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Jul 30 2025

संदर्भ

साइंस एडवांसेज में प्रकाशित एक नए अध्ययन से पता चलता है कि विश्व की 9% से अधिक भूमि क्षेत्र में जूनोटिक रोग के प्रसार का उच्च या अत्यधिक जोखिम है, जो जलवायु संबंधी कारकों से अत्यधिक प्रेरित है।

जूनोटिक रोगों / जूनोसिस के बारे में

  • जूनोसिस संक्रामक रोग हैं, जो जानवरों से मनुष्यों में प्रसारित होता है।
  • इसमें शामिल रोगजनक: जीवाणु, विषाणु, परजीवी हो सकते हैं, या अपरंपरागत कारक (जैसे, प्रायन) शामिल हो सकते हैं।
  • संचरण के तरीके: सीधे संपर्क, दूषित भोजन, जल या पर्यावरण के माध्यम से फैलते हैं।
  • 60% से अधिक उभरते संक्रामक रोग मूल रूप से जूनोटिक हैं।
  • उदाहरण
    • बार-बार होने वाले प्रकोप: इबोला, साल्मोनेलोसिस (Salmonellosis)
    • महामारी: COVID-19 (एक नए कोरोनावायरस के कारण)
    • उत्परिवर्तित मानव उपभेद: HIV (एक जूनोसिस के रूप में उत्पन्न)।

जूनोटिक जोखिम – वैश्विक अवलोकन

  • उच्च-जोखिम वाले भूमि क्षेत्रों की पहचान: वैश्विक भूमि सतह का 9.3% भाग जूनोटिक प्रकोपों के उच्च (6.3%) या अत्यंत उच्च (3%) जोखिम में है, जानवरों और मनुष्यों के बीच फैलने वाले संक्रमण।
  • जोखिम में जनसंख्या: वैश्विक जनसंख्या का 3% अत्यधिक उच्च-जोखिम वाले क्षेत्रों में रहता है; लगभग 20% मध्यम-जोखिम वाले क्षेत्रों में रहते हैं।
  • चिंता के प्रमुख संक्रमण: विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, COVID-19, इबोला, MERS, SARS और निपाह सर्वाधिक प्राथमिकता वाले जूनोटिक संक्रमणों में से एक हैं।

जूनोटिक प्रसार के कारण

  • जलवायु परिवर्तन एक प्रमुख जोखिम कारक: उच्च तापमान, वर्षा में वृद्धि और जल की कमी को जूनोटिक जोखिमों में वृद्धि के प्रमुख कारकों के रूप में पहचाना गया है।
  • पर्यावरणीय सुभेद्यताएँ: अध्ययन के अनुसार, ये जलवायु-संबंधी परिवर्तन किसी क्षेत्र में अतिवृष्टि की घटनाओं के प्रति संवेदनशीलता को महत्त्वपूर्ण रूप से बढ़ा देते हैं।

जोखिम मानचित्रण और कार्यप्रणाली

  • प्रयुक्त वैश्विक डेटा स्रोत: यह अध्ययन ‘वैश्विक संक्रामक रोग और महामारी विज्ञान नेटवर्क’ डेटासेट और विश्व स्वास्थ्य संगठन की प्राथमिकता आधारित रोगजनक सूची पर आधारित था।
  • विकसित जोखिम सूचकांक: शोधकर्ताओं ने क्षेत्र-विशिष्ट रोग जोखिम को देशों की तैयारी और प्रतिक्रिया क्षमताओं (SARS-CoV-2 को छोड़कर) के साथ मिलाकर एक “महामारी जोखिम सूचकांक” तैयार किया।

क्षेत्रीय जोखिम वितरण

  • लैटिन अमेरिका: इसका 27% भू-भाग उच्च/अत्यधिक जोखिम वाली श्रेणी में आता है।
  • ओशिनिया: इसका 18.6% भू-भाग उच्च/अत्यधिक जोखिम वाली श्रेणी में आता है।
  • एशिया: 7% और अफ्रीका: 5% भू-भाग उच्च जोखिम से युक्त हैं।

भारत में जूनोटिक रुझान

  • ICMR अध्ययन अंतर्दृष्टि (2018-2023): ‘द लैंसेट रीजनल साउथईस्ट एशिया’ में प्रकाशित भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) के एक अध्ययन में पाया गया कि भारत में दर्ज किए गए 8.3% रोग प्रकोप जूनोटिक थे।
    • विश्लेषित 6,948 प्रकोपों में से 583 में पशुओं से मनुष्यों में संचरण शामिल था।
  • मौसमी चरम: जून, जुलाई और अगस्त के महीनों के दौरान प्रकोप लगातार चरम पर रहा।

नीतिगत प्रासंगिकता और सिफारिशें

  • सार्वजनिक स्वास्थ्य एकीकरण की आवश्यकता: अध्ययन में जलवायु शमन और अनुकूलन रणनीतियों को सार्वजनिक स्वास्थ्य योजना में एकीकृत करने पर जोर दिया गया है।
  • महामारी जोखिम सूचकांक का उपयोग: यह उपकरण उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों की पहचान करने, नीति निर्माताओं के हस्तक्षेपों का मार्गदर्शन करने, प्रतिक्रिया प्रणालियों को मजबूत करने और अंतरराष्ट्रीय सहयोग को प्रोत्साहित करने में मदद कर सकता है।

WHO जीवाणु प्राथमिकता रोगजनकों की सूची

  • रोगाणुरोधी प्रतिरोध (AMR) के विरुद्ध अनुसंधान, विकास (R&D) और जन स्वास्थ्य हस्तक्षेपों को प्राथमिकता देने हेतु एक वैश्विक उपकरण।
  • उद्देश्य: AMR प्रतिक्रिया रणनीतियों का मार्गदर्शन करना, क्षेत्र-विशिष्ट नियोजन को बढ़ावा देना और नए रोगाणुरोधी दवाओं के विकास को प्रोत्साहित करना।
  • वर्गीकरण: रोगजनकों को निम्नलिखित श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है:
    • महत्त्वपूर्ण प्राथमिकता
    • उच्च प्राथमिकता
    • मध्यम प्राथमिकता
  • कवरेज: 15 फैमिली के 24 जीवाणु रोगजनकों को शामिल करता है, जिनमें निम्नलिखित पर ध्यान केंद्रित किया गया है:
    • अंतिम उपाय एंटीबायोटिक दवाओं के प्रतिरोधी ग्राम नकारात्मक जीवाणु
    • दवा प्रतिरोधी माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस
    • अन्य प्रमुख रोगजनक: साल्मोनेला, शिगेला, निसेरिया गोनोरिया, स्यूडोमोनास एरुगिनोसा, स्टैफिलोकोकस ऑरियस।

