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वंदे मातरम् के 150 वर्ष

Lokesh Pal November 10, 2025 04:26 30 0

संदर्भ

हाल ही में भारत के प्रधानमंत्री ने वंदे मातरम्” के 150 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में वर्ष भर संचालित होने वाले समारोहों का शुभारंभ किया। उन्होंने इस अमर गीत को देशभक्ति और राष्ट्र के प्रति अटूट निष्ठा का शाश्वत प्रतीक” बताया।

वंदे मातरम् की 150वीं वर्षगाँठ का उत्सव

  • राष्ट्रीय उत्सव: संपूर्ण भारत में आयोजित कार्यक्रम वंदे मातरम् की एकता, प्रतिरोध और राष्ट्रीय गौरव की विरासत का सम्मान कर रहे हैं।
  • सरकारी आयोजन: भारत सरकार इस अवसर को चार चरणों में राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय और स्थानीय स्तर पर मनाएगी, जिससे वंदे मातरम् के प्रति सामूहिक राष्ट्र प्रेम को स्थापित किया जा सके।

वंदे मातरम् के बारे में 

  • संदर्भ: वंदे मातरम् भारत का राष्ट्रीय गीत है, जो राष्ट्रीय गानजन गण मन” के समकक्ष है, जो भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अत्यधिक ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और भावनात्मक महत्त्व रखता है।
  • अर्थ: “वंदे मातरम्” का अर्थ है माँ, मैं तेरी वंदना करता हूँ’ जो मातृभूमि के प्रति श्रद्धा और भक्ति का प्रतीक है।

  • भाषा और शैली: संस्कृतनिष्ठ बंगला में रचित यह गीत भक्ति (आध्यात्मिकता) और देशभक्ति (राष्ट्रवाद) का अद्भुत संगम है।
  • प्रकाशन: यह गीत पहली बार 7 नवंबर 1875 को बंगदर्शन पत्रिका में प्रकाशित हुआ और बाद में आनंदमठ (वर्ष 1882) उपन्यास में शामिल किया गया।
  • संगीतबद्धता: रबींद्रनाथ ठाकुर ने इसे संगीतबद्ध किया, जिससे यह राष्ट्रीय चेतना का मधुर गान बन गया।
  • चित्रात्मकता: “सुजलाम्, सुफलाम्, मलयजशीतलाम्” जैसी पंक्तियाँ भारत की पवित्र भौगोलिक और सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक हैं।

आनंदमठ और “देशभक्ति का धर्म” 

  • रचना: बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने 7 नवंबर, 1875 को वंदे मातरम् लिखा, जो बंगदर्शन में प्रकाशित हुआ।
    • यह पहली बार साहित्यिक पत्रिका बंगदर्शन में उनके उपन्यास आनंदमठ के भाग के रूप में प्रकाशित हुआ था। यह कहानी संतन नामक योद्धा-भिक्षुओं से संबंधित है, जो अपनी पवित्र मातृभूमि को उत्पीड़न से मुक्त कराने के लिए समर्पित हैं।
    • उनका राष्ट्रगान, वंदे मातरम्, राष्ट्र को दिव्य माता के रूप में दर्शाता है- दयालु लेकिन अनुशासनप्रिय; स्नेह देने वाली लेकिन अपने सिद्धांतों पर अडिग।
  • तीन माताओं का प्रतीकवाद: उपन्यास के मंदिर दृश्य में, माँ को तीन रूपों में दर्शाया गया है, जो भारत की सभ्यता यात्रा का प्रतीक हैं:
    • वह माँ (गौरवशाली और दीप्तिमान), जो भारत के प्राचीन सांस्कृतिक और आध्यात्मिक वैभव का प्रतिनिधित्व करती है।
    • वह माँ (बंधन युक्त और पीड़ित), जो औपनिवेशिक अधीनता और राष्ट्रीय पतन का प्रतीक है।
    • वह माँ (पुनर्जीवित और विजयी), जो भारत की स्वतंत्रता और नवीनीकृत गरिमा की प्रतीक है।
  • आध्यात्मिक राष्ट्रवाद: आनंदमठ ने राष्ट्र प्रेम को धार्मिक कर्तव्य का रूप दिया  “मातृभूमि की सेवा ही पूजा है।”
    • मातृभूमि की सेवा को पूजा के कार्य के रूप में चित्रित किया गया तथा राष्ट्रीय मुक्ति को आध्यात्मिक जागृति के समान माना गया।
    • जैसा कि श्री अरबिंदो ने बाद में वर्णन किया, उनके दर्शन की माता ने अपने सत्तर करोड़ हाथों में प्रचंड इस्पात धारण किया था, न कि भिक्षुक का कटोरा”, जो प्रार्थना का नहीं, बल्कि शक्ति का प्रतीक था।
  • सार: इस प्रकार वंदे मातरम् केवल विद्रोह के गीत के रूप में नहीं, बल्कि आध्यात्मिक राष्ट्रवाद के एक भजन के रूप में उभरा, जिसने दिव्य मातृभूमि के प्रति समर्पण के साथ स्वतंत्रता के लिए राजनीतिक संघर्ष को पवित्र किया।

