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गुजरात के पश्चिमी घाट में मृदा क्षरण में वृद्धि: आईआईटी-बॉम्बे

Lokesh Pal April 01, 2024 05:25 173 0

संदर्भ

आईआईटी, बॉम्बे के एक हालिया अध्ययन में पश्चिमी घाट क्षेत्र (Western Ghats Region- WGR) में होने वाले मृदा अपरदन (Soil Erosion) की तीव्र दर के बारे में चिंता जताई गई है।

अध्ययन के बारे में

  • अध्ययन की पद्धति: आईआईटी-बॉम्बे अध्ययन ‘यूनिवर्सल सॉइल लॉस इक्वेशन’ (Universal Soil Loss Equation- USLE) विधि का उपयोग करके मृदा के नुकसान की दर का अनुमान लगाने के लिए लैंडसैट-8 (LANDSAT-8), डिजिटल एलिवेशन मॉडल (Digital Elevation Model- DEM) और वर्षा रिकॉर्ड के डेटा का उपयोग करके आयोजित किया गया था। 

अध्ययन के मुख्य निष्कर्ष

  • मृदा अपरदन आँकड़े (Soil Erosion Statistics): अध्ययन से पता चलता है कि वर्ष 1990 और 2020 के बीच पश्चिमी घाट क्षेत्र (WGR) में मृदा के अपरदन की दर में 94% की वृद्धि हुई है।

    • तमिलनाडु और गुजरात: वर्ष 1990 के बाद से तमिलनाडु और गुजरात में पश्चिमी घाट क्षेत्र (WGR) के कुछ हिस्सों में मृदा के अपरदन में क्रमशः 121% तथा 119% की वृद्धि दर्ज की गई।
    • केरल और कर्नाटक: उनमें क्रमशः 90% और 56% की वृद्धि देखी गई। 

    • गोवा: अध्ययन अवधि के दौरान मृदा के अपरदन में 80% की वृद्धि के साथ, इसने समान रूप से खतरनाक रुझान प्रदर्शित किए।
    • महाराष्ट्र: इसमें 97% की पर्याप्त वृद्धि देखी गई।
  • मृदा अपरदन का कारण
    • बाद के वर्षों के दौरान बढ़ते वर्षा अपरदनकारिता कारक (Rainfall Erosivity Factor) बड़े पैमाने पर मृदा के क्षरण के प्रमुख कारण थे।
    • जलवायु परिवर्तन और अस्थिर भूमि उपयोग के कारण मृदा का अपरदन तेज हो रहा है।
    • मानव प्रभाव को कम करने और संरक्षण प्रयासों को तेज करने के लिए तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता है।

मृदा अपरदन (Soil erosion) क्या है? 

  • मृदा अपरदन वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा मृदा को पृथ्वी की सतह से वायु या जल के प्रवाह जैसी बहिर्जात प्रक्रियाओं (Exogenetic Processes) द्वारा अपरदित कर दिया जाता है।

 

पश्चिमी घाट क्षेत्र (Western Ghats Region- WGR)

  • भौगोलिक विस्तार (Geographical Extent): WGR तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, गोवा, महाराष्ट्र और गुजरात सहित छह भारतीय राज्यों में फैला हुआ है।
  • जैव विविधता हॉटस्पॉट (Biodiversity Hotspot): यह वर्ष 2012 में यूनेस्को (UNESCO) द्वारा मान्यता प्राप्त वैश्विक महत्त्व का जैव विविधता हॉटस्पॉट है। 
  • मृदा (Soil): लाल मृदा आमतौर पर घाटों के पश्चिमी किनारे पर पाई जाती है, जहाँ खड़ी ढलान होती है और वर्षा अधिक होती है। ये मृदा लौह एवं एल्युमीनियम ऑक्साइड से भरपूर होती है और आमतौर पर इसकी बनावट चिकनी मिट्टी जैसी होती है। 
  • महत्त्व: वे दक्षिण-पश्चिम मानसून को रोककर क्षेत्र की उष्णकटिबंधीय जलवायु को नियंत्रित करते हैं, जिससे एक वृष्टिछाया वर्षा क्षेत्र (Orographic Rainfall Region) का निर्माण होता है, इस प्रकार एक गैर-भूमध्यरेखीय उष्णकटिबंधीय सदाबहार वन पारिस्थितिकी तंत्र प्रदान होता है। 

