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वोट के लिए रिश्वत मामले में उच्चतम न्यायालय का निर्णय

Lokesh Pal March 06, 2024 06:43 158 0

संदर्भ

हाल ही में उच्चतम न्यायालय की सात न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने यह निर्णय दिया है कि सांसदों और विधायकों को भाषण तथा मतदान के बदले में रिश्वत लेने के आरोपों में आपराधिक मुकदमे से कोई उन्मुक्ति प्राप्त नहीं है।

वोट के लिए रिश्वत (Bribe for Vote)

  • यह उस स्थिति को संदर्भित करता है जब कोई विधायक, विधायिका में भाषण देने और वोट डालने के लिए रिश्वत लेता है।
  • नोट के बदले वोट से जुड़े पूर्व के मामले
    • वर्ष 2008: इस विवाद में विश्वास मत हासिल करने के लिए यूपीए सरकार के भीतर रिश्वतखोरी के आरोप शामिल थे।
    • वर्ष 2015: इस विवाद में तेलंगाना में तेलुगु देशम पार्टी (TDP) के नेताओं को विधान परिषद चुनावों में वोटों के लिए रिश्वतखोरी में फँसाया गया था।

संबंधित तथ्य 

  • उच्चतम न्यायालय ने वर्ष 1998 के पीवी नरसिम्हा राव वाद के निर्णय को पलट दिया।
  • पीठ ने कहा कि वर्ष 1998 के निर्णय का सार्वजनिक हित, सार्वजनिक जीवन में शुचिता (Probity) और संसदीय लोकतंत्र पर व्यापक प्रभाव पड़ता है।

वर्ष 1998 का पीवी नरसिम्हा राव निर्णय  

  • प्रतिरक्षा की उपलब्धता: यह माना गया कि संसद और विधानसभाओं के सदस्य विधायिका में किसी वोट या भाषण के दौरान रिश्वत प्राप्त करने के लिए संविधान के अनुच्छेद-105(2) और 194(2) के तहत प्रतिरक्षा का दावा कर सकते हैं।
    • निर्णय: बहुमत का विचार था कि सांसदों की स्वतंत्रता की रक्षा करने और यह सुनिश्चित करने के लिए कि वह बहस में स्वतंत्र रूप से भाग ले सकें, प्रतिरक्षा आवश्यक है।

अन्य संबद्ध वाद

  • केरल राज्य बनाम अजित वाद : वर्ष 2021 में, केरल राज्य बनाम अजित वाद में , पीठ ने वर्ष 2015 के केरल विधानसभा हंगामा मामले में छह वाम लोकतांत्रिक मोर्चा (Left Democratic Front-LDF) सदस्यों के विरुद्ध आपराधिक प्राथमिकी दर्ज करने को चुनौती देने वाली याचिकाओं को खारिज कर दिया था।
    • निर्णय: उच्चतम न्यायालय ने माना कि विधायकों को उनके भाषण और यहाँ तक ​​कि विधानसभा के पटल पर विरोध के लिए संरक्षित किया गया है, लेकिन माइक्रोफोन या फर्नीचर को नुकसान पहुँचाने जैसे आपराधिक कृत्यों को संसदीय विशेषाधिकार के तहत कवर नहीं किया जा सकता है।

निर्णय की पृष्ठभूमि

  • सीता सोरेन वाद के विरुद्ध आरोप: झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) के विधायक सीता सोरेन के विरुद्ध वर्ष 2012 के राज्यसभा चुनाव में एक स्वतंत्र उम्मीदवार से रिश्वत लेने का आरोप है।
  • न्यायिक दृष्टिकोण
    • उच्च न्यायालय: उन्होंने अनुच्छेद-194 (2) के प्रावधानों का हवाला देते हुए अपने विरुद्ध आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने के लिए झारखंड उच्च न्यायालय का रुख किया, लेकिन उच्च न्यायालय ने ऐसा करने से इनकार कर दिया।
    • उच्चतम न्यायालय में अपील (2014): इसके बाद उन्होंने उच्चतम न्यायालय का रुख किया, जहाँ सितंबर 2014 में न्यायाधीशों की पीठ ने राय दी कि चूँकि यह मुद्दा “महत्त्वपूर्ण और सार्वजनिक महत्त्व का” था, इसलिए इसे तीन न्यायाधीशों की बड़ी पीठ के समक्ष रखा जाना चाहिए।
    • बड़ी पीठ को हस्तांतरित (2019): तीन न्यायाधीशों की पीठ ने अपील पर सुनवाई की और कहा कि उच्च न्यायालय का निर्णय वर्ष 1998 के निर्णय से संबंधित है और इसलिए इसे बड़ी पीठ के पास भेजा जाना चाहिए और अंततः इसे सात न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ के पास भेज दिया गया।

