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भारत में बाल तस्करी

Lokesh Pal December 22, 2025 04:27 48 0

संदर्भ 

हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने बाल तस्करी और संगठित गिरोहों द्वारा बच्चों का वाणिज्यिक यौन शोषण जैसी गंभीर समस्याओं को उजागर किया।

  • सर्वोच्च न्यायालय ने बाल तस्करी संबंधी मामलों के निपटान के लिए परिवर्तनकारी दिशा-निर्देश जारी किए।

वर्ष 2025 के निर्णय से संबंधित प्रमुख दिशा-निर्देश

  • पीड़ित गवाह” के रूप में दर्जा: न्यायालय ने निर्देश दिया कि तस्करी के शिकार बच्चों को न्यायालय में सहयोगी के रूप में नहीं माना जाए। उनकी गवाही को पीड़ित के समान महत्त्व दिया जाए, ताकि उनके द्वारा महसूस की गई पीड़ा को मान्यता मिले।
  • साक्ष्य मूल्यांकन में संवेदनशीलता: न्यायालयों को बच्चों की गवाही का संवेदनशील और यथार्थपरक मूल्यांकन करना चाहिए।
    • साक्ष्य में मामूली विसंगतियों के कारण उस पर अविश्वास नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि कानूनी प्रक्रिया के दौरान उसे आघात और द्वितीयक उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है।
  • संगठित अपराध की मान्यता: न्यायालय ने स्वीकार किया कि तस्करी नेटवर्क कई चरणों में कार्य करते हैं। (भर्ती, परिवहन, आश्रय, और शोषण)।
    • ये चरण प्रायः प्रछन्न होते हैं, जिससे पीड़ित के लिए पूरी प्रक्रिया को स्पष्ट रूप से बताना कठिन होता है।
  • सामाजिक-आर्थिक संवेदनशीलता का विचार: न्यायाधीशों को बच्चों की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक संवेदनशीलताओं पर ध्यान देना चाहिए। विशेष रूप से हाशिए पर या पिछड़े वर्गों के बच्चों के मामले में, क्योंकि तस्करी करने वाले इन्हें विशेष रूप से निशाना बनाते हैं।

तस्करी के चरण और निवारक उपाय

तस्करी चरण संवेदनशीलताएँ निवारक उपाय (SC दिशा-निर्देश/सरकार)
भर्ती धोखाधड़ी / गरीबी जागरूकता, सामुदायिक सतर्कता
परिवहन राज्य-प्रदेश समन्वय में कमी AHTUs समन्वय, तकनीकी निगरानी
आश्रय अलगाव तकनीकी निगरानी, पीड़ित की गवाही पर विश्वास
शोषण यौन / बलात् श्रम पीड़ित की गवाही पर विश्वास, पुनर्वास

बाल तस्करी के बारे में

  • वैश्विक परिभाषा: संयुक्त राष्ट्र के ‘पालरमॉ प्रोटोकॉल’ के अनुसार, तस्करी में किसी व्यक्ति की भर्ती या स्थानांतरण शामिल होता है, जिसमें धमकी, बल या धोखे का उपयोग किया जाता है।
    • बच्चों के मामले में, भर्ती चाहे किसी भी तरीके से हुई हो, उनका शोषण ही मानव तस्करी माना जाता है।
  • राष्ट्रीय परिभाषा: भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 370 के तहत, तस्करी का अर्थ  भर्ती, परिवहन या आश्रय के माध्यम से बच्चों/व्यक्तियों का शोषण है, इसमें शारीरिक, यौन शोषण, दासता और बलात् श्रम शामिल हैं।
    • भारतीय न्याय संहिता (BNS) में इसे ऑनलाइन तस्करी और जबरन विवाह के लिए तस्करी तक विस्तारित किया गया।

सांख्यिकी

भारत मानव तस्करी का एक प्रमुख स्रोत, पारगमन और गंतव्य है, जिसमें व्यावसायिक यौन शोषण और जबरन श्रम सबसे प्रचलित रूप हैं।

  • राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) 2023: बच्चों के विरुद्ध कुल 1,77,335 अपराध दर्ज किए गए, जो वर्ष 2022 की तुलना में 9.2% की वृद्धि दर्शाते हैं।
    • क्षेत्रीय हॉटस्पॉट: मध्य प्रदेश: 22,393, महाराष्ट्र: 22,390, उत्तर प्रदेश: 18,852 में बच्चों के विरुद्ध अपराधों की कुल संख्या सर्वाधिक दर्ज की गई।
    • उच्चतम अपराध दर: असम में देश की सर्वाधिक अपराध दर (प्रति लाख बच्चों पर 84.2) दर्ज की गई, जबकि दिल्ली में केंद्रशासित प्रदेशों में सर्वाधिक 140.3 की दर दर्ज की गई।
  • अंडररिपोर्टिंग और ‘मास्किंग’: मानव तस्करी के आधिकारिक तौर पर 2,183 मामले दर्ज किए गए हैं, लेकिन पीड़ितों के आँकड़े एक गंभीर अंतराल को प्रदर्शित करते हैं। उदाहरण के लिए, वर्ष 2022 में, बाल तस्करी के शिकार लोगों की संख्या लगभग 2,878 थी।
    • अपहरण को परोक्ष अपराध के रूप में प्रयोग करना: विशेषज्ञों का कहना है कि बच्चों के विरुद्ध होने वाले 45% अपराध (79,884 मामले) अपहरण के रूप में दर्ज किए जाते हैं।
    • इनमें से अनेक मामले, विशेषकर बिहार और राजस्थान जैसे राज्यों में, मानव तस्करी से संबंधित होने का संदेह उत्पन्न करते हैं, जिन्हें प्रायः संगठित अपराध की जटिल जाँच से बचने के लिए साधारण आरोपों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
  • राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR)  द्वारा बचाव अभियान, नवंबर 2025): राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने नवीनतम चक्र में 2,300 से अधिक बच्चों को बचाने की सूचना दी।
  • वर्ष 2024-2025 के रुझान: जस्ट राइट्स फॉर चिल्ड्रन नेटवर्क ने अप्रैल 2025 से तस्करी से जुड़े बाल यौन शोषण के मामलों में 6,500 से अधिक हस्तक्षेपों की रिपोर्ट की है।
    • शहरी गंतव्य हब: दिल्ली और मुंबई में घरेलू नौकरियों और वाणिज्यिक यौन शोषण के लिए बाल तस्करी में चिंताजनक वृद्धि हुई है। जिसमें दिल्ली में कोविड-पूर्व की तुलना में कोविड-पश्चात् की अवधि में तस्करी की घटनाओं में 68% की वृद्धि देखी गई है।
  • वैश्विक अवलोकन: अमेरिकी मानव तस्करी (TIP) रिपोर्ट, 2024 भारत को टियर 2 स्थान पर रखती है, जिसमें सरकारी वित्तपोषित आश्रयों में संचालित समस्याओं का हवाला दिया गया है, जहाँ दुर्व्यवहार के लगातार मामले सामने आए हैं, जो पुन: तस्करी में योगदान करते हैं।

बाल तस्करी के मूल कारण

  • आर्थिक अभाव: लगातार गरीबी और आजीविका के अवसरों की कमी परिवारों को, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में, अपने बच्चों को तस्करों के हवाले करने के लिए मजबूर करती है।
  • प्रणालीगत समस्या: तस्कर परिवारों को शिक्षा या रोजगार के वादे देकर धोखा देते हैं और बच्चों के अलग-थलग पड़ जाने पर उनका शोषण करते हैं।
  • सामाजिक अलगाव: सामाजिक रूप से पिछड़े समुदायों के बच्चे, तस्करी के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील होते हैं, क्योंकि उन्हें कानूनी सुरक्षा और सामाजिक सहायता सीमित मात्रा में प्राप्त होती है।
  • शोषण की उच्च माँग: अनौपचारिक क्षेत्रों में सस्ते श्रम और वाणिज्यिक यौन शोषण की लाभप्रदता तस्करों के लिए लगातार आकर्षक कारक बनती है।