वंदे मातरम् का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

  • औपनिवेशिक संदर्भ: यह गीत ब्रिटिश शासनकाल में रचा गया, जब बंगाल में सांस्कृतिक जागरण की लहर थी।
  • लेखक की दृष्टि: बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय (वर्ष 1838–1894) ने साहित्य को राष्ट्र प्रेम का माध्यम बनाया।
  • कथानक से संबंध: आनंदमठ में संन्यासियों द्वारा गाया गया यह गीत, मातृभूमि की मुक्ति का प्रतीक था।
  • सांस्कृतिक प्रतीकवाद: भारत माता को देवी के रूप में प्रतिष्ठित कर इसने धार्मिक भक्ति और राष्ट्रभक्ति को जोड़ा।
  • वैचारिक प्रभाव: इसने आध्यात्मिकता और राष्ट्रवाद का समन्वय कर देशभक्ति को नैतिक कर्तव्य के रूप में स्थापित किया।

वंदे मातरम् का ऐतिहासिक विकास

  • वर्ष 1875: बंकिम चंद्र द्वारा स्थापित साहित्यिक पत्रिका बंगदर्शन में पहली बार कविता के रूप में प्रकाशित।
  • वर्ष 1882: आनंदमठ में शामिल किया गया, जिसमें मातृभूमि की मुक्ति के लिए संघर्षरत भिक्षुओं (संतानों) को दर्शाया गया।
  • वर्ष 1896: रबींद्रनाथ टैगोर ने इस गीत को संगीतबद्ध किया और कलकत्ता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में इसे गाया गया।
  • वर्ष 1905: बंगाल विभाजन के बाद स्वदेशी आंदोलन के दौरान प्रतिरोध के नारे के रूप में अपनाया गया।
  • वर्ष 1907: मैडम भीकाजी कामा ने जर्मनी के स्टटगार्ट में पहली बार तिरंगा फहराया, जिस परवंदे मातरम्” लिखा हुआ था।

स्वतंत्रता संग्राम में वंदे मातरम् की भूमिका और योगदान

  • राष्ट्रीय जागरण का गीत: वंदे मातरम्, जिसे बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में रचा, एक भक्तिपरक स्रोत से राष्ट्रीय स्वतंत्रता के आह्वान में परिवर्तित हो गया।
    •  इसने भारत माता के आदर्श को मूर्त रूप दिया, जिससे भारतीयों में भावनात्मक एकता और सामूहिक राष्ट्रभाव का उदय हुआ।
  • स्वदेशी और बंगाल-विभाजन विरोधी आंदोलन का उत्प्रेरक: यह गीत वर्ष 1905 के बंगाल विभाजन के दौरान स्वदेशी आंदोलन का मुख्य नारा बन गया।
    •  7 अगस्त, 1905 को कलकत्ता टाउन हॉल में जब स्वदेशी प्रस्ताव पारित हुआ, तब हजारों लोगों ने एक स्वर में वंदे मातरम् गाया। यह ब्रिटिश शासन के विरुद्ध जन-अवज्ञा और आत्मनिर्भरता के प्रतीक के रूप में उभरा।
  • सांस्कृतिक और सामाजिक एकता का सूत्र: वंदे मातरम् ने वर्ग, जाति और क्षेत्रीय भेदभाव को पार करते हुए लोगों को एक सूत्र में बाँधा।  इसने भक्ति (आध्यात्मिक प्रेम) और देशभक्ति (राष्ट्रीय कर्तव्य) को जोड़कर एक नैतिक राष्ट्रवाद का निर्माण किया।
    • वर्ष 1905 में बंदे मातरम् संप्रदाय की स्थापना और प्रभात फेरियों तथा बरिशाल सम्मेलन (वर्ष 1906) जैसे आयोजनों ने इसे राष्ट्रवादी अनुष्ठान के रूप में स्थापित किया।
  • वैचारिक और बौद्धिक प्रभाव: श्री अरविंदो और बिपिन चंद्र पाल जैसे नेताओं ने इस गीत को विरोध के नारे से दर्शन के स्तर तक पहुँचाया।
    • उन्होंने बंदे मातरम् नामक समाचार-पत्र (वर्ष 1906) के माध्यम से इसेराष्ट्रीय पुनर्जागरण का मंत्र” कहा, जहाँ स्वतंत्रता को नैतिक जागरण और आत्मबोध से जोड़ा गया। इस प्रकार, इस गीत ने भारत के प्रारंभिक राष्ट्रवादी विचार की वैचारिक नींव रखी।
  • औपनिवेशिक दमन के विरुद्ध प्रतिरोध: ब्रिटिश प्रशासन ने वंदे मातरम् कोराजनीतिक रूप से भड़काऊ” मानते हुए इसे स्कूलों और सभाओं में गाने पर प्रतिबंध लगा दिया।
    • छात्रों पर जुर्माने, गिरफ्तारी और निष्कासन जैसी कार्रवाइयाँ की गईं, जैसे रंगपुर (वर्ष 1905) और बरिशाल (वर्ष 1906) की घटनाएँ।
    • परंतु दमन ने इसकी लोकप्रियता को और बढ़ा दिया, बंगाल से लेकर पंजाब, बॉम्बे और तमिलनाडु तक इसका स्वर गूँज उठा।

