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भारत की जलवायु नीति

Lokesh Pal April 15, 2024 05:49 259 0

संदर्भ

हाल के वर्षों में जलवायु परिवर्तन से निपटने में तेजी आई है, जिसने दुनिया भर के देशों को महत्त्वाकांक्षी स्वच्छ ऊर्जा लक्ष्यों के लिए प्रतिबद्ध होने के लिए प्रेरित किया है। इन देशों में भारत सतत् विकास और जलवायु कार्रवाई में अग्रणी बनकर उभरा है।

संबंधित तथ्य

  • हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने मौलिक अधिकारों के दायरे का विस्तार करते हुए इसमें ‘जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से मुक्त होने का अधिकार’ भी शामिल किया है।
  • दुबई में COP 28 के मौके पर प्रकाशित एक रिपोर्ट, जलवायु परिवर्तन प्रदर्शन सूचकांक (Climate Change Performance Index- CCPI) 2024 में भारत को 7वाँ स्थान दिया गया है।

भारत की जलवायु नीति का विकास

  • उत्पत्ति: जलवायु कार्रवाई के प्रति भारत की प्रतिबद्धता फरवरी 1972 में राष्ट्रीय पर्यावरण योजना और समन्वय समिति (NCEPC) की स्थापना से संबंधित है।
    • वर्ष 1972 में, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने स्टॉकहोम सम्मेलन को संबोधित किया, जिसमें भारत के साथ-साथ ग्लोबल साउथ के जलवायु दृष्टिकोण को रेखांकित किया गया था।
    • 1990 के दशक में दुनिया भर में पर्यावरण सहित कई क्षेत्रों में नई जलवायु संबंधी नीतियाँ सामने आईं।
      • वर्ष 1992 के रियो शिखर सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) और जैव विविधता एवं वन सिद्धांतों पर कन्वेंशन का उदय हुआ।
      • भारत ने अपनी जलवायु भेद्यता को कम करने के लिए मिशनों और कार्यक्रमों के माध्यम से अपनी नीतिगत प्रतिक्रिया विकसित की है। 30 जून, 2008 को जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (NAPCC) जारी की गई।
    • भारत की जलवायु नीति हमेशा स्पष्ट, सुसंगत और समन्वित रही है।
      • जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए भारत के प्रयास तत्काल, महत्त्वाकांक्षी एवं योजनाबद्ध हैं, जो इसकी अर्थव्यवस्था के प्रत्येक क्षेत्र को कवर करते हैं।
  • कानून: रियो शिखर सम्मेलन के बाद, भारत के तत्कालीन केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय में जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता प्रभाग धीरे-धीरे और स्थिर रूप से सक्रिय हो गए।
  • दृष्टिकोण: भारत की जलवायु नीति सर्वांगीण आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए समावेशी विकास, गरीबी उन्मूलन, घटते कार्बन बजट, UNFCCC के मूलभूत सिद्धांतों का पालन और जलवायु-अनुकूल जीवन शैली के दृष्टिकोण पर आधारित है।

भारत की जलवायु नीति के प्रमुख निर्धारक

भूगोल
  • भारतीय भू-भाग दुनिया के भौगोलिक स्थल सतह क्षेत्र का 2.4% और दुनिया के मीठे जल के संसाधनों का 4% है।
  • भारत विश्व का सातवाँ सबसे बड़ा देश है।
  • यह 17 मेगा-जैव विविधता वाले देशों में से एक है, जिसमें चार जैव विविधता हॉटस्पॉट, 10 जैव-भौगोलिक क्षेत्र और 22 कृषि-जैव विविधता हॉटस्पॉट हैं।
  • भारत में 6 अलग-अलग मौसम होते हैं।
    • हाल के दशकों में, जलवायु परिवर्तन ने ऋतुओं के बीच सामंजस्य को बाधित कर दिया है, जिससे अप्रत्याशितता बढ़ गई है।
जनसंख्या
  • भारत की 1.4 अरब जनसंख्या विश्व की कुल जनसंख्या का लगभग छठा हिस्सा है।
  • विश्व में दर्ज की गई प्रजातियों में से 7-8% प्रजातियाँ भारत में पाई जाती हैं, जिसमें अब तक पौधों की 45,500 से अधिक प्रजातियाँ और जीवों की 91,000 प्रजातियाँ प्रलेखित हैं।
  • भारत में मानव और भूमि का अनुपात बहुत कम 0.0021 वर्ग किमी. है और इसमें लगातार गिरावट जारी है।
प्रभाव
  • जर्मनवॉच द्वारा तैयार वैश्विक जलवायु जोखिम सूचकांक 2020 के अनुसार, भारत चरम मौसम की घटनाओं का अनुभव करने वाला पाँचवाँ सबसे अधिक प्रभावित देश है।
  • दक्षिण एशिया पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव (2018) पर विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार, बढ़ते तापमान और बदलते मानसून वर्षा पैटर्न से भारत को अपने सकल घरेलू उत्पाद का 2.8% नुकसान हो सकता है और वर्ष 2050 तक देश की लगभग आधी आबादी के जीवन स्तर में गिरावट आ सकती है।
कार्यवाही

