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संसद के पुनः आरंभ होने पर आइए पूछें कि विधायिकाएं क्यों पीछे हट रही हैं?

Lokesh Pal December 02, 2025 05:00 9 0

सन्दर्भ:

जैसे ही शीतकालीन सत्र शुरू होता है, भारत में वेस्टमिंस्टर संतुलन से हटकर कार्यपालिका के बढ़ते प्रभुत्व को लेकर चिंताएं बढ़ जाती हैं, जिससे संसद सरकार पर सार्थक नियंत्रण रखने के बजाय एक अनुमोदन निकाय बनकर रह जाती है।

विधायी प्राधिकार का पतन

  • कम बैठक दिवस: प्रथम लोक सभा (1952-57) की बैठक प्रतिवर्ष औसतन 135 दिन होती थी, जबकि 17वीं लोक सभा की बैठक प्रतिवर्ष केवल लगभग 55 दिन ही होती है।
    • संसदीय बैठक के दिनों में तीव्र गिरावट लोकतांत्रिक गिरावट का प्रतिबिंब है।
  • विधायिकाओं के पतन का कारण: दलबदल विरोधी कानून ने हमारे विधानमंडलों के चरित्र को मौलिक रूप से बदल दिया है।

दलबदल विरोधी कानून और उसके परिणाम

  • कानूनी साधन: दलबदल विरोधी कानून, जिसे मूल रूप से अवसरवादी दलबदल को रोकने के लिए बनाया गया था, अब एक ऐसे तंत्र के रूप में विकसित हो गया है जो असहमति और व्यक्तिगत निर्णय को दबा देता है
    • अपने निर्वाचन क्षेत्रों के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करने के स्थान पर, सांसद प्रायः राजनीतिक दल सचेतक के अधीन कार्य करते हैं तथा दल के निर्देशानुसार मतदान करने के लिए बाध्य होते हैं।
  • संसद के मौलिक कार्यों पर प्रभाव: यह कानून वित्त पर नियंत्रण जैसे मूल लोकतांत्रिक कार्यों को कमजोर करता है।
    • जब अयोग्यता के खतरे के तहत मतदान लागू किया जाता है, तो कराधान और व्यय का संसदीय अनुमोदन विचार-विमर्श के स्थान पर यांत्रिक हो जाता है
  • हालिया उदाहरण: 17वीं लोकसभा के अंतिम चरण में एक सदस्य का निष्कासन दर्शाता है कि विधायी स्वतंत्रता किस प्रकार क्षीण हो रही है।

संसदीय प्रक्रिया पर कार्यपालिका का प्रभुत्व

  • कथानक में बदलाव: सत्ता पक्ष व्यवधानों को साझा दोष के रूप में पेश करता है, लेकिन एजेंडा तय करने की शक्ति सरकार को प्राथमिक ज़िम्मेदारी प्रदान करती है। जब बहस के अनुरोधों को अस्वीकार कर दिया जाता है, तो व्यवधान विपक्ष का एकमात्र हथियार बन जाता है।
  • जवाबदेही तंत्र का क्षरण: स्थगन की पुनरावृत्ति से प्रश्नकाल और शून्यकाल का समय समाप्त हो जाता है, जिससे निगरानी कमज़ोर हो जाती है। महत्वपूर्ण विधेयक कभी-कभी अल्प समय में ही पारित हो जाते हैं, जिससे बहस या जाँच-पड़ताल की गुंजाइश ही नहीं बचती।
  • संसदीय समितियों का कमजोर होना: संसदीय समितियां, जिन्हें “लोकतंत्र की कार्यशालाएं” कहा जाता है, अक्सरप्रायः उपेक्षित कर दी जाती हैं।
  • निष्पक्षता का क्षरण: अध्यक्ष /सभापति संवैधानिक, प्रतिष्ठित पद हैं जिन्हें तटस्थ मध्यस्थ होना चाहिए, किन्तु वे सामान्यतः विपक्षी सांसदों को अनुशासित करने के लिए एक “उपकरण” के रूप में कार्य करते हैं।

विदेश में वेस्टमिंस्टर विकास के साथ तुलना

  • आधारभूत सिद्धांत: ऐतिहासिक रूप से, इस प्रणाली को इस प्रकार डिजाइन किया गया था कि कार्यपालिका विधायिका के अधीन रहे।
    • उदाहरण: 1258 की ऑक्सफोर्ड संसद ने यह स्थापित किया कि कार्यपालिका को विधायी पर्यवेक्षण के अधीन कार्य करना चाहिए और संसद की नियमित बैठकें होनी चाहिए।
  • समकालीन वैश्विक प्रथा: ब्रिटेन में, प्रधानमंत्री को संसदीय प्रश्न सत्रों के दौरान हर सप्ताह सदन में कठिन प्रश्नों का प्रत्यक्ष उत्तर देना होता है।
    • अमेरिका और ब्रिटेन में समितियां अत्यधिक शक्तिशाली हैं, जो शीर्ष अधिकारियों को बुलाने और नीति बदलने में सक्षम हैं।
  • परिणाम: भारत में संसद का संविधान निर्माताओं की दूरदर्शिता/दर्शन से दूर होना, उसके केवल अनुमोदन निकाय बनकर रह जाने के संकट को बढ़ाता है फिर भी, अगर लोकतांत्रिक इच्छाशक्ति स्थापित हो जाए तो इस गिरावट को रोका जा सकता है।

निष्कर्ष

भारत को दलबदल विरोधी कानून पर पुनर्विचार करना होगा, संसदीय कार्यप्रणाली को सुचारू बनाने में सरकार की प्राथमिक जवाबदेही पर बल देना होगा और संवैधानिक पदों पर निष्पक्षता स्थापित करनी होगी। ये सुधार यह सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक हैं कि संसद अपनी शक्ति वापस प्राप्त कर सके और कार्यपालिका जनता के प्रति जवाबदेह बनी रहे।

 मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न

प्रश्न: दलबदल विरोधी कानून ने किस प्रकार विधायिकाओं की स्वतंत्रता को बाधित किया है और संसद के विचार-विमर्शपूर्ण कार्य प्रणाली को प्रभावित किया है, इसका आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।

(15 अंक, 250 शब्द)

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