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चंडीगढ़ मेयर चुनाव पर उच्चतम न्यायालय का निर्णय

Lokesh Pal February 22, 2024 05:42 109 0

संदर्भ

उच्चतम न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 142 की शक्तियों का उपयोग करते हुए, चंडीगढ़ मेयर चुनाव के विवादास्पद परिणामों को पलट दिया।

संबंधित तथ्य 

  • चंडीगढ़ नगर निगम के लिए वार्षिक मेयर चुनाव आयोजित किए गए थे, जिसमें 35 पार्षद शामिल थे।
  • मतपत्रों का विरूपण: इस चुनाव की मतगणना के दौरान ‘रिटर्निंग ऑफिसर’ को सुरक्षा कैमरे में आठ मतपत्रों को विरूपित करते हुए पकड़ा गया।
  • उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी: उच्चतम न्यायालय ने इस घटना की निंदा करते हुए इसे लोकतंत्र का उपहास बताया और मतपत्रों, रिकॉर्ड्स और सुरक्षा कैमरा फुटेज को पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार-जनरल को सौंपने का आदेश दिया, ताकि उन्हें उच्चतम न्यायालय में प्रस्तुत किया जा सके।

चंडीगढ़ मेयर चुनाव में क्या हुआ?

  • भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने 30 जनवरी को चंडीगढ़ मेयर चुनाव में आम आदमी पार्टी-कांग्रेस गठबंधन के उम्मीदवार को हराकर जीत हासिल की थी।
  • मतगणना के दौरान रिटर्निंग ऑफिसर द्वारा विपक्षी गठबंधन के आठ मतों को अवैध घोषित कर दिया गया था, जिसके बाद  मतपत्रों में गड़बड़ी के आरोप सामने आए हैं।

उच्चतम न्यायालय के निर्णय की मुख्य विशेषताएँ:

  • चुनावी लोकतंत्र का संरक्षण: उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 142 के तहत पूर्ण न्याय करने की अपनी उत्तरदायित्व पर  जोर दिया ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि निर्वाचन प्रक्रिया के सभी स्तरों पर किसी भी तरह के कपटपूर्ण तरीकों से चुनावी लोकतंत्र की प्रक्रिया बाधित न हो।
  • पुन: चुनाव पर समीक्षा: दोबारा चुनाव का आदेश देने के बजाय,  उच्चतम न्यायालय ने चुनाव परिणामों की समीक्षा की और पाया कि गिनती तथा घोषणा के चरणों में ही अनिमितताएँ हुई थीं।

  • कदाचार के विरुद्ध कार्रवाई: मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ ने मेयर चुनाव के दौरान कदाचार के लिए रिटर्निंग ऑफिसर के विरुद्ध कार्रवाई की तथा उनके आचरण के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 340 (न्याय प्रशासन को प्रभावित करने वाला आचरण) के तहत कारण बताओ नोटिस जारी किया गया।
  • राजनीतिक सत्यनिष्ठा पर चिंता: मुख्य न्यायाधीश ने राजनीतिक सत्यनिष्ठा पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुए पार्षदों के बीचखरीद-फरोख्त के उदाहरणों को रेखांकित किया।

संविधान के अनुच्छेद 142 के बारे में:

  • विवेकाधीन शक्तियाँ: भारतीय संविधान का अनुच्छेद 142 उच्चतम न्यायालय को विवेकाधीन शक्ति प्रदान करता है।
    • यह न्यायालय को अधिकार देता है कि उसके समक्ष लंबित किसी भी वाद या वादों में पूर्ण न्याय सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक कोई भी डिक्री पारित कर सके या कोई भी आदेश दे सके।

मेयर के बारे में:

  • मेयर का चुनाव नगर निगम या परिषद के सदस्यों द्वारा किया जाता है और वह शहरी स्थानीय निकाय का प्रमुख होता है।
  • वह शहर या कस्बे के निवासियों के लिए आवश्यक सेवाओं और बुनियादी ढाँचे की देख-रेख करता है, साथ ही स्थानीय सरकार के औपचारिक प्रमुख के रूप में भी कार्य करता है।
  • भारत में विभिन्न शहरों में मेयर के चुनाव की प्रक्रिया और उनके कार्यकाल की अवधि में काफी भिन्नता है।
    • बेंगलुरु में मेयर का अप्रत्यक्ष चुनाव होता है और उनका कार्यकाल एक वर्ष का होता है, जबकि मुंबई में अप्रत्यक्ष चुनाव होते हैं और उनका कार्यकाल 2.5 वर्ष का होता है।