 

भारत में स्थिति 

  • राष्ट्रीय मृदा सर्वेक्षण एवं भूमि उपयोग योजना ब्यूरो (National Bureau of Soil Survey and Land Use Planning) के अनुसार, भारत में 146.8 मिलियन हेक्टेयर यानी लगभग 30% मृदा निम्नीकृत है।
    • इसमें से लगभग 29% समुद्र में नष्ट हो जाती है, 61% एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरित हो जाती है और 10% जलाशयों में जमा हो जाती है।
  • 20वीं सदी के बाद से, खनन, वनों की कटाई, अतिचारण, मोनोकल्चर कृषि, अत्यधिक जुताई और रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों के उपयोग जैसे मानव निर्मित कारकों के कारण मृदा का क्षरण तेज हो गया है।

मृदा अपरदन के प्राकृतिक कारण

  • तेज हवाएँ: तेज हवाएँ शुष्क छोटे मृदा कणों को हटा देती हैं, जो अर्द्ध-शुष्क क्षेत्रों में एक विशिष्ट समस्या है, जिससे मरुस्थलीकरण होता है।
  • जलवायु परिवर्तन: असामान्य वर्षा या तापमान में वृद्धि से खेत की परत नष्ट हो जाती है। इससे वनस्पति का विकास अवरुद्ध हो जाता है, जिससे क्षेत्र का घना आवरण कम हो जाता है और यह वर्षा एवं हवाओं के संपर्क में आ जाता है।
  • वर्षा एवं बाढ़: अत्यधिक वर्षा ऊपरी मृदा के कणों को बहा ले जाती है, हालाँकि वर्षा की बड़ी बूँदें खेत की सतह पर गिरती हैं और भारी वर्षा के साथ इस परत को नष्ट कर देती हैं।
    • बाढ़ के दौरान बहती धाराएँ मृदा के अपरदन का एक अन्य कारण है।
  • वनाग्नि (Wildfire): पेड़ और झाड़ियाँ जल के बहाव को धीमा कर देती हैं। जब जंगल या बफर जोन वनाग्नि से नष्ट हो जाते हैं, तो जल धाराओं के रास्ते में कोई बाधा नहीं होती है।

मृदा अपरदन के मानवजनित कारण (Anthropogenic Causes)

  • अवैज्ञानिक कृषि पद्धतियाँ (Unscientific Agricultural Practices)
    • प्ररेखन या जुताई: इससे मृदा अपरदन की संभावना बढ़ जाती है क्योंकि यह प्राकृतिक मृदा की सतह और सुरक्षात्मक वनस्पति को प्रभावित करती है।
    • निरंतर फसल: एक ही भूमि पर लगातार फसल उगाने और सीमांत एवं उप-सीमांत भूमि पर कृषि का विस्तार मृदा के अपरदन को बढ़ावा देता है।
    • पहाड़ी ढलानों पर खेती: उचित भूमि उपचार उपाय जैसे- बाउंडिंग (Bounding), सीढ़ीदार (Terracing) और खाई बनाना (Trenching) मृदा अपरदन और मृदा में पोषक तत्त्वों की हानि का कारण बन सकता है।
    • मोनोकल्चर: इसमें खेत में एक ही किस्म की फसल बोने की प्रथा शामिल है।
    • अत्यधिक चराई: मवेशियों के चराने से क्षेत्र की वनस्पतियाँ नष्ट हो जाती है। पर्याप्त वनस्पति आवरण के अभाव में भूमि वायु और जल दोनों के अपरदन के प्रति अतिसंवेदनशील हो जाती है।
  • आर्थिक गतिविधियाँ: भूमि से उपयोगी प्राकृतिक संसाधनों जैसे- धातु, खनिज और जीवाश्म ईंधन आदि के निष्कर्षण से भूमि में मृदा कणों के मध्य विखंडन प्रक्रिया शुरू हो जाती है, जिससे मृदा का क्षरण होता है और मृदा परिदृश्य में बदलाव होता है।
  • विकासात्मक गतिविधियाँ: आवास, परिवहन, संचार, मनोरंजन आदि जैसी विभिन्न विकासात्मक गतिविधियों के कारण भी मृदा का क्षरण हो सकता है।

