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कस्टोडियल डेथ और भारत में विनियमन

Lokesh Pal April 18, 2024 06:45 172 0

संदर्भ

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि कस्टोडियल डेथ के मामलों में आरोपी पुलिस कर्मियों की जमानत याचिकाओं से निपटने के दौरान ‘कठोर दृष्टिकोण’ अपनाने की जरूरत है।

संबंधित तथ्य

  • हाल ही में यूपी के डीजीपी ने कस्टोडियल डेथ को रोकने के लिए दिशा-निर्देश पुनः जारी किए।

  • इसके अलावा, तमिलनाडु में ‘कस्टोडियल डेथ‘ को लेकर एक पुलिस इंस्पेक्टर को निलंबित कर दिया गया।
  • इस वर्ष फरवरी में सूरत के एक सब-इंस्पेक्टर पर हिरासत (कस्टडी) में यातना देकर हत्या के प्रयास का मामला दर्ज किया गया था।
  • वर्ष 2017-22 से, कस्टोडियल डेथ की सबसे अधिक संख्या गुजरात में दर्ज की गई है, इसके बाद महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु और बिहार हैं।

कस्टडी और उसके प्रकार

  • परिचय: कस्टडी का अर्थ है किसी चीज की देखभाल या संरक्षकता की सुरक्षा के लिए सौंपा गया कोई व्यक्ति।
    • हालाँकि, प्रत्येक गिरफ्तारी के लिए हिरासत होती है, लेकिन प्रत्येक हिरासत को गिरफ्तारी के लिए नहीं रखा जाएगा।

  • हिरासत के प्रकार: भारतीय न्यायिक प्रणाली में कैदियों के लिए निम्नलिखित दो प्रकार की हिरासत हैं:
    • पुलिस हिरासत: इस हिरासत में, एक पुलिस अधिकारी अपराध के बारे में पुलिस द्वारा सूचना या शिकायत अथवा रिपोर्ट की प्राप्ति के बाद आरोपी को गिरफ्तार करता है और उसे आगे अपराध करने से रोकता है तथा उसे पुलिस स्टेशन लाता है।
      • यहाँ आरोपी को हवालात में रखा जाता है।
      • विशिष्ट समय सीमा: पुलिस अधिकारी के पास संदिग्ध से पूछताछ करने के लिए 24 घंटे का समय होता है और यदि पता चलता है कि संदिग्ध दोषी है तो पुलिस का कर्तव्य उसे मजिस्ट्रेट के पास ले जाकर आरोप-पत्र दाखिल करना है।
    • न्यायिक हिरासत: इस हिरासत में आरोपी को संबंधित मजिस्ट्रेट के आदेश से जेल में रखा जाता है। जब किसी आरोपी को मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाता है, तो उसे या तो जेल भेजा जा सकता है अथवा मजिस्ट्रेट द्वारा पुलिस हिरासत में रखा जा सकता है।
      • जब आरोपी न्यायिक हिरासत में है तो पुलिस को पूछताछ का कोई अधिकार नहीं है और पुलिस को लगता है कि मामले के तथ्यों या उदाहरणों के अनुसार पूछताछ आवश्यक है।

  • भारत में हिरासत और न्यायिक रिमांड: CrPC की धारा 57 के अनुसार, एक पुलिस अधिकारी किसी व्यक्ति को 24 घंटे से अधिक समय तक हिरासत में नहीं रख सकता है और आगे हिरासत में रखने के लिए अधिकारी को मजिस्ट्रेट से विशेष अनुमति लेनी होगी।
  • हिरासत में हिंसा: भारत के विधि आयोग के अनुसार, हिरासत में हिंसा एक लोक सेवक द्वारा गिरफ्तार या हिरासत में लिए गए व्यक्ति के खिलाफ किया गया अपराध है।

