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आक्रामक विदेशी प्रजातियाँ: प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र के लिए खतरा

Lokesh Pal April 15, 2024 05:41 231 0

संदर्भ 

हाल ही में अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह प्रशासन ने रॉस द्वीप (Ross Island) में चीतल (चित्तीदार हिरण) की बढ़ती आबादी का प्रबंधन करने के लिए भारतीय वन्यजीव संस्थान (Wildlife Institute of India) से मदद माँगी। 

  • रॉस द्वीप को आधिकारिक तौर पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वीप (Netaji Subhash Chandra Bose Island) के रूप में जाना जाता है। 

संबंधित तथ्य

  • 20वीं सदी की शुरुआत में भारत की मुख्य भूमि की मूल प्रजाति चीतल (Chital) को ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा इस छोटे से द्वीप में शिकार क्रीडा के लिए लाया गया था किंतु कोई प्राकृतिक शिकारी या प्रतिस्पर्द्धी प्रजाति न होने के कारण चीतल की आबादी से अंडमान क्षेत्र में तेजी से फैल गई। 

चीतल या चित्तीदार हिरण या एक्सिस हिरण (Axis Deer) के बारे में

  • यह एक शाकाहारी जानवर है और पर्णपाती या अर्द्ध सदाबहार वनों एवं खुले घास के मैदानों में पाया जाता है।
  • यह वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 की अनुसूची-III के तहत संरक्षित है।
  • चीतल की IUCN स्थिति संकटमुक्त (Least Concern) है।

आक्रामक विदेशी प्रजाति (Invasive Alien Species- IAS) के बारे में

  • ‘जैव विविधता पर कन्वेंशन’ (Convention on Biological Diversity- CBD) द्वारा परिभाषित: यह आक्रामक विदेशी प्रजाति को ‘ऐसी प्रजातियाँ जिनके प्राकृतिक क्षेत्र या वर्तमान मूल वितरण क्षेत्र के बाहर फैलने से जैव विविधता को खतरा उत्पन्न होता है’ के रूप में परिभाषित करता है।
    • इनमें जानवर, पौधे, कवक और यहाँ तक कि सूक्ष्मजीव भी शामिल हैं और ये सभी प्रकार के पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित कर सकते हैं।
  • विशेषताएँ: ‘एराइव (Arrive), सरवाईव (Survive) और थ्राईव (Thrive) अर्थात् CBD के अनुसार, आक्रामक विदेशी प्रजाति को प्राकृतिक या मानवीय हस्तक्षेप के माध्यम से एक परिचय की आवश्यकता है देशज खाद्य संसाधनों पर जीवित रहना, तेज गति से प्रजनन करना और संसाधनों पर प्रतिस्पर्द्धा में देशज प्रजातियों को पीछे छोड़ना।

    • उदाहरण: भारतीय वन्यजीव संस्थान (Wildlife Institute of India- WII) ने पाया कि मध्य प्रदेश के कान्हा टाइगर रिजर्व में लैंटाना (lantana) और पोगोस्टेमॉन बेंघालेंसिस (Pogostemon Benghalensis) की सह-मौजूदगी के कारण ‘देशज पौधों और पैलटबल पौधों की समृद्धि में महत्त्वपूर्ण गिरावट’ हुई है।
  • भारत में आक्रामक वन्य जीवन के कुछ उदाहरण
    • भारत में आक्रामक वन्यजीवों की सूची में मछलियों की कुछ प्रजातियाँ जैसे- अफ्रीकी कैटफिश (African catfish), नीले तिलापिया (Nile Tilapia), रेड-बेलीड पिरान्हा (Red-Bellied Piranha) और ऐलीगेटर गार (Alligator Gar) और कछुए की प्रजातियाँ जैसे- रेड-इयर्ड स्लाइडर (Red-Eared Slider) का प्रभुत्व है।
    • लैंटाना कैमरा (Lantana Camara): इसके आक्रामक विस्तार के परिणामस्वरूप जंगली शाकाहारी जीवों के लिए देशी चारे वाले पौधों की कमी हो गई है, इसने भारत के 40% से अधिक बाघ रेंज पर विस्तार किया है।
    • प्रोसोपिस चिलेंसिस (Prosopis Chilensis):  यह दक्षिण अमेरिकी देशों के शुष्क क्षेत्रों का मूल सूखा प्रतिरोधी पौधा है, जो ‘गल्फ ऑफ मन्नार बायोस्फीयर रिजर्व’ में वहाँ की मूल वनस्पति को खतरे में डाल रहा है। 
    • प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा (Prosopis Juliflora): यह एक जल-गहन आक्रामक प्रजाति है जो जमीन से अधिकतम जल खींचती है और भू-जल स्तर पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है, जिससे स्थानीय जैव विविधता और पारिस्थितिकी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। 

