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130वाँ संविधान संशोधन विधेयक, 2025

Lokesh Pal August 22, 2025 03:41 5 0

संदर्भ

हाल ही में केंद्र सरकार ने राजनीति के अपराधीकरण पर अंकुश लगाने के उद्देश्य से 130वाँ संविधान संशोधन विधेयक, 2025 प्रस्तुत किया है।

संबंधित तथ्य

  • विधेयक की संसदीय स्थिति: इस विधेयक को केंद्रशासित प्रदेश सरकार (संशोधन) विधेयक, 2025 और जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन (संशोधन) विधेयक, 2025 के साथ एक संयुक्त संसदीय समिति को भेजा गया था।
    • संसद में विधेयक को पारित करने से पूर्व, संयुक्त संसदीय समिति प्रावधानों की जाँच करेगी, विशेषज्ञ/कानूनी राय आमंत्रित करेगी और सुधारों की सिफारिश करेगी।

संयुक्त संसदीय समिति (Joint Parliamentary Committee- JPC) के बारे में

  • JPC का गठन संसद द्वारा किसी विशेष उद्देश्य के लिए किया जाता है, जैसे किसी विषय या विधेयक की विस्तृत जाँच के लिए।
  • इसमें दोनों सदनों के सदस्य होते हैं और इसका कार्यकाल समाप्त होने या इसका कार्य पूरा होने के बाद इसे भंग कर दिया जाता है।
  • JPC का अधिदेश इसके गठन के प्रस्ताव पर निर्भर करता है।
  • हालाँकि इसकी सिफारिशें प्रभावशाली होती हैं, लेकिन ये सरकार पर बाध्यकारी नहीं होतीं।

130वाँ संविधान संशोधन विधेयक, 2025 के बारे में

  • यह विधेयक प्रधानमंत्री, किसी राज्य के मुख्यमंत्री या केंद्र अथवा राज्य सरकार के किसी अन्य मंत्री को गंभीर आपराधिक मामलों में गिरफ्तार और हिरासत में लिए जाने पर पद से हटाने का प्रावधान करता है। यह विधेयक केंद्रशासित प्रदेश दिल्ली पर भी लागू होता है।
  • पृष्ठभूमि
    • गिरफ्तारी और बर्खास्तगी: वर्ष 2023 में, तमिलनाडु के मंत्री वी. सेंथिल बालाजी को कथित धन शोधन मामले में गिरफ्तार किया गया, जिसके कारण राज्यपाल आर. एन. रवि ने उन्हें मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिया।
    • मुख्यमंत्री द्वारा बहाली: सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बालाजी को जमानत दिए जाने के बाद, मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन ने उन्हें बहाल कर दिया, जिससे हिरासत के दौरान मंत्री पद के कार्यकाल पर स्पष्ट नियमों का अभाव प्रदर्शित हुआ।
    • न्यायिक हस्तक्षेप और अंतिम निष्कासन: सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी पुनर्नियुक्ति पर चिंता व्यक्त की, जिसके बाद मंत्रिमंडल फेरबदल में बालाजी को अंततः हटा दिया गया।