संदर्भ

टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज (TCS) द्वारा अपने वैश्विक कार्यबल के 2 प्रतिशत, अर्थात् 12,000 कर्मचारियों की छँटनी की घोषणा ने इस आशंका को बल दिया है कि भारत के IT और सेवा क्षेत्र में कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) का बढ़ता प्रभाव पारंपरिक नौकरियों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है।

  • हालाँकि, TCS के CEO ने कहा है कि छंटनी कौशल असमानता के कारण हुई है, और कहा कि कर्मचारियों में उद्योग के लिए आवश्यक कौशल का अभाव था।

भारत के IT क्षेत्र की भूमिका

IT उद्योग भारत के लिए अत्यधिक महत्त्व रखता है:

  • वर्ष 2024 में, IT उद्योग 50 लाख लोगों को रोजगार प्रदान करेगा।
  • यह भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 7% का योगदान देता है।
  • भारत के सेवा निर्यात में IT क्षेत्र का योगदान 50% है।
  • यह मध्यम वर्ग के युवाओं, विशेषतः टियर-2 और टियर-3 शहरों के स्नातकों, जो TCS और इन्फोसिस जैसी कंपनियों में कार्य करने की इच्छा रखते हैं, के लिए उन्नति का एक महत्त्वपूर्ण मार्ग है।
    • उन्नति का अर्थ है परिवार को गरीबी से बाहर निकालना, जीवन स्तर में सुधार लाना और कॅरियर में उन्नति के माध्यम से सम्मान प्राप्त करना।

छँटनी में प्रमुख चुनौतियाँ और योगदान देने वाले कारक

  • कोविड-19 महामारी के बाद, IT कंपनियों ने बड़ी संख्या में इंजीनियरिंग स्नातकों की नियुक्ति तेजी से की।
    • अमेरिका में उच्च मुद्रास्फीति और मंदी की आशंकाओं के साथ वैश्विक अर्थव्यवस्था अब महत्त्वपूर्ण अस्थिरता का सामना कर रही है।
    • वर्तमान आर्थिक अनिश्चितता कंपनियों को नई परियोजनाओं की शुरुआत से रोकने की ओर प्रेरित कर रही है, जिसके परिणामस्वरूप TCS और इन्फोसिस जैसी प्रमुख IT कंपनियों के लिए वैश्विक स्तर पर नए ग्राहक उपलब्ध करना और व्यावसायिक विस्तार करना अधिक चुनौतीपूर्ण हो गया है।
    • परिणामस्वरूप, कंपनियाँ नियुक्तियों में कटौती करती हैं या अपने मौजूदा कर्मचारियों की संख्या को कम करती हैं।
  • AI और स्वचालन का प्रवेश-स्तर की नौकरियों पर प्रभाव: कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) तीव्र गति से प्रवेश-स्तर के कार्यों, जैसे सॉफ्टवेयर परीक्षण और बग की पहचान में अपनी भूमिका बढ़ा रही है, जिससे इन क्षेत्रों में मानव संसाधनों की पारंपरिक आवश्यकता कम होती जा रही है।
    • स्वचालन इन प्रारंभिक-स्तर के कार्यों को तेजी से, अधिक कुशलता से और कम लागत पर पूरा करने में सक्षम बनाता है।
    • AI अब उन भूमिकाओं में अधिक प्रभावी है, जो पारंपरिक रूप से नए, अनुभवहीन स्नातकों द्वारा निभाई जाती थीं, जिससे कार्यबल में नए कौशल की आवश्यकता होती है।
  • वैश्विक क्षमता केंद्रों (Global Capability Centers) का उदय: बहुराष्ट्रीय निगम (MNC) तीव्रता से स्वयं को परिवर्तित करते जा रहे हैं।
    • TCS जैसी भारतीय IT कंपनियों से प्रोजेक्ट आउटसोर्स करने के बजाय, वे भारत में अपने वैश्विक क्षमता केंद्र स्थापित कर रहे हैं।
    • इससे उन्हें भारतीय IT सेवा प्रदाताओं को एकतरफ करते हुए भारत में उपलब्ध सस्ते श्रम का सीधा लाभ उठाने में मदद मिलती है।
  • प्रवेश-स्तर वेतन में स्थिरता: पिछले 10-14 वर्षों से, IT उद्योग में प्रवेश करने वाले नए इंजीनियरिंग स्नातकों का वेतन लगभग अपरिवर्तित रहा है।
    • इस बीच, बंगलूरू और गुरुग्राम जैसे प्रमुख IT केंद्रों में जीवन यापन की लागत में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।
    • इस स्थिति के परिणामस्वरूप मध्यम वर्ग के अनेक लोग जीविकोपार्जन हेतु ऋण लेने और कर्ज के बोझ तले दबने को विवश हो रहे हैं, जिससे IT क्षेत्र द्वारा मध्यवर्ग को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने की शुरुआती प्रतिबद्धता को गहरा आघात पहुँचा है।
  • बाजार परिदृश्य: वर्तमान परिदृश्य में IT उद्योग दो चरम परिणामों की ओर अग्रसर होता दिख रहा है, जहाँ अत्यंत कुशल और विशिष्ट प्रतिभा वाले पेशेवरों को ₹80–90 लाख से लेकर करोड़ों रुपये तक के आकर्षक पैकेज प्राप्त हो रहे हैं, वहीं सामान्य स्तर के कर्मचारियों को ₹5–10 लाख जैसे सीमित वेतन में जीवनयापन करना चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है।
    • कॅरियर और वित्तीय स्थिरता के संदर्भ में “मध्यम मार्ग” कम होता जा रहा है।

आगे की राह

  • पाठ्यक्रम में तत्काल सुधार: कौशल असंतुलन और उद्योग में छँटनी की समस्या को दूर करने के लिए इंजीनियरिंग पाठ्यक्रम में सुधार की तत्काल आवश्यकता है।
  • अल्पकालिक पाठ्यक्रम तैयार करना: सरकार को IT उद्योग के साथ मिलकर साइबर सुरक्षा और क्लाउड कंप्यूटिंग जैसे महत्त्वपूर्ण नए कौशलों में अल्पकालिक, सुव्यवस्थित पाठ्यक्रम तैयार करने चाहिए।
  • सरकारी डिजिटल प्लेटफॉर्म का उन्नयन: इंजीनियरिंग पाठ्यक्रम प्रदान करने वाले SWAYAM और NPTEL जैसे सरकारी प्लेटफॉर्म को लगातार उन्नत तथा वित्तपोषित किया जाना चाहिए।
  • क्षेत्रीय फोकस में विविधता: हालाँकि IT एक मजबूत पक्ष है, भारत को अपने आर्थिक विकास इंजनों में विविधता लाने के लिए जैव प्रौद्योगिकी और फार्मास्यूटिकल्स जैसे अन्य आशाजनक क्षेत्रों पर भी ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
  • उच्च शिक्षा प्रणाली में पूर्ण सुधार: उच्च शिक्षा प्रणाली में व्यापक सुधार आवश्यक है।
  • उद्योग-अकादमिक अंतराल को पाटना: उद्योग और शैक्षणिक जगत के बीच लंबे समय से उपस्थित अंतराल को सक्रिय रूप से दूर किया जाना चाहिए।