आक्रामक विदेशी प्रजातियों के प्रसार का कारण 

  • वैश्वीकरण: इसके परिणामस्वरूप व्यापार, परिवहन, यात्रा और पर्यटन में वृद्धि हुई है, जिससे सभी आक्रामक विदेशी प्रजातियों के परिचय और प्रसार को सुविधाजनक बनाने में मदद मिली।
  • जलवायु परिवर्तन: गर्म तापमान और जलवायु परिवर्तन ‘आक्रामक प्रजातियों के विस्तार’ (Expansion of Invasive Species) को बढ़ावा दे सकते हैं।
    • उदाहरण: सर्दियों में बढ़ता तापमान एशियन लॉन्गहॉर्न बीटल (पूर्वी एशिया के मूल निवासी) जैसे कीड़ों को जीवित रहने के लिए ठंडे क्षेत्रों की तरफ प्रवसन को बढ़ावा  देता है। 
  • पर्यावास का क्षरण: बढ़ते शहरीकरण के साथ, निर्माण परियोजनाएँ, वनों की कटाई और भूमि-उपयोग में अस्थिर परिवर्तन भी बढ़ रहे हैं और देशज पारिस्थितिकी तंत्र को बाधित और खराब कर रहे हैं और आक्रामक विदेशी प्रजातियों को उन आवासों में स्वयं को आसानी से स्थापित करने की अनुमति दे रहे हैं।

  • मानवजनित कारण: कुछ आक्रामक विदेशी प्रजातियों को जानबूझकर आर्थिक कारणों से प्रस्तुत किया गया था जैसे- कृषि, जलीय कृषि या सजावटी पौधे के रूप में।
    • उदाहरण: लैंटाना कैमरा एक आम तौर पर पाया जाने वाला सजावटी पौधा है,  राष्ट्रीय उद्यानों में इसका विस्तार तेजी से हो रहा है। इसके प्रसार के परिणामस्वरूप पारिस्थितिकी तंत्र की कार्यप्रणाली में बदलाव आया है और एक विशेष क्षेत्र की मूल प्रजातियों की संख्या कम हो गई है।
  • अपर्याप्त जैवसुरक्षा उपाय: आयातित वस्तुओं के लिए अपर्याप्त निरीक्षण प्रोटोकॉल, संभावित आक्रामक विदेशी प्रजातियों की आवाजाही पर अपर्याप्त नियमन जैसे उपाय आक्रामक विदेशी प्रजातियों के प्रसार के प्रमुख कारणों में से एक हैं।
  • जागरूकता की कमी: सार्वजनिक अज्ञानता, अपर्याप्त प्रबंधन रणनीतियाँ और अनुसंधान, निगरानी और उन्मूलन कार्यक्रमों के लिए अपर्याप्त धन एवं संसाधन आक्रामक विदेशी प्रजातियों के प्रसार के अन्य प्रमुख कारण हैं।