130वाँ संविधान संशोधन विधेयक, 2025 के प्रमुख प्रावधान

  • हिरासत के आधार पर निष्कासन: विधेयक में अनुच्छेद 75 (प्रधानमंत्री सहित केंद्रीय मंत्री), अनुच्छेद-164 (मुख्यमंत्री सहित राज्य मंत्री) और अनुच्छेद-239AA (दिल्ली के मंत्री) में संशोधन का प्रस्ताव है।
    • पाँच वर्ष या उससे अधिक कारावास की सजा वाले आरोपों में गिरफ्तार और लगातार तीस दिनों तक हिरासत में रखे गए मंत्री को पद से हटा दिया जाएगा।
      • अनुच्छेद-75 (केंद्रीय मंत्री): मंत्री राष्ट्रपति की इच्छा पर्यंत पद धारण करते हैं। लेकिन व्यवहार में, यह प्रधानमंत्री की सहायता और सलाह पर संचालित होता है; इसलिए, राष्ट्रपति किसी मंत्री को स्वतंत्र रूप से नहीं हटा सकते।
      • अनुच्छेद-164 (राज्य मंत्री): राज्य के मंत्री राज्यपाल की इच्छा पर्यंत पद धारण करते हैं। संघ की तरह, यह विवेकाधीन नहीं है; राज्यपाल मुख्यमंत्री की सलाह पर कार्य करते हैं, जिससे स्वतंत्र रूप से पद हटाने की उनकी शक्तियाँ सीमित हो जाती हैं।
      • अनुच्छेद-239AA (दिल्ली): राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के लिए विशेष प्रावधान। मुख्यमंत्री की अध्यक्षता वाली मंत्रिपरिषद, लोक व्यवस्था, पुलिस और भूमि के मामलों को छोड़कर, उपराज्यपाल को सहायता और सलाह देती है।
  • पद की स्वतः समाप्ति: यदि 31वें दिन तक राष्ट्रपति (केंद्र/दिल्ली) या राज्यपाल (राज्य) द्वारा पदच्युति की कोई औपचारिक सूचना प्राप्त नहीं होती है, तो संबंधित मंत्री स्वतः ही पद से हट जाएँगे।
  • प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों के लिए विशेष प्रावधान: यदि प्रधानमंत्री या किसी मुख्यमंत्री को गंभीर आरोपों में लगातार तीस दिनों तक हिरासत में रखा जाता है, तो उन्हें 31वें दिन तक त्याग-पत्र देना होगा।
    • स्वतः समाप्ति: त्याग-पत्र देने में विफल रहने की स्थिति में, वे अपनी नजरबंदी के 32वें दिन से स्वतः ही पद पर बने रहना छोड़ देंगे।
  • पुनर्नियुक्ति खंड: विधेयक स्पष्ट रूप से किसी प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या मंत्री, जिन्होंने इन प्रावधानों के तहत इस्तीफा दे दिया है या हटा दिए गए हैं, को हिरासत से रिहाई के बाद, नियुक्ति प्राधिकारी (राष्ट्रपति/राज्यपाल) के विवेक के अधीन, पुनर्नियुक्ति की अनुमति देता है।
  • केंद्रशासित प्रदेशों तक विस्तार: केंद्रशासित प्रदेश सरकार अधिनियम, 1963 और जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 में संशोधन के माध्यम से, इन प्रावधानों को सभी केंद्रशासित प्रदेशों तक भी विस्तारित किया गया है।

130वें संशोधन विधेयक, 2025 की आवश्यकता

  • राजनीति का बढ़ता अपराधीकरण: 40% से अधिक वर्तमान सांसदों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं, ऐसे में हिरासत में लिए गए मंत्रियों की अस्थायी अयोग्यता के स्पष्ट प्रावधानों का अभाव शासन में जनता के विश्वास को कमजोर करता है।
  • नैतिक शासन की अनिवार्यता: लंबे समय तक हिरासत में रहने वाले मंत्री सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी के सिद्धांत से समझौता करते हैं, जिससे कैबिनेट के निर्णयों की विश्वसनीयता कमजोर होती है।
  • सार्वजनिक जवाबदेही: मौजूदा व्यवस्था में अयोग्यता केवल दोषसिद्धि के बाद ही तय की जाती है, जिससे जब मंत्री मुकदमे के दौरान जेल में होते हैं, तो शासन में एक शून्यता बनी रहती है।
  • संस्थागत स्थिरता: यह विधेयक राष्ट्रपति या राज्यपालों द्वारा विवेकाधीन शक्तियों के दुरुपयोग को रोकने के लिए, निष्कासन के लिए एक स्पष्ट संवैधानिक आधार प्रदान करने का प्रयास करता है।

