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पेरिस समझौते के 10 वर्ष

Lokesh Pal October 31, 2025 02:39 31 0

संदर्भ

वर्ष 2015 के पेरिस समझौते के दस वर्ष बाद भी, कार्बन उत्सर्जन और जलवायु आपदाएँ बढ़ रही हैं, फिर भी इसने स्वच्छ ऊर्जा की ओर वैश्विक रुझान को गति प्रदान की है, जिससे यह पता चलता है कि संयुक्त वैश्विक प्रयास जलवायु परिणामों को परिवर्तित कर सकते हैं।

पेरिस समझौते की पृष्ठभूमि-क्योटो से वैश्विक जलवायु उत्तरदायित्व का विकास

  • क्योटो प्रोटोकॉल की विरासत: वर्ष 1997 में अपनाए गए क्योटो प्रोटोकॉल ने वर्ष 1992 के UNFCCC के समानता और साझा लेकिन विभेदित जिम्मेदारियों (CBDR) के सिद्धांतों को लागू किया।
    • इस व्यवस्था के अंतर्गत विकसित देशों पर उत्सर्जन में कटौती के लिए बाध्यकारी दायित्व लागू किए गए, जबकि विकासशील देशों ने अपनी राष्ट्रीय क्षमताओं और संसाधनों के अनुरूप स्वैच्छिक योगदान प्रस्तुत किया।।

  • पेरिस समझौते में परिवर्तन: हालाँकि, भू-राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तनों विशेषकर चीन जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं के उदय ने विकसित देशों को एक सार्वभौमिक ढाँचे के लिए प्रेरित किया।
    • पेरिस समझौते (2015) ने क्योटो के कठोर लक्ष्यों को स्वैच्छिक, राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित कार्यों से बदल दिया, जिससे समावेशिता तो सुनिश्चित हुई, लेकिन ऐतिहासिक उत्सर्जकों के लिए जवाबदेही कम हो गई।
  • विभेदीकरण का कमजोर होना: जहाँ क्योटो ने औद्योगिक देशों के लिए स्पष्ट जिम्मेदारियाँ निर्धारित कीं, वहीं पेरिस मॉडल ने सभी देशों से ‘राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित’ महत्त्वाकांक्षाओं के अनुसार कार्य करने को कहा, जिससे विकसित देशों को उत्सर्जन में कटौती के सख्त दायित्वों से प्रभावी रूप से मुक्ति मिल गई।
  • परिणामी अंतराल: यह परिवर्तन, हालाँकि राजनीतिक रूप से व्यावहारिक था, कई देशों की महत्त्वाकांक्षाओं को न्यूनतम स्तर पर ले गया। कई देशों द्वारा केवल आधारभूत प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के साथ, वैश्विक कार्रवाई अब तापमान वृद्धि को 1.5°C के भीतर रखने के लिए आवश्यक कार्रवाई से कम है।

