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भारतीय लॉरेल वृक्ष

Lokesh Pal April 04, 2024 06:11 247 0

संदर्भ 

आंध्र प्रदेश के वन विभाग को भारतीय लॉरेल वृक्ष के तनों को काटने से जल का फब्बारा प्राप्त हुआ है। ज्ञात हो कि स्थानीय कोंडा रेड्डी जनजाति का दावा है कि यह वृक्ष गर्मी के दिनों में जल का संचय करता है।

संबंधित तथ्य 

  • वन विभाग के अधिकारियों ने गर्मियों में इन वृक्षों की जल संचय करने की क्षमता का पता लगाने के लिए अल्लूरी सीताराम राजू जिले में स्थित पापिकोंडा राष्ट्रीय उद्यान में पाए जाने वाले भारतीय लॉरेल वृक्ष (टर्मिनलिया टोमेंटोसा/ Terminalia tomentosa) की छाल को काटा।
  • स्थानीय कोंडा रेड्डी की जनजाति के दावे के बाद उनके स्वदेशी ज्ञान की पुष्टि करने के लिए वन विभाग द्वारा नियमित निगरानी के दौरान वृक्ष को काटने का निर्णय लिया गया।

कोंडा रेड्डी जनजाति (Konda Reddi Tribe)

  • कोंडा रेड्डी समुदाय को आदिम जनजातीय समूह के रूप में मान्यता प्राप्त है।
  • वर्ष 1991 की जनगणना के अनुसार, इस जनजाति की जनसंख्या 76,391 है।
  • निवास स्थान: कोंडा रेड्डी जनजाति मुख्य रूप से आंध्र प्रदेश के गोदावरी नदी के पूर्वी और पश्चिमी क्षेत्रों, गोदावरी नदी के दोनों किनारों तथा खम्मम जिलों के पहाड़ी और वन क्षेत्रों में निवास करते हैं। साथ ही इस जनजाति की छोटी आबादी पड़ोसी राज्य ओडिशा और तमिलनाडु में भी पाई जाती है।
  • भाषा: उनकी मातृभाषा तेलुगु का शुद्धतम रूप है, जो अपने अद्वितीय उच्चारण के लिए जाना जाता है।
  • राजनीतिक और सामाजिक संगठन
    • इस जनजाति समूह ने अपने समुदाय में सामाजिक नियंत्रण के लिए ‘कुल पंचायत’ (Kula Panchayat) नामक सामाजिक संस्था की स्थापना की है।
    • प्रत्येक गाँव में एक पारंपरिक मुखिया होता है, जिसे ‘पेद्दा कापू’ (Pedda Kapu) कहा जाता है, जो एक वंशानुगत पद है।

जाँच का परिणाम

  • जल की गुणवत्ता: भारतीय लॉरेल वृक्ष गर्मियों के दौरान अपने तने में जल का संचय करता है। फाइटोकेमिकल्स (Phytochemicals) नामक तत्त्व की उपस्थिति के कारण तने में संगृहीत जल का स्वाद खट्टा, रंग नारंगी-पीला तथा गंध तीव्र होती है, किंतु यह जल पीने योग्य होता है।
    • पूर्ण रूप से विकसित एक वृक्ष कम-से-कम चार से छह लीटर जल का संचय कर सकता है तथा यह स्थानीय निवासियों के लिए जलाशय के रूप में कार्य करता है।
  • जल भंडारण की आवृत्ति और मात्रा वृक्ष के तने की मोटाई पर निर्भर करती है।
    • केवल पाँच से दस प्रतिशत भारतीय लॉरेल वृक्षों के तनों में जल का संचय के साक्ष्य मिले हैं।
  • अद्वितीय विशेषता: जल का संचय करने वाले वृक्षों में दो से तीन फीट लंबी एक पार्श्वीय संरचना का विकास हो जाता है, जो वृक्ष के तने पर जमीन से पाँच से दस फीट ऊपर पाया जाता है।
    • यह पार्श्वीय संरचना, जिसे पंख (Wing) के नाम से जाना जाता है, तने में जल की उपस्थिति का संकेतक है।
  • अनुकूलन की प्रक्रिया 
    • बड़े वृक्षों से गर्मी के मौसम में तने से वाष्पोत्सर्जन और जल प्रवाह के बीच एक महत्त्वपूर्ण अंतर का अनुभव किया जा सकता है।
    • टर्मिनलिया टोमेंटोसा परिवार के कुछ सदस्य वृक्ष उच्च वाष्पोत्सर्जन के परिणामस्वरूप होने वाले ‘केविटेशन’ (Cavitation) और ‘एम्बोलिज्म’ (Embolism) की भरपाई करने तथा एक प्रभावी जलीय कार्यक्षमता बनाए रखने के लिए आंतरिक रूप से जल का भंडारण करते हैं, जिस कार्य हेतु वृक्ष अपने सैपवुड (Sapwood), कोशिकीय दीवारों और अंतरकोशिकीय स्थानों का उपयोग करते हैं।
      • जाइलम वाहिकाओं में गैस के बुलबुले की निर्माण प्रक्रिया को एम्बोलिज्म (Embolism) कहा जाता है।