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संविधान सभा का दृष्टिकोण

  • के. टी. शाह का प्रस्ताव: उन्होंने रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार या नैतिक पतन से जुड़े अपराधों में दोषी पाए गए व्यक्तियों को मंत्री नियुक्त करने पर रोक लगाने का सुझाव दिया। उनका बल अनैतिक शासन के विरुद्ध संवैधानिक रूप से अनिवार्य सुरक्षा-व्यवस्था बनाने पर था।
  • बी. आर. अंबेडकर का रुख: प्रस्ताव के पीछे के उद्देश्य को स्वीकार करते हुए, अंबेडकर ने आगाह किया कि संविधान को मंत्रियों की योग्यताओं का अल्प प्रबंधन नहीं करना चाहिए, क्योंकि अत्यधिक कठोरता शासन को अव्यावहारिक बना सकती है।
    • लोकतांत्रिक जाँच-पड़ताल पर निर्भरता: उन्होंने तर्क दिया कि प्रधानमंत्री, विधानमंडल और अंततः जनता की ‘सद्‍विवेक’ (Good Sense)’ को अनैतिक नियुक्तियों के विरुद्ध सुरक्षा-व्यवस्था के रूप में कार्य करना चाहिए।
  • लोकतंत्र और ‘असंभव कार्य’
    • कठोर नियमों के विरुद्ध चेतावनी: आंबेडकर ने जोर देकर कहा कि कठोर अयोग्यता प्रावधानों को दरकिनार किया जा सकता है या उनका दुरुपयोग किया जा सकता है, जिससे लोकतंत्र की भावना कमजोर हो सकती है।
    • सार्वजनिक जीवन की पवित्रता सुनिश्चित करना: उन्होंने स्वीकार किया कि लोकतंत्र के लिए समाज को “असंभव कार्यों” को अपने कंधों पर उठाना पड़ता है, और इनमें से सबसे बड़ा कार्य सार्वजनिक जीवन में पवित्रता सुनिश्चित करना है।

130वें संशोधन विधेयक का राजनीतिक और कानूनी संदर्भ

  • न्यायिक टिप्पणियाँ और संवैधानिक अंतराल
    • लिली थॉमस बनाम भारत संघ (2013) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि गंभीर अपराधों में दोषी ठहराए गए विधायक तत्काल अयोग्य हो जाते हैं, लेकिन बिना दोषसिद्धि के हिरासत में लिए गए मंत्रियों के मामले में न्यायालय ने चुप्पी साधे रखी, जिससे संवैधानिक शून्यता बनी रही।
    • एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (2002): चुनावी राजनीति में पारदर्शिता पर जोर दिया और राजनीति के अपराधीकरण के विरुद्ध चेतावनी दी, लेकिन अयोग्यता का दायरा संसद द्वारा निर्धारित किया जाना छोड़ दिया।
    • संवैधानिक अस्पष्टता: यद्यपि तकनीकी रूप से मंत्री राष्ट्रपति या राज्यपाल की “प्रसन्नता” तक पद धारण करते हैं, सहायता और सलाह संबंधी प्रावधान एकतरफा निष्कासन को प्रतिबंधित करता है। इससे स्थिति अस्पष्ट हो जाती है, जब किसी मंत्री को बिना दोषसिद्धि के लंबे समय तक हिरासत में रखा जाता है।
  • मौजूदा कानूनी ढाँचे के साथ अतिव्यापन: जन प्रतिनिधित्व अधिनियम (Representation of the People Act- RPA), 1951 के तहत, किसी सांसद/विधायक को केवल तभी अयोग्य ठहराया जाता है, जब उसे दोषी ठहराया जाता है और न्यूनतम 2 वर्ष के कारावास की सजा सुनाई जाती है (धारा 8)
    • विधेयक निरोध के चरण में अयोग्यता लागू करके इस बाधा को कम करता है, जिससे RPA और न्यायिक उदाहरणों के साथ संभावित टकराव पैदा होता है।
    • वर्तमान प्रथा: निरुद्ध मंत्री को हटाना पूरी तरह से कार्यपालिका के राजनीतिक विवेक पर निर्भर करता है, कोई बाध्यकारी संवैधानिक आदेश नहीं है।
  • राजनीतिक पृष्ठभूमि और हालिया विवाद
    • ‘हाई प्रोफाइल’ हिरासत
      • दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल (दिल्ली शराब नीति ‘घोटाले’ में आरोपी)
      • तमिलनाडु के पूर्व मंत्री वी. सेंथिल बालाजी (तमिलनाडु में ‘कैश-फॉर-जॉब्स’ घोटाले में आरोपी)
      • झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन (भूमि ‘घोटाले’ में आरोपी)।
      • पश्चिम बंगाल के पूर्व शिक्षा मंत्री पार्थ चटर्जी (पश्चिम बंगाल भर्ती घोटाले में आरोपी), आदि।
    • इन घटनाओं ने हिरासत में रहने वाले मंत्रियों को निलंबित करने या हटाने के लिए किसी संहिताबद्ध तंत्र के अभाव को प्रदर्शित किया।
  • राजनीति का अपराधीकरण एक प्रेरक शक्ति के रूप में
    • ADR डेटा (2024): 40% से अधिक मौजूदा सांसदों पर आपराधिक आरोप हैं, जिनमें से कुछ गंभीर अपराध भी हैं।
    • जन सरोकार: गंभीर आपराधिक जाँच का सामना कर रहे व्यक्तियों द्वारा सार्वजनिक पद के दुरुपयोग को रोकने के लिए सुधारों की बढ़ती माँग।
    • यह विधेयक शासन में विश्वसनीयता बहाल करने के लिए एक व्यवस्थित प्रतिक्रिया के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