पेरिस समझौते के बारे में

  • कानूनी आधार: COP-21 (पेरिस, 2015) में 195 पक्षों द्वारा अपनाई गई एक कानूनी रूप से बाध्यकारी संधि, जो 4 नवंबर, 2016 से लागू है और संयुक्त राष्ट्र महासचिव के अधीन संयुक्त राष्ट्र संधि निक्षेपागार द्वारा अनुसमर्थन की निगरानी की जा रही है।
  • मुख्य तापमान लक्ष्य: वैश्विक तापमान वृद्धि को 2°C से नीचे सीमित करने और 1.5°C तक पहुँचने का लक्ष्य, क्योंकि इस न्यूनतम सीमा को पार करने पर गंभीर सूखे, लू और बाढ़ का खतरा होता है।
  • वैज्ञानिक तात्कालिकता: IPCC ने चेतावनी दी है कि 1.5°C से नीचे रहने के लिए, उत्सर्जन वर्ष 2025 से पहले चरम पर पहुँचना चाहिए और वर्ष 2030 तक 43% कम होना चाहिए, जिसके लिए तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता है।
  • सार्वभौमिक भागीदारी: पहली बार, सभी देश शमन और अनुकूलन के लिए एक साझा कानूनी ढाँचे पर सहमत हुए, जिसमें वैश्विक महत्त्वाकांक्षा तथा राष्ट्रीय अनुकूलन के बीच संतुलन स्थापित किया गया।
  • परिचालन चक्र (NDC ढाँचा): पाँच-वर्षीय रैचेट चक्र’ पर कार्य करता है, जहाँ राष्ट्र विज्ञान द्वारा निर्देशित उत्तरोत्तर उच्चतर लक्ष्यों के साथ राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC) प्रस्तुत करते हैं।
  • दीर्घकालिक रणनीतियाँ (LT-LEDS): राष्ट्रों को अल्पकालिक NDCs को स्थायी और नेट-जीरो लक्ष्यों से जोड़ते हुए दीर्घकालिक निम्न-उत्सर्जन रणनीतियों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करता है।
  • समर्थन संरचना: वित्त, प्रौद्योगिकी और क्षमता निर्माण के लिए प्रावधान करता है, जिसमें विकसित राष्ट्र शमन के लिए धन प्रदान करते हैं और विकासशील राष्ट्र अनुकूलन हेतु समर्थन प्राप्त करते हैं।
  • पारदर्शिता और वैश्विक योगदान: उन्नत पारदर्शिता ढाँचे (ETF) के माध्यम से, देश वर्ष 2024 से प्रगति की रिपोर्ट करते हैं, जो सामूहिक महत्त्वाकांक्षा का आकलन करने और उसे बढ़ाने के लिए पाँच-वर्षीय वैश्विक योजना में योगदान देता है।

प्रमुख उपलब्धियाँ

  • वैश्विक तापमान वृद्धि संबंधी लक्ष्य: वैश्विक तापमान वृद्धि का अनुमानित लक्ष्य वर्ष 2015 में 4-5°C से घटकर वर्ष 2025 में लगभग 2-3°C रह गया है। यह दर्शाता है कि अंतरराष्ट्रीय सहयोग और नीतियों का बेहतर तालमेल जलवायु परिवर्तन की दिशा को प्रभावित कर सकता है।
  • नवीकरणीय क्रांति: सौर और पवन ऊर्जा की लागत में लगभग 80% की गिरावट आई है, जिससे अधिकांश अर्थव्यवस्थाओं में नवीकरणीय ऊर्जा, जीवाश्म ईंधन से सस्ती हो गई है (IRENA 2024)।
  • नेट-जीरो प्रतिबद्धताओं का उदय: 140 से अधिक देशों ने नेट-जीरो लक्ष्यों की घोषणा की है, जलवायु लक्ष्यों को दीर्घकालिक राष्ट्रीय विकास एजेंडा में एकीकृत किया है।
  • इलेक्ट्रिक मोबिलिटी: बैटरी तकनीक में प्रगति और ऊर्जा भंडारण प्रणालियों की घटती लागत के कारण, इलेक्ट्रिक वाहन अब वैश्विक कार बिक्री का लगभग 20% हिस्सा हैं।
  • वैश्विक निवेश परिवर्तन: स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकियों में वार्षिक निवेश 1 ट्रिलियन डॉलर को पार कर गया है, जो वैश्विक आर्थिक और औद्योगिक परिदृश्य में एक ऐतिहासिक परिवर्तन का संकेत है।

पेरिस समझौते और COP बैठकों की प्रमुख उपलब्धियाँ (2015-2025)