भारतीय लॉरेल वृक्ष (Indian Laurel Tree)

  • वैज्ञानिक नाम: टर्मिनलिया एलिपटिका (Terminalia Elliptica), टर्मिनलिया टोमेंटोसा (Terminalia Tomentosa)
  • सामान्य नाम: इस वृक्ष को तमिल में मरुथम (Marutham), कन्नड में मैटी (Matti), मराठी में ऐन (Ain), वर्मा में ताउक्यान (Taukkyan), श्रीलंका में अरण (Asana) के नाम से जाना जाता है, जो मगरमच्छ की खाल जैसी अपनी छालों के लिए प्रसिद्ध है।

  • मूल निवास: यह वृक्ष दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया के भारत, नेपाल, बांग्लादेश, म्याँमार, थाइलैंड, लाओस, कंबोडिया और वियतनाम जैसे देशों में मूल रूप से पाया जाता है।
  • पर्यावास (Habitat): यह वृक्ष दक्षिण भारत में 1000 मीटर तक की ऊँचाई तक नदी तट के किनारों पर शुष्क एवं नम पर्णपाती वन के रूप में पाया जाता है।
  • परिचय: इस वृक्ष की ऊँचाई 30 मीटर तक तथा तने का व्यास 1 मीटर तक हो सकता है। इसका फल 3 सेमी. तक लंबा होता है। इस वृक्ष की छाल अग्नि-रोधी (Fire-resistant) होती है।
  • उपयोग
    • इमारती लकड़ी (Timber): इस वृक्ष की लकड़ी का उपयोग फर्नीचर, विशेष उपकरण, नाव-निर्माण, सजावट संबंधी समान तथा संगीत वाद्ययंत्रों (उदाहरण के लिए गिटार बोर्ड) आदि के लिए किया जाता है।
    • रेशम उत्पादन: इस वृक्ष की पत्तियों का उपयोग रेशम के कीड़े (Antheraea paphia) द्वारा भोजन के रूप में किया जाता है, जो व्यावसायिक रूप से महत्त्वपूर्ण जंगली जार रेशम (Tussah/ तुस्सा) के उत्पादन में सहायक है।
    • चमड़ा उत्पादन: इसकी छाल और फलों के उपयोग से पायरागोल (Pyrogallol) और कैटेचोल (Catechol) प्राप्त होते हैं, जिसका उपयोग रंगाई और चमड़े के कार्यों में किया जाता है।
    • औषधीय उपयोग: इसकी छालो का उपयोग दस्त (Diarrhoea) की बीमारी में किया जाता है। इसकी छाल से ऑक्सालिक अम्ल भी प्राप्त होता है।
    • जल भंडारण: वृक्ष के तने में जल का भंडारण होता है, जिसका उपयोग स्थानीय समुदाय द्वारा गर्मी के मौसम में पेयजल के रूप में किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस जल का उपयोग पेट दर्द के इलाज के रूप में भी होता है।

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