विधेयक का महत्त्व

  • संवैधानिक नैतिकता को मजबूत करता है: सार्वजनिक पद से अपेक्षित गरिमा और नैतिक मानकों को बनाए रखता है।
  • शासन में जनता का विश्वास: यह सुनिश्चित करता है कि कार्यपालिका गंभीर आपराधिक मुकदमों का सामना कर रहे व्यक्तियों से मुक्त रहे।
  • संस्थागत स्पष्टता: ‘आनंद’ बनाम ‘सहायता और सलाह’ के सिद्धांत के आस-पास की संवैधानिक अस्पष्टता को दूर करता है।
  • एकसमान प्रयोज्यता: केंद्र, राज्य और केंद्रशासित प्रदेशों की सरकारों को जवाबदेही के एक ही नियम के अंतर्गत लाता है।

विधेयक की संभावित चुनौतियाँ

  • निर्दोषता की धारणा: विधेयक 30 दिनों की हिरासत के बाद, बिना दोषसिद्धि के भी, स्वतः निष्कासन की अनुमति देता है।
    • यह संवैधानिक सिद्धांत के विपरीत है कि दोषी सिद्ध होने तक प्रत्येक आरोपी को निर्दोष माना जाता है, और यह जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 से भी आगे जाता है, जो न्यूनतम दो वर्ष की सजा के साथ दोषसिद्धि के बाद ही विधायकों को अयोग्य घोषित करता है।
  • मौजूदा कानूनी ढाँचे के साथ टकराव: जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 ( Representation of the People Act- RPA) पहले से ही किसी सांसद/विधायक को दोषी ठहराए जाने और न्यूनतम 2 वर्ष के कारावास की सजा सुनाए जाने पर अयोग्यता का प्रावधान करता है (धारा 8)।
    • इसके अतिरिक्त, भ्रष्टाचार, चुनावी कदाचार और जघन्य अपराधों के अंतर्गत विशिष्ट अपराध पूर्व से ही दोषसिद्धि पर अयोग्यता को आकर्षित करते हैं।
    • हिरासत के चरण में अयोग्यता लागू करके, विधेयक एक समानांतर तंत्र का निर्माण करता है, जो संभावित रूप से जनप्रतिनिधित्व अधिनियम के साथ विरोधाभासी है और न्यायिक जाँच को आमंत्रित करता है।
  • राजनीतिक दुरुपयोग: सत्तारूढ़ दल इस प्रावधान का प्रयोग हथियार के तौर पर कर सकते हैं तथा जाँच एजेंसियों का प्रयोग करके विपक्षी नेताओं को इतनी देर तक हिरासत में रख सकते हैं कि उन्हें अयोग्य घोषित कर दिया जाए। इससे यह आशंका बढ़ जाती है कि राजनीतिक रूप से प्रेरित गिरफ्तारियाँ प्रतिद्वंद्वी सरकारों को अस्थिर करने के लिए प्रयोग की जा सकती हैं।
  • संघवाद संबंधी चिंताएँ: राज्यपालों को मुख्यमंत्रियों को हटाने का अधिकार देकर, यह विधेयक केंद्र-राज्य संबंधों में, विशेषतः राजनीतिक रूप से संवेदनशील राज्यों में, तनाव पैदा कर सकता है। इसे निर्वाचित राज्य सरकारों में केंद्र के हस्तक्षेप के एक हथियार के रूप में देखे जाने का खतरा है।
  • न्यायिक जाँच: इस विधेयक को मूल ढाँचे के सिद्धांत के तहत सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती मिलने की संभावना है, क्योंकि यह लोकतंत्र और शक्तियों के पृथक्करण को कमजोर कर सकता है। यह प्राकृतिक न्याय का भी उल्लंघन कर सकता है, क्योंकि निष्कासन बिना किसी मुकदमे या बचाव के होता है।
  • व्यावहारिक शासन संबंधी मुद्दे: चूँकि विधेयक रिहाई के बाद पुनर्नियुक्ति की अनुमति देता है, इसलिए नेताओं को बार-बार हटाया और बहाल किया जा सकता है, जिससे राजनीतिक अस्थिरता, नीतिगत रुकावट और बार-बार मंत्रिमंडल में फेरबदल हो सकता है, जिससे शासन की दक्षता कमजोर हो सकती है।