आक्रामक विदेशी प्रजातियों की चुनौतियाँ 

  • पारिस्थितिकी चुनौतियाँ
    • पारिस्थितिकी तंत्र के संतुलन पर प्रभाव: आक्रामक विदेशी प्रजातियाँ खाद्य शृंखला में विघटनकारी के रूप में कार्य करता है और पारिस्थितिकी तंत्र के संतुलन को बिगाड़ता है। ऐसे आवासों में जहाँ कोई प्रतिस्पर्द्धा नहीं है, आक्रामक विदेशी प्रजातियाँ पूरे पारिस्थितिकी तंत्र पर अपना प्रभाव स्थापित कर सकती हैं।
      • उदाहरण: राजस्थान में भरतपुर के केवलादेव पार्क (Keoladeo Park) में, जो एक यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल है, अफ्रीकी कैटफिश को जलीय पक्षियों और प्रवासी पक्षियों का भी शिकार करने के लिए जाना जाता है।
        • अंडमान में चीतल के प्रसार ने देशज वनस्पति के पुनर्जनन को प्रभावित किया है, क्योंकि चीतल बीज एवं अंकुर खाने के लिए जाने जाते हैं।
    • जैव विविधता के लिए खतरा: भूमि एवं समुद्री उपयोग परिवर्तन, जीवों का शिकार, जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण के साथ-साथ आक्रामक विदेशी प्रजातियाँ विश्व स्तर पर जैव विविधता के नुकसान के पाँच प्रमुख प्रत्यक्ष चालकों में से एक है।
      • 60% में आक्रामक विदेशी प्रजातियाँ एक प्रमुख कारक रही हैं और 16% वैश्विक जीव एवं वनस्पतियों के विलुप्त होने में एकमात्र चालक रही है, और कम-से-कम 218 आक्रामक विदेशी प्रजातियाँ 1,200 से अधिक स्थानीय प्रजातियों के विलुप्त होने के लिए जिम्मेदार रही हैं।
    • जलवायु परिवर्तन पर प्रभाव: जलवायु परिवर्तन से कुछ आक्रामक विदेशी प्रजातियों की प्रतिस्पर्द्धी क्षमता में वृद्धि, उनके लिए उपयुक्त क्षेत्र का विस्तार और परिचय एवं स्थापना के लिए नए अवसर प्रदान करने की भविष्यवाणी की गई है। आक्रामक विदेशी प्रजातियाँ जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को भी बढ़ा सकता है।
      • आक्रामक विदेशी प्रजातियाँ प्राकृतिक आवासों के लचीलेपन को कम कर देता है, जिससे वे जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाते हैं।
        • उदाहरण: कुछ घास और पेड़ जो आक्रामक विदेशी प्रजातियाँ बन गए हैं, वनाग्नि को महत्त्वपूर्ण रूप से बदल सकते हैं, विशेषकर उन क्षेत्रों में जो गर्म और शुष्क होते जा रहे हैं।
        • आक्रामक विदेशी प्रजातियाँ, विशेष रूप से पेड़ एवं घास, कभी-कभी अत्यधिक ज्वलनशील हो सकती हैं और आग की तीव्रता को बढ़ावा दे सकती हैं।
  • विनियमों पर चुनौतियाँ
    • संकीर्ण रूप से परिभाषित: भारत में, वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 (वर्ष 2022 में संशोधित) के तहत आक्रामक विदेशी प्रजातियों की विधिक परिभाषा संकीर्ण है। आक्रामक विदेशी प्रजातियों को ‘जानवरों या पौधों की उन प्रजातियों के रूप में परिभाषित किया गया है जो भारत की मूल निवासी नहीं हैं, और जिनके परिचय या प्रसार से वन्यजीवों अथवा उनके आवास पर खतरा या प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
      • यह भारत के भीतर उन प्रजातियों को छोड़ देता है, जो अंडमान में चीतल जैसे किसी विशेष क्षेत्र के लिए आक्रामक हो सकती हैं, जो मुख्य भूमि भारत में संरक्षित हैं, लेकिन द्वीप शृंखला में एक खतरा बन गई हैं।
    • संवेदनशील खतरा प्रबंधन: केवल 17% देशों ने आक्रामक विदेशी प्रजातियाँ प्रबंधन के लिए विशिष्ट राष्ट्रीय कानून या नियम बनाए हैं।
      • सभी देशों में से 45% आक्रामक विदेशी प्रजातियों के प्रबंधन में निवेश नहीं करते हैं। इससे आक्रामक विदेशी प्रजातियों के पड़ोसी राज्यों में फैलने का खतरा बढ़ गया है।

