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‘वन’ की परिभाषा पर उच्चतम न्यायालय का निर्णय

Lokesh Pal February 21, 2024 05:03 135 0

संदर्भ

उच्चतम न्यायालय ने एक अंतरिम आदेश में कहा कि ”राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को टीएन गोदावर्मन थिरुमलपाद बनाम भारत संघ वाद,1996 के ऐतिहासिक निर्णय में निर्धारित ‘वन’ की परिभाषा का पालन करना चाहिए।

संबंधित तथ्य 

  • वन (संरक्षण) अधिनियम में संशोधन को चुनौती: उच्चतम न्यायालय वन (संरक्षण) अधिनियम की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली एक जनहित याचिका पर सुनवाई कर रहा था। इस अधिनियम में केंद्र सरकार द्वारा वर्ष 2023 में संशोधन किया गया था।
  • SC की पूर्व अनुमति: SC ने यह भी निर्देश दिया कि वन क्षेत्र में किसी भी चिड़ियाघर या सफारी की स्थापना के लिए उसकी पूर्व अनुमति आवश्यक होगी।
    • FCAA 2023 की धारा 5 के अनुसार, इन्हें ‘वनों’ की परिभाषा से छूट दी गई है।
  • वन भूमि अभिलेखों का प्रकाशन: न्यायालय ने यह भी निर्देश दिया कि वन (संरक्षण एवं संवर्द्धन) नियम, 2023 के नियम 16 ​​के अनुसार एक व्यापक भूमि अभिलेख आधिकारिक वेबसाइट पर उपलब्ध होना चाहिए।
    • इनमें विशेषज्ञ समिति द्वारा पहचाने जाने वाले वन-सदृश क्षेत्र, अवर्गीकृत और सामुदायिक वन भूमि भी शामिल हैं।

गोदावर्मन निर्णय की उत्पत्ति

  • 7 अप्रैल, 1995 को, नीलांबुर कोविलकम कबीले के एक मलयाली जमींदार ने नीलगिरी के एक हिस्से में लकड़ी की कटाई को रोकने के लिए उच्चतम न्यायालय में एक रिट याचिका दायर की।
  • एन गोदावर्मन थिरुमुलपाद बनाम भारत संघ और अन्य वाद में, उच्चतम न्यायालय ने “वन” शब्द को परिभाषित किया।
  • गोदावर्मन से पहले, वन की परिभाषा ‘आरक्षित वन’ के अर्थ तक ही सीमित थी।

चिड़ियाघर की पहचान से संबंधित प्रावधान  ‘वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972’ की धारा 38(H) में उल्लिखित है। 

वन क्या है?

  • वर्ष 1996 के गोदावर्मन निर्णय के अनुसार,  “वन” की परिभाषा के तहत निम्नशामिल भू-भाग शामिल होंगे-
    • सरकारी अभिलेखों मेंवनके रूप में दर्ज कोई भी भूमि
    • कोई भी भूमि जो वन की शब्दकोश परिभाषा को संतुष्ट करती हो। (ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी वन कोवृक्षों और झाड़ियों से घिरा एक बड़ा क्षेत्रके रूप में परिभाषित करती है।)