निष्कर्ष 

अगर भारत तेजी से अनुकूलन करने में विफल रहा, तो छँटनी और बेरोजगारी में वृद्धि जारी रहेगी। सरकार के लिए यह आवश्यक है कि वह निर्णायक कदम उठाए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि भारत का IT सपना जीवंत बना रहे और आर्थिक समृद्धि एवं ऊर्ध्वगामी गतिशीलता को बढ़ावा मिलता रहे।

संदर्भ

लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण (POCSO) अधिनियम, 2012 मुख्य रूप से बच्चों को यौन शोषण से बचाने के लिए बनाया गया है।

  • यद्यपि ऐसी प्रवृत्ति देखी गई है, कि 15 वर्ष से अधिक किंतु 18 वर्ष से कम आयु के किशोरों को, जो आपसी सहमति से स्वैच्छिक यौन संबंध में संलग्न होते हैं, प्रायः आपराधिक मुकदमों के माध्यम से दंडित या प्रताड़ित किया जाता है, इस संदर्भ में विभिन्न न्यायालयों ने इस स्थिति की समीक्षा की आवश्यकता पर बल दिया है।

वर्तमान कानूनी स्थिति और इसके निहितार्थ

  • भारत में सहमति की कानूनी उम्र: मौजूदा भारतीय कानून के तहत, शारीरिक संबंधों के लिए सहमति की उम्र 18 वर्ष है।
  • 18 वर्ष से कम उम्र में सहमति की अमान्यता: इसका अर्थ है कि यदि कोई व्यक्ति 18 वर्ष से कम आयु का है, तो कोई भी शारीरिक संबंध, भले ही उसकी स्पष्ट सहमति पर आधारित हो, कानून की नजर में वैध सहमति नहीं माना जाएगा।
    • ऐसे कृत्यों को दुर्व्यवहार माना जाता है और कई कानूनों के तहत कड़ी सजा का भी प्रावधान है।
  • नाबालिगों के संरक्षण से संबंधित प्रमुख कानून: इनमें POCSO अधिनियम की धारा 6, बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 की धारा 9 और हाल ही में लागू भारतीय न्याय संहिता (BNS) के प्रावधान शामिल हैं।
  • बालक की एक समान परिभाषा: विधि स्पष्ट रूप से 18 वर्ष से कम आयु के किसी भी व्यक्ति को ‘बालक’ के रूप में परिभाषित करती है, चाहे उसकी मानसिक परिपक्वता या यौन गतिविधियों के लिए दी गई सहमति कुछ भी क्यों न हो।
    • उदाहरण के लिए, POCSO अधिनियम की धारा 2(d) के तहत 16 वर्षीय व्यक्ति को “बच्चा” माना जाता है और इसलिए उसकी सहमति मायने नहीं रखती।

चुनौती: किशोर और कानून

  • इंटरनेट और डिजिटलीकरण के वर्तमान युग में, बच्चे तेजी से परिपक्व हो रहे हैं और महत्त्वपूर्ण संपर्क प्राप्त कर रहे हैं।
  • इसके कारण ऐसे मामलों की संख्या बढ़ रही है जहाँ किशोर, विशेष रूप से 16 या 17 वर्ष की आयु के किशोर, सहमति से शारीरिक संबंध बनाते हैं।
  • आपसी सहमति के बावजूद, ये मामले आयु सीमा के कारण POCSO अधिनियम के दायरे में आते हैं, जिसके परिणामस्वरूप संबंधित व्यक्तियों के लिए गंभीर कानूनी परिणाम हो सकते हैं।
  • अदालतों ने अपने निर्णयों में प्रायः इस विसंगति को देखा है और बदलते सामाजिक मानदंडों के अनुरूप ‘ऐज ऑफ कंसेंट’ को कम करने की आवश्यकता पर भी टिप्पणी की है।

पुनर्मूल्यांकन और विविध दृष्टिकोणों का आह्वान

  • सहमति की आयु (ऐज ऑफ कंसेंट) कम करना: सहमति की आयु 18 वर्ष से घटाकर 16 वर्ष करने की वकालत करते हुए न्यायालय में एक याचिका दायर की गई है।
  • गैर-दंडनीय अपराध के लिए न्यायिक अनुशंसा: एक संबंधित मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा न्यायमित्र नियुक्त इंदिरा जयसिंह ने सुझाव दिया है कि यदि 16 और 18 वर्ष की आयु के व्यक्तियों के बीच सहमति से शारीरिक संबंध बनते हैं, तो इसे दंडनीय अपराध नहीं माना जाना चाहिए।
    • उनका तर्क है कि ऐसा अपवाद कानून के सुरक्षात्मक उद्देश्य को बनाए रखेगा और साथ ही शोषणकारी न होने वाले किशोर संबंधों के विरुद्ध इसके दुरुपयोग को रोकेगा।
  • विधि आयोग का रुख: वर्ष 2023 की एक रिपोर्ट में, विधि आयोग ने कहा था कि वह सहमति की आयु में परिवर्तन के विरुद्ध है। इसके बजाय, उसने 16 से 18 वर्ष के बच्चों के स्वैच्छिक, सहमति से बने रिश्ते से जुड़े मामलों में सजा सुनाते समय ‘निर्देशित न्यायिक विवेक’ अपनाने की सलाह दी।
    • तर्क: 16 से 18 वर्ष की आयु के किशोरों द्वारा दी गई सहमति को अक्सर विवादास्पद माना जाता है, क्योंकि इस आयु वर्ग के अनेक किशोरों में अभी नैतिक निर्णय क्षमता पूर्णतः विकसित नहीं होती है, जिससे उनकी सहमति में परिवर्तन या दुरुपयोग की संभावना बनी रहती है।
  • मद्रास उच्च न्यायालय का दृष्टिकोण: विजयलक्ष्मी बनाम राज्य प्रतिनिधि मामले, 2021 में मद्रास उच्च न्यायालय ने प्रस्ताव दिया कि यदि कोई बालक 16 से 18 वर्ष के बीच का है और सहमति से यौन संबंध बनाता है, तो उसे दंडनीय अपराध नहीं माना जाना चाहिए, बशर्ते कि दूसरे व्यक्ति के साथ उसकी आयु का अंतर 5 वर्ष से कम हो।
    • हालाँकि, यदि आयु का अंतर 5 वर्ष से अधिक है, तो इसे दंडनीय अपराध माना जाना चाहिए, क्योंकि ऐसी परिस्थितियों में परिवर्तन का जोखिम बढ़ जाता है।