COP और वर्ष स्थान प्रमुख परिणाम और उपलब्धियाँ
COP21 (2015) पेरिस, फ्राँस 195 पक्षों द्वारा कानूनी रूप से बाध्यकारी पेरिस समझौते को अपनाना; वैश्विक तापमान लक्ष्य को 2°C से नीचे रखना तथा इसे 1.5°C तक सीमित रखने के प्रयास; राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDCs) की शुरुआत; महत्त्वाकांक्षा बढ़ाने के लिए पाँच-वर्षीय चक्र की स्थापना; समानता और सामान्य लेकिन विभेदित जिम्मेदारियों (CBDR) को मान्यता देना।
COP22 (2016) मराकेश, मोरक्को सरकारों, व्यवसायों और नागरिक समाज को जोड़ने के लिए वैश्विक जलवायु कार्रवाई के लिए मराकेश साझेदारी की शुरुआत; कार्यान्वयन के लिए पेरिस नियम पुस्तिका विकसित करने की समय सीमा पर सहमति।
COP23 (2017) बॉन, जर्मनी (फिजी की अध्यक्षता में) कार्यान्वयन के लिएफिजी मोमेंटम’ का शुभारंभ; लघु द्वीपीय विकासशील राज्यों के लिए अनुकूलन पर बल; जलवायु वित्त संबंधी प्रगति।
COP24 (2018) कैटोविस, पोलैंड पेरिस समझौते के क्रियान्वयन के लिए परिचालन दिशा-निर्देशों की रूपरेखा तैयार करने वाली कैटोविस जलवायु नियम पुस्तिका को अपनाना; NDC, पारदर्शिता और वैश्विक स्टॉकटेक के लिए नियमों को अंतिम रूप देना; श्रमिकों के लिए एक न्यायोचित संक्रमण ढाँचे को शामिल करना।
COP25 (2019) मैड्रिड, स्पेन पेरिस लक्ष्यों के प्रति वैश्विक प्रतिबद्धता की पुनः पुष्टि; कार्बन बाजारों पर सीमित प्रगति (अनुच्छेद-6); महासागर-जलवायु संबंध को कार्रवाई के एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र के रूप में मान्यता।
COP26 (2021) ग्लासगो, यूनाइटेड किंगडम ग्लासगो जलवायु समझौते को अपनाना; कोयले के निरंतर उपयोग को कम करने और जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को समाप्त करने का पहला वैश्विक आह्वान; 1.5 डिग्री सेल्सियस लक्ष्य की पुनः पुष्टि; वर्ष 2070 तक भारत के नेट जीरो की घोषणा और पंचामृत रणनीति।
COP27 (2022) शर्म अल-शेख, मिस्र निर्धन राष्ट्रों के लिएलॉस एंड डैमेज’ फंड की स्थापना; न्यायोचित संक्रमण मार्गों की पहचान; 1.5°C लक्ष्य के साथ संरेखित करने के लिए वर्ष 2023 तक NDCs की पुनः समीक्षा करने और उसे मजबूत करने का निर्णय।
COP28 (2023) दुबई, संयुक्त अरब अमीरात प्रथम वैश्विक स्टॉकटेक (GST) का समापन; जीवाश्म ईंधन के प्रयोग को समाप्त करने की आवश्यकता की मान्यता; 700 मिलियन डॉलर से अधिक की प्रतिज्ञा के साथ हानि एवं क्षति निधि का संचालन।
COP29 (2024) बाकू, अजरबैजान वर्ष 2025 के बाद 100 बिलियन डॉलर के वार्षिक वित्त लक्ष्य को प्रतिस्थापित करने के लिए नए सामूहिक परिमाणित लक्ष्य (NCQG) पर समझौता; उन्नत अनुकूलन वित्तपोषण और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण तंत्र पर ध्यान केंद्रित करना।
COP30 (2025) बेलेम, ब्राजील पेरिस समझौते के 10 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में; प्रथम GST परिणामों की समीक्षा; बहुपक्षवाद की पुनः पुष्टि; पाँच वैश्विक प्राथमिकताओं पर बल अर्थात् उत्सर्जन में कमी, न्यायोचित परिवर्तन, प्राकृतिक सिंकों का संरक्षण, गैर-राज्य अभिकर्ताओं का सशक्तीकरण तथा जलवायु संरक्षण