  • भौगोलिक निहितार्थ
    • प्रगतिशील वृद्धि: अनुमान है कि वर्ष 2050 तक, विदेशी प्रजातियों की कुल संख्या वर्ष 2005 में देखी गई संख्या से 33% अधिक होगी।
    • उच्च भौगोलिक प्रभाव: जैविक आक्रमण के 34% प्रभाव अमेरिका से, 31% यूरोप और मध्य एशिया से, 25% एशिया और प्रशांत से और लगभग 7% अफ्रीका से रिपोर्ट किए गए।
      • सबसे अधिक नकारात्मक प्रभाव भूमि पर (लगभग 75%) रिपोर्ट किए गए हैं, मीठे जल (14%) और समुद्री (10%) आवासों में काफी कम रिपोर्ट किए गए हैं।
        • द्वीपों पर आक्रामक विदेशी प्रजातियाँ सबसे अधिक हानिकारक हैं, सभी द्वीपों के 25% से अधिक हिस्से पर विदेशी पादपों की संख्या अब देशज पादपों की संख्या से अधिक हो गई है।
  • सामाजिक-आर्थिक चुनौतियाँ
    • सांस्कृतिक और मनोरंजक प्रभाव: आक्रामक पौधे परिदृश्य के सौंदर्यशास्त्र को बदल सकते हैं, मनोरंजक अनुभवों को प्रभावित कर सकते हैं और क्षेत्र के पर्यटन क्षेत्र और स्थानीय अर्थव्यवस्था को लगातार प्रभावित कर सकते हैं।
    • सामाजिक निहितार्थ: हाशिए पर रहने वाले समुदायों पर असंगत रूप से नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
      • ये प्रभाव मौजूदा असमानताओं को बढ़ाते हैं, आजीविका के लिए खतरा उत्पन्न करते हैं और पहले से ही संवेदनशील क्षेत्रों में पर्यावरणीय गिरावट को बढ़ाते हैं।
    • बीमारियों का प्रसार: एडीज एल्बोपिक्टस (Aedes Albopictus) और एडीज एजिप्टी (Aedes Aegypti) जैसे आक्रामक विदेशी प्रजातियाँ मलेरिया, जीका और वेस्ट नाइल फीवर (West Nile Fever) जैसी बीमारियाँ फैलाते हैं। 
    • उच्च मानवजनित परिचय: जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं पर अंतर सरकारी विज्ञान-नीति मंच (Intergovernmental Science Policy Platform on Biodiversity and Ecosystem Services- IPBES) रिपोर्ट के अनुसार, 37,000 विदेशी प्रजातियों को मानव गतिविधियों द्वारा दुनिया भर के क्षेत्रों एवं बायोम में लाया गया है।
      • कई आक्रामक विदेशी प्रजातियाँ को बिना उनके नकारात्मक प्रभावों पर विचार या जानकारी के जानबूझकर उनके कथित लाभों के लिए प्रस्तुत किया गया है।
    • खाद्य आपूर्ति पर प्रभाव: खाद्य आपूर्ति में कमी विदेशी आक्रामक प्रजातियों का सबसे सामान्य प्रभाव है।
      • उदाहरण: कैरेबियन फाल्स मसल्स (Caribbean false mussels) ने देशज क्लैम और सीपों को नष्ट करके केरल में स्थानीय रूप से महत्त्वपूर्ण मत्स्य संसाधनों को नुकसान पहुँचाया है। 
    • जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं पर अंतर सरकारी विज्ञान-नीति मंच (IPBES) की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2019 में आक्रामक विदेशी प्रजातियों की वैश्विक आर्थिक लागत सालाना 423 बिलियन डॉलर से अधिक थी। ये लागत आक्रामक विदेशी प्रजातियों द्वारा किसी क्षेत्र के प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र को होने वाले नुकसान से उत्पन्न होती है। 
      • पिछले 6 दशकों में आक्रामक विदेशी प्रजातियों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को 127.3 बिलियन डॉलर (8.3 ट्रिलियन रुपये) का नुकसान पहुँचाया है।
      • राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण (National Biodiversity Authority) द्वारा प्रकाशित भारत की राष्ट्रीय जैव विविधता कार्य योजना 2019 के अनुसार, कपास मीली बग (Phenacoccus Solenopsis) उत्तरी अमेरिका के मूल की एक आक्रामक प्रजाति है, जिसने दक्कन में कपास की फसलों को गंभीर रूप से प्रभावित किया है, जिससे उपज का नुकसान हुआ है। 