निष्कर्ष 

किशोरों में विशेषतः यौन अपराधों और उनके दुष्परिणामों को लेकर कानूनी जागरूकता बढ़ाना अनिवार्य है। यदि सामान्य किशोर व्यवहार, जिसमें आपसी सहमति होती है, को अपराध घोषित कर दिया जाए, तो यह दृष्टिकोण न केवल असंतुलित है, बल्कि वास्तविक शोषणकारी अपराधों से सुरक्षा के उद्देश्य को भी कमजोर करता है।

संदर्भ

हाल ही में महाराष्ट्र ने ‘शहरी नक्सलवाद’ का मुकाबला करने के लिए विशेष जन सुरक्षा विधेयक पारित किया, जिसकी अस्पष्टता और संभावित रूप से दमनकारी होने के कारण इसकी आलोचना हुई।

विधेयक के प्रमुख प्रावधान

  • नक्सली समूहों के अग्रणी संगठनों पर निशाना: यह विधेयक उन शहरी नक्सली समूहों की बढ़ती उपस्थिति को संबोधित करने का दावा करता है, जो महाराष्ट्र के शहरी क्षेत्रों में लॉजिस्टिक सहायता और आश्रय प्रदान कर सशस्त्र कैडरों का समर्थन करते हैं।
  • संगठनों को ‘गैर-कानूनी’ घोषित करना: सरकार को किसी भी संगठन को गैर-कानूनी घोषित करने का अधिकार है यदि उसे संदेह है कि वह सार्वजनिक सुरक्षा के लिए खतरा है।
  • अनिश्चितकालीन प्रतिबंध: विधेयक संगठनों पर प्रतिबंधों को अनिश्चित काल तक बढ़ाने की अनुमति देता है, जिसकी अवधि की कोई निर्दिष्ट सीमा नहीं है, जिससे अनियंत्रित कार्यकारी शक्ति के बारे में चिंताएँ उत्पन्न होती हैं।
  • सीमित न्यायिक निगरानी: इस विधेयक के अधिकार क्षेत्र से निचली अदालतों को बाहर रखा गया है, जिससे इसके प्रावधानों से प्रभावित व्यक्तियों या अभियुक्तों के लिए त्वरित और सुलभ न्यायिक राहत की संभावनाएँ सीमित हो जाती हैं।
  • सद्भावना संरक्षण: यह विधेयक के प्रावधानों के तहत कार्य करने वाले राज्य के अधिकारियों को पूर्ण कानूनी छूट प्रदान करता है।
  • अन्य राज्यों में समान कानून: महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और ओडिशा के साथ मिलकर एक विशेष जन सुरक्षा अधिनियम लागू कर रहा है।
    • हालाँकि, नागरिक अधिकार समूहों का तर्क है कि ये कानून विधिविरुद्ध क्रिया-कलाप (निवारण) अधिनियम जैसे सख्त राष्ट्रीय कानून के अस्तित्व में आने से पहले बनाए गए थे।

शहरी नक्सलवाद क्या है?

  • शहरी नक्सली’ शब्द का प्रयोग उन व्यक्तियों के लिए किया जाता है, जो शहरी क्षेत्रों में रहकर सक्रियता, बौद्धिक समर्थन के माध्यम से नक्सली विचारधारा का समर्थन और प्रचार करते हैं; इसके विपरीत, ‘सक्रिय नक्सली’ वनों तथा माओवादी-प्रभावित क्षेत्रों में प्रत्यक्ष सशस्त्र संघर्ष में संलग्न रहते हैं।
  • उत्पत्ति: ‘शहरी नक्सली’ शब्द, जो विशेष रूप से वर्ष 2018 के बाद व्यापक रूप से लोकप्रिय हुआ, का पहला प्रमुख प्रयोग महाराष्ट्र में एल्गार परिषद मामले से संबद्ध वामपंथी कार्यकर्ताओं एवं उदार विचारधारा से जुड़े व्यक्तियों पर की गई कार्रवाई के संदर्भ में हुआ। इसके पश्चात् यह शब्द प्रायः सत्ता-विरोधी प्रदर्शनकारियों तथा असहमति प्रकट करने वाले अन्य नागरिकों के लिए प्रयुक्त होने लगा।
    • यह जाँच 1 जनवरी, 2018 को हुई भीमा कोरेगाँव हिंसा से संबंधित दो सक्रिय मामलों में से एक है।

भारत में नक्सलवाद की उत्पत्ति

  • शब्द: ‘नक्सलवाद’ शब्द पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गाँव से लिया गया है।
  • भारत में विकास: भारत में नक्सलवाद की उत्पत्ति भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) से अलग हुए एक उग्रवादी गुट के रूप में हुई, जब पार्टी के एक छोटे लेकिन कट्टरपंथी समूह ने बड़े भू-स्वामियों और सत्ता प्रतिष्ठान के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष का निर्णय लिया।
  • चारु मजूमदार, कानू सान्याल और जगन संथाल के नेतृत्व में वर्ष 1967 में शुरू हुए इस विद्रोह का उद्देश्य मेहनती किसानों को भूमि का पुनर्वितरण करना था।
  • नक्सलवादी आंदोलन का प्रसार: पश्चिम बंगाल में प्रारंभ हुआ यह आंदोलन तब से पूर्वी भारत में, विशेष रूप से छत्तीसगढ़, ओडिशा और आंध्र प्रदेश जैसे अल्प विकसित क्षेत्रों में विस्तृत हो गया है।

गैर-कानूनी गतिविधियाँ

  • कोई भी मौखिक, लिखित या प्रतीकात्मक कार्य, जो सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित करे, सार्वजनिक चिंता उत्पन्न करे या सार्वजनिक शांति के उल्लंघन का कारण बने।
    • उदाहरण: सरकार और उसके निकायों के विरुद्ध व्हाट्सऐप पर ऐसे संदेश भेजना और वितरित करना, जिनसे दंगा या अशांति उत्पन्न हो सकती है।
  • कानूनी प्रावधान: भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023 की धारा 150 उस अपराध से संबंधित है, जिसमें कोई व्यक्ति भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध छेड़ने की योजना को सुगम बनाने के उद्देश्य से किसी तथ्य को जानबूझकर छिपाता है।

अग्रणी संगठन (Frontal Organisations)

  • ये गैर-सशस्त्र, भूमिगत संगठन हैं, जो कथित तौर पर चरमपंथी या प्रतिबंधित समूहों से जुड़े हैं और उन्हें सैन्य या वैचारिक सहायता प्रदान करते हैं।
  • कानूनी कमियाँ: भारतीय कानून में कोई मानक कानूनी परिभाषा नहीं है, जिससे इसकी मनमानी व्याख्या होने का खतरा बना रहता है।