वन संरक्षण (संशोधन) अधिनियम, 2023

प्रमुख संशोधन

  • इस अधिनियम में एक  प्रस्तावना जोड़ी गई जो वनों और जैव विविधता के संरक्षण तथा जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने के लिए भारत की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
    • वर्ष 2023 में, भारत सरकार नेवन (संरक्षण) अधिनियम, 1980’ के नाम को बदलकर वन (संरक्षण एवं संवर्द्धन) अधिनियम, 1980 करने का प्रस्ताव रखा था। इस परिवर्तन का उद्देश्य अधिनियम के दायरे को केवल संरक्षणसे आगे बढ़ाकर संवर्द्धन(Augmentation) तक ले जाना था, जिससे यह स्पष्ट हो सके कि अधिनियम वनों के संरक्षण के साथ-साथ उनकी वृद्धि को भी बढ़ावा देता है।
  • अधिनियम के तहत भूमि की दो श्रेणियाँ
    • भारतीय वन अधिनियम, 1927 या किसी अन्य कानून के तहत वन के रूप में घोषित/अधिसूचित भूमि, और
    • वह भूमि जो पहली श्रेणी में शामिल नहीं है लेकिन सरकारी रिकॉर्ड में 25 अक्टूबर, 1980 को या उसके बाद वन के रूप में अधिसूचित की गई है।
  • कुछ प्रकार की भूमियों में छूट
    • उदाहरण के लिए, धारा 1A(2)(a) में, निम्नलिखित प्रकार की भूमि को छूट प्रदान की गई है: “ऐसी वन भूमि जो किसी रेल लाइन या सरकार द्वारा बनाई गई सार्वजनिक सड़क के साथ स्थित है, जो एक आवास या रेल, और सड़क के किनारे के सुविधा केंद्र तक पहुँच प्रदान करती है, जिसका अधिकतम आकार 0.10 हेक्टेयर है।”
    • यह अधिनियम अंतरराष्ट्रीय सीमाओं के 100 किमी.  के भीतरराष्ट्रीय महत्त्व और राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित सभी ररणनीतिक रैखिक परियोजनाओं (जैसे सड़क या रेलवे) को भी छूट देता है।
  • अनुमत गतिविधियों का विस्तार: यह केंद्र सरकार द्वारा निर्दिष्ट, सिल्वीकल्चरल संचालन, (वन विकास को बढ़ाना) वन्यजीव सफारी और इको-पर्यटन की सुविधा प्रदान करता है।

भारत में वन संरक्षण का ढाँचा

  • आरक्षित वनका विचार: इसे पहली बार के भारतीय वन अधिनियम ,1878 द्वारा प्रस्तुत किया गया था, जिसने वनों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया था – आरक्षित वन (पूरी तरह से सरकार-नियंत्रित), संरक्षित वन (आंशिक रूप से सरकार-नियंत्रित) और ग्राम वन (गाँवों द्वारा नियंत्रित)।
  •  वर्ष 1878 के कानून का 1927 में अद्यतन: वर्ष 1927 का अधिनियम वनों को आरक्षित या संरक्षित के रूप में अधिसूचित करने, घोषित करने या रिकॉर्ड करने की राज्य सरकार की शक्ति का स्रोत बना हुआ है।
  • वर्ष 1952 में केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय वन नीति अपनाई।
    • पहली बार, सभी भूमि का एक-तिहाई (33%) हिस्सा वन क्षेत्र के अंतर्गत लाया जाना चाहिए।
    • पहाड़ी और पर्वतीय क्षेत्रों के लिए (विशेष पारिस्थितिकी को ध्यान मे रखते हुए एवं  मृदा अपरदन को रोकने के लिए): इन क्षेत्रों में कुल भूमि क्षेत्र का 60% भाग वन आवरण के अंतर्गत लाया जाना चाहिए।
  • वर्ष 1976 में ‘वन’ का विषय राज्य सूची से समवर्ती सूची में स्थानांतरित किया गया।
    • इसने अनुच्छेद-48A के तहत वनों और वन्यजीवों के संरक्षण एवं सुरक्षा को राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत (DPSP) के रूप में शामिल किया।
    • इसके अतिरिक्त, वनों की सुरक्षा और सुधार को अनुच्छेद-51A(g) के तहत एक मौलिक कर्तव्य के रूप में प्रस्तुत किया गया था।

  • अनुमोदन प्रक्रियाओं का सुव्यवस्थितीकरण: पहले, राज्य सरकारों को गैर-सरकारी संस्थाओं को वन भूमि आवंटित करने के लिए केंद्र सरकार की मंजूरी की आवश्यकता होती थी। संशोधन इस आवश्यकता को केंद्र सरकार के नियमों और शर्तों के अधीन मंजूरी के साथ सभी संस्थाओं तक विस्तारित करता है।
    • इसका उद्देश्य वन भूमि के गैर-वानिकी उपयोग से जुड़े प्रस्तावों पर अस्पष्टताओं को खत्म करना और निर्णय लेने में तेजी लाना है।