कस्टोडियल डेथ के बारे में

  • परिभाषा: इसे उस मृत्यु के रूप में परिभाषित किया गया है, जो किसी व्यक्ति के हिरासत में होने के दौरान होती है तथा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उस व्यक्ति की हिरासत के दौरान की गई गतिविधियों से संबंधित अथवा महत्त्वपूर्ण रूप से जिम्मेदार होती है।
  • कवरेज: इसमें जेल में, पुलिस या अन्य वाहन पर, निजी या चिकित्सा सुविधा पर या सार्वजनिक स्थान पर होने वाली मौतें शामिल हैं।
  • घटना: यह किसी भी प्रकार की यातना या पुलिस अधिकारियों द्वारा क्रूर, अमानवीय अथवा अपमानजनक व्यवहार में संबंधित अधिकारियों द्वारा लापरवाही के कारण हो सकता है।
    • हिरासत में मौतें पुलिस की भागीदारी के बिना स्वाभाविक रूप से हो सकती हैं। उदाहरण के लिए जब कोई आपराधिक प्रतिवादी या आरोपी व्यक्ति बीमारी से मर जाता है।
  • राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (National Human Rights Commission- NHRC) द्वारा निर्देश: वर्ष 1993 में, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने एक सामान्य परिपत्र जारी किया था, जिसमें सभी जिला मजिस्ट्रेटों और पुलिस अधीक्षकों को हिरासत में मौत से संबंधित घटनाओं के घटित होने के 24 घंटे के भीतर ही आयोग को रिपोर्ट करने के लिए कहा गया था।

