हाल ही में केंद्र सरकार द्वारा असम में पारंपरिक माजुली मुखौटों को भौगोलिक संकेत (GI) टैग प्रदान किया गया।
‘माजुली पांडुलिपि चित्रकला’ (Majuli manuscript painting) को भी भौगोलिक संकेत (GI) टैग प्राप्त हुआ है।
संबंधित तथ्य
माजुली, दुनिया का सबसे बड़ा नदी द्वीप और असम की नव-वैष्णव परंपरा का केंद्र है।
यह 16वीं शताब्दी से मुखौटा बनाने की कला का केंद्र रहा है।
इसके कई पारंपरिक कलाकार, इस कला को सत्रों या मठों में अपने पारंपरिक स्थान से बाहर ले जाने और उन्हें एक नया समकालीन रूप प्रदान करने के लिए कार्यशील हैं।
माजुली मुखौटे (Majuli masks)
प्रयोग: इन हस्तनिर्मित मुखौटों का उपयोग परंपरागत रूप से 15वीं-16वीं शताब्दी के सुधारक संत श्रीमंत शंकरदेव द्वारा शुरू की गई नव-वैष्णव परंपरा के तहत भाओना (Bhaonas) या भक्ति संदेशों के साथ नाटकीय प्रदर्शन में पात्रों को चित्रित करने के लिए किया जाता है।
विषय-वस्तु: मुखौटों में देवी-देवताओं, राक्षसों, जानवरों और पक्षियों को चित्रित किया जाता है, जैसे- रावण, गरुड़, नरसिम्हा, हनुमान, वराह, शूर्पनखा आदि।
प्रकार: इनका आकार केवल चेहरे को ढकने वाले (मुख मुखौटे) से लेकर कलाकार के पूरे सिर और शरीर को ढकने वाले (चौमुख मुखौटे) तक हो सकता है।
चेहरे को ढकने वाले (मुख मुखौटे) को बनाने में लगभग पाँच दिन लगते हैं,
कलाकार के पूरे सिर और शरीर को ढकने वाले (चौमुख मुखौटे) को बनाने में एक से डेढ़ महीने तक का समय लग सकता है।
प्रयुक्त सामग्री: पेटेंट के लिए किए गए आवेदन के अनुसार, ये मुखौटे बाँस, मिट्टी, गोबर, कपड़ा, कपास, लकड़ी और नदी के आसपास उपलब्ध अन्य सामग्रियों से बने होते हैं।
‘सत्र’ मठों में कला के अभ्यास का कारण
‘सत्र’ श्री शंकरदेव और उनके शिष्यों द्वारा धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सुधार के केंद्र के रूप में स्थापित मठ रुपी संस्थाएँ हैं।
आज ये पारंपरिक प्रदर्शन कलाओं जैसे बोरगीट (गीत), सत्रिया (नृत्य) और भाओना (थिएटर) के केंद्र भी हैं, जो शंकरदेव परंपरा का एक अभिन्न अंग हैं।
माजुली में 22 सत्र हैं और मुखौटा बनाने की परंपरा मोटे तौर पर उनमें से चार में केंद्रित है- समागुरी सत्र, नतुन समागुरी सत्र, बिहिमपुर सत्र और अलेंगी नरसिम्हा सत्र।
मुखौटों के निर्माता
हेमचंद्र गोस्वामी सामागुरी सत्र के सत्राधिकार या प्रशासनिक प्रमुख हैं और पारंपरिक मुखौटा बनाने की कला के एक प्रसिद्ध कलाकार हैं।
उनके अनुसार, ऐतिहासिक रूप से सभी सत्रों में मुखौटे बनाए जाते थे, लेकिन समय के साथ यह प्रथा धीरे-धीरे समाप्त हो गई।
“नृत्य, गीत और संगीत वाद्ययंत्र की कलाएँ सत्रों से गहराई से जुड़ी हुई हैं और इसके प्रारंभकर्ता असम के गुरु श्रीमंत शंकरदेव थे।
16वीं शताब्दी में उन्होंने ‘चिन्हा जात्रा’ नामक नाटक के माध्यम से मुखौटों की इस कला को स्थापित किया।
इस शब्द का अर्थ है छवियों के माध्यम से समझाना।
उस समय सामान्य लोगों को कृष्ण भक्ति की ओर आकर्षित करने के लिए उन्होंने अपने जन्मस्थान बताद्रवा में नाटक प्रस्तुत किया था।
समागुरी सत्र वर्ष 1663 में अपनी स्थापना के बाद से मुखौटा बनाने में सलग्न है।
मुखौटे की समसामयिक प्रासंगिकता
ये मुखौटे पारंपरिक रूप से केवल ‘भाओना’ के उद्देश्य से बनाए जाते थे, पिछले कुछ दशकों से सामागुरी सत्र एक कला के रूप में मुखौटा बनाने की कला को बढ़ावा देने की कोशिश कर रहा है।
माजुली में पर्यटकों के लिए मुखौटों की बिक्री को बढ़ावा देने और प्रदर्शनियों और दीर्घाओं में उनके प्रदर्शन को बढ़ाने की शुरुआत की गई है।
इनका दीर्घकालिक उद्देश्य इस कला की परंपरा को संरक्षित करते हुए मुखौटे के उपयोग को और आधुनिक बनाना है।
यह चित्रकला का एक रूप है, इसकी उत्पत्ति भी 16वीं शताब्दी में हुई थी- जो घर में बनी स्याही का उपयोग करके साँची पट, या ‘अगर’ नामक पेड़ की छाल से बनी पांडुलिपियों पर बनाई जाती है।
सचित्र पांडुलिपि का सबसे पहला उदाहरण श्री शंकरदेव द्वारा असमिया में भागवत पुराण के आद्य दशम का प्रतिपादन माना जाता है।
इस कला को अहोम राजाओं द्वारा संरक्षण दिया गया था। माजुली के प्रत्येक सत्र में इसका अभ्यास जारी है।
Latest Comments