भारत ने अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA) जैसे अंतरराष्ट्रीय संस्थान की स्थापना की  हैं, कार्बन उत्सर्जन को आर्थिक विकास से अलग किया है।

  • कार्रवाइयाँ: 4% से कम के ऐतिहासिक संचयी उत्सर्जन (1850-2019) और प्रति व्यक्ति 1.9 टन CO2 उत्सर्जन के बावजूद, भारत ने पृथ्वी को लाभ पहुँचाने के लिए कई घरेलू एवं अंतरराष्ट्रीय कदम उठाए हैं।

जलवायु परिवर्तन शमन के लिए भारत की पहल एवं कार्य

  • वैश्विक जैव ईंधन गठबंधन: भारत की G20 अध्यक्षता के तहत, स्थायी जैव ईंधन के उपयोग को बढ़ावा देने, दुनिया भर में राष्ट्रीय जैव ईंधन कार्यक्रमों के लिए तकनीकी सहायता प्रदान करने और नीतिगत प्रथाओं के आदान-प्रदान को सक्षम करने के लिए भारत के नेतृत्व वाली पहल वैश्विक जैव ईंधन गठबंधन शुरू की गई थी।
  • अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA): भारत ने सौर-समृद्ध देशों में वर्ष 2030 तक सौर परियोजनाओं में 1 ट्रिलियन डॉलर का निवेश आकर्षित करने के लिए वर्ष 2015 में फ्राँस के साथ मिलकर ISA की स्थापना की, जिससे स्वच्छ ऊर्जा तक पहुँच बढ़ सके।
    • परिणामतः इसने सतत् विकास को बढ़ावा देने एवं जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए जलवायु वित्त का लाभ उठाने की भारत की नेतृत्व क्षमता को प्रदर्शित किया।
  • पंचामृत (Panchamrit)
    • वर्ष 2030 तक 500 गीगावाट गैर-जीवाश्म ऊर्जा क्षमता तक पहुँचना।
    • वर्ष 2030 तक अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं का 50% नवीकरणीय ऊर्जा से प्राप्त करना। 
    • वर्ष 2030 तक कुल अनुमानित कार्बन उत्सर्जन में 1 बिलियन टन की कमी करना। 
    • वर्ष 2030 तक अर्थव्यवस्था की कार्बन तीव्रता में वर्ष 2005 के स्तर से 45% की कमी करना।
    • वर्ष 2070 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य प्राप्त करना।
  • ग्रीन क्लाइमेट फंड (Green Climate Fund- GCF): GCF में भारत की भागीदारी, जहाँ इसने योगदान का वादा किया है और G20 सदस्यों एवं विकसित देशों को अपना समर्थन बढ़ाने के लिए सक्रिय रूप से प्रोत्साहित करता है।
  • जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (National Action Plan on Climate Change- NAPCC): वर्ष 2008 में आठ मिशनों के साथ शुरू की गई, इसने जलवायु परिवर्तन को समझने और उस पर कार्य करने के लिए आधार तैयार किया है।
  • जलवायु परिवर्तन पर स्टेट एक्शन प्लान (State Action Plans on Climate Change- SAPCCs): 34 भारतीय राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों ने NAPCC के उद्देश्यों के अनुरूप SAPCC तैयार की हैं।
  • राष्ट्रीय सौर मिशन: वर्ष 2010 में शुरू किया गया राष्ट्रीय सौर मिशन का उद्देश्य जल्द-से-जल्द देश भर में इसके प्रसार के लिए नीतिगत योजनाएँ बनाकर भारत को सौर ऊर्जा में एक वैश्विक नेता के रूप में स्थापित करना है।
  • जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय अनुकूलन कोष (NAFCC): इसकी स्थापना वर्ष 2015 में भारत के राज्य और केंद्रशासित प्रदेशों के लिए जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन की लागत को पूरा करने के लिए की गई थी, जो विशेष रूप से इसके प्रतिकूल प्रभावों के प्रति संवेदनशील हैं।
  • उन्नत ऊर्जा दक्षता के लिए राष्ट्रीय मिशन: इसे वर्ष 2011 से लागू किया गया है और इसका उद्देश्य एक अनुकूल नियामक तथा नीति व्यवस्था बनाकर ऊर्जा दक्षता बाजार को मजबूत करना है। इसमें ऊर्जा दक्षता क्षेत्र में नवीन और टिकाऊ व्यवसाय मॉडल को बढ़ावा देने की परिकल्पना की गई है।
  • राष्ट्रीय हरित हाइड्रोजन मिशन: इस मिशन का उद्देश्य स्वच्छ ऊर्जा स्रोत के रूप में हरित हाइड्रोजन की तैनाती में तेजी लाना और आपूर्ति शृंखलाओं के विकास का समर्थन करना है, जो कुशलतापूर्वक हाइड्रोजन का परिवहन और वितरण कर सकें।
  • राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC): यह उत्सर्जन में कटौती और जलवायु प्रभावों के अनुकूल होने के लिए एक जलवायु कार्य योजना पर आधारित है।
    • अगस्त 2022 में, भारत ने अपने NDCs को अद्यतन किया, जिसके अनुसार उत्सर्जन तीव्रता को कम करने का लक्ष्य वर्ष 2005 के स्तर से बढ़ाकर वर्ष 2030 तक 45% कर दिया गया है और गैर-जीवाश्म ईंधन-आधारित ऊर्जा संसाधनों से संचयी विद्युत स्थापित क्षमता का लक्ष्य वर्ष 2030 तक 50% तक बढ़ा दिया गया है।
  • सामान्य लेकिन विभेदित जिम्मेदारियाँ और संबंधित क्षमताएँ (CBDR-RC): यह जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) के भीतर एक सिद्धांत है, जो जलवायु परिवर्तन को संबोधित करने में अलग-अलग देशों की विभिन्न क्षमताओं और भिन्न-भिन्न जिम्मेदारियों को स्वीकार करता है।
    • CBDR-RC सिद्धांत को बड़े पैमाने पर रियो शिखर सम्मेलन, 1992 में भारतीय हस्तक्षेप के माध्यम से विकसित किया गया था, जिसके लिए भारत ने ग्लोबल साउथ का लगातार नेतृत्व किया है।