भारत में संवैधानिक और विधायी प्रावधान

  • अनुच्छेद-21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार): सर्वोच्च न्यायालय के वर्ष 2025 के निर्णय में बाल तस्करी के विरुद्ध संघर्ष को अनुच्छेद-21 से जोड़ा गया। साथ ही न्यायालय ने स्पष्ट किया कि जीवन का अधिकार शारीरिक अखंडता और मानव गरिमा से अविभाज्य है।
    • मानव तस्करी को एक मौलिक उल्लंघन के रूप में देखा जाता है, जो बच्चों को नैतिक और भौतिक परित्याग” के अधीन करता है, जिसके लिए एक ऐसे न्यायिक दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है, जो पीड़ित की मानसिक और शारीरिक शोषण से सुरक्षा करे।
  • अनुच्छेद-23 (मानव तस्करी पर रोक): यह मुख्य संवैधानिक प्रावधान है, जो तस्करी और जबरन श्रम (बेगार) को स्पष्ट रूप से निषिद्ध करता है।
    • यह राज्य को ऐसी किसी भी व्यवस्था को समाप्त करने का आदेश देता है, जहाँ मनुष्यों को वस्तुओं के रूप में माना जाता है और सभी मानव तस्करी विरोधी कानूनों के लिए कानूनी आधार प्रदान करता है।
  • अनैतिक दुर्व्यापार (निवारण) अधिनियम, 1956 (ITPA): यह बच्चों के व्यावसायिक शोषण को दंडित करने के उद्देश्य से बनाया गया प्रमुख कानून है।
    • यह वेश्यालयों पर छापा मारने, पीड़ितों को बचाने और व्यावसायिक यौन शोषण से लाभ कमाने वालों पर मुकदमा चलाने के लिए ढाँचा प्रदान करता है।
  • आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 और BNS: धारा 370 को व्यापक रूप से परिभाषित किया गया, जिसमें भर्ती, परिवहन और आश्रय शामिल हैं।
    • भारतीय न्याय संहिता (BNS) में संगठित अपराध, ऑनलाइन ग्रूमिंग, और जबरन विवाह के लिए कठोर दंड शामिल हैं।
  • बाल यौन अपराध संरक्षण अधिनियम (POCSO), 2012: यह अधिनियम द्वितीयक उत्पीड़न को रोकने के लिए निर्मित किया गया एक बाल-हितैषी कानूनी ढाँचा प्रदान करता है।
    • यह सुनिश्चित करता है कि साक्ष्यों की रिकॉर्डिंग और अदालती गवाहियों को संवेदनशीलता के साथ संचालित किया जाए, जिससे नाबालिग को उत्पीड़न का सामना करने के आघात से बचाया जा सके।
  • पूरक कानून: बाल विवाह निषेध अधिनियम, बंधुआ मजदूरी प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम और मानव अंग प्रत्यारोपण अधिनियम सहित विभिन्न सुरक्षात्मक कानून   आर्थिक तथा भौतिक शोषण के विभिन्न पहलुओं को संबोधित करते हैं।