वन संरक्षण (संशोधन) अधिनियम, 2023 की आलोचना

  • वनदायरे में परिवर्तन : अधिनियम भारत मेंवनको पुनः परिभाषित करने का प्रयास करता है और इसे आधिकारिक तौर पर निर्दिष्ट भूमि तक सीमित करता है।
    • इससे गैर-निर्दिष्ट वन भूमि पर व्यावसायिक गतिविधियों पर प्रतिबंध समाप्त हो जाता है, जो अरावली और नियमागिरि पर्वतमाला जैसे कमजोर आदिवासी समूहों के निवास वाले क्षेत्रों को प्रभावित करता है।
  • रैखिक बुनियादी ढाँचे के लिए छूट
    • राष्ट्रीय सीमाओं के पास रैखिक बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं को वन क्षेत्र की स्वीकृति प्रक्रिया से छूट दी जा सकती है।
    • रणनीतिक रैखिक परियोजनाओंके लिए स्पष्ट परिभाषाओं का अभाव चिंता पैदा करता है, विशेष रूप से पूर्वोत्तर राज्यों में जहाँ इस छूट के महत्त्वपूर्ण पर्यावरणीय प्रभाव हो सकते हैं।
  • परामर्श में खामियाँ
    • आदिवासी समूहों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं सहित विभिन्न हितधारकों की कई आपत्तियों के बावजूद संयुक्त संसदीय समिति द्वारा अनुशंसित परिवर्तनों को लागू नहीं किया गया, जो इसकी आलोचना का एक बड़ा कारण रहा है।
  • वन संरक्षण और आदिवासी समुदाय को खतरा 
    • वन अधिकार अधिनियम के बावजूद, वन भूमि के उपयोग में परिवर्तन के लिए आदिवासी समुदायों की सहमति घटती जा रही है। प्रस्तावित संशोधन तेजी से बढ़ते वृक्षारोपण के माध्यम से कार्बन तटस्थता को प्राथमिकता देते हैं, जिससे वन संरक्षण अधिनियम का दायरा सीमित हो जाता है।
  • केंद्रीकृत नियंत्रण से जुड़ी चिंताएँ
    • केंद्र सरकार में शक्ति का केंद्रीकरण चिंता पैदा करता है, विशेषकर अंतरराष्ट्रीय सीमाओं के पास रणनीतिक परियोजनाओं के लिए छूट के संबंध में। नागालैंड और सिक्किम जैसे राज्यों ने अपने क्षेत्रों पर इसके संभावित प्रभाव पर चिंता व्यक्त की हैं।
  • मानव-पशु संघर्ष: वायनाड जिले में रेडियो कॉलर लगे होने के बावजूद एक हाथी के मानव बस्ती में घुसने पर हुए संघर्ष के दौरान  एक व्यक्ति कीमृत्यु हो गई। इसलिए, यह न केवल वनों और वन्यजीवों को खतरे में डालता है, बल्कि वन-निवासी समुदायों के जीवन और आजीविका को भी खतरे में डालता है।
  • अन्य कमियाँ
    • धारा 1A(2)(c)(ii): सुरक्षा संबंधी बुनियादी ढाँचे के लिए उपयोग की जाने वाली वन भूमि को अधिनियम के दायरे से बाहर रखा गया है।
    • धारा 1A(3): प्रतिपूरक वनीकरण पर वैधानिक निर्भरता जिसका भारत में बहुत खराब ट्रैक रिकॉर्ड है।
    • धारा 1A(2)(c)(iii): वामपंथी उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों में रक्षा और सार्वजनिक उपयोगिता परियोजनाओं के लिए अप्रतिबंधित छूट।
    • धारा 2(2): वन में सर्वेक्षण और अन्वेषण जैसी गतिविधियों की मनमाने ढंग से अनुमति देना।
    • महत्त्वपूर्ण शब्दों के लिए स्पष्ट परिभाषाओं का अभाव।