सार्वजनिक व्यवस्था

  • सार्वजनिक व्यवस्था किसी समुदाय के भीतर शांति, सुरक्षा और अच्छे आचरण की सामान्य स्थिति को संदर्भित करती है, जो यह सुनिश्चित करती है कि लोग बिना किसी व्यवधान या भय के सौहार्दपूर्वक रह सकें।
  • संवैधानिक प्रावधान: संविधान के अनुच्छेद-19(2) के तहत, राज्य सार्वजनिक व्यवस्था के हित में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर युक्तियुक्त  प्रतिबंध लगा सकता है।

प्रावधानों की आलोचना

  • अस्पष्ट परिभाषाएँ: “गैर-कानूनी गतिविधि” और “सार्वजनिक व्यवस्था” जैसे शब्दों को शिथिल रूप से परिभाषित किया गया है, जिससे व्यक्तिपरक व्याख्या और संभावित दुरुपयोग की संभावना बढ़ जाती है।
  • न्यायिक निगरानी को सीमित करता है: निचली अदालतों को इससे बाहर रखने से प्रभावित लोगों के लिए सुलभ कानूनी उपाय सीमित हो जाते हैं।
  • प्रतिबंधों की कोई समय-सीमा नहीं: आवधिक समीक्षा के बिना संगठनों पर अनिश्चितकालीन प्रतिबंध लगाने से वैध संगठनों का लंबे समय तक दमन हो सकता है।
  • अधिकारियों के लिए उन्मुक्ति: “सद्भावना” से की गई कार्रवाइयों के लिए व्यापक सुरक्षा प्रदान करना जवाबदेही को कमजोर करता है।
  • असहमति का दमन: यह विधेयक वैध असहमति, सक्रियता और विरोध को आपराधिक बनाने का जोखिम उठाता है, जिससे अनुच्छेद-19 के तहत अधिकारों का उल्लंघन होता है।

आगे की राह

  • मौजूदा कानूनी ढाँचों का उपयोग करना: अतिव्यापी कानून बनाने के बजाय UAPA और IPC/BNS प्रावधानों को लागू करना।
    • UAPA के मामले में मनमानी से बचने के लिए विशेष एजेंसियों के माध्यम से सख्त कानून लागू किए जाने चाहिए, जैसा कि गृह मंत्रालय द्वारा राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (NIA) और राज्य सरकारों के साथ मिलकर लागू किया जाता है।
  • न्यायिक सुरक्षा उपाय सुनिश्चित करना: निचली अदालतों के अधिकार क्षेत्र को बहाल करना और प्रतिबंधों की समय-समय पर समीक्षा की सुविधा प्रदान करना।
  • व्यापक सार्वजनिक और विधायी परामर्श: खुले विचार-विमर्श के माध्यम से नागरिक समाज और कानूनी विशेषज्ञों से प्राप्त प्रतिक्रिया को शामिल करना।
  • स्पष्ट और संकीर्ण परिभाषाएँ: मनमाने या राजनीतिक रूप से प्रेरित प्रवर्तन को रोकने के लिए शब्दों को सटीक रूप से परिभाषित करना।

निष्कर्ष

यद्यपि सरकार का दावा है कि यह विधेयक सार्वजनिक सुरक्षा के लिए आवश्यक है, लेकिन इसके व्यापक और अस्पष्ट प्रावधानों से संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक स्वतंत्रताओं पर अंकुश लगने का खतरा है।

संदर्भ 

मूडीज (Moody) की वर्ष 2024 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में बाढ़ के मैदानों में असुरक्षित बस्तियों में रहने वाले झुग्गीवासियों की संख्या विश्व में सर्वाधिक है, जिनमें से अधिकांश गंगा नदी के प्राकृतिक रूप से बाढ़-प्रवण डेल्टा में केंद्रित हैं।

अध्ययन के मुख्य निष्कर्ष

  • वैश्विक भेद्यता (Global Vulnerability): बाढ़ से प्रतिवर्ष 2.3 अरब से अधिक लोग प्रभावित होते हैं।
    • ग्लोबल साउथ’ में, 33% अनौपचारिक बस्तियाँ (445 मिलियन लोग, 9,08,077 परिवार, 67,568 समूह) बाढ़ के मैदानों में स्थित हैं।
  • भारत की भेद्यता
    • भारत में बाढ़-प्रवण क्षेत्रों में झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों की संख्या दुनिया भर में सर्वाधिक [158 मिलियन (रूस की आबादी से भी अधिक)] है।
    • अधिकतर झुग्गी-झोपड़ियाँ गंगा नदी के डेल्टा क्षेत्र में केंद्रित हैं, जो प्राकृतिक रूप से बाढ़-प्रवण क्षेत्र है।
    • सस्ती जमीन और आवास की वजह से झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों की बाढ़ के मैदानों में बसने की संभावना 32% अधिक होती है।
  • क्षेत्रीय हॉटस्पॉट: दक्षिण एशियाई देश (भारत, इंडोनेशिया, बांग्लादेश, पाकिस्तान) बाढ़ के मैदानों में झुग्गी-झोपड़ियों की आबादी के मामले में सबसे आगे हैं। अन्य हॉटस्पॉट में रवांडा, उत्तरी मोरक्को और तटीय रियो डी जेनेरो शामिल हैं।
  • शहरीकरण प्रतिरूप
    • लैटिन अमेरिका और कैरेबियन: 80% शहरीकरण, 60% अनौपचारिक बस्तियाँ शहरी क्षेत्रों में हैं।
    • उप-सहारा अफ्रीका: सबसे कम शहरीकरण, 63% अनौपचारिक बस्तियाँ ग्रामीण हैं।
    • भारत: शहरी/उपनगरीय क्षेत्रों में 40% झुग्गी-झोपड़ियाँ हैं।