मृदा अपरदन के प्रकार

  • मृदा अपरदन को मोटे तौर पर उस कारक के आधार पर विभिन्न प्रकारों में वर्गीकृत किया जाता है, जो अपरदन गतिविधियों को ट्रिगर करता है।
  • भू-गर्भिक क्षरण (Geologic Erosion): भू-गर्भिक क्षरण को कभी-कभी प्राकृतिक या सामान्य क्षरण के रूप में जाना जाता है, जो वनस्पति के आवरण में क्षरण को दर्शाता है।
    • इसमें मृदा के साथ-साथ मृदा के अपरदन की प्रक्रियाएँ भी शामिल हैं, जो मृदा को अनुकूल संतुलन में बनाए रखती हैं, जो अधिकांश पौधों की वृद्धि के लिए उपयुक्त है।
    • अपरदन दर इतनी धीमी है कि प्राकृतिक मौसमी प्रक्रियाओं के तहत नई मृदा के निर्माण से मृदा के नुकसान की भरपाई हो जाती है।
  • वायु द्वारा अपरदन: वायु द्वारा अपरदन अक्सर शुष्क क्षेत्रों में देखा जाता है, जहाँ तेज हवाएँ विभिन्न भू-आकृतियों से टकराती हैं, उन्हें काटती हैं और मृदा कणों के संयोजन को प्रभावित कर देती है, जिन्हें उठाकर उस दिशा में ले जाया जाता है, जिस दिशा में वायु चलती है। उदाहरणार्थ- रेत के टीले और मशरूम जैसी चट्टानों की संरचनाएँ, जो आमतौर पर रेगिस्तानों में पाई जाती हैं।

  • जल द्वारा अपरदन: जल द्वारा अपरदन में, जल क्षीण मृदा के कणों को पृथक करने और एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने के लिए एक एजेंट के रूप में कार्य करता है।

