत्रित नियुक्तियों को संस्थागत रूप देते हुए कॉलेजियम का विस्तार किया गया, जिसमें मुख्य न्यायाधीश और चार वरिष्ठ न्यायाधीश शामिल थे।
  • महत्त्व
    • एक संरचित पद्धति: उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण के लिए यह एक संरचित पद्धति है।
    • स्वतंत्रता का संरक्षण: न्यायाधीशों की नियुक्ति में न्यायाधीशों को पर्याप्त प्रभाव प्रदान करके न्यायपालिका को कार्यपालिका से स्वतंत्र बनाना।
  • कमियाँ: कॉलेजियम प्रणाली की प्रायः जवाबदेही और पारदर्शिता की कमी और भाई-भतीजावाद के प्रचलन के लिए आलोचना की जाती रही है। 
    • कॉलेजियम प्रणाली में, न्यायाधीशों के चयन के मानदंड क्या हैं, यह कोई नहीं जानता। यह प्रणाली पक्षपात की संभावना रखती है, जिससे योग्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में बाधा आ सकती है।
  • क्या कॉलेजियम प्रणाली को प्रतिस्थापित किया जा सकता है?
    • कॉलेजियम प्रणाली को प्रतिस्थापित करने के लिए एक संविधान संशोधन विधेयक की आवश्यकता है।
    • इसके लिए लोकसभा और राज्यसभा में उपस्थित और मतदान करने वाले सांसदों के कम-से-कम दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है।
    • इसके लिए कम-से-कम आधे राज्यों की विधानसभाओं के अनुमोदन की भी आवश्यकता होती है।

कॉलेजियम प्रणाली के स्थान पर NJAC की आवश्यकता

NJAC को एक महत्त्वपूर्ण सुधार के रूप में देखा गया है। पूर्व न्यायाधीशों सहित अनेक विशेषज्ञों का तर्क है कि यह विद्यमान व्यवस्था की तुलना में अधिक संतुलित और प्रभावी प्रणाली प्रदान करता है। इसके अतिरिक्त, वैश्विक परिप्रेक्ष्य में न्यायपालिका उन कुछ संस्थाओं में से एक है, जहाँ न्यायाधीशों की नियुक्ति पूर्णत: न्यायालयों द्वारा नहीं की जाती।

  • शीघ्र नियुक्ति: यदि न्यायाधीशों की नियुक्तियाँ शीघ्र होनी हैं, तो राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) को पुनः लागू करना आवश्यक है। इसकी लोकतांत्रिक संरचना के कारण न्यायाधीशों के नामांकन में तेजी आ सकती थी।
  • एक कुशल विधि: NJAC न्यायाधीशों की नियुक्ति का एक अधिक कुशल तरीका प्रदान कर सकता है, राज्य के विभिन्न अंगों के बीच संवाद को प्रोत्साहित कर सकता है और कॉलेजियम प्रणाली की कुछ कथित कमियों को दूर कर सकता है।
  • समावेशन: NJAC अधिनियम, 2014 (99वाँ संविधान संशोधन, 2014) का उद्देश्य राजनेताओं और नागरिक समाज को सर्वोच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति में अंतिम निर्णय देने का था।
  • न्यायपालिका की स्वतंत्रता: संसद ने अपनी बुद्धिमत्ता से NJAC अधिनियम पारित किया और NJAC को विश्वसनीयता प्रदान करने के लिए, इसकी अध्यक्षता भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा की जानी थी, और इसमें विधि मंत्री, दो प्रतिष्ठित व्यक्ति और दो वरिष्ठ न्यायाधीश शामिल होने थे।