भारत में मलिन बस्तियाँ

  • यूएन-हैबिटैट (UN-HABITAT) के अनुसार, झुग्गी-झोपड़ी वाले परिवार की परिभाषा शहरी क्षेत्र में एक ही छत के नीचे रहने वाले व्यक्तियों के समूह के रूप में की जाती है, जिनमें निम्नलिखित में से एक या अधिक का अभाव होता है:
    • स्थायी आवास, जो चरम जलवायु परिस्थितियों से सुरक्षा प्रदान करता है।
    • पर्याप्त रहने की जगह, अर्थात् एक ही कमरे में तीन से अधिक लोग न रहते हों।
    • वहनीय दामों पर पर्याप्त मात्रा में सुरक्षित जल की आसान पहुँच हो।
    • उचित संख्या में लोगों द्वारा साझा किए जाने वाले निजी या सार्वजनिक शौचालय के रूप में पर्याप्त स्वच्छता की सुविधा होनी चाहिए।
    • जबरन बेदखली को रोकने हेतु भूमि संबंधी सुरक्षा।
  • स्लम क्षेत्र (सुधार और निकासी) अधिनियम, 1956 (Slum Areas (Improvement and Clearance) Act, 1956) के तहत, “स्लम क्षेत्र” को एक आवासीय क्षेत्र के रूप में परिभाषित किया गया है, जिन्हें जीर्ण-शीर्ण इमारतें, रोशनी, वेंटिलेशन और स्वच्छता जैसी आवश्यक सुविधाओं की कमी के कारण मानव निवास के लिए अनुपयुक्त माना जाता है।
  • मानक
    • वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, 2,543 शहरों में 65.5 मिलियन लोग (शहरी आबादी का 17%) झुग्गी-झोपड़ियों में रहते हैं।
    • मुंबई: भारत की झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाली आबादी का 41%; कोलकाता: झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाली शहरी आबादी का 32%
  • शहरीकरण: भारत की शहरीकरण दर वर्ष 2011 में 31% थी, जिसके वर्ष 2030 तक 40% तक पहुँचने का अनुमान है, जिससे अनियोजित शहरी विस्तार के कारण झुग्गी-झोपड़ियों का प्रसार बढ़ रहा है।

भारत में मलिन बस्तियों के विकास के लिए जिम्मेदार कारक

  • तीव्र शहरीकरण: शहरीकरण के कारण शहरों में भीड़भाड़ बढ़ जाती है, जिसके परिणामस्वरूप झुग्गी-झोपड़ियों का निर्माण होता है।
    • वर्ष 2011 में, भारत की 34.5% आबादी शहरी क्षेत्रों में रहती थी, जिससे मुंबई और दिल्ली जैसे शहरों में झुग्गी-झोपड़ियों की संख्या में वृद्धि हुई।
  • उच्च जनसंख्या वृद्धि: जनसंख्या विस्फोट से आवास पर दबाव बढ़ता है, जिससे झुग्गी-झोपड़ियों की संख्या में वृद्धि होती है।
    • भारत की जनसंख्या वार्षिक रूप से 1.2% की दर से बढ़ी, और वर्ष 2011 तक 6.55 करोड़ लोग झुग्गी-झोपड़ियों में रहते थे।
  • वहनीय आवास की कमी: वहनीय आवास की कमी के कारण कम आय वाले लोग अनौपचारिक क्षेत्रों में बसने को मजबूर हैं।
    • प्रधानमंत्री आवास योजना (Pradhan Mantri Awas Yojana) का लक्ष्य 2 करोड़ घरों का निर्माण है, फिर भी माँग पूरी नहीं हो पा रही है।
  • गरीबी और सामाजिक-आर्थिक कमजोरी: आर्थिक तंगी के कारण निम्न-आय वर्ग के लोग झुग्गी-झोपड़ियों में रहने को मजबूर हैं।
    • शहरों में निर्माण कार्य में सलग्न लगभग 90% श्रमिक कम वेतन के कारण झुग्गी-झोपड़ियों में रहते हैं।
  • अपर्याप्त शहरी नियोजन और प्रशासन: खराब शहरी नियोजन के कारण अनौपचारिक बस्तियों का अनियंत्रित विकास होता है।
    • पारंपरिक और अकुशल नियोजन के कारण बंगलूरू और कोलकाता जैसे शहरों में झुग्गी-झोपड़ियाँ हैं।
  • आजीविका के अवसरों के लिए प्रवास: कार्य की तलाश में ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों की ओर पलायन के कारण झुग्गी-झोपड़ियों का निर्माण होता है।
    • उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों से आने वाले प्रवासी मुंबई जैसे शहरों में झुग्गी-झोपड़ियों के विकास में योगदान करते हैं।
  • भूमि बाजार और रियल एस्टेट की गतिशीलता: भूमि की बढ़ती कीमतें निम्न-आय वर्ग के लोगों को बाढ़-प्रवण क्षेत्रों में धकेल रही हैं।
    • मुंबई की सबसे बड़ी झुग्गी बस्ती धारावी, पुनर्विकास प्रयासों के बावजूद, रियल एस्टेट के दबाव का सामना कर रही है।

बाढ़ के मैदानों के बसावट के कारण

  • सामाजिक-आर्थिक कारक
    • आर्थिक बाधाएँ: बाढ़ के मैदान वहनीय भूमि/आवास उपलब्ध कराते हैं, जिससे कम आय वाले परिवार (जैसे- मुंबई, जकार्ता) आकर्षित होते हैं।
    • नौकरियों तक पहुँच: शहरी केंद्रों से निकटता बाढ़-प्रवण क्षेत्रों की ओर पलायन को बढ़ावा देती है।
    • सामाजिक भेद्यता: शिक्षा, संसाधनों और संस्थागत समर्थन की कमी से बाढ़ का जोखिम बढ़ जाता है।
  • भौगोलिक कारक: भारत और बांग्लादेश में गंगा-ब्रह्मपुत्र डेल्टा निचले क्षेत्र में अवस्थित है और प्राकृतिक रूप से बाढ़ की चपेट में है।
    • बड़ी आबादी असुरक्षित बस्तियों की संख्या को और बढ़ा देती है।
  • समृद्ध क्षेत्रों के साथ तुलना: यूरोप में, बाढ़ के मैदानों में बस्तियाँ को वांछनीय स्थानों (जैसे- समुद्र तट) पर सब्सिडी के माध्यम से प्रबंधित किया जाता है।
    • ग्लोबल साउथ’ में बुनियादी ढाँचे (तटबंध, जल निकासी) की कमी और सस्ती जमीन के कारण गरीब लोग उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में चले जाते हैं।