मृदा अपरदन का प्रभाव 

  • भारत में लगभग 130 मिलियन हेक्टेयर भूमि, यानी कुल भौगोलिक सतह क्षेत्र का 45%, घाटियों एवं नालों के माध्यम से गंभीर मृदा अपरदन, स्थानांतरित खेती, खेती योग्य बंजर भूमि, रेतीले क्षेत्रों, रेगिस्तानों एवं जल जमाव से प्रभावित है। इसके प्रमुख प्रभावों में शामिल हैं:
  • कृषि पर मृदा अपरदन का प्रभाव: नष्ट हुई कृषि भूमि अनुपयोगी हो जाती है और कृषि गतिविधियों के लिए अनुपयुक्त हो जाती है।
    • उत्तर-पश्चिमी भारत और अन्य जगहों की अधिकांश फसल भूमि की मृदा में कार्बनिक पदार्थों की मात्रा अक्सर 0.5% से कम होती है। इससे फसल की पैदावार कम और स्थिर हो जाती है।
    • मृदा कार्बनिक पदार्थ (Soil organic matter- SOM) को मृदा में पाए जाने वाले कार्बनिक पदार्थों के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। कार्बनिक पदार्थ कोई भी जीवित या मृत जानवर और पौधा सामग्री है। इसमें जीवित पौधों की जड़ें और जानवर, अपघटन के विभिन्न चरणों में पौधे और जानवरों के अवशेष, और सूक्ष्मजीव और उनके उत्सर्जन शामिल हैं।
  • ऊपरी मृदा के नुकसान: ऊपरी मृदा कार्बनिक पदार्थ और पोषक तत्त्वों से भरपूर पृथ्वी की सबसे समृद्ध परत है, इसलिए जल या वायु द्वारा इसे हटाने से खेत की उर्वरता नष्ट हो जाती है।
    • एक इंच मोटाई की ऊपरी मृदा परत को बनने में 500 से 1,000 वर्ष लग सकते हैं। मृदा की ऊपरी परत, जिसमें सबसे अधिक कार्बनिक पदार्थ एवं सूक्ष्मजीव होते हैं।
    • वर्ष 2017 तक, देश में प्रति वर्ष 16.35 टन प्रति हेक्टेयर की औसत मृदा अपरदन दर देखी गई, जो कि वर्ष 2020 के वैश्विक औसत केवल 2.4 टन प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष से काफी अधिक है।
    • मृदा अपरदन हमेशा स्वाभाविक रूप से होता है, लेकिन आज, कृषि के कारण होने वाले अपरदन से ऊपरी मृदा का नुकसान मृदा के निर्माण की दर से अधिक है।
  • मृदा का अम्लीकरण: कार्बनिक पदार्थों की कमी से मृदा की अम्लता बढ़ सकती है, जिससे फसल का विकास धीमा हो जाता है।
  • रोपण सामग्री में हानि: जल की धाराएँ या धूल भरी आँधियाँ खेतों से बीजों को अपने साथ उड़ा ले जाती हैं और उनके अंकुरों को नष्ट कर देती हैं, जिसके परिणामस्वरूप फसल नष्ट हो जाती है और किसानों का लाभ कम हो जाता है।
  • जल प्रदूषण: मृदा के अपरदन से खेतों से रासायनिक पदार्थों के साथ जल निकायों में अवसादन और प्रदूषण होता है, जो बदले में सिंचाई के जल की गुणवत्ता को खराब कर देता है।
  • मृदा अपरदन का पर्यावरणीय प्रभाव: मृदा अपरदन से पौधों का क्षय, जैव विविधता का ह्रास, अवसादन आदि होता है।
  • बार-बार बाढ़ की घटनाएँ: जब जंगल चरागाहों या खेतों में परिवर्तित हो जाते हैं, तो इससे बार-बार बाढ़ आती है और ये क्षेत्र अपनी जल अवरोधक वनस्पतियाँ भी खो देते हैं, जो बाढ़ और जलभराव में भी योगदान देता है।
  • जैव विविधता का नुकसान: अपरदित भूमि में वनस्पति का घनत्व कम होता है और समय के साथ पूरी तरह से यह वनस्पति घनत्व शून्य हो जाता है। इससे स्थानीय वनस्पतियों और जीवों का क्षय होता है, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र असंतुलन होता है।
  • ग्रीनहाउस गैसों के पृथक्करण में कमी: वनस्पति और पेड़ कार्बन डाइऑक्साइड के भंडारण हैं, लेकिन नष्ट हुई भूमि शायद ही उनके विकास का समर्थन कर सकती है।
    • मृदा संभावित रूप से एक वर्ष में पर्याप्त ग्रीनहाउस गैसों का भंडारण कर सकती है, जो सभी वार्षिक मानव निर्मित GHG उत्सर्जन के लगभग 5% के बराबर हो सकती है।

भारत में मृदा अपरदन को रोकने के लिए की गई सरकारी पहल

  • राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (Rashtriya Krishi Vikas Yojana): इसके अंतर्गत क्षारीयता, लवणता और अम्लता से प्रभावित भूमि के सुधार में सहायता के लिए समस्याग्रस्त मृदा का सुधार एक उप-योजना के रूप में शुरू किया गया है।
  • नाबार्ड ऋण (NABARD Loan)-RIDF के तहत मृदा और जल संरक्षण योजना: इसका उद्देश्य कृषि और इसकी संबद्ध गतिविधियों और छोटी नदी घाटियों में उत्पादकता को बढ़ाना है, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों के सामाजिक-आर्थिक ढाँचे में सुधार होगा।
  • प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना 2.0 (Pradhan Mantri Krishi Sinchayee Yojana 2.0) का वाटरशेड विकास घटक (Watershed Development Component): इसका उद्देश्य वर्षा आधारित क्षेत्रों की कृषि की आर्थिक विकास दर में तेजी लाना है।
  • स्थानांतरण खेती क्षेत्रों में वाटरशेड विकास परियोजना (Watershed Development Project in Shifting Cultivation Areas- WDPSCA): इसका उद्देश्य वाटरशेड के आधार पर मृदा और जल संरक्षण उपायों के माध्यम से झूम क्षेत्रों की पहाड़ी ढलानों की रक्षा करना है।