  • क्षेत्रीय प्रतिध्वनि: इसका प्रभाव केवल बंगाल तक सीमित नहीं रहा। वर्ष 1938 में गुलबर्गा (हैदराबाद राज्य) में वंदे मातरम् आंदोलन चला, जिसने निजाम के प्रतिबंधों की अवहेलना की और देशी रियासतों में युवाओं के नेतृत्व में प्रतिरोध का प्रतीक बना।
  • गीत से नारे तक का रूपांतरण: वर्ष 1896 में कांग्रेस अधिवेशन में रबींद्रनाथ टैगोर द्वारा पहली बार गाए जाने के बाद, वंदे मातरम् धीरे-धीरे स्वतंत्रता आंदोलन का राष्ट्रीय गान बन गया।
    • स्वदेशी मार्चों, लोकमान्य तिलक की गिरफ्तारी विरोधी रैलियों (वर्ष 1908), और आजाद हिंद सरकार की उद्घोषणाओं तक यह गीत त्याग तथा स्वतंत्रता दोनों का प्रतीक बन गया।
  • वैश्विक प्रतिध्वनि-सीमाओं से परे गीत का प्रभाव
    • वर्ष 1907: मैडम भीकाजी कामा ने स्टटगार्ट, जर्मनी में भारत का पहला तिरंगा फहराया, जिस पर वंदे मातरम्” अंकित था।
    • वर्ष  1909: मदनलाल ढींगरा ने लंदन में फाँसी से ठीक पहलेबंदे मातरम्’ का उद्घोष किया, जो बलिदान और निडरता का प्रतीक बन गया।
      • उसी वर्ष, पेरिस और जिनेवा में भारतीय क्रांतिकारियों ने बंदे मातरम् पत्रिका शुरू की ताकि स्वतंत्रता का संदेश वैश्विक स्तर पर विस्तृत हो।
    •  वर्ष 1912: गोपालकृष्ण गोखले का केपटाउन (दक्षिण अफ्रीका) आगमनवंदे मातरम्’ के नारों के साथ हुआ, जिसने प्रवासी भारतीयों की मातृभूमि से भावनात्मक एकता को प्रकट किया।
    • इन घटनाओं से स्पष्ट होता है कि वंदे मातरम् केवल एक गीत नहीं, बल्कि एक नैतिक सूत्र था, जिसने भारत के वैश्विक प्रवासी समुदाय को मातृभूमि के संघर्ष से जोड़ा।

बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के बारे में (वर्ष 1838–1894)