भारत में झुग्गी-झोपड़ी निवासियों के सामने आने वाली चुनौतियाँ

  • बुनियादी सुविधाओं तक पहुँच का अभाव: झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों को प्रायः स्वच्छ जल, स्वच्छता और बिजली जैसी आवश्यक सेवाओं तक पहुँच नहीं होती है।
    • कई झुग्गी-झोपड़ियों में, केवल 40-50% घरों में ही पाइप से जल और उचित स्वच्छता की सुविधा उपलब्ध है, जिससे स्वास्थ्य संबंधी गंभीर जोखिम पैदा होते हैं।
  • खराब आवास और भीड़भाड़: झुग्गी-झोपड़ियों में आवास आमतौर पर अस्थायी और खराब गुणवत्ता के होते हैं, जैसे टिन के शेड या प्लास्टिक के टेंट, जो प्राकृतिक आपदाओं के प्रति संवेदनशील होते हैं।
    • भीड़भाड़ सामान्य है, जहाँ प्रति कमरे में 3-4 लोग रहते हैं, जिससे आवासीय स्थिति खराब होती है और तपेदिक जैसी बीमारियों का प्रसार बढ़ता है।
  • अपर्याप्त स्वच्छता और अपशिष्ट प्रबंधन: कई झुग्गी-झोपड़ियों में उचित सीवेज सिस्टम का अभाव है, जिससे निवासियों को खुले में शौच और अव्यवस्थित अपशिष्ट निपटान करना पड़ता है।
    • धारावी जैसे क्षेत्रों में, प्रति 1,440 लोगों पर एक शौचालय है, जिससे स्वच्छता संबंधी समस्याएँ और भी बदतर हो जाती हैं।
    • खराब जल निकासी और आर्द्रभूमि पर अतिक्रमण कोलकाता जैसे शहरों में बाढ़ के जोखिम को बढ़ा देते हैं।
  • स्वास्थ्य सेवाओं तक सीमित पहुँच: झुग्गी-झोपड़ियों में स्वास्थ्य सेवाएँ प्रायः अपर्याप्त होती हैं, जिससे निवासियों की चिकित्सा सेवाओं तक पहुँच सीमित हो जाती है।
    • रिपोर्टों के अनुसार, कि 50% झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों के पास स्वास्थ्य सेवाओं तक आसान पहुँच नहीं है, जिससे मातृ एवं शिशु मृत्यु दर उच्च है।
  • अनिश्चित रोजगार और आजीविका: अधिकतर झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोग अनौपचारिक क्षेत्र में कार्य करते हैं, जहाँ उन्हें कम वेतन, नौकरी की अनिश्चितता और खराब कामकाजी परिस्थितियाँ मिलती हैं।
    • वे मुख्य रूप से निर्माण, घरेलू कार्य या स्ट्रीट वेंडर्स के रूप में कार्य करते हैं, जहाँ उन्हें शोषण और सामाजिक सुरक्षा का अभाव झेलना पड़ता है।
  • सामाजिक बहिष्कार और भेदभाव: झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों को सामाजिक उपेक्षा का सामना करना पड़ता है और प्रायः उनकी आर्थिक और जीवन स्थितियों के कारण उन्हें मुख्यधारा के समाज से अलग कर दिया जाता है।
    • हाशिए पर स्थित समूहों, विशेषतः दलितों और महिलाओं को जाति तथा लैंगिक आधार पर अतिरिक्त भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
  • प्राकृतिक आपदाओं और बेदखली के प्रति संवेदनशीलता: झुग्गी-झोपड़ियाँ प्रायः बाढ़-प्रवण या भूकंप-प्रवण क्षेत्रों में स्थित होती हैं, जिससे वे प्राकृतिक आपदाओं के प्रति संवेदनशील हो जाती हैं।
    • इसके अतिरिक्त, झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले कई लोग बिना किसी सुरक्षा के रहते हैं, जिससे उन्हें अधिकारियों द्वारा जबरन बेदखल किए जाने का खतरा बना रहता है, क्योंकि उनके पास प्रायः जमीन के कानूनी अधिकार नहीं होते।
  • जलवायु परिवर्तन का प्रभाव: गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना नदियों में बाढ़ के प्रवाह में अनुमानित वृद्धि: वर्ष 1986-2005 की तुलना में 8% (1.5°C), 24% (2°C), 63% (4°C)

भारत में स्लम पुनर्विकास की चुनौतियाँ

  • भूमि स्वामित्व और कानूनी मुद्दे: कई झुग्गीवासियों के पास जमीन का कानूनी हक नहीं होता है, जिससे बेदखली, पुनर्वास और पुनर्विकास की प्रक्रिया में बाधा आ रही है। इससे प्रायः विवाद और देरी होती है।
    • उदाहरण के लिए, बॉम्बे उच्च न्यायालय ने हाल ही में मुंबई विश्वविद्यालय के लिए अधिग्रहीत भूमि पर झुग्गी पुनर्वास प्राधिकरण (Slum Rehabilitation Authority- SRA) की एक परियोजना पर रोक लगा दी, जिसमें अतिक्रमण और अस्पष्ट भूमि स्वामित्व के मुद्दों को उजागर किया गया।
  • वित्तीय बाधाएँ: झुग्गी पुनर्विकास के लिए महत्त्वपूर्ण निवेश की आवश्यकता होती है, लेकिन प्रायः धन अपर्याप्त होता है और निजी निवेशक कम रिटर्न और संभावित जोखिमों के कारण इसमें भाग लेने से हिचकिचाते हैं।
  • झुग्गीवासियों का प्रतिरोध: झुग्गी-झोपड़ी निवासी प्रायः सामुदायिक संबंधों, आजीविका और सांस्कृतिक पहचान के नुकसान के कारण स्थानांतरण का विरोध करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप सामाजिक अशांति और कानूनी चुनौतियाँ पैदा होती हैं।
  • अपर्याप्त बुनियादी ढाँचा: पुनर्विकास के बाद भी, झुग्गी-झोपड़ियों में बुनियादी स्वच्छता, जल आपूर्ति और जल निकासी व्यवस्था का अभाव हो सकता है, जो आवास परियोजनाओं की प्रभावशीलता को कमजोर करता है।
    • दिल्ली में, शहरी गरीबों के लिए प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत बनाए गए लगभग 47% घर जल की आपूर्ति और स्वच्छता जैसी बुनियादी सुविधाओं के अभाव के कारण खाली पड़े हैं।
  • राजनीतिक और नौकरशाही विलंब: राजनीतिक हस्तक्षेप और नौकरशाही की अक्षमताएँ पुनर्विकास प्रक्रिया को धीमा कर देती हैं, स्थानीय राजनीतिक शक्तियाँ प्रायः मतदाताओं की चिंताओं के कारण बदलावों का विरोध करती हैं।
  • जनजातीयकरण और विस्थापन: पुनर्विकास से जनजातीयकरण हो सकता है, जहाँ धनी निवासी मूल झुग्गी निवासियों का स्थान ले लेते हैं, जिससे विस्थापन होता है और सामाजिक असमानता बढ़ती है।
    • महाराष्ट्र सरकार और अडानी समूह के बीच एक संयुक्त उद्यम, धारावी पुनर्विकास परियोजना (Dharavi Redevelopment Project) के तहत, मुंबई की धारावी झुग्गी बस्ती के लगभग 1,00,000 निवासियों को अत्यधिक विषैले ‘देवनार डंपिंग ग्राउंड’ में स्थानांतरित किया जाना है।