मृदा अपरदन हेतु प्रबंधन/रोकथाम

  • उपयुक्त भूमि पर फसल उत्पादन: कुछ भू-भाग अपरदन प्रक्रियाओं के प्रति बेहद संवेदनशील होते हैं, इसलिए जोखिम को कम करने के लिए कुछ निवारक उपायों के बिना उनका उपयोग खेती हेतु नहीं किया जाना चाहिए।
  • सीढ़ीदार और समोच्च खेती: सीढ़ीदार खेती का उपयोग ऊर्ध्वाधर पहाड़ियों पर फसल उगाने के लिए किया जाता है। समोच्च खेती से मृदा का अपरदन कम हो जाता है क्योंकि पौधे जल को अवशोषित करते हैं और मेड़ें इसे बहने से रोकती हैं, जिससे विनाश का जोखिम कम हो जाता है।
    • मजबूत जड़ों वाले पौधे भूमि को स्थिर भी रखते हैं और उसे ढलान से नीचे खिसकने से भी रोकते हैं।
  • वनस्पति: फसलें लगाने से निरंतर भूमि आवरण सुनिश्चित करके मृदा के अपरदन को रोकने में मदद मिलती है, जबकि खेत को खाली छोड़ने से अपरदन की प्रक्रिया को बढ़ावा मिलता है। 
    • इसके अलावा, फसल चक्र वैकल्पिक रूप से गहरी जड़ वाली फसलें बोने से भूमि को स्थिर करके मृदा के अपरदन को कम करता है। इसके अतिरिक्त, उच्च वनस्पति के क्रम खेतों को हवा से बचाते हैं।
    • रेतीली मृदा पर वनस्पति आवरण 30% से ऊपर रखा जाना चाहिए। मृदा तक हवा की पहुँच को मृदा पर ठूँठ या गीली घास छोड़कर नियंत्रित किया जाना चाहिए।
  • मल्चिंग: पुआल, सूखे खरपतवार या कृषि अपशिष्ट न केवल मिट्टी की सतह को वर्षा और वायु से बचाते हैं, बल्कि मृदा की नमी बनाए रखते हैं, जो मिट्टी की परत को टूटने से बचाता है।
  • जुताई रहित या न्यूनतम जुताई: जुताई रहित दृष्टिकोण में कृषि भूमि की अशांति को कम करने से मृदा के अपरदन को कम करने में मदद मिल सकती है। जब मृदा का समुच्चय और जमीन का आवरण लगभग अछूता रहता है, तो अपरदन की प्रक्रियाएँ धीरे-धीरे विकसित होती हैं।
  • चक्रीय चराई: जब पशुधन लंबे समय तक एक ही स्थान पर चरते हैं, तो वे लगभग सभी वनस्पतियों को खा जाते हैं। बदले में, जमीन के आवरण का नुकसान अक्सर अपरदन को ट्रिगर करता है।
    • इस प्रकार, मवेशियों को अन्य चरागाहों में ले जाकर चरागाह क्षेत्रों को पुनर्जीवित होने देना महत्त्वपूर्ण है।
  • ड्रिप सिंचाई: ड्रिप प्रणाली बिना किसी विनाश के जोखिम की सतह पर या भूमिगत पौधों की जड़ों को जल की छोटी बूँदें प्रदान करता है।
  • तटीय अपरदन को रोकना: तटीय अपरदन को रोकने के लिए समुद्र तटों के किनारे अवरोध ढाँचे के रूप में वनस्पति को पुनः स्थापित किया जाना चाहिए।
    • टीलों और तटीय प्रणाली को प्रभवित नहीं किया जाना चाहिए। इसके अलावा, इमारतों का निर्माण और अन्य विकास टिब्बा प्रणाली के पीछे स्थित होना चाहिए।
  • स्ट्रीम बैंक अपरदन को रोकना: इसके लिए, वनस्पति आवरण को बनाए रखते हुए और जल के भंडारण के लिए बाँधों का निर्माण करके अपवाह जल को जलग्रहण क्षेत्र में संगृहीत किया जाना चाहिए।

News Source: DTE

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