उच्चतम न्यायालय के निर्णय से जुड़े प्रमुख तथ्य

  • रिश्वत पर कोई उन्मुक्ति नहीं: सदन के सदस्य रिश्वत लेने, सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुँचाने, हिंसा करने आदि जैसे कार्यों के लिए उन्मुक्ति का दावा नहीं कर सकते।
  • रिश्वतखोरी पर प्रतिरक्षा नहीं: रिश्वतखोरी अनुच्छेद-105(2) और अनुच्छेद-194 के तहत संरक्षित नहीं है, भले ही इसका वोट देने या निर्णय लेने से कोई संबंध न हो।
  • निर्णीत अनुसरण स्टेयर डेसिसिसस्टेयर डेसिसिस (Stare Decisis) के सिद्धांत का उल्लंघन नहीं: उच्चतम न्यायालय ने कहा कि वह पूर्व निर्णयों को बदल सकता है, जैसे कि पी.वी. नरसिम्हा राव वाद में, यदि इसका सार्वजनिक हित, सार्वजनिक जीवन में शुचिता और संसदीय लोकतंत्र पर व्यापक प्रभाव पड़ता हो।
    • स्टेयर डेसिसिस‘(Stare Decisis) का सिद्धांत: यह एक कानूनी सिद्धांत है, जो न्यायाधीशों को समान मामले पर निर्णय सुनाते समय पूर्व निर्णय का पालन करने के लिए बाध्य करता है।
  • आवश्यकता परीक्षण या दोहरे परीक्षण की आवश्यकता: उच्चतम न्यायालय ने कहा, संसदीय विशेषाधिकारों के व्यक्तिगत अधिकारों को “आवश्यकता परीक्षण या दोहरा परीक्षण” पास करना होगा।
    • अनिवार्यता: इसका आशय है कि किसी सदस्य के लिए किसी विशेषाधिकार का प्रयोग करने के लिए, विशेषाधिकार ऐसा होना चाहिए कि उसके बिनावह अपने कार्यों का निर्वहन नहीं कर सकें।
  • भ्रष्टाचारपूर्ण-मतदान या अंतरात्मा की आवाज पर मत: रिश्वत स्वीकार करना एक अपराध है और यह इस पर निर्भर नहीं करता है कि लोक सेवक ने अलग तरीके से कार्य किया है या नहीं।
    • भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 7: यहलोक सेवकों को रिश्वत लेने से संबंधित अपराधसे संबंधित है। किसी अनुचित लाभ को “प्राप्त करना”, “स्वीकार करना” या उसे प्राप्त करने का “प्रयास” करने का इरादा एक निश्चित तरीके से कार्य करने अथवा न करने के लिए अपराध को पूरा करने के लिए पर्याप्त है।
      • यह आवश्यक नहीं है कि जिस कार्य के लिए रिश्वत दी गई है वह वास्तव में किया गया हो।
  • विधायी विशेषाधिकार संवैधानिक मापदंडों के अनुरूप: भारत के संसदीय विशेषाधिकार विधायी और संवैधानिक विशेषाधिकारों से प्राप्त होते हैं, जो न्यायिक समीक्षा के अधीन हैं।
  • अनुच्छेद-14 के तहत समानता: न्यायालय ने कहा कि लोक सेवकों का एक गैर-कानूनी वर्ग बनाना, संविधान के अनुच्छेद-14 के तहत समानता के अधिकार का उल्लंघन होगा और ऐसा वर्गीकरण स्पष्ट रूप से मनमाना होगा।

संसदीय विशेषाधिकारों के बारे में

  • विशेष अधिकारों की उपलब्धता: संसदीय विशेषाधिकार संसद के दोनों सदनों, उनकी समितियों और उनके सदस्यों को प्राप्त विशेष अधिकार, उन्मुक्तियाँ और छूट हैं।
    • राज्यों के विधानमंडलों को भी इसका लाभ मिलता है।
  • संवैधानिक प्रावधान
    • संविधान का अनुच्छेद-105(2): इसमें कहा गया है कि, संसद का कोई भी सदस्य संसद या उसकी किसी समिति में कही गई किसी भी बात या दिए गए वोट के संबंध में किसी भी न्यायालय में किसी भी कार्यवाही के लिए उत्तरदायी नहीं होगा।
      • अनुच्छेद के अनुसार, कोई भी व्यक्ति किसी रिपोर्ट, पत्र, मत या कार्यवाही के संसद के सदन के अधिकार के तहत या उसके प्रकाशन के संबंध में उत्तरदायी नहीं ठहराया जाएगा।
    • संविधान का अनुच्छेद-194(2): यह राज्य विधानसभाओं के सदस्यों को समान सुरक्षा प्रदान करता है।
  • संसदीय विशेषाधिकार के घटक
    • सदन द्वारा सामूहिक अभ्यास: इसमें अपनी अवमानना ​​के लिए दंडित करने की शक्ति, अपने स्वयं के मामलों का संचालन करने की शक्ति आदि शामिल होंगी।
    • व्यक्तिगत अधिकारों के लिए: इसमें प्रत्येक सदस्य द्वारा बोलने की स्वतंत्रता का प्रयोग करने की बात कही गई है।
  • संसदीय विशेषाधिकारों का उद्देश्य
    • भयमुक्त वातावरण का निर्माण : भयमुक्त वातावरण में संसद और राज्य विधानमंडलों के सदनों में बहस, विचार-विमर्श और विचारों का आदान-प्रदान हो सकता है।