संबंधित वैश्विक पहल

  • यूनाइटेड किंगडम: गंभीर आपराधिक आरोप लगने पर मंत्रियों को इस्तीफा देना अनिवार्य है।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका: अभियुक्त विधायकों या अधिकारियों पर कोई प्रत्यक्ष संवैधानिक प्रतिबंध नहीं है, लेकिन विभागीय आचार संहिता और पार्टी के दबाव के कारण प्रायः इस्तीफा देना पड़ता है।
  • दक्षिण अफ्रीका: यदि किसी जनप्रतिनिधि को दोषी ठहराया जाता है और बिना जुर्माने के 12 महीने से अधिक कारावास की सजा सुनाई जाती है, तो वह संसद की सदस्यता खो देता है।
  • कनाडा: यदि विधायकों को किसी अभियोग योग्य अपराध का दोषी ठहराया जाता है या 2 वर्ष से अधिक कारावास की सजा सुनाई जाती है, तो उन्हें इस्तीफा देना होगा।
  • ऑस्ट्रेलिया: 1 वर्ष से अधिक कारावास की सजा वाले अपराधों के लिए दोषी ठहराए गए सांसदों को अयोग्य घोषित करता है।

आगे की राह 

  • दुरुपयोग के विरुद्ध सुरक्षा उपाय: स्वतंत्र न्यायिक निगरानी या संसदीय समितियाँ स्वतः निष्कासन से पहले हिरासत की समीक्षा कर सकती हैं।
  • समयबद्ध सुनवाई: मंत्रियों से जुड़े मामलों के लिए त्वरित अदालतें, ताकि सुनवाई से पहले लंबी हिरासत को रोका जा सके।
  • राजनीतिक जवाबदेही को मजबूत करना: राजनीतिक दलों को गंभीर आरोपों वाले उम्मीदवारों को टिकट देने से इनकार करने के लिए आंतरिक सुधार अपनाने चाहिए।
  • सहकारी संघवाद: स्वायत्तता के क्षरण को रोकने के लिए केंद्र और राज्यों के बीच स्पष्ट परामर्श तंत्र।

निष्कर्ष

130वाँ संशोधन विधेयक, 2025 राजनीति के अपराधीकरण पर अंकुश लगाने और संवैधानिक नैतिकता को कायम रखने के लिए एक साहसिक कदम है, लेकिन इसकी सफलता दुरुपयोग को रोकने, संघवाद को संतुलित करने और शासन में निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त न्यायिक सुरक्षा उपायों को शामिल करने पर निर्भर करेगी।

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