भारत में न्यायिक सुधारों की चुनौतियाँ

  • संवैधानिक और वैचारिक बाधाएँ
    • मूल संरचना की सीमाएँ: NJAC जैसे सुधारों को मूल संरचना सिद्धांत का सामना करना पड़ता है, जो नियुक्तियों में न्यायिक स्वतंत्रता और न्यायिक प्रधानता की रक्षा करता है, जिससे बड़े विधायी परिवर्तन रद्द होने की संभावना बढ़ जाती है।
    • संघीय स्वायत्तता बनाम राष्ट्रीय नीति: अनुच्छेद-226/227 के तहत उच्च न्यायालयों की शक्तियाँ और राज्यों की विविध कानूनी संस्कृतियाँ, उनकी संवैधानिक स्वायत्तता को कम किए बिना एक केंद्रीकृत न्यायिक नीति को लागू करना कठिन बना देती हैं।
  • संस्थागत और राजनीतिक अंतर्विरोध
    • कार्यपालिका-न्यायपालिका में विश्वास की कमी: लंबे समय से चले आ रहे अविश्वास के कारण प्रक्रिया ज्ञापन (MoP) को लेकर टकराव, नियुक्तियों/स्थानांतरणों में देरी और बुनियादी ढाँचे के लिए अपर्याप्त धन उपलब्ध होता है, जिससे सार्थक सुधार में बाधा आती है।
    • आंतरिक प्रतिरोध: न्यायपालिका और बार के कुछ हिस्से परिचित प्रणालियों (जैसे- कॉलेजियम या पारंपरिक प्रक्रियाएँ) में बदलाव का विरोध करते हैं, जिससे संरचनात्मक और तकनीकी परिवर्तनों में बाधा आती है।
  • वित्तीय और क्षमता संबंधी बाधाएँ
    • अपर्याप्त वित्तपोषण और कमजोर बुनियादी ढाँचा: सीमित न्यायिक बजट के कारण न्यायालयों का बुनियादी ढाँचा कमजोर है, तकनीकी अवसंरचना पुरानी पड़ चुकी है तथा सहायक कर्मियों की उपलब्धता अपर्याप्त है। इसके परिणामस्वरूप, ई-न्यायालय जैसे तकनीकी उन्नयन और एकसमान नीतियों के क्रियान्वयन में निरंतर बाधाएँ उत्पन्न होती हैं।
    • रिक्तियाँ और अत्यधिक भार: अधिक रिक्तियाँ और बढ़ते लंबित मामले न्यायालयों को संकट प्रबंधन की ओर ले जाते हैं, जिससे दीर्घकालिक सुधार योजना की बहुत कम संभावना बचती है।
  • सामाजिक और पहुँच बाधाएँ
    • भाषा और विविधता में अंतर: न्यायालय की भाषाओं में एकरूपता न होना और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI)-आधारित अनुवाद को अपनाने में धीमी गति नागरिकों की पहुँच को सीमित करती है तथा उच्च स्तरीय न्यायपालिका में विविध प्रतिनिधित्व को सीमित करती है।
    • आँकड़ों और स्पष्ट मानदंडों का अभाव: न्यायिक डेटा ग्रिड और पारदर्शी कॉलेजियम मानदंडों का अभाव साक्ष्य-आधारित नीति-निर्माण को कमजोर करता है और जवाबदेही को लेकर चिंताओं को बढ़ाता है।

अन्य देशों से तुलना

  • यू.के.: स्वतंत्र न्यायिक नियुक्ति आयोग (JAC) न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया की देख-रेख करता है।
    • JAC में 15 सदस्य होते हैं; जिनमें से 12 सदस्यों का चयन खुली प्रतियोगिता प्रक्रिया के माध्यम से किया जाता है।
  • फ्राँस: न्यायाधीशों की नियुक्ति तीन वर्ष के कार्यकाल के लिए की जाती है, जिसे न्याय मंत्रालय की सिफारिश पर नवीनीकृत किया जा सकता है।
  • दक्षिण अफ्रीका: एक 23 सदस्यीय न्यायिक सेवा आयोग (JSC) है, जो राष्ट्रपति को न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए सलाह देता है।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका: संघीय न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा सीनेट की सलाह और सहमति से की जाती है।