भारत में कस्टोडियल डेथ से संबंधित प्रावधान

इससे निपटने के लिए प्रावधान 

संवैधानिक प्रावधान
  • अनुच्छेद-20: यह किसी आरोपी व्यक्ति को मनमानी और अत्यधिक सजा के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है, चाहे वह नागरिक हो या विदेशी अथवा कंपनी या निगम जैसा कानूनी व्यक्ति हो। इसमें उस दिशा में तीन प्रावधान शामिल हैं:
    • कोई पूर्वव्यापी कानून नहीं (No ex-post-facto law): इसमें प्रावधान है कि किसी व्यक्ति पर उन कानूनों के अनुसार मुकदमा चलाया जाना चाहिए, जो उसके अपराध करने पर लागू थे।
    • कोई दोहरा खतरा नहीं (No Double Jeopardy): इसमें प्रावधान है कि किसी व्यक्ति पर एक ही अपराध के लिए एक से अधिक बार मुकदमा नहीं चलाया जाएगा और दंडित नहीं किया जाएगा।
    • कोई आत्म-दोषारोपण नहीं (No Self-Incrimination): इसमें प्रावधान है कि किसी अपराध के आरोपी व्यक्ति को अपने खिलाफ गवाह बनने के लिए मजबूर नहीं किया जाएगा।
      • सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य मामले में, यह देखा गया कि राज्य किसी भी व्यक्ति की सहमति के बिना उसका नार्को-विश्लेषण, पॉलीग्राफ और ब्रेन-मैपिंग परीक्षण नहीं कर सकता है।
  • अनुच्छेद-21: यह भारत के नागरिकों को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है। कैदियों के लिए निम्नलिखित कुछ अधिकार उपलब्ध हैं:
    • जमानत का अधिकार
    • एकांत कारावास के विरुद्ध अधिकार
    • अमानवीय व्यवहार के विरुद्ध अधिकार
    • अवैध हिरासत के विरुद्ध अधिकार
    • शीघ्र एवं निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार
    • दोस्तों से मिलने और वकील से सलाह लेने का अधिकार
  • अनुच्छेद-22: यह कुछ मामलों में गिरफ्तारी और हिरासत के खिलाफ सुरक्षा की गारंटी देता है तथा प्रावधान करता है कि गिरफ्तार किए गए किसी भी व्यक्ति को ऐसी गिरफ्तारी के आधार की जानकारी दिए बिना हिरासत में नहीं लिया जाएगा।
    • गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने पेश करने का अधिकार।
    • गिरफ्तारी के दौरान या हिरासत में दुर्व्यवहार अथवा प्रताड़ित न किए जाने का अधिकार।
उच्चतम न्यायालय द्वारा दिशा-निर्देश
  • डी. के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत गारंटीकृत अधिकारों को कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा, दोषियों, विचाराधीन कैदियों और हिरासत में अन्य कैदियों को देने से इनकार नहीं किया जा सकता है।
    • भारत के SC ने विशिष्ट आवश्यकताएँ और प्रक्रियाएँ निर्धारित की हैं:
      • सूचना देने का अधिकार: गिरफ्तार, हिरासत में लिए गए या पूछताछ के दौरान व्यक्ति को किसी रिश्तेदार, मित्र या शुभचिंतक को सूचित करने का अधिकार है।
        • जब कोई मित्र या रिश्तेदार जिले से बाहर रहता है, तो गिरफ्तारी के 8 से 12 घंटे के भीतर पुलिस को गिरफ्तारी का समय, स्थान और हिरासत का स्थान सूचित करना होता है।
NHRC द्वारा दिशा-निर्देश
  • पहचान योग्य स्थान पर पूछताछ: पूछताछ स्पष्ट रूप से पहचाने जाने योग्य स्थान पर की जानी चाहिए, जिसे सरकार द्वारा इस उद्देश्य के लिए अधिसूचित किया गया है।
  • रिश्तेदारों द्वारा स्थान जानने का अधिकार: वह स्थान सुलभ होना चाहिए और गिरफ्तार किए गए व्यक्ति के रिश्तेदारों या दोस्तों को पूछताछ के स्थान के बारे में सूचित किया जाना चाहिए।
  • एक मानवीय पूछताछ: पूछताछ के तरीके जीवन की गरिमा और स्वतंत्रता के मान्यता प्राप्त अधिकारों, यातना तथा अपमानजनक उपचार के खिलाफ अधिकार के अनुरूप होने चाहिए।
भारतीय दंड संहिता (IPC), 1860
  • धारा 302: हिरासत में किसी आरोपी की हत्या करने वाले पुलिस अधिकारी को हत्या के अपराध के लिए दंडित किया जाएगा।
  • धारा 304: एक पुलिस अधिकारी को हिरासत में मौत के लिए ‘गैर-इरादतन हत्या’ के तहत दंडित किया जा सकता है।
    • अगर मामला इन धाराओं के दायरे में आता है तो धारा 304 के तहत ‘लापरवाही से मौत’ का प्रावधान भी लगाया जा सकता है।
  • धारा 306: एक बार जब पीड़ित ने आत्महत्या कर ली है और यदि यह सिद्ध हो जाता है कि पुलिस अधिकारी ने ऐसी आत्महत्या के लिए उकसाया है, तो पुलिस अधिकारी को धारा 306 के तहत सजा के लिए उत्तरदायी माना जाएगा।
  • धारा 330 और 331: यदि कोई पुलिस अधिकारी स्वेच्छा से अपराध स्वीकार करने के लिए चोट पहुँचाता है या गंभीर चोट पहुँचाता है, तो ऐसे पुलिस अधिकारी को स्वेच्छा से चोट पहुँचाने के लिए IPC  की धारा 330 के तहत अथवा स्वेच्छा से गंभीर चोट पहुँचाने के लिए IPC  की धारा 331 के तहत दंडित किया जाएगा।
  • धारा 342: एक पुलिस अधिकारी को गलत कारावास के लिए भी दंडित किया जा सकता है।
दंड प्रक्रिया संहिता (Code of Criminal Procedure – CrPC), 1973
  • धारा 41: पूछताछ के लिए गिरफ्तारी और हिरासत में उचित आधार दस्तावेजी प्रक्रियाएँ होती है तथा गिरफ्तारी को परिवार, दोस्तों और जनता के लिए पारदर्शी बनाया जाता है।
  • धारा 49: इसमें प्रावधान है कि पुलिस को व्यक्ति को भागने से रोकने के लिए आवश्यकता से अधिक संयम बरतने की अनुमति नहीं है।
  • धारा 176: जब भी किसी व्यक्ति की पुलिस हिरासत में मृत्यु हो जाती है तो मजिस्ट्रेट को मौत के कारण की जाँच करने की आवश्यकता होती है।
    • धारा 53, 54, 57, और 167 जैसे कुछ प्रावधान हैं, जिनका उद्देश्य पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को प्रक्रियात्मक सुरक्षा प्रदान करना है।
भारतीय पुलिस अधिनियम, 1861
  • धारा 7 और धारा 29 वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को लापरवाह पुलिस अधिकारियों को बर्खास्त करने या निलंबित करने तथा लापरवाही से अपना कर्तव्य निभाने वाले पुलिस कर्मियों को दंडित करने का अधिकार देती है।