अनुच्छेद 142 के दायरे का विस्तार

  • प्रेमचंद गर्ग वाद (1962): इस वाद में यह स्थापित किया गया कि अनुच्छेद 142 के तहत पक्षकारों को पूर्ण न्याय प्रदान करने वाले आदेश संविधान के अनुरूप होने चाहिए और ये वैधानिक कानूनों का उल्लंघन नहीं कर सकते।
    • इसने मौलिक अधिकारों और मूलभूत कानूनी प्रावधानों (संसदीय कानूनों) के बीच निरंतरता की आवश्यकता पर भी जोर दिया।
  • अंतुले वाद (1988): सात न्यायाधीशों की पीठ ने अनुच्छेद 142 के तहत शक्तियों के प्रयोग के संबंध में निर्धारित सिद्धांतों को बरकरार रखते हुए प्रेमचंद गर्ग वाद के निर्णय की पुनः पुष्टि की।
  • यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया वाद (1991): इस वाद में, उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 142 की व्यापकता को स्पष्ट करते हुए इसके दायरे को विस्तारित करते हुए यह निर्णय लिया कि अनुच्छेद 142 के तहत प्रदान की गई संवैधानिक शक्तियों को वैधानिक सीमाओं द्वारा प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता है।
    • न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि अनुच्छेद 142 एक विशिष्ट स्तर पर कार्य करता है, जो सामान्य कानूनों पर संवैधानिक प्रावधानों की सर्वोच्चता को दर्शाता है।

अनुच्छेद 142 का महत्त्व

  • न्याय बहाली: अनुच्छेद 142 उच्चतम न्यायालय को उनके मामलों में कानूनी अन्याय या अनियमितताओं से प्रभावित पक्षों के लिए पूर्ण न्याय सुनिश्चित करने के लिए अद्वितीय और शक्तिशाली अधिकार प्रदान करता है।
  • नागरिक अधिकारों का संरक्षण : अनुच्छेद 142 आबादी के विभिन्न वर्गों, विशेष रूप से कमजोर वर्ग के अधिकारों की रक्षा करता है।
  • सरकारी कार्यों पर नियंत्रण और संतुलन: यह प्रावधान सरकार या विधायिका के साथ नियंत्रण और संतुलन की एक प्रणाली के रूप में कार्य करता है।
  • विधायी रिक्तता की पूर्ति : जैसा कि वर्ष 2002 के भंवरी देवी मामले में देखा गया था, जहाँ कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के विरुद्ध कोई कानून नहीं था, उच्चतम न्यायालय ने कानूनी रिक्तता को भरने और न्याय सुनिश्चित करने के लिए विशाखा दिशा निर्देशों की स्थापना की।
  • कार्यकारी गैर-अनुपालन को संबोधित करना: ट्रायल के दौरान कार्यपालिका की अवहेलना के कारण बिहार में अत्यधिक संख्या में विचाराधीन कैदी हो गए, जिसके परिणामस्वरूप वर्ष 1979 के हुसैनारा खातून वाद में उच्चतम न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा, जिसने भारत में जनहित याचिका (Public Interest Litigation-PIL) की शुरुआत की।

अनुच्छेद 142 की आलोचना:

  • मनमानी और अस्पष्ट शक्तियाँ: अनुच्छेद 142 की व्यापक शक्तियों की मनमाने ढंग से उपयोग की जाने वाली क्षमता की आलोचना हुई, जिसका मुख्य कारण “पूर्ण न्याय” की अपरिभाषित अवधारणा है, जो उच्चतम न्यायालय के विवेक के बारे में चिंताओं को जन्म देती है।
    • नियंत्रण और संतुलन (Checks & Balances):
      • उच्चतम न्यायालय बार एसोसिएशन बनाम भारत संघ वाद (1998): उच्चतम न्यायालय ने माना कि अनुच्छेद 142 के तहत शक्तियाँ प्रकृति में पूरक हैं और इसका उपयोग किसी मूल कानून को बदलने या समाप्त करने के लिए नहीं किया जा सकता है।
        • इसका उपयोग पहले से मौजूद नहीं होने पर एक नए ढाँचे के निर्माण के लिए नहीं किया जा सकता है।
        • अनुच्छेद 142 उच्चतम न्यायालय को उपचारात्मक शक्तियाँ प्रदान करता है, इस बात पर जोर देता है कि यह शक्तियाँ न्यायालय को कानूनी कार्यवाही में शामिल व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों की उपेक्षा करने की अनुमति नहीं देती हैं।
        • इस प्रावधान का उपयोग किसी ऐसी चीज को अप्रत्यक्ष रूप से प्राप्त करने के लिए नहीं किया जा सकता जिसे सीधे तौर पर हासिल नहीं किया जा सकता है।
      • ए जिदेरनाथ बनाम जुबली हिल्स को-ऑप हाउस बिल्डिंग सोसायटी वाद (2006): इस निर्णय में इस बात पर प्रकाश डाला गया कि अनुच्छेद 142 के प्रयोग से किसी मामले के गैर-पक्षों के साथ अन्याय नहीं होता है।
  • न्यायिक जवाबदेही और अतिरेक: न्यायपालिका की तुलना में विधायिका और कार्यपालिका को अधिक जवाबदेह ठहराया जाता है, जिससे न्यायिक अतिक्रमण की आशंका बढ़ जाती है।
    • यह दावा किया जाता है कि न्यायपालिका शक्तियों के पृथक्करण सिद्धांत के दायरे से बाहर कानून बनाने के क्षेत्रों में कदम रख रही है। उदाहरण के लिए, राष्ट्रीय और राज्य राजमार्गों पर शराब की बिक्री पर प्रतिबंध।
    • नियंत्रण और संतुलन:
      • अनुच्छेद 142 के प्रावधानों को मौजूदा कानूनों द्वारा अप्रत्याशित असाधारण स्थितियों के लिए आरक्षित किया जाना चाहिए।
      • कर्नाटक राज्य बनाम उमा देवी वाद (2006) ने स्पष्ट किया कि “पूर्ण न्याय” कानून के अनुसार होना चाहिए, न कि सहानुभूति पर आधारित और विधायी क्षेत्र के अतिक्रमण करने से बचना चाहिए।
  • आर्थिक प्रभाव: न्यायिक निर्णय सरकार की आर्थिक नीति को प्रभावित करते हैं।
    • राजमार्गों के पास शराब की बिक्री पर रोक लगाने के उच्चतम न्यायालय के निर्णय से आतिथ्य क्षेत्र (Hospitality Sector) में काफी नुकसान हुआ, जिससे कई लोग बेरोजगार हो गए।
  • विशेषज्ञता की कमी: कानूनी मामलों में पारंगत होने के बावजूद, न्यायालय को नीति निर्माण में विशेषज्ञता का अभाव हो सकता है, जो व्यापक विधायी मुद्दों पर उसके निर्णयों को प्रभावित करता है।
  • वैधता के मुद्दे: न्यायिक रूप से अधिनियमित कानूनों को संसद में व्यापक जाँच-पड़ताल और बहस से गुजरने का अवसर नहीं मिलता है , जिससे उनकी वैधता के बारे में चिंताएँ उत्पन्न होती हैं।

आगे की राह 

  • पूर्ण न्यायको परिभाषित करना: उच्चतम न्यायालय को “पूर्ण न्याय” शब्द को परिभाषित करने का प्रयास करना चाहिए ताकि न्यायिक हस्तक्षेपों के दायरे और पहुँच को स्पष्ट किया जा सके। यह इसी विषय से संबंधित एक संविधान पीठ बनाकर किया जा सकता है।
  • अनुच्छेद 142 मामलों का अध्ययन: सरकार को ऐसे सभी मामलों में, जहाँ अनुच्छेद 142 लागू किया गया था, निर्णय के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रभावों का विश्लेषण करते हुए एक श्वेत पत्र प्रकाशित करना चाहिए।
  • अनुच्छेद 142 का सावधानीपूर्वक उपयोग: उच्चतम न्यायालय को लोकतांत्रिक व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए और न्याय के सिद्धांतों तथा संवैधानिक मूल्यों को बनाए रखते हुए अनुच्छेद 142 का सावधानीपूर्वक उपयोग करना चाहिए।
  • न्यायिक अतिरेक से बचना: शक्तियों को हमेशा संवैधानिक और वैधानिक प्रावधानों की सीमा के भीतर कार्य करना चाहिए। इन सीमाओं से परे जाने से न्याय मिलने की बजाय अन्याय हो सकता है।

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