सतत् विकास लक्ष्यों (SDGs) के साथ संरेखण

  • SDG 5 (लैंगिक  समानता): बाल तस्करी रोकना लक्ष्य 5.2 के लिए महत्त्वपूर्ण है। जिसमें महिलाओं और लड़कियों के विरुद्ध हिंसा के सभी रूपों को समाप्त करने का आह्वान किया गया है।
    • चूँकि महिलाओं को यौन शोषण का शिकार होने की अधिक संभावना होती है, इसलिए प्रभावी अभियोजन सीधे तौर पर लैंगिक आधारित न्याय को बढ़ावा देता है।
  • SDG 8.7 (समान्य रोजगार और आर्थिक विकास): भारत की प्रतिबद्धता आधुनिक दासता और मानव तस्करी समाप्त करने की इस लक्ष्य का मुख्य हिस्सा है।
    • तस्करी गिरोहों का उन्मूलन वर्ष 2030 तक बाल श्रम और जबरन रोजगार समाप्त करने के वैश्विक लक्ष्य को पूरा करने के लिए आवश्यक है।
  • SDG 16 (शांति, न्याय और सशक्त संस्थान): इस लक्ष्य का उद्देश्य बच्चों के साथ दुर्व्यवहार, शोषण और तस्करी को समाप्त करना है (लक्ष्य 16.2)।
    • सर्वोच्च न्यायालय के अनुसारन्यायिक यथार्थवाद’ अपनाकर भारत हाशिए पर रहने वाले पीड़ितों को न्याय प्रदान करने की क्षमता बढ़ाता है।

मानव तस्करी से निपटने के लिए सरकार द्वारा उठाए गए कदम

  • एंटी-ट्रैफिकिंग नोडल सेल: केंद्रीय गृह मंत्रालय (MHA) द्वारा वर्ष 2006 में स्थापित यह सेल, तस्करी के विरुद्ध नीतिगत निर्णयों और कार्रवाई का समन्वय करता है।
  • एंटी-ह्यूमन ट्रैफिकिंग यूनिट्स (AHTUs): प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण के माध्यम से कानून प्रवर्तन को मजबूत करने के लिए 270 जिलों में विशेष AHTUs स्थापित की गई हैं।
  • मिशन वत्सल्या: केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय (MWCD) के अंतर्गत मिशन वात्सल्य योजना, बाल संरक्षण, गैर-संस्थागत देखभाल और तस्करी किए गए बच्चों के पुनर्वास पर केंद्रित है।
    • इसमें असुरक्षित बच्चों के लिए खुले आश्रय स्थल और असुरक्षा संबंधी मानचित्रण (जैसे- NCPCR द्वारा संवर्द्धन कार्यक्रम) शामिल हैं। यह कार्यक्रम पूर्ववर्ती एकीकृत बाल संरक्षण योजना (ICPS) को समाहित करता है और मिशन शक्ति पोर्टल (वर्ष 2025 में शुरू होने वाला) के तहत एकीकृत सेवाओं के लिए महत्त्वपूर्ण है।
  • उज्जवला योजना: यह योजना विशेष रूप से व्यावसायिक यौन शोषण के लिए तस्करी किए गए लोगों के बचाव और पुनर्वास पर केंद्रित है।
  • एंटी-ट्रैफिकिंग बिल (लंबित): कई प्रयासों के बावजूद, व्यापक मानव तस्करी विरोधी विधेयक वर्षों से लंबित है, जिससे वर्तमान प्रयासों की प्रभावशीलता सीमित हो जाती है (US TIP रिपोर्ट 2024 के अनुसार, यह लगातार छठा वर्ष है, जब विधेयक लंबित है)।

सिविल सोसायटी और NGO की भूमिका

  • मानव तस्करी से निपटने में प्रमुख भूमिका निभाने वाले संगठनों में बचपन बचाओ आंदोलन (कैलाश सत्यार्थी), प्रज्वला और विमुक्ति शामिल हैं।
  • ये गैर-सरकारी संगठन बचाव, जागरूकता अभियान और पुनर्वास की कमियों को दूर करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, सरकारी प्रयासों के पूरक हैं और बहु-हितधारक दृष्टिकोण सुनिश्चित करते हैं।