पेरिस समझौते का महत्त्व

  • बहुपक्षीय सफलता: यह समझौता पहला कानूनी रूप से बाध्यकारी, सार्वभौमिक ढाँचा है, जो सभी पक्षों को एक साझा वैज्ञानिक और नैतिक दायित्व के तहत एक साथ लाता है।
  • समानता और विभेदीकरण: यह साझा लेकिन विभेदित उत्तरदायित्वों (CBDR) को क्रियान्वित करता है, जिससे राष्ट्रीय संदर्भों में अनुकूलन संभव होता है और साथ ही वैश्विक जवाबदेही भी सुनिश्चित होती है।
  • आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन: कार्यान्वयन के लिए गहन आर्थिक और सामाजिक पुनर्गठन, नवाचार को प्रोत्साहन, हरित रोजगार और सतत् बुनियादी ढाँचे की आवश्यकता है।
  • संस्थागत प्रगति: हरित जलवायु कोष, लॉस एंड डैमेज’ फंड और प्रौद्योगिकी तंत्र जैसे तंत्र वैश्विक एकजुटता और पारदर्शिता को मजबूत करते हैं।
  • बाजार में बदलाव के प्रमाण: शून्य-कार्बन समाधान, अब सभी क्षेत्रों में लागत-प्रतिस्पर्द्धी हैं, जो वैश्विक उत्सर्जन का 25% शामिल करते हैं और वर्ष 2030 तक इसके 70% तक बढ़ने की उम्मीद है, जो अपरिवर्तनीय गति दर्शाता है।

पेरिस समझौते के लिए उभरती चुनौतियाँ

  • तापमान वृद्धि की सीमा से अधिक वृद्धि और कमजोर कार्यान्वयन: वैश्विक उत्सर्जन 2.7°C के लक्ष्य पर बना हुआ है, जो पेरिस समझौते की 1.5°C सीमा से अधिक है, क्योंकि कई देश अपने NDCs को अद्यतन करने या पूर्ण करने में देरी कर रहे हैं, जो बाध्यकारी अनुपालन तंत्रों के अभाव और वैश्विक कार्बन-मुक्ति प्रयासों के कमजोर होने को दर्शाता है।
  • वित्तीय घाटा और कमजोर प्रतिबद्धताएँ: विकासशील देशों को वर्ष 2030 तक वार्षिक रूप से लगभग 6 ट्रिलियन डॉलर की आवश्यकता है, पुनः वित्तीय प्रवाह अपर्याप्त बना हुआ है।
    • बाकू समझौते (2025) ने लंबे समय से संचालित 100 बिलियन डॉलर के लक्ष्य को वर्ष 2035 से बढ़ाकर केवल 300 बिलियन डॉलर कर दिया, जबकि NCQG के तहत धन स्रोतों, योगदानकर्ताओं और अनुदान-ऋण संतुलन पर विवादों ने जलवायु वित्त सुधार को रोक दिया।
  • असमान बोझ और विश्वास का क्षरण: वैश्विक दक्षिण (विशेष रूप से दक्षिण एशिया, अफ्रीका और छोटे द्वीपीय राष्ट्र) न्यूनतम उत्सर्जन के बावजूद सर्वाधिक जलवायु क्षति का सामना कर रहे हैं, जबकि विकसित देशों द्वारा ऐतिहासिक जिम्मेदारी को कम करने के प्रयास और अमेरिका की एक और वापसी की संभावना बहुपक्षीय तंत्रों में अविश्वास को गहरा कर रही है।
  • तकनीकी और संस्थागत अवरोध: अनुच्छेद-6 के अंतर्गत संगत समायोजन और आय के हिस्से से संबंधित अनसुलझे मुद्दे कार्बन बाजार के संचालन को अवरुद्ध करते हैं; अनुकूलन पर वैश्विक लक्ष्य में मापनीय संकेतकों का अभाव है; और कमजोर पारदर्शिता ढाँचे जवाबदेही तथा प्रभावी प्रगति मूल्यांकन में बाधा डालते हैं।
  • भू-आर्थिक और व्यापारिक घर्षण: यूरोपीय संघ का CBAM विकासशील देशों के लिए गैर-टैरिफ बाधाओं के रूप में कार्य करते हुए कार्बन टैरिफ आरोपित करता है; अमेरिकी मुद्रास्फीति न्यूनीकरण अधिनियम (IRA) ने हरित सब्सिडी की प्रतिस्पर्द्धा को बढ़ावा दिया है, जिससे भारत की PLI योजनाएँ प्रेरित हुई हैं।
    • साथ ही, लीथियम, कोबाल्ट और निकल जैसे महत्त्वपूर्ण खनिजों के लिए प्रतिस्पर्द्धा ने वैश्विक संसाधन भू-राजनीति को नया रूप दिया है।
  • घरेलू परिवर्तन और राजकोषीय दबाव (भारत): भारत वर्तमान में कोयला-निर्भर क्षेत्रों में न्यायोचित ऊर्जा संक्रमण सुनिश्चित करने तथा इस्पात और सीमेंट जैसे कठिन-से-न्यूनीकृत क्षेत्रों के डीकार्बोनाइजेशन की दोहरी चुनौतियों का सामना कर रहा है, क्योंकि कार्बन कैप्चर, उपयोग और भंडारण (CCUS) और हरित हाइड्रोजन की उच्च लागत, सीमित राजकोषीय संभावना के साथ हरित बजट, कार्बन मूल्य निर्धारण और हरित बॉण्ड जैसे नवीन वित्तपोषण की माँग करती है।
  • कानूनी, नैतिक और सूचना संबंधी चुनौतियाँ: वानुआतु के नेतृत्व वाला संयुक्त राष्ट्र महासभा प्रस्ताव (2024), अंतरराष्ट्रीय न्यायालय की सलाहकार राय माँगता है, जो जलवायु दायित्वों को मानवाधिकारों और अंतर-पीढ़ीगत न्याय से जोड़ता है, लेकिन जलवायु परिवर्तन से जुड़ी गलत जानकारी और विज्ञान का राजनीतीकरण साक्ष्य-आधारित नीतियों तथा वैश्विक सहमति को कमजोर कर देता है।