भारत की उपलब्धियाँ

  • भारत के ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में गिरावट: भारत वर्ष 2005 और वर्ष 2019 के बीच अपने सकल घरेलू उत्पाद की उत्सर्जन तीव्रता को 33% कम करते हुए, ग्रीनहाउस गैस (GHG) उत्सर्जन से अपनी आर्थिक वृद्धि को सफलतापूर्वक कम कर रहा है।
  • भारत की नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता में वृद्धि: पिछले दस वर्षों में भारत की सौर ऊर्जा में 26 गुना से अधिक की वृद्धि हुई है और पवन ऊर्जा क्षमता दोगुनी हो गई है।
    • वर्तमान में भारत की स्थापित पवन ऊर्जा क्षमता दुनिया की चौथी सबसे बड़ी और सौर ऊर्जा पाँचवीं सबसे बड़ी है। नवंबर 2021 में, निर्धारित समय से 9 वर्ष पहले, इसने गैर-जीवाश्म ईंधन से 40% स्थापित विद्युत क्षमता का लक्ष्य हासिल किया और फिर लक्ष्य को बढ़ाकर 50% कर दिया।
  • भारत एक वैश्विक नेता के रूप में: भारत आज जलवायु कार्रवाई में एक वैश्विक नेता के रूप में उभरा है। इसने अपनी जलवायु नीति में दो ‘C’ और जोड़े हैं: आत्मविश्वास (Confidence) और सुविधाजनक कार्रवाई (Convenient Action)
    • UNFCCC के लिए भारत की दीर्घकालिक अल्प उत्सर्जन विकास रणनीति वर्ष 2070 तक शुद्ध शून्य हासिल करने की बहुपक्षीय प्रक्रिया में उसके विश्वास को दर्शाती है।
  • सतत् जीवन शैली का आह्वान: भारत और स्वीडन ‘उद्योग परिवर्तन के लिए नेतृत्व समूह‘ के प्रमुख हैं। ‘पर्यावरण के लिए जीवन शैली’ के साथ भारत स्थायी जीवनशैली को बढ़ावा दे रहा है।
  • प्रतिबद्ध कार्य: भारत पक्के आवास, चौबीसों घंटे बिजली, स्वच्छ पेयजल, सार्वभौमिक स्वास्थ्य बीमा और स्वच्छ रसोई गैस जैसी बुनियादी सेवाएँ प्रदान करने पर भी अभूतपूर्व रूप से ध्यान केंद्रित कर रहा है।