अंतरराष्ट्रीय ढाँचा और भारत की प्रतिबद्धताएँ

  • संयुक्त राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय संगठित अपराध विरोधी अभिसमय (UNCTOC): भारत ने इस अभिसमय की पुष्टि की है, जिससे मानव तस्करी पर राष्ट्रीय कानून अंतरराष्ट्रीय प्रोटोकॉल के अनुरूप हो गए हैं।
  • दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (SAARC) सम्मेलन: भारत महिलाओं और बच्चों की तस्करी की रोकथाम से संबंधित इस सम्मेलन का हस्ताक्षरकर्ता है।
  • द्विपक्षीय तंत्र: भारत और बांग्लादेश के पास सीमा पार पीड़ितों की स्वदेश वापसी तथा पुनः एकीकरण सुनिश्चित करने के लिए एक संयुक्त कार्यबल (Joint Task Force) मौजूद है।

बाल तस्करी से निपटने में चुनौतियाँ

  • विधायी खामियाँ और संस्थागत बाधाएँ
    • समग्र कानून का अभाव: भारत में वर्तमान में एकीकृत और व्यापक कानून का अभाव है। व्यक्ति तस्करी विधेयक (2018) लोकसभा में पारित हुआ था, लेकिन राज्यसभा में लंबित रह गया, जिससे विधायी रिक्तता बनी हुई है और पुराने बिखरे कानूनों पर निर्भरता बनी रहती है।
    • कानूनी विखंडन: प्रतिक्रिया कई कानूनों (ITPA, POCSO, BNS) में विभाजित है। इससे अधिकार-क्षेत्र की समस्या और समन्वय की कमी उत्पन्न होती है, जिसका लाभ, संगठित गिरोह प्रक्रियात्मक खामियों का लाभ उठाकर उठाते हैं।
  • जटिल अपराध नेटवर्क और प्रणालीगत विफलताएँ
    • स्तरीय गिरोह संरचनाएँ: संगठित अपराध गुप्त स्तरों में कार्य करता है-भर्ती, परिवहन और शोषण। इससे पुलिस के लिए कार्यान्वयन अत्यंत कठिन हो जाता है।
    • AHTU की सीमाएँ: मानव तस्करी विरोधी इकाइयाँ अक्सर अपर्याप्त वित्तपोषण और स्टाफ की कमी से जूझती हैं। उच्च स्थानांतरण दर और विशेष प्रशिक्षण की कमी के कारण दोषसिद्धि दर कम रहती है तथा अंतर-राज्यीय खुफिया साझाकरण कमजोर होता है।
    • शासन और संघवाद: केंद्र और राज्यों के बीच समन्वय की कमी से सीमा-पार तस्करी मामलों में प्रभावी निगरानी और कार्रवाई बाधित होती है।
  • पीड़ितों का और उत्पीड़न
    • असंवेदनशील न्यायिक वातावरण: लंबित मुकदमों के दौरान पीड़ितों को द्वितीयक उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। असंवेदनशील वातावरण में बार-बार गवाही में संकोच से कई मामले कमजोर पड़ जाते हैं।
    • भ्रष्टाचार और मिलीभगत: कुछ स्तरों पर प्रणालीगत भ्रष्टाचार या मिलीभगत तस्करों को संरक्षण देती है और पीड़ितों को भयभीत करती है।
  • पुनर्वास और आश्रय का संकट
    • दीर्घकालिक समर्थन का अभाव: बचाव के बाद पुनर्वास में गंभीर कमी है। सामग्री और सामाजिक सहारे के अभाव में बच्चे पुनः तस्करी के उच्च जोखिम में रहते हैं।
    • आश्रय गृहों की समस्याएँ: सरकारी वित्तपोषित आश्रयों में दुर्व्यवहार की रिपोर्टें और गुणवत्तापूर्ण पुनर्एकीकरण कार्यक्रमों की कमी, पीड़ितों की सुरक्षित समाज-वापसी में बाधक हैं।
  • उभरते आयाम और तकनीकी खतरे
    • ऑनलाइन/डिजिटल तस्करी: तस्कर अब सोशल मीडिया और ऑनलाइन ग्रूमिंग का उपयोग करते हैं। ये डिजिटल तरीके के माध्यम से आसानी से छिपे रहते हैं, जिससे पहचान कठिन हो जाती है।
    • संवेदनशीलता में वृद्धि: आपदाओं के बाद या आर्थिक संकट के समय तस्करी के मामले बढ़ते हैं, क्योंकि गिरोह विस्थापित और असहाय आबादी की मजबूरी का शोषण करते हैं।