पेरिस समझौते पर विकसित, विकासशील और अल्प-विकसित देशों के अलग-अलग दृष्टिकोण

आयाम विकसित देश विकासशील देश अल्प-विकसित देश (LDC)
उत्तरदायित्व और ऐतिहासिक संदर्भ पेरिस मॉडल को क्योटो प्रोटोकॉल के बाध्यकारी दायित्वों से हटकर सभी देशों को शामिल करने वाले एक अनुकूलित, सार्वभौमिक ढाँचे की ओर एक परिवतन के रूप में देखना। साझा लेकिन विभेदित जिम्मेदारियों (CBDR) पर जोर देते हुए तर्क देना कि विकसित देशों को पिछले उत्सर्जन के कारण अभी भी प्राथमिक बोझ उठाना होगा। ऐतिहासिक अन्याय को उजागर करते हुए कहा कि उन्होंने सबसे कम योगदान दिया है, लेकिन सर्वाधिक जलवायु प्रभावों का सामना कर रहे हैं।
मुख्य प्राथमिकताएँ आर्थिक नेतृत्व को बनाए रखने के लिए तकनीकी नवाचार, कार्बन बाजार और हरित प्रतिस्पर्द्धा पर ध्यान केंद्रित करना। विकास को जलवायु लक्ष्यों के साथ संतुलित करने का लक्ष्य रखना, ऊर्जा पहुँच, गरीबी उन्मूलन और सतत् विकास को प्राथमिकता देना। अनुकूलन और लचीलेपन पर ध्यान केंद्रित करना, क्योंकि जीवित रहना उनकी सबसे बड़ी चिंता है।
राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDCs) NDC को स्वैच्छिक, स्व-निर्धारित प्रतिबद्धताओं के रूप में मानना; बाह्य निगरानी का विरोध करना। वित्त और प्रौद्योगिकी पहुँच से संबंधित सशर्त NDC प्रस्तुत करना; घरेलू आवश्यकताओं के अनुरूप अनुकूलन स्थापित करना। बुनियादी या समर्थन-आधारित NDC रखना, जिनके कार्यान्वयन के लिए बाहरी क्षमता-निर्माण और वित्त की आवश्यकता हो।
जलवायु वित्त और समता सीमित धनराशि प्रदान करना; 100 अरब डॉलर की प्रतिबद्धता अभी भी अधूरा है; बाकू, 2025 समझौता (वर्ष 2035 से 300 अरब डॉलर) मामूली महत्त्वाकांक्षा को दर्शाता है। पूर्वानुमानित, रियायती वित्त और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण की माँग करना; इस बात पर जोर देना कि शमन और अनुकूलन के लिए प्रतिवर्ष खरबों डॉलर की आवश्यकता है। अनुकूलन और हानि एवं क्षति क्षतिपूर्ति के लिए अनुदान-आधारित वित्त की माँग न्याय के रूप में करना, सहायता के रूप में नहीं।
प्रौद्योगिकी और क्षमता निर्माण बौद्धिक संपदा और वाणिज्यिक नवाचार मॉडलों को प्राथमिकता देना; बाजार-संचालित साझेदारियों को प्राथमिकता देना। संयुक्त राष्ट्र तंत्र और सहयोगात्मक अनुसंधान एवं विकास के अंतर्गत मुक्त-स्रोत प्रौद्योगिकी हस्तांतरण की वकालत करना। प्रशिक्षण और दीर्घकालिक रखरखाव सहायता के साथ किफायती, उपयोग के लिए तैयार समाधानों की आवश्यकता है।
विश्वास, न्याय और बहुपक्षवाद पेरिस समझौते को समावेशी मानते हैं, लेकिन प्रायः प्रतिबद्धता पूर्ण नहीं कर पाते, जिससे संशय बढ़ता है। अधूरी प्रतिबद्धताओं और CBDR सिद्धांतों के कमजोर पड़ने पर बढ़ते अविश्वास को व्यक्त करना। बहिष्कृत और निराश महसूस करना, जवाबदेही के लिए ICJ (वानुअतु 2024) जैसे कानूनी मंचों का रुख करना।
COP30 और उसके बाद की अपेक्षाएँ नियम-आधारित पारदर्शिता और वैश्विक कार्बन बाजारों के विस्तार पर जोर देना। मजबूत जलवायु वित्त व्यवस्था, न्यायसंगत प्रतिनिधित्व और संक्रमण ढाँचे की माँग करना। कानूनी रूप से लागू करने योग्य वित्तीय प्रतिबद्धताओं, त्वरित वितरण और जलवायु क्षतिपूर्ति की मान्यता की माँग करना।