  • प्रारंभिक जीवन और पृष्ठभूमि: बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय का जन्म वर्ष 1838 में नैहाटी, बंगाल प्रेसीडेंसी (वर्तमान पश्चिम बंगाल) में हुआ था।
    • उन्होंने हुगली कॉलेज से शिक्षा प्राप्त की और कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रथम स्नातकों में से एक बने।
    • उन्होंने भारतीय सिविल सेवा (ICS) में कार्य किया, जहाँ प्रशासनिक दायित्वों के साथ-साथ साहित्यिक सृजन भी जारी रखा।
  • साहित्यिक योगदान: उन्हें आधुनिक बंगला गद्य के जनक के रूप में जाना जाता है।  उनके उपन्यासों में औपनिवेशिक समाज के सामाजिक, नैतिक और सांस्कृतिक संघर्षों का चित्रण मिलता है।
    • प्रमुख कृतियाँ
      • दुर्गेशनंदिनी (वर्ष 1865): भारत का पहला बंगला उपन्यास।
      • कपालकुंडला (वर्ष 1866): जिसमें स्वछंदतावाद और अध्यात्म का सुंदर समन्वय है।
      • आनंदमठ (वर्ष 1882): जिसमें वंदे मातरम् गीत शामिल है और जिसने राष्ट्रवादी चेतना को प्रज्वलित किया।
      • देवी चौधरानी (वर्ष 1884): जिसने नारी सशक्तीकरण और प्रतिरोध की भावना को केंद्र में रखा।
  • वैचारिक दृष्टि: बंकिमचंद्र ने साहित्य को राष्ट्रीय जागरण का साधन माना। उन्होंने नैतिक और आध्यात्मिक पुनर्जागरण को स्वतंत्रता का आधार बताया। उनके लिए मातृभूमि केवल भू-खंड नहीं, बल्कि दैवीय स्वरूप थी, जहाँ देशभक्ति और भक्ति एकाकार हो गए।
  • विरासत और प्रभाव: उनकी रचनाओं से प्रेरित होकर श्री अरविंदो, रबींद्रनाथ टैगोर और महात्मा गांधी जैसे विचारकों ने राष्ट्रवाद की नई परिभाषा दी।
    • बंकिमचंद्र की साहित्यिक प्रतिभा और राष्ट्रीय दर्शन ने भारतीय बौद्धिक राष्ट्रवाद की नींव रखी।
    • उन्हें आधुनिक भारत का सांस्कृतिक शिल्पकार माना जाता है, जिनकी रचनाएँ आज भी देशभक्ति की भावना को जाग्रत करती हैं।

संवैधानिक दर्जा और मान्यता 

  • औपचारिक मान्यता (वर्ष 1950): 24 जनवरी, 1950 को संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने वंदे मातरम् को भारत का राष्ट्रीय गीत घोषित किया। यह निर्णय इसके ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और भावनात्मक महत्त्व को औपचारिक रूप से स्वीकार करता है।
    • समान: इसे जन गण मन के समान दर्जा दिया गया, क्योंकि इस गीत ने भारत की राष्ट्रीय चेतना को आकार दिया और स्वतंत्रता संग्राम में जन-प्रेरणा का स्रोत बना।
  • समावेशी भावना: यह घोषणा भारत की आध्यात्मिकता और धर्मनिरपेक्षता के समन्वय का प्रतीक थी, जो भक्ति, विविधता और लोकतंत्र को एक साथ जोड़ती है।
  • न्यायिक व्याख्या (वर्ष 2006):  एम. के. रमेश बनाम भारत संघ (वर्ष 2006) में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि वंदे मातरम् गाना कानूनी रूप से अनिवार्य नहीं है, लेकिन यह नैतिक रूप से वांछनीय है। साथ ही न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि सच्ची देशभक्ति स्वैच्छिक सम्मान से आती है, न कि बलपूर्वक अनुपालन से।

विवाद और संक्षिप्तीकरण (वर्ष 1937)

  • पृष्ठभूमि: 1930 के दशक के अंत तक वंदे मातरम् एक राष्ट्रीय भजन और साथ ही विवाद का विषय बन चुका था।
    • गीत के कुछ बाद के पदों में माँ दुर्गा जैसी देवी-संवेदनाएँ होने के कारण, यह गैर-हिंदू समुदायों के बीच असहजता का कारण बना।
  • कांग्रेस समिति का निर्णय: वर्ष 1937 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में इस विषय पर गंभीर बहस हुई। इसके लिए एक विशेष समिति गठित की गई, जिसमें रबींद्रनाथ टैगोर, जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस शामिल थे।
    • समिति ने सिफारिश की कि केवल पहले दो पद, जो धार्मिक संदर्भों से मुक्त और मातृभूमि की सामान्य वंदना हैं, को ही औपचारिक अवसरों पर गाया जाए।
  • उद्देश्य और व्यावहारिकता: इस निर्णय का उद्देश्य समावेशिता बनाए रखना और मुस्लिम लीग के साथ संवाद स्थापित करना था, ताकि वंदे मातरम् विभाजन नहीं, एकता का प्रतीक बना रहे।
  • आलोचना और असहमति:  कुछ नेताओं विशेषकर नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने इस निर्णय की आलोचना की और कहा कि इससे गीत की आध्यात्मिक अखंडता कमजोर होती है।
    • उनके अनुसार, इससंक्षिप्तीकरण” ने गीत की भावनात्मक एकता को खंडित किया और यह धर्म, राष्ट्रवाद तथा राजनीति के जटिल संतुलन का प्रतीक बन गया।