आगे की राह

  • न्यायिक यथार्थवाद को अपनाना: वर्ष 2025 के सर्वोच्च न्यायालय दिशा-निर्देशों को लागू करना, पीड़ितों की गवाही को उचित विश्वसनीयता प्रदान करना और मुकदमे के दौरान संरक्षण सुनिश्चित करना।
  • प्रौद्योगिकी-आधारित प्रवर्तन: कृत्रिम बुद्धिमत्ता और विशाल आँकड़ों के माध्यम से AHTU को सशक्त बनाना, ताकि संगठित गिरोहों के गोपनीय नेटवर्क और ऑनलाइन ग्रूमिंग गतिविधियों पर निगरानी हो सके।
  • बहु-हितधारक सहयोग: गैर-सरकारी संगठनों और पंचायती राज संस्थाओं की भूमिका बढ़ाकर उन्हें प्रथम प्रत्युत्तरकर्ता के रूप में सक्षम बनाना।
  • समग्र पुनर्वास: केवल बचाव संबंधी प्रावधान से आगे बढ़कर आर्थिक सशक्तीकरण और सामाजिक पुनर्एकीकरण सुनिश्चित करना, ताकि पीड़ित दोबारा तस्करी के चक्र में न फँसें।
  • जवाबदेही: AHTU का वार्षिक ऑडिट और गुमशुदा बच्चों व संगठित अपराध संबंधी गृह मंत्रालय की सलाहों का सख्त पालन।
  • त्वरित न्याय: मानव तस्करी के शिकार बच्चों को न्याय दिलाने में तेजी लाने के लिए और अधिक त्वरित प्रक्रिया वाली POCSO अदालतों की स्थापना की जाए।
    • अगस्त–अक्टूबर 2025 तक लगभग 773 त्वरित-न्याय विशेष न्यायालय, जिनमें लगभग 400 विशेष पॉक्सो न्यायालय, कार्यरत हैं और 3.44 लाख से अधिक मामलों का निपटारा किया जा चुका है।

निष्कर्ष

सर्वोच्च न्यायालय का वर्ष 2025 का निर्णय बाल तस्करी मामलों में संवेदनशीलता और यथार्थवाद पर आधारित न्यायिक दृष्टिकोण की आवश्यकता रेखांकित करता है। मजबूत कानूनी प्रावधानों के बावजूद, तस्करी से निपटने के लिए बहुआयामी, पीड़ित-केंद्रित और अधिकार-आधारित रणनीति आवश्यक है। कानून प्रवर्तन, न्यायिक प्रक्रियाओं और पुनर्वास ढाँचों को सुदृढ़ कर भारत प्रत्येक बच्चे के लिए गरिमा और संरक्षण के अपने संवैधानिक वचन के और निकट पहुँच सकता है।

अभ्यास प्रश्न ‘बाल तस्करी और व्यावसायिक यौन शोषण राज्य के संवैधानिक उद्देश्य की बुनियाद पर ही प्रहार करते हैं।’ सर्वोच्च न्यायालय के हालिया निर्णय के आलोक में, भारत में संगठित तस्करी नेटवर्क द्वारा उत्पन्न चुनौतियों का विश्लेषण कीजिए और नाबालिग पीड़ितों से संबंधित साक्ष्यों का मूल्यांकन करते समय न्यायिक संवेदनशीलता की आवश्यकता का आकलन कीजिए।

(15 अंक)

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