भारत के लिए चुनौतियाँ

  • तकनीकी सीमाएँ: यह प्रभावी जलवायु परिवर्तन नीतियों के विकास और कार्यान्वयन को प्रभावित करती है।
    • हालाँकि नवीकरणीय ऊर्जा प्रौद्योगिकियाँ हाल के वर्षों में तेजी से आगे बढ़ी हैं, कार्बन कैप्चर और भंडारण प्रौद्योगिकियाँ जो मौजूदा बुनियादी ढाँचे से उत्सर्जन को कम करने में मदद कर सकती हैं, अभी भी विकास के प्रारंभिक चरण में हैं और तकनीकी चुनौतियों का सामना कर रही हैं।
  • विश्व आर्थिक मंच के अनुसार, कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) का उपयोग जलवायु परिवर्तन से निपटने में योगदान दे सकता है। मौजूदा AI सिस्टम में ऐसे उपकरण शामिल हैं, जो मौसम की भविष्यवाणी करते हैं, हिमखंडों को ट्रैक करते हैं और प्रदूषण की पहचान करते हैं। AI का उपयोग कृषि को बेहतर बनाने और इसके पर्यावरणीय प्रभाव को कम करने के लिए भी किया जा सकता है।
  • कोयले के उपयोग पर उच्च निर्भरता: भारत अपने NDCs को स्पष्ट दीर्घकालिक नीतियों के साथ पूरा करने की कोशिश कर रहा है, जो नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देती हैं, लेकिन तेल और गैस के साथ-साथ कोयले पर इसकी भारी निर्भरता अभी भी इसकी बढ़ती ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा कर रही है।
    • कोयला भारत में सबसे आवश्यक और प्रचुर मात्रा में जीवाश्म ईंधन है, जो देश की ऊर्जा आवश्यकताओं का 55% पूरा करता है।
    • अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के अनुसार, वर्ष 2022 में, 310 मिलियन टन के वार्षिक उत्पादन और लगभग 25 मिलियन टन के आयात के साथ, कोयला भारत में ऊर्जा आपूर्ति का एक-तिहाई प्रदान करता है।
  • जलवायु वित्त: निम्न-कार्बन अर्थव्यवस्था में परिवर्तन के लिए नवीकरणीय ऊर्जा, ऊर्जा दक्षता, बुनियादी ढाँचे और टिकाऊ भूमि उपयोग प्रथाओं में पर्याप्त निवेश की आवश्यकता होती है।
    • भारत को अपने महत्त्वाकांक्षी स्थिरता लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए वर्ष 2050 तक पर्याप्त जलवायु वित्त की आवश्यकता है। विश्व बैंक के अनुसार, वर्ष 2070 तक शुद्ध शून्य तक पहुँचने के लिए अनुमानित $10.1 ट्रिलियन की आवश्यकता होगी।
  • भविष्यवाणी में कठिनाई: जलवायु परिवर्तन एक बहुआयामी घटना है, जिसमें ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन, भूमि उपयोग परिवर्तन, औद्योगिक गतिविधियाँ और प्राकृतिक प्रक्रियाएँ और उनका अंतर्संबंध शामिल है, जिससे जलवायु परिवर्तन की प्रकृति और प्रभाव की भविष्यवाणी करना मुश्किल हो जाता है।
  • प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन: यह स्पष्ट हो चुका है कि भारत में जलवायु परिवर्तन की समस्या विकसित देशों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन का परिणाम है।
    • दुनिया के अतिरिक्त सामग्री उपयोग का 27% हिस्सा अमेरिका का है, इसके बाद यूरोपीय संघ (25%) का स्थान है।
    • ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, जापान और सऊदी अरब जैसे अन्य अमीर देशों ने सामूहिक रूप से 22% का योगदान दिया। संसाधनों के अति दोहन के कारण चीन ने अपनी वहनीयता सीमा को भी 15% से अधिक कर लिया है।
    • इसी अवधि में, भारत, इंडोनेशिया, पाकिस्तान, नाइजीरिया और बांग्लादेश सहित 3.6 अरब लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाले 58 देश अपनी वहनीयता सीमा के भीतर रहे।
  • संतुलन की दुविधा: पर्यावरणीय स्थिरता के साथ आर्थिक विकास को संतुलित करना नीति निर्माताओं के लिए एक संवेदनशील कार्य है, विशेषकर भारत और उन देशों में जो जीवाश्म ईंधन पर बहुत अधिक निर्भर हैं।
    • विश्व बैंक के अनुसार, जलवायु परिवर्तन कृषि को बाधित करके और मलेरिया एवं अन्य बीमारियों के प्रसार को बढ़ावा देकर वर्ष 2030 तक 100 मिलियन से अधिक लोगों को अत्यधिक गरीबी में धकेल सकता है।
  • सामाजिक-आर्थिक चिंता: संवेदनशील आबादी जैसे- कम आय वाले समुदाय, स्थानीय लोग और छोटे द्वीपीय राष्ट्र, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के गंभीर प्रभाव का सामना करते हैं।