सांप्रदायिक विवाद और गांधी की मध्यस्थता 

  • साम्प्रदायिक विरोध: 20वीं सदी के प्रारंभ में मुस्लिम लीग के कुछ नेताओं ने वंदे मातरम् का विरोध किया, क्योंकि इसमें हिंदू देवी-देवता का उल्लेख था। मुहम्मद अली जिन्ना ने इसे सांस्कृतिक बहिष्कार का उदाहरण बताया।
  • गांधी का समन्वय प्रयास: महात्मा गांधी ने इसके समावेशी सार की रक्षा की और वर्ष 1939 में हरिजन पत्रिका में लिखा  “मुझे कभी यह विचार नहीं आया कि यह हिंदू गीत है; यह तो हिंदू और मुसलमान दोनों के लिए समान रूप से एक शक्तिशाली युद्धघोष था।”
    • गांधी के इस दृष्टिकोण के बावजूद, कांग्रेस ने वर्ष 1937 समिति के निर्णय को बरकरार रखा कि केवल पहले दो पद ही गाए जाएँ।  फिर भी, 1940 के दशक में गहराते सांप्रदायिक तनावों के बीच वंदे मातरम् एक राजनीतिक बलिदान का प्रतीक बन गया।

वंदे मातरम् की विरासत और महत्त्व 

  • ऐतिहासिक और संवैधानिक विरासत: वर्ष 1875 में साहित्यिक सृजन से लेकर वर्ष 1950 में संवैधानिक मान्यता तक, वंदे मातरम् भारत की सांस्कृतिक चेतना से राष्ट्र निर्माण की यात्रा को दर्शाता है।
    • यह संविधान के अनुच्छेद-51A(a) में निहित कर्तव्य भावनाराष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान” का प्रतीक है, जो आध्यात्मिकता और लोकतंत्र का संगम प्रस्तुत करता है।
  • प्रतीकात्मकता: गीत में मातृभूमि को शक्ति (बल) और करुणा (दया) दोनों के रूप में दर्शाया गया है:
    • भारत को एक संरक्षक और पालनकर्ता के रूप में चित्रित करते हुए नारी स्वरूप के माध्यम से बंकिमचंद्र ने भक्ति और राष्ट्रवाद को एक सूत्र में बाँधा, जिससे भारत माता का विचार जन्मा।
  • सांस्कृतिक और कलात्मक अभिव्यक्ति: वंदे मातरम् एक सांस्कृतिक आंदोलन बन गया, जिसने कला, संगीत और साहित्य को प्रभावित किया। अबनींद्रनाथ टैगोर की प्रसिद्ध चित्रकला भारत माता (वर्ष 1905) ने इसके भाव को दृश्य रूप दिया। रबींद्रनाथ टैगोर और पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर ने इसे संगीतबद्ध कर जन-जन तक पहुँचाया। आधुनिक भारत में ए. आर. रहमान का “माँ तुझे सलाम” (वर्ष 1997) इसका समकालीन रूप है।
    • भारतीय भाषाओं में इसका अनुवाद और वर्ष 1952 की फिल्म आनंद मठ में इसका फिल्मांकन इसे सर्व भारतीय एकता का प्रतीक बनाते हैं।
  • नैतिक और दार्शनिक सार: गीत भक्ति (भक्ति) और शक्ति (बल) का संगम है, जहाँ राष्ट्र सेवा को पूजा के समान माना गया।
    • इससे आध्यात्मिक राष्ट्रवाद का उदय हुआ, जबकि टैगोर ने यह सुनिश्चित किया कि राष्ट्रवाद नैतिक और मानवतावादी बना रहे।
  • वैश्विक और सॉफ्ट पॉवर का प्रभाव:  पश्चिमी राष्ट्रगीतों की तरह यह राजशाही या सैन्यवाद से प्रेरित नहीं, बल्कि नैतिक तथा सभ्यतागत गौरव का प्रतीक है।
    • मैडम भीकाजी कामा के वर्ष 1907 के स्टटगार्ट में तिरंगे के फहराने से लेकर 150वीं वर्षगाँठ के वैश्विक उत्सवों तक, यह गीत भारत की सॉफ्ट पॉवर का वैश्विक प्रतीक बन गया।
  • समकालीन और पारिस्थितिकी प्रासंगिकता: “वंदे मातरम्: सैल्यूट टू मदर अर्थ” पहल देशभक्ति को पर्यावरणीय चेतना से जोड़ती है, जो वृक्षारोपण और सार्वजनिक कला के माध्यम से पर्यावरणीय देशभक्ति को बढ़ावा देती है।
    • प्रधानमंत्री द्वाराकमला और विमला” (अनुग्रह) तथा दुर्गा” (शक्ति) की व्याख्या आधुनिक भारत में करुणा एवं साहस दोनों का प्रतीक है।
  • नागरिक और सांस्कृतिक निरंतरता: एक जीवंत धरोहर के रूप में वंदे मातरम् आत्मनिर्भरता, सेवा और एकता की प्रेरणा देता है।
    • यह आत्मनिर्भर भारत और एक भारत, श्रेष्ठ भारत की भावना के अनुरूप अमृत काल में नैतिक मार्गदर्शक के रूप में कार्य करता है।