आगे की राह

  • जलवायु परिवर्तन नीतियों में आक्रामक विदेशी प्रजातियाँ को शामिल करना: जलवायु परिवर्तन को आक्रामक विदेशी प्रजातियाँ के जोखिम मूल्यांकन में स्पष्ट रूप से शामिल किया जाना चाहिए, ताकि उन विदेशी प्रजातियों की पहचान करने में मदद मिल सके जो भविष्य में खतरा बन सकती हैं।
    • उदाहरण: कार्बन पृथक्करण या क्षरण नियंत्रण के लिए बबूल (Acacia) या नीलगिरी (Eucalyptus) जैसी विदेशी प्रजातियों के बजाय देशी वृक्ष प्रजातियों का उपयोग किया जाना चाहिए। 

  • एकीकृत कीट प्रबंधन (Integrated Pest Management- IPM): इसमें जैविक नियंत्रण, रासायनिक नियंत्रण और यांत्रिक नियंत्रण विधियाँ शामिल हो सकती हैं, जिन्हें आक्रामक विदेशी प्रजातियाँ से निपटने के लिए रणनीतिक और पर्यावरणीय रूप से टिकाऊ तरीके से लागू किया जाता है। 
  • भेद्यता का मानचित्रण: पारिस्थितिकी तंत्र को जलवायु परिवर्तन और आक्रामक विदेशी प्रजातियाँ के प्रति उनकी संवेदनशीलता के अनुसार प्राथमिकता देने की आवश्यकता है।
  • रोकथाम के उपायों का पालन करना: सख्ती से लागू आयात नियंत्रण ने प्रसार को नियंत्रित करने में काम किया है।
    • उदाहरण: ऑस्ट्रेलिया में ब्राउन मार्मोरेटेड स्टिंक बग (Brown Marmorated Stink Bug) के प्रसार को कम करने में सफलता प्राप्त हुई है।
  • समुद्री और कनेक्टेड जल प्रणालियों की सुरक्षा: तैयारी, शीघ्र पता लगाना और त्वरित प्रतिक्रिया आक्रामक विदेशी प्रजातियों की विस्तार दरों को कम करने में प्रभावी साबित हुई है।
  • नए आक्रामक विदेशी प्रजातियाँ की निगरानी: ऑस्ट्रेलिया में ‘प्लांटवाइजप्लस कार्यक्रम’ ने अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका में छोटे किसानों को नई विदेशी प्रजातियों का पता लगाने में सहायता की।
  • उन्मूलन (Eradication): यह द्वीपों जैसे पृथक पारिस्थितिकी तंत्र में छोटे और धीमी गति से फैलने वाली आक्रामक विदेशी प्रजातियों के लिए सफल और लागत प्रभावी रहा है।
    • उदाहरण: फ्रेंच पोलिनेशिया (French Polynesia) जहाँ काले चूहे और खरगोश को सफलतापूर्वक खत्म कर दिया गया है। 
  • रोकथाम: आक्रामक विदेशी प्रजातियों को स्थल-आधारित और बंद जल प्रणालियों के साथ-साथ जलीय कृषि में भी नियंत्रित किया जाना चाहिए।
    • कनाडा में जल-संवर्द्धित ब्लू मसल्स में आक्रामक विदेशी प्रजाति एशियन ट्यूनिकेट (Asian Tunicate) का संरक्षण।
    • एशिया-प्रशांत क्षेत्र में कड़वी बेल को नियंत्रित करने के लिए रस्ट कवक का प्रसार 60% से अधिक ज्ञात मामलों में सफलता के साथ प्रभावी रहा है।
  • वैश्विक सहयोग: विश्व को सीमाओं के पार जानकारी, संसाधन और विशेषज्ञता साझा करने की आवश्यकता है, जो वैश्विक स्तर पर आक्रामक विदेशी प्रजातियों के खतरे से निपटने के लिए आवश्यक हो जाएगी।
  • स्थानीय समुदायों की भागीदारी: सफल उन्मूलन कार्यक्रम हितधारकों और देशज लोगों और स्थानीय समुदायों के समर्थन एवं जुड़ाव पर निर्भर करते हैं। इसके अलावा, स्थानीय समुदायों के साथ देशज वनस्पतियों के आवास की बहाली और पुनर्वास पारिस्थितिकी तंत्र की पुनर्स्थापन को बढ़ावा देने में मदद कर सकता है।