भारत में मलिन बस्ती विकास के लिए सरकारी पहल और नीतियाँ

  • स्लम क्षेत्र (सुधार एवं निकासी) अधिनियम, 1956: इस आधारभूत कानून नेस्लम उन्मूलन’ के बजाय सुधार की ओर रुख अपनाया और स्लम बस्तियों को विकास की आवश्यकता वाले क्षेत्रों के रूप में मान्यता दी। इसका उद्देश्य जीवन स्तर में सुधार और किरायेदारों को बेदखली से बचाने के लिए कानूनी ढाँचा प्रदान करना था।
  • प्रधानमंत्री आवास योजना (Pradhan Mantri Awas Yojana- PMAY): वर्ष 2015 में शुरू की गई, PMAY का उद्देश्य वर्ष 2022 तक स्लमवासियों सहित सभी के लिए वहनीय आवास उपलब्ध कराना है।
    • इस योजना का लक्ष्य शहरी गरीबों के लिए 2 करोड़ घरों का निर्माण करना है, जिसमें स्लम पुनर्वास और बुनियादी सुविधाएँ प्रदान करने पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा।
  • राष्ट्रीय स्लम विकास कार्यक्रम (National Slum Development Programme- NSDP): वर्ष 1996 में शुरू की गई, NSDP का उद्देश्य स्लम क्षेत्रों में जल आपूर्ति, स्वच्छता और जल निकासी जैसी बुनियादी सेवाएँ प्रदान करना है।
    • यह भारत भर की स्लम बस्तियों में आश्रय और सामुदायिक बुनियादी ढाँचे के सुधार में भी सहायता करता है।
  • वाल्मीकि अंबेडकर मलिन बस्ती आवास योजना (Valmiki Ambedkar Malin Basti Awas Yojana- VAMBAY): वर्ष 2001 में शुरू की गई, VAMBAY का उद्देश्य झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों, विशेषतः हाशिए पर रहने वाले समुदायों को आवास उपलब्ध कराना था।
    • यह योजना शहरी झुग्गी-झोपड़ियों में घरों और बुनियादी ढाँचे के निर्माण के लिए सब्सिडी प्रदान करती है।
  • अटल कायाकल्प और शहरी परिवर्तन मिशन (Atal Mission for Rejuvenation and Urban Transformation- AMRUT): वर्ष 2015 में शुरू की गई, AMRUT विशेष रूप से झुग्गी-झोपड़ियों वाले क्षेत्रों में जलापूर्ति, सीवरेज और शहरी परिवहन जैसे शहरी बुनियादी ढाँचे के विकास पर केंद्रित है।
    • इसका उद्देश्य झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों सहित सभी नागरिकों को बुनियादी सेवाएँ प्रदान करके शहरों में जीवन की गुणवत्ता में सुधार करना है।
  • स्मार्ट सिटी मिशन: वर्ष 2015 में शुरू की गई, स्मार्ट सिटी मिशन का उद्देश्य शहरों को अधिक सतत् और समावेशी बनाना है।
    • झुग्गी-झोपड़ियों का पुनर्विकास एक प्रमुख घटक है, क्योंकि इसका उद्देश्य शहरी नवीनीकरण प्रक्रिया के हिस्से के रूप में झुग्गी-झोपड़ियों वाले क्षेत्रों में बुनियादी ढाँचे में सुधार और गुणवत्तापूर्ण आवास प्रदान करना है।

भारत में झुग्गी-झोपड़ी विकास और बाढ़ की संवेदनशीलता के लिए आगे की राह

  • उन्नत स्लम पुनर्विकास नीतियाँ: आवास, बुनियादी ढाँचे और बाढ़ के प्रति लचीलेपन में सुधार पर केंद्रित अधिक लक्षित स्लम पुनर्विकास नीतियों को लागू करना।
    • इसमें सतत् शहरी नियोजन तकनीकों का उपयोग और स्लम पुनर्वास को प्राथमिकता देना शामिल है।
  • किफायती आवास पहल: बाढ़-प्रवण क्षेत्रों में अधिक वहनीय आवास और बुनियादी ढाँचा प्रदान करने के लिए प्रधानमंत्री आवास योजना (Pradhan Mantri Awas Yojana- PMAY) जैसी योजनाओं का विस्तार करना, यह सुनिश्चित करते हुए कि ये घर जलवायु-प्रतिरोधी हों।
  • बाढ़ अनुकूलन और लचीलापन रणनीतियाँ: प्राकृतिक आपदाओं से संवेदनशील स्लम क्षेत्रों की रक्षा के लिए जल निकासी प्रणालियों, तटबंधों और तूफानी जल प्रबंधन में सुधार करके बाढ़ शमन रणनीतियों पर ध्यान केंद्रित करना।
  • व्यापक डेटा और कमजोरियों का मानचित्रण: बाढ़ की आशंका वाले उच्च-जोखिम वाले स्लम क्षेत्रों की पहचान करने के लिए उपग्रह डेटा और उन्नत मानचित्रण उपकरणों का उपयोग करना, जिससे लक्षित हस्तक्षेप और तैयारी के उपाय संभव हो सके।
  • नियोजन में सामुदायिक भागीदारी में वृद्धि: शहरी नियोजन और बाढ़ प्रतिरोधक रणनीतियों में झुग्गी-झोपड़ी समुदायों को शामिल करना, यह सुनिश्चित करते हुए कि उनकी आवश्यकताओं और दृष्टिकोणों को निर्णय लेने में, विशेष रूप से पुनर्विकास परियोजनाओं में, शामिल किया जाए।
  • स्थायी आजीविका को बढ़ावा: झुग्गी-झोपड़ी निवासियों के लिए बेहतर आजीविका के अवसर सृजित करना, औपचारिक रोजगार, कौशल विकास और वित्तीय सहायता तक उनकी पहुँच पर ध्यान केंद्रित करना ताकि गरीबी तथा सामाजिक-आर्थिक असमानताओं के प्रति उनकी संवेदनशीलता कम हो सके।
  • भूमि स्वामित्व के लिए कानूनी ढाँचे को सुदृढ़ बनाना: झुग्गी-झोपड़ी निवासियों को कानूनी भूमि स्वामित्व प्रदान करना ताकि स्वामित्व की सुरक्षा सुनिश्चित हो, उन्हें जबरन बेदखली से बचाया जा सके और उन्हें सरकारी योजनाओं तथा सुरक्षाओं तक पहुँच प्राप्त करने में सक्षम बनाया जा सके।

निष्कर्ष 

भारत के बाढ़-प्रवण क्षेत्रों, विशेष रूप से गंगा-ब्रह्मपुत्र डेल्टा में, 158 मिलियन झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोग, तेजी से हो रहे शहरीकरण, गरीबी और जलवायु परिवर्तन के कारण गंभीर संकटों का सामना कर रहे हैं। सतत् शहरी विकास के लिए लचीले बुनियादी ढाँचे, किफायती आवास और सामुदायिक भागीदारी को एकीकृत करने वाली व्यापक नीतियाँ अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं।


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