हिरासत में यातना के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन 

(International Conventions Against Custodial Torture)

  • अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून, 1948
  • संयुक्त राष्ट्र चार्टर, 1945
  • नेल्सन मंडेला नियम, 2015
  • अत्याचार के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन, 1984

मानवाधिकारों से जुड़े अंतरराष्ट्रीय कानून

  • मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा, 1948
  • नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय अनुबंध, 1966
  • कैदियों के इलाज के लिए संयुक्त राष्ट्र मानक न्यूनतम नियम, 2015
  • संयुक्त राष्ट्र चार्टर, 1945
  • मानव अधिकारों और मौलिक स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए यूरोपीय कन्वेंशन, 1950

हिरासत में होने वाली मौतों से जुड़ी चिंताएँ

  • मौलिक कानूनों का उल्लंघन: पुलिस द्वारा यातना और हिंसा के कारण हिरासत में मौत भारतीय संविधान की मौलिक अधिकार और मूल्यों के विरुद्ध है।
    • यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद-20, 21 और 22 का उल्लंघन है।
  • नैतिक मूल्यों के विरुद्ध: कभी-कभी, पुलिस अधिकारी औपचारिक गिरफ्तारी से पहले भी दोषी के साथ दुर्व्यवहार करते हैं और दावा करते हैं कि हिरासत से पहले चोटें लगी थीं।
    • हाल ही में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने माना है कि हिरासत में होने वाली मौतें बंदियों की असुरक्षा और असमान शक्ति गतिशीलता को देखते हुए सत्ता के निंदनीय दुरुपयोग का प्रतिनिधित्व करती हैं।
  • पुलिस द्वारा हिरासत का दुरुपयोग करके किए गए गंभीर अपराध: कभी-कभी, पुलिस हिरासत का दुरुपयोग करती है और पीड़ितों पर अत्याचार करती है।
    • दुष्कर्म: दुष्कर्म हिरासत में यातना के प्रचलित रूपों में से एक है। 
      • मथुरा दुष्कर्म मामला: वर्ष 1972 में महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले में हिरासत में दुष्कर्म की एक घटना, जिसमें मथुरा नाम की एक आदिवासी लड़की के साथ पुलिस स्टेशन में दो पुलिसकर्मियों द्वारा कथित तौर पर दुष्कर्म किया गया था।
    • उत्पीड़न: यह पुलिस के बीच प्रचलित है और पीड़ितों को कई कष्टों का सामना करना पड़ता है।
      • नीलाबती बेहरा बनाम उड़ीसा राज्य: इस मामले में, पुलिस द्वारा उत्पीड़न और पिटाई के कारण पीड़ित की मृत्यु हो गई थी।
    • अवैध हिरासत: कानून की प्रक्रिया का पालन किए बिना किसी व्यक्ति को उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित करना अवैध हिरासत के समान है। इसमें गैर-कानूनी कारावास, किसी व्यक्ति को किसी स्थान पर लगातार रोकना या किसी व्यक्ति को किसी स्थान पर पहुँचने से रोकना शामिल है। यह संविधान के अनुच्छेद-21 का उल्लंघन है और इससे अत्यधिक कष्ट और पीड़ा होती है।
      • रुदल शाह बनाम बिहार राज्य: इस मामले में, सत्र न्यायालय द्वारा बरी किए जाने के बाद आरोपी को 14 वर्ष तक जेल में रखा गया था।
    • फर्जी एनकाउंटर: यह एक प्रकार की हिरासत में मौत है।
      • मुंबई पुलिस के पूर्व ‘एनकाउंटर स्पेशलिस्ट’ प्रदीप शर्मा को वर्ष 2006 में फर्जी एनकाउंटर में शामिल होने के लिए बॉम्बे हाईकोर्ट ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई है।
        • यह ऐतिहासिक निर्णय भारत में फर्जी मुठभेड़ मामले में पुलिस अधिकारियों की पहली सजा का प्रतीक है।