आक्रामक विदेशी प्रजातियों के प्रबंधन के लिए वैश्विक नियामक ढाँचा

  • जैविक विविधता पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन, 1992 (United Nations Convention on Biological Diversity, 1992): यह पारिस्थितिकी तंत्र, आवास या प्रजातियों को खतरे में डालने वाली आक्रामक विदेशी प्रजातियों के आगमन को रोकने, नियंत्रित करने या खत्म करने की आवश्यकता पर जोर देता है।
  • कुनमिंग-मॉन्ट्रियल वैश्विक जैव विविधता ढाँचा, 2022 (Kunming-Montreal Global Biodiversity Framework, 2022): संयुक्त राष्ट्र CBD के तहत इस पर सहमति व्यक्त की गई है और इसका लक्ष्य वर्ष 2030 तक आक्रामक विदेशी प्रजातियों के परिचय और स्थापना की दर को कम-से-कम 50% तक कम करना है।
  • प्रवासी प्रजातियों के संरक्षण पर कन्वेंशन, 1979 (Convention on the Conservation of Migratory Species, 1979): इसका उद्देश्य प्रवासी प्रजातियों का संरक्षण करना है और इसमें पहले से मौजूद आक्रामक विदेशी प्रजातियों को नियंत्रित करने या खत्म करने के उपाय शामिल हैं।
  • वन्यजीवों एवं वनस्पतियों की लुप्तप्राय प्रजातियों के अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर कन्वेंशन (CITES), 1975: यह अंतरराष्ट्रीय व्यापार सुनिश्चित करने पर केंद्रित है और व्यापार में शामिल आक्रामक प्रजातियों के प्रभाव पर विचार करता है।
  • वैश्विक आक्रामक प्रजाति कार्यक्रम (Global Invasive Species Programme): यह दुनिया भर में आक्रामक प्रजातियों के मुद्दों को संबोधित करने के लिए अनुसंधान, क्षमता निर्माण और प्रबंधन रणनीतियों का समर्थन करता है।
  • आक्रामक प्रजाति विशेषज्ञ समूह: प्रकृति के संरक्षण के लिए अंतरराष्ट्रीय संघ (International Union for Conservation of Nature- IUCN) के प्रजाति अस्तित्व आयोग (Species Survival Commission- SSC) के तत्त्वावधान में आयोजित आक्रामक प्रजातियों पर वैज्ञानिक और नीति विशेषज्ञों का एक वैश्विक नेटवर्क।
  • अंतरराष्ट्रीय पादप संरक्षण सम्मेलन (International Plant Protection Convention): एक अंतरसरकारी संधि, जिसका उद्देश्य दुनिया की वनस्पति, कृषि उत्पादों और प्राकृतिक संसाधनों को कीटों से बचाना और आक्रामक प्रजातियों के प्रसार को कम करना है।