आगे की राह

  • हाइब्रिड मॉडल के माध्यम से न्यायिक नियुक्तियों में सुधार
    • समावेशी संरचना: NJAC ने भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI), दो वरिष्ठ न्यायाधीशों, विधि मंत्री और दो प्रतिष्ठित व्यक्तियों वाली एक बहुलवादी संस्था का प्रस्ताव रखा, जिससे प्रतिनिधित्व का दायरा व्यापक हो।
    • नियंत्रण हेतु वीटो: दो सदस्यीय वीटो, प्रभुत्व को रोकने और संतुलित निर्णय लेने को सुनिश्चित करने के लिए एक संस्थागत सुरक्षा कवच के रूप में कार्य करता है।
    • लोकतांत्रिक समावेशन: कार्यपालिका और विधायिका की भूमिका को बहाल करके, NJAC का उद्देश्य नियुक्तियों में पारदर्शिता, जवाबदेही और लोकतांत्रिक वैधता को बढ़ाना था।
  • एक पारदर्शी और वस्तुनिष्ठ चयन ढाँचा स्थापित करना: नियुक्तियों के लिए स्पष्ट मानदंड, योग्यताएँ और प्रक्रियाएँ निर्धारित करना; तर्कसंगत निर्णय, योग्यता-आधारित मूल्यांकन, कार्य-निष्पादन संकेतक और स्थानांतरणों व पदोन्नति में पारदर्शिता सुनिश्चित करना।
  • जन भागीदारी और विविधता को मजबूत करना: विविध दृष्टिकोण स्थापित करने और सामाजिक वैधता को बढ़ाने के लिए जन परामर्श, खुली सुनवाई या प्रतिष्ठित नागरिकों सहित बहु-हितधारक नियुक्ति आयोग की शुरुआत करना।
  • डिजिटल और भाषा पहुँच सुधारों में तेजी लाना: भाषा, भूगोल और लागत संबंधी बाधाओं को कम करने और न्यायालयों में संस्थागत समानता को बढ़ावा देने के लिए कृत्रिम बुद्धिमत्ता अनुवाद उपकरणों, बहुभाषी प्लेटफॉर्म और डिजिटल फाइलिंग प्रणालियों का विस्तार करना।
  • मध्यस्थता, ADR और एक राष्ट्रीय न्यायिक नीति को बढ़ावा देना: लंबित मामलों को कम करने के लिए मध्यस्थता और ODR को मजबूत करना और संघीय स्वायत्तता एवं संवैधानिक संतुलन का सम्मान करते हुए प्रक्रियाओं में सामंजस्य स्थापित करने के लिए एक राष्ट्रीय न्यायिक नीति लागू करना।
  • वैकल्पिक प्रस्ताव अपनाना: सरकार ने न्यायमूर्ति मदन बी. लोकुर मामले के फैसले के आधार पर नियुक्तियों की तीन-चरणीय प्रक्रिया का सुझाव दिया है, जिसमें शामिल हैं:-
    • आवेदन या नामांकन के माध्यम से नियुक्ति
    • प्रतिष्ठित नागरिकों की समिति
    • कार्यपालिका को एक लिखित फाइल प्रस्तुत करना।

न्यायमूर्ति मदन बी. लोकुर के निर्णय के आधार पर नियुक्तियाँ

  • आवेदन या नामांकन द्वारा नियुक्ति: नामांकन केवल कॉलेजियम द्वारा ही नहीं, बल्कि न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और महान्यायवादी द्वारा भी किया जाना चाहिए।
  • प्रतिष्ठित नागरिकों की समिति: एक सहभागी नियुक्ति प्रक्रिया आवश्यक है, जिसमें प्रतिष्ठित नागरिकों की एक समिति से भी सुझाव लिए जाएँ, जो केवल विधिक समुदाय तक ही सीमित न हो।
  • कार्यपालिका को लिखित फाइल प्रस्तुत करना: लिखित रूप में दर्ज सभी फाइल कार्यपालिका को भेजी जानी चाहिए, ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि उम्मीदवार वरिष्ठ न्यायाधीश के पद के लिए उपयुक्त है या नहीं, ताकि उसके पूर्ववृत्त, दृष्टिकोण, निष्ठा और प्रासंगिक पहलुओं पर विचार प्राप्त किए जा सकें।

निष्कर्ष 

भारत, न्यायिक सुधार के एक परिवर्तनकारी दौर से गुजर रहा है। राष्ट्रीय न्यायिक आयोग (NJAC) पर पुनर्विचार और राष्ट्रीय न्यायिक नीति पर बहस का उद्देश्य संवैधानिक संतुलन स्थापित करना तथा न्यायिक स्वतंत्रता, लोकतांत्रिक वैधता, संघीय विविधता एवं जवाबदेही के बीच संतुलन स्थापित करना है। न्याय प्रदान करने में पारदर्शिता, सुसंगतता और सभी नागरिकों के लिए समान पहुँच सुनिश्चित होनी चाहिए।

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