भारत की उपलब्धियाँ और भूमिका

  • त्वरित नवीकरणीय क्षमता: भारत ने अपने वर्ष 2030 के लक्ष्य से पाँच वर्ष पहले ही गैर-जीवाश्म स्रोतों से स्थापित ऊर्जा क्षमता का 50% प्राप्त कर लिया है, जिससे हरित परिवर्तन में उसकी अग्रणी भूमिका प्रदर्शित होती है।
  • नेट जीरो प्रतिबद्धता: भारत ने वर्ष 2047 तक कम कार्बन उत्सर्जन वाले विकसित भारत (विकसित भारत) के दृष्टिकोण के अनुरूप, वर्ष 2070 तक नेट जीरो उत्सर्जन प्राप्त करने का संकल्प लिया है।
  • अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA): COP-21 में फ्राँस के साथ सह-स्थापित, ISA के अब 120 से अधिक सदस्य हैं, जो विकासशील देशों को सौर प्रौद्योगिकी, वित्त और क्षमता निर्माण सहायता प्रदान कर उन्हें सशक्त बना रहे हैं।
  • आपदा-प्रतिरोधी अवसंरचना: आपदा-प्रतिरोधी अवसंरचना गठबंधन (CDRI) के माध्यम से, भारत जलवायु अनुकूलन और सुदृढ़ अवसंरचना नियोजन में वैश्विक प्रयासों का नेतृत्व करता है।
  • नीतिगत नवाचार: हरित हाइड्रोजन मिशन, पीएम-कुसुम योजना और बैटरी ऊर्जा भंडारण मिशन जैसी राष्ट्रीय पहल भारत की आर्थिक विकास और जलवायु उत्तरदायित्व की संतुलित रणनीति को दर्शाती हैं।