नॉलेज प्लेटफॉर्म

  • एलियन टैक्सा के लिए पर्यावरणीय प्रभाव वर्गीकरण (Environmental Impact Classification for Alien Taxa- EICAT): यह अपनी प्राकृतिक सीमा से बाहर रहने वाले जानवरों, कवक और पौधों के कारण होने वाले पर्यावरणीय प्रभावों की गंभीरता को मापने के लिए IUCN वैश्विक मानक है।
  • ग्लोबल इनवेसिव स्पीशीज डेटाबेस: इसका प्रबंधन IUCN स्पीशीज सर्वाइवल कमीशन इनवेसिव स्पीशीज स्पेशलिस्ट ग्रुप (ISSG) द्वारा किया जाता है और ग्लोबल रजिस्टर ऑफ इंट्रोड्यूस्ड एंड इनवेसिव स्पीशीज एक ISSG के नेतृत्व वाली पहल है। 
  • संकटग्रस्त प्रजातियों की IUCN रेड लिस्ट: इसमें आक्रामक विदेशी प्रजातियों (IAS) के प्रभावों के बारे में जानकारी भी है, और इस बात का विश्लेषण भी है कि IAS प्रजातियों के वैश्विक विलुप्त होने के जोखिम में कैसे योगदान देता है।

भारत में IAS के प्रबंधन के लिए नियामक ढाँचा

  • राष्ट्रीय जैव विविधता कार्य योजना (National Biodiversity Action Plan): इसने राष्ट्रीय जैव विविधता लक्ष्य निर्धारित किए, जिसका उद्देश्य आक्रामक विदेशी प्रजातियों के लिए प्रबंधन रणनीतियाँ विकसित करना है।
  • वनस्पति संगरोध (भारत में आयात का विनियमन) आदेश 2003 [Plant Quarantine (Regulation of Import into India) Order 2003]: इसके तहत, देश में पौधों या बीजों के किसी भी आयात का कीटों के संभावित खतरे के लिए निरीक्षण किया जाना चाहिए।
  • वन्यजीव (संरक्षण) संशोधन विधेयक 2021 [Wildlife (Protection) Amendment Bill 2021]: यह भारतीय पर्यावरण विधायी व्यवस्था में आक्रामक विदेशी प्रजातियों (IAS) के लिए एक नियामक ढाँचा प्रदान करता है।
  • जैविक विविधता अधिनियम, 2002 और राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण अधिनियम, 2002: ये अधिनियम आक्रामक प्रजातियों के खतरों के प्रबंधन में जैव विविधता सहायता के संरक्षण के लिए हैं।
  • आक्रामक विदेशी प्रजातियों पर राष्ट्रीय कार्य योजना (National Action Plan on Invasive Alien Species- NAPINVAS): केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा शुरू की गई, जो आक्रामक प्रजातियों की रोकथाम, शीघ्र पता लगाने, नियंत्रण और प्रबंधन पर केंद्रित है।
  • राष्ट्रीय आक्रामक प्रजाति सूचना केंद्र (National Invasive Species Information Center- NISIC): यह भारत में आक्रामक प्रजातियों पर जानकारी और संसाधन प्रदान करता है।
  • हिमालय पर्यावरण फाउंडेशन (Himalayan Environmental Foundation): यह हिमालय में लैंटाना कैमरा जैसी आक्रामक प्रजातियों को नियंत्रित करने के लिए काम कर रहा है। 
  • वन्यजीव अध्ययन केंद्र (Centre for Wildlife Studies): यह भारतीय पारिस्थितिकी तंत्र पर आक्रामक प्रजातियों के प्रभावों का अध्ययन कर रहा है। 

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