आगे की राह

  • कोयले के उपयोग पर विनियमन: भारत के ऊर्जा क्षेत्र में एक प्रमुख घटक कोयला को विनियमित करने की आवश्यकता है।
  • वनों का सतत् प्रबंधन: जो वन कार्बन सिंक (कार्बन पृथक्करण) में सहायक हैं, उन्हें स्थानीय समुदायों एवं सरकार के सहकारी प्रयासों से सतत् प्रबंधन की आवश्यकता है।
    • कार्बन पृथक्करण कई लाभ भी प्रदान करता है, जैसे- जैव विविधता संरक्षण, मृदा उर्वरता में सुधार, जल सुरक्षा, आजीविका सहायता और आपदा जोखिम में कमी।
  • दीर्घकालिक लक्षित नीतियाँ: भारत के लिए जलवायु परिवर्तन नीति की सभी सिफारिशों में वित्तीय, राजनीतिक और नीतिगत कारक सबसे नीचे है।
    • नीति निर्माताओं को सामाजिक-आर्थिक असमानताओं को संबोधित करने और न्यायसंगत परिणाम सुनिश्चित करने वाली नीतियाँ विकसित करनी चाहिए।
  • एक सहयोगात्मक प्रयास: दीर्घकालिक टिकाऊ विकास हासिल करने के लिए क्षेत्रीय, राज्य, राष्ट्रीय और वैश्विक भागीदारी भारत के लिए सबसे प्रभावी कुंजी है।
  • नवाचार को प्रोत्साहित करना: रिमोट सेंसिंग, IoT डिवाइस और AI-आधारित एनालिटिक्स जैसे प्रौद्योगिकी-संचालित समाधानों को एकीकृत करने से उचित डेटा एवं इसकी गणना को बनाए रखकर जलवायु चुनौतियों से निपटने में मदद मिल सकती है।
    • उदाहरण: संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम और तेलंगाना सरकार द्वारा लॉन्च किया गया डेटा इन क्लाइमेट रेजिलिएंट एग्रीकल्चर (DiCRA) प्लेटफॉर्म, खाद्य प्रणालियों और सुरक्षा में सुधार के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का उपयोग करता है।
      • यह प्लेटफॉर्म किसानों को उनकी फसलों और पशुधन पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से निपटने और उनकी आजीविका सुरक्षित करने के लिए महत्त्वपूर्ण डेटा और विश्लेषण प्रदान करता है।
  • कर हस्तांतरण फॉर्मूले में जलवायु मापदंडों को शामिल करना: 16वाँ वित्त आयोग कर हस्तांतरण फॉर्मूले में जलवायु भेद्यता और उत्सर्जन तीव्रता को प्रमुख मापदंडों के रूप में शामिल कर सकता है।
    • इसे पर्यावरणीय अनिवार्यताओं के साथ आर्थिक विकास को जोड़कर, स्वच्छ ऊर्जा पहल का समर्थन करके और क्षेत्रीय जलवायु चुनौतियों का समाधान करके भारत की जलवायु तत्परता में एक प्रमुख हितधारक बनना चाहिए।
  • अधिक निवेश: हालाँकि उत्सर्जन को कम करना महत्त्वपूर्ण है, यह भी उतना ही आवश्यक है कि हम समुदायों को पहले से मौजूद संकट से निपटने में मदद करने के लिए प्रौद्योगिकियों और बुनियादी ढाँचे में निवेश करें।
    • यह विकासशील देशों में संवेदनशील समुदायों के लिए विशेष रूप से आवश्यक है, जिन्हें सूखा प्रतिरोधी फसलों, बाढ़ सुरक्षा प्रणालियों और चरम मौसम की घटनाओं के लिए प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों जैसे जलवायु-लचीले बुनियादी ढाँचे में निवेश की आवश्यकता  है।

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