बिंदु वंदे मातरम् (राष्ट्रीय गीत) जन गण मन (राष्ट्रीय गान)
लेखक और रचना बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय (वर्ष 1875) द्वारा रचित, आनंदमठ उपन्यास का हिस्सा, जो आध्यात्मिक राष्ट्रवाद और प्रतिरोध का प्रतीक है। रबींद्रनाथ टैगोर (वर्ष 1911) द्वारा रचित, भारत की एकता और दिव्य मार्गदर्शन का उत्सव मनाने वाला गीत।
भाषा और भाव संस्कृतनिष्ठ बंगला; भक्तिपूर्ण और भावनात्मक, मातृभूमि की दैवीयता को दर्शाने वाला। अत्यधिक संस्कृतनिष्ठ बंगला, गंभीर, सर्वसमावेशी और औपचारिक स्वर वाला।
मुख्य विषय भक्ति (आस्था) और देशभक्ति (राष्ट्रप्रेम) का संगम, मातृभूमि की देवी के रूप में वंदना। एकता, सार्वभौमिकता और संघीय सामंजस्य का उत्सव एक साझा नियति के अंतर्गत भारत का गौरव।
स्वीकृति और दर्जा 24 जनवरी, 1950 को राष्ट्रीय गीत घोषित राष्ट्रीय गान के समान सम्मान प्राप्त। 24 जनवरी, 1950 को राष्ट्रीय गान के रूप में अपनाया गया, भारत का औपचारिक प्रतिनिधि गीत।
उपयोग और विधिक स्थिति कोई निश्चित अवधि या कानूनी शिष्टाचार निर्धारित नहीं, परंतु इसे राष्ट्रीय गौरव के प्रतीक के रूप में गहन सम्मान प्राप्त। राष्ट्रीय सम्मान अपमान निवारण अधिनियम, 1971” के अंतर्गत संरक्षित, 52 सेकंड की औपचारिक अवधि और प्रदर्शन प्रोटोकॉल निर्धारित।
सांस्कृतिक भूमिका आध्यात्मिक राष्ट्रवाद और स्वतंत्रता संघर्ष की भावनात्मक एकता का प्रतीक। संवैधानिक देशभक्ति और स्वतंत्र भारत की संप्रभु गरिमा का प्रतीक।
मूल सार  एक प्रणाम स्तुति  ‘वंदे मातरम्’ अर्थात् हे माँ, मैं तुझे नमन करता हूँ’, जो भक्ति और बलिदान का आह्वान करता है। एक प्रतिज्ञा  तव शुभ नामे जागे, तव शुभ आशीष माँगे” जो अनुशासन और एकता का प्रतीक है।

निष्कर्ष 

वंदे मातरम् भारतीय राष्ट्रवाद की आत्मा है, जिसमें भक्ति, एकता और शक्ति का मिश्रण है। भारत अपनी 150वीं वर्षगाँठ मना रहा है, यह एक अभिवादन और आह्वान दोनों है – सेवा, सद्भाव और स्थिरता के माध्यम से मातृभूमि का सम्मान करना।

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