  • समवर्ती क्षेत्राधिकार: न्यायपालिका और संसद दोनों समानांतर रूप से कानून निर्माताओं के कार्यों पर क्षेत्राधिकार का प्रयोग कर सकते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि सदन द्वारा दंड देने का उद्देश्य आपराधिक मुकदमे के उद्देश्य से भिन्न होता है।
    • सदन का क्षेत्राधिकार: सदन द्वारा की जाने वाली कार्यवाही का उद्देश्य इसकी गरिमा को बहाल करना है।
    • आपराधिक मुकदमा: यह सदन की अवमानना ​​से भिन्न है क्योंकि यह पूरी तरह से प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों, साक्ष्य के नियमों और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों से सुसज्जित है।
  • लोकतंत्र का क्षरण: विधायिका के सदस्यों द्वारा भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी भारतीय संसदीय लोकतंत्र की नींव को कमजोर करते हैं।
    • यह संविधान के आकांक्षात्मक और विचारशील आदर्शों के लिए विनाशकारी है और एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था का निर्माण करता है, जो नागरिकों को एक जिम्मेदार, उत्तरदायी और प्रतिनिधि लोकतंत्र से वंचित करता है।
  • राज्यसभा चुनावों के लिए प्रयोज्यता: न्यायालय ने स्पष्ट किया कि निर्णय द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत राज्यसभा के चुनावों और भारत के राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति की नियुक्ति के लिए भी समान रूप से लागू होंगे।
    • तदनुसार, इसने कुलदीप नैय्यर बनाम भारत संघ वाद (2006) मामले की टिप्पणियों को रद्द कर दिया।
      • कुलदीप नैय्यर बनाम भारत संघ वाद (2006):  इस वाद में यह माना गया कि राज्यसभा के चुनाव विधायिका की कार्यवाही नहीं हैं, बल्कि मताधिकार का मात्र प्रयोग हैं और इसलिए अनुच्छेद-194 के तहत संसदीय विशेषाधिकारों के दायरे से बाहर हैं।

निर्णय का महत्त्व

  • मूल संरचना सिद्धांत को कायम: चूँकि यह निर्णय न्यायिक समीक्षा को कायम रखता है, जो भारतीय संविधान के बुनियादी संरचना सिद्धांत की आत्माओं में से एक है।
  • भ्रष्टाचार से मुकाबला: रिश्वतखोरी के आरोपों का सामना करने वाले विधायकों को दी जाने वाली प्रतिरक्षा को समाप्त करके।
  • जवाबदेही और पारदर्शिता को बढ़ावा: न्यायालय का निर्णय यह स्पष्ट करके कि रिश्वतखोरी के अपराध अभियोजन से मुक्त नहीं हैं, जवाबदेही और पारदर्शिता सुनिश्चित करेगा।
  • सदन की अखंडता को मजबूती : यह सदन की अखंडता को मजबूत करेगा, क्योंकि भाषण देने के लिए रिश्वत स्वीकार करने से यह कमजोर हो जाती है।
  • मौलिक अधिकारों का संरक्षण: रिश्वतखोरी के आरोपी विधायकों के लिए विशेष विशेषाधिकारों को समाप्त करके कानून के तहत समान व्यवहार सुनिश्चित करना। यह संविधान के अनुच्छेद-14 के तहत समानता के अधिकार के अनुरूप है।

संबोधित करने योग्य चुनौतियाँ

  • निर्णयों और कानूनों पर अनिश्चितता: स्थापित परंपरा को पलटना प्रमुख चिंताओं में से एक है, जिसके लिए सममित निर्णयों और नियमों के लिए अधिक गहन अध्ययन की आवश्यकता होती है।
  • विधायिका की स्वतंत्रता पर प्रभाव: विधायकों पर आपराधिक मुकदमा चलाने से विधायकों की अपने कर्तव्यों को पूरा करने की स्वतंत्रता और प्रभावशीलता पर असर पड़ सकता है।
  • कार्यान्वयन में चुनौतियाँ: प्रभावी कार्यान्वयन कानून प्रवर्तन एजेंसियों और न्यायपालिका के लिए लॉजिस्टिकल और प्रक्रियात्मक चुनौतियाँ पैदा कर सकता है।

निष्कर्ष

उच्चतम न्यायालय का निर्णय भारत की संसदीय प्रणाली में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है। यह विधायी स्वतंत्रता को बनाए रखने और भ्रष्टाचार से निपटने के बीच संतुलन बनाए रखने में मदद करेगा।

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