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11वीं सदी की जैन मूर्तियाँ

Samsul Ansari January 01, 2024 12:38 196 0

संदर्भ 

हाल ही में मैसूरु जिले के वरुणा गाँव में लगभग 11वीं शताब्दी की तीन जैन मूर्तियाँ मिलीं।

संबंधित तथ्य 

  • नाले की खुदाई के दौरान तीन क्षतिग्रस्त मूर्तियाँ मिलीं। विशेषज्ञों ने उन्हें जैन मूर्तियों के रूप में पहचाना है और उन्हें इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय के ASI संग्रहालय में स्थानांतरित कर दिया गया।
  • तीन मूर्तियों में से एक इतनी क्षतिग्रस्त थी कि पहचानी भी नहीं जा सकती थी, जबकि दो अन्य अच्छी स्थिति में थीं।
    • उनमें से एक जैन तीर्थंकर की मूर्ति है, लेकिन अन्य मूर्तियों को प्रतीकों के अभाव में स्पष्ट रूप से पहचाना नहीं जा सका।
  • मैसूर के आसपास वरुणा, वरकोडु और वजमंगला सहित संपूर्ण क्षेत्र में जैन धर्म का प्रभाव था और प्राचीन तथ्यों की खोज के लिए यहाँ खुदाई की जा सकती है।

भारत में जैन तीर्थंकर की मूर्तियाँ 

  • प्रभुत्व: अधिकांश मूर्तियाँ जैन धर्म के सभी (24) तीर्थंकरों का प्रतिनिधित्व करती हैं।
  • शारीरिक स्थिति: उन्हे कमल की तरह बैठे हुए स्थिति में या ध्यान मुद्रा में खड़े होकर (खड्गासन स्थिति में) दर्शाया जाता है।
    • आमतौर पर खड्गासन स्थिति में तीर्थंकर की मूर्तियों को सबसे प्रतिष्ठित जैन मूर्तियाँ माना जाता है जिसमें उन्हें सीधे खड़े और नग्न अवस्था को दर्शाया जाता है।
  • प्रतीकवाद: इस प्रकार की मूर्तियाँ आमतौर पर कठोर तपस्या के आदर्श का प्रतिनिधित्व करती हैं, जो जैन धर्म की परंपराओं के केंद्र में है।
  • जैन मूर्तियाँ मिली हैं-
    • श्रवणबेलगोला: प्रतिष्ठित गोम्मतेश्वर प्रतिमा खड्गासन स्थिति में बाहुबली की 57 फुट ऊँची एक अखंड मूर्ति है।
    • हेलेबिदु: होयसाला मंदिरों में कई जैन तीर्थंकरों को खड्गासन में दर्शाया गया है।
    • दिलवाड़ा मंदिर: माउंट आबू के पास स्थित इन मंदिरों में कई तीर्थंकरों को खड्गासन में दिखाया गया है।

अन्य जैन मूर्तियाँ 

  • अन्य जैन मूर्तियाँ भी मिली हैं, जिनका उल्लेख जैन भक्ति ग्रंथों में मिलता है या प्राकृत भाषाओं में इन जैन मूर्तियों के शिलालेख हैं।

खड्गासन की स्थिति

  • अर्थ: खड्गासन आमतौर पर जैन प्रतिमाओं में दर्शाए गए विभिन्न महत्त्वपूर्ण आसनों में से एक है।
  • विवरण: पैरों को एक-दूसरे से लगभग दो इंच की दूरी पर रखकर खड़े होने की मुद्रा तथा हाथ स्वाभाविक रूप से अपने स्थान पर हों, लेकिन इस तरह नहीं कि वे शरीर को छू सकें।

कर्नाटक में जैन धर्म का प्रसार

  • इतिहास: तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में, आचार्य भद्रबाहु ने उत्तर भारत में बारह साल लंबे अकाल की भविष्यवाणी की और जैन संघ का प्रवास दक्षिण की ओर चला गया। जैन संघ श्रवणबेलगोला में चंद्रगिरि पहाड़ी पर रुका।
    • उनके साथ उनके शिष्य चन्द्रगुप्त मौर्य भी थे।
  • धर्म का प्रसार: भद्रबाहु को अपने जीवन के अंत का आभास हो गया था, इसलिए उन्होंने अपने शिष्यों को धर्म का प्रसार करने का निर्देश दिया तथा चंद्रगिरि में ‘सल्लेखना’ की।
    • ‘सल्लेखना’ का तात्पर्य उपवास के माध्यम से मृत्यु प्राप्त करने की स्वैच्छिक प्रथा है जिसमे आहार की मात्रा को धीरे-धीरे कम किया जाता है।
  • चंद्रगुप्त मौर्य: वे अपने गुरु के पदचिह्नों पर चलते हुए इसी पहाड़ी पर रहते रहे और बाद में उन्होंने भी सल्लेखना ले ली।
  • प्रसिद्ध स्थान: बेलगाम में जैन मंदिर, जैन बसदी परिसर और हलेबिडु मंदिर

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