हालिया COP विकासों के बारे में

  • बेलेम (ब्राजील, 2025) में COP30: पहली वैश्विक समीक्षा के माध्यम से वैश्विक प्रगति की समीक्षा के लिए एक निर्णायक क्षण चिह्नित किया गया, जिसमें आंशिक सफलता प्राप्त आई और नई महत्त्वाकांक्षा का आह्वान किया गया।
  • भारत-फ्राँस जलवायु नेतृत्व: दोनों देशों ने न्यायसंगत परिवर्तन, जलवायु वित्त सुधारों और अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA) तथा आपदा रोधी अवसंरचना गठबंधन (CDRI) ढाँचों के माध्यम से मजबूत सहयोग पर ज़ोर देने वाले सत्रों की सह-अध्यक्षता की।
  • वैज्ञानिक सहमति: COP-30 ने IPCC की इस चेतावनी पर जोर दिया कि 1.5°C तापमान सीमा को बनाए रखने के लिए वैश्विक उत्सर्जन को वर्ष 2026 से पहले अपने चरम पर पहुँच जाना चाहिए, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि अब त्वरित और परिवर्तनकारी नीतियों की आवश्यकता है।

COP-30 और उसके बाद की प्रमुख प्राथमिकताएँ

  • वैश्विक महत्त्वाकांक्षा को बढ़ाना: देशों को ठोस उत्सर्जन कटौती, क्षेत्रीय डीकार्बोनाइजेशन मार्गों और जवाबदेही ढाँचों के साथ वर्ष 2035 तक NDC को बेहतर बनाना होगा।
  • न्यायसंगत परिवर्तन सुनिश्चित करना: समान, समावेशी और लैंगिक-संवेदनशील अनुकूलन पर ध्यान केंद्रित करना; कमजोर समुदायों को वैश्विक जलवायु न्याय के केंद्र में रहना चाहिए।
  • जलवायु वित्त का विस्तार: प्रतिज्ञाओं से आगे बढ़कर पूर्वानुमानित और नवीन वित्त पहुँच की ओर बढ़ना, जिसमें एकजुटता शुल्क तथा मिश्रित निधियाँ शामिल हों।
  • प्राकृतिक कार्बन सिंक की रक्षा करना: वनों, मैंग्रोव, पीटलैंड और महासागरों की रक्षा करना, जो बढ़ते उत्सर्जन के विरुद्ध ग्रह के महत्त्वपूर्ण कार्बन बफर हैं।
  • गैर-राज्य अभिकर्ताओं को सशक्त बनाना: शहरों, निजी क्षेत्रों, युवाओं और नागरिक समाज को जलवायु लक्ष्यों को स्थानीय बनाने और कार्यान्वित करने में अग्रणी भूमिका निभानी चाहिए।
  • वैज्ञानिक प्रयास करना: IPCC अनुसंधान, डेटा पारदर्शिता और सार्वजनिक जलवायु साक्षरता कार्यक्रमों का समर्थन करके जलवायु संबंधी समस्याओं का मुकाबला करना।

आगे की राह

  • नीति में अनुकूलन को एकीकृत करना: जलवायु अनुकूलन को राष्ट्रीय बजट, शहरी डिजाइन और आपदा प्रबंधन ढाँचों में शामिल करना।
  • प्रौद्योगिकी सहयोग: वैश्विक साझेदारियों के माध्यम से हरित हाइड्रोजन, इलेक्ट्रिक वाहनों और कार्बन कैप्चर तकनीकों में संयुक्त अनुसंधान एवं विकास का विस्तार करना।
  • सुलभ जलवायु वित्त: विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के लिए वित्तपोषण को सरल, तेज और न्यायसंगत बनाने हेतु तंत्रों में सुधार करना।
  • दक्षिण-दक्षिण सहयोग: प्रौद्योगिकी और क्षमता साझा करने के लिए ISA, CDRI और वैश्विक जैव ईंधन गठबंधन जैसे गठबंधनों को मजबूत करना।
  • प्रकृति-आधारित समाधान: शमन और आजीविका अनुकूलन के दोहरे उपकरण के रूप में पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली, वनीकरण और सतत् कृषि को बढ़ावा देना।

निष्कर्ष

पेरिस समझौता जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध मानवता का अब तक का सबसे सशक्त और व्यापक सामूहिक वैश्विक प्रयास बना हुआ है। हालाँकि चुनौतियाँ भी मौजूद हैं, लेकिन नवाचार, एकजुटता और वैश्विक जलवायु जागरूकता से प्रेरित होकर, इसमें सुधार किया जा सकता है।

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