गोदावर्मन केस 1996 का प्रभाव और महत्त्व

वन संरक्षण कानूनों पर

  • इसने वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 और वन (संरक्षण) नियम, 1981 की अधिक कठोर व्याख्या तथा अनुप्रयोग को प्रेरित किया है, जिसका उद्देश्य पूरे भारत में वनों का संरक्षण एवं  वन्यजीवों की सुरक्षा सुनिश्चित करना है।

पर्यावरण प्रशासन में न्यायिक भागीदारी में वृद्धि

  • पर्यावरण प्रशासन में एक सुरक्षा व्यवस्थापक  के रूप में न्यायपालिका की भूमिका स्थापित की और इसे राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण के विकास से भी जोड़कर देखा जाता है। वन क्षेत्रों में विकासात्मक उपक्रमों की निगरानी और पर्यावरण की सुरक्षा के लिए कई शासनादेश और दिशा-निर्देश जारी किए गए।

वन भूमि की सुरक्षा एवं संरक्षण

भारत में व्यापक वन क्षेत्रों को संरक्षण प्राप्त हुआ है और भारत की विविध जैव विविधता को संरक्षित किया गया है, गैर-वन उद्देश्यों के लिए वन भूमि को परिवर्तित करने की कई परियोजनाएँ रद्द कर दी गई हैं।

वनवासियों और जनजातीय समुदायों के अधिकारों की मान्यता

इसने वनवासियों और अपने भरण-पोषण के लिए वनों पर निर्भर आदिवासी समुदायों के अधिकारों को स्वीकार करने और उनकी सुरक्षा करने की आवश्यकता पर जोर दिया है।

इसके निर्देशों का पालन सुनिश्चित करने के लिए विभिन्न समितियों की स्थापना

इससे वन संरक्षण पहलों के भीतर सतत विकास को बढ़ावा देने में मदद मिली है।

आगे की राह 

  • वन की निर्दिष्ट परिभाषा: वन के अंतर्गत भूमि के अनुमान का आकलन करने के बाद क्योटो प्रोटोकॉल परिभाषा की तर्ज पर वन की एक निर्दिष्ट परिभाषा बनाई जानी चाहिए, जिसका उपयोग वर्तमान में ISFR रिपोर्ट के लिए किया जा रहा है।
  • परामर्शी दृष्टिकोण: परियोजना के सभी पक्षों और विपक्षों का विश्लेषण करने के बाद सभी हितधारकों की आपसी सहमति से आगे बढ़ना।
  • स्वदेशी अधिकारों के साथ संरक्षण: वन अधिकार अधिनियम 2006 और वन संरक्षण अधिनियम के आधार पर स्वदेशी समुदायों के अधिकारों को मान्यता देकर सीमाओं और संक्रमण क्षेत्र का व्यापक सीमांकन किया जाना चाहिए।
  • पर्यावरण और सामाजिक प्रभाव का आकलन: परियोजना की पर्यावरणीय और सामाजिक लागत वन संरक्षण के अनुरूप होनी चाहिए।

निष्कर्ष

हालिया संशोधनों ने अधिक वन भूमि को गैर-वन गतिविधियों के लिए स्थानांतरित करने पर जोर दिया। यह न केवल वनों और वन्य जीवन के लिये चुनौती प्रस्तुत करता है, बल्कि वन में रहने वाले समुदायों के कल्याण और आजीविका को भी खतरे में डालता है। इसलिए वन की परिभाषा और चिड़ियाघर एवं सफारी निर्माण की अनुमति पर उच्चतम न्यायालय का वर्तमान निर्णय एक स्वागत योग्य कदम है।

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