आगे की राह

  • सख्त दृष्टिकोण अपनाना: हिरासत में होने वाली मौतों को रोकने के लिए प्रकाश सिंह मामले में अनुशंसित दिशा-निर्देशों और निर्देशों का कार्यान्वयन आवश्यक है।
    • प्रकाश सिंह बनाम भारत संघ, 2006 में दिए गए निर्देश
      • पुलिस स्थापना बोर्ड की स्थापना
      • राष्ट्रीय सुरक्षा आयोग का गठन
      • राज्य सुरक्षा आयोग का गठन
      • पुलिस शिकायत प्राधिकरण का गठन
      • पुलिस की जाँच और कानून व्यवस्था के कार्यों को अलग करना
      • पुलिस महानिदेशक की नियुक्ति हेतु योग्यता आधारित व्यवस्था
      • पीड़ित को मुआवजा
  • पुलिस के व्यवहार में सुधार का समय: मानवाधिकारों और गरिमा के सम्मान पर जोर देने के लिए पुलिस प्रशिक्षण कार्यक्रमों को बढ़ाने की आवश्यकता है।
    • पुलिस के अशिष्ट रवैये को बदलने और कानून प्रवर्तन एजेंसियों के भीतर जवाबदेही, व्यावसायिकता और सहानुभूति की संस्कृति को बढ़ावा देने की तत्काल आवश्यकता है।
  • अधिक निगरानी एवं पूछताछ: भारत में हिरासत में मौतों के बढ़ते मामलों के साथ, नागरिक समाज संगठनों को हिरासत में यातना के पीड़ितों के लिए सक्रिय रूप से सिफारिश करने हेतु प्रोत्साहित करने का समय आ गया है।
    • राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (National Human Rights Commission- NHRC) को कथित मानवाधिकार उल्लंघन की तारीख से एक वर्ष के बाद भी किसी भी मामले की जाँच करने की अनुमति दी जानी चाहिए और उचित उपायों के साथ सशस्त्र बलों द्वारा मानवाधिकार उल्लंघन पर अधिकार क्षेत्र का विस्तार भी किया जाना चाहिए।
  • पीड़ित और उसके परिवार को सहायता: न्याय को स्थापित करने के लिए, पीड़ितों और उनके परिवारों को अधिक कानूनी सहायता प्रदान करने की आवश्यकता है।

अत्याचार के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (UNCAT) के बारे में

  • अत्याचार के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (United Nations Convention Against Torture- UNCAT): यह संयुक्त राष्ट्र की समीक्षा के तहत एक अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संधि है और इसे वर्ष 1984 में अपनाया गया था।
  • इसका उद्देश्य दुनिया भर में यातना और क्रूर, अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार अथवा सजा के अन्य कृत्यों को रोकना है।

    • नीलाबती बेहरा बनाम ओडिशा राज्य मामले में, न्यायालय ने कहा कि जब राज्य किसी नागरिक के जीवन के संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन करता है, तो मुआवजा प्रदान करना उसका दायित्व है।
  • अन्य देशों की सर्वोत्तम प्रथाओं से सीखना: यातना और हिरासत में मौत (रोकथाम) अधिनियम, 2013 बांग्लादेश में हिरासत में यातना को प्रतिबंधित करने के लिए वर्ष 2013 में बांग्लादेश की संसद द्वारा पारित एक अधिनियम है।
    • अत्याचार निवारण विधेयक ( Prevention of Torture Bill), 2017 प्राथमिक कानूनों में से एक था, जिसे देश में हिरासत में यातना के संबंध में कानून के रूप में अधिनियमित किया गया था। 
  • सहयोग का समय: निवारण और न्याय पाने के लिए अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार निकायों और संगठनों के साथ सहयोग करना आवश्यक है। भारत सरकार ने अक्टूबर 1997 में संयुक्त राष्ट्र यातना कन्वेंशन पर हस्ताक्षर किए, लेकिन अभी तक इसका अनुमोदन नहीं किया है।

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