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UNCCD का COP16 एवं भूमि क्षरण

Lokesh Pal December 05, 2024 05:42 68 0

संदर्भ 

हाल ही में, संयुक्‍त राष्‍ट्र मरुस्‍थलीकरण रोकथाम अभिसमय (UN Convention to Combat Desertification- UNCCD) और संयुक्त राष्ट्र विश्वविद्यालय जल, पर्यावरण और स्वास्थ्य संस्थान (UNU-INWEH) ने सऊदी अरब के रियाद में UNCCD के ‘16वें कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज’ (COP16) में ‘सूखे का अर्थशास्त्र: सूखे से निपटने के लिए प्रकृति आधारित समाधानों में निवेश लाभदायक है’ (Economics of drought: Investing in nature-based solutions for drought resilience proaction pays) नामक रिपोर्ट जारी की।

UNCCD के ‘16वें कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज’ (COP16)

  • UNCCD के ‘कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज’ (COP16) का 16वाँ सत्र 2 से 13 दिसंबर, 2024 तक रियाद, सऊदी अरब में आयोजित किया जाएगा।
    • यह सम्मेलन की 30वीं वर्षगाँठ के साथ संरेखित है।
    • यह पहली बार होगा जब UNCCD COP मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका (Middle East and North Africa-MENA) क्षेत्र में आयोजित किया जाएगा, जो मरुस्थलीकरण, भूमि क्षरण और सूखे के प्रभावों को पहले से प्रभावित है।

संयुक्‍त राष्‍ट्र मरुस्‍थलीकरण रोकथाम अभिसमय (UN Convention to Combat Desertification- UNCCD) के बारे में

  • यह मरुस्थलीकरण और सूखे के प्रभावों से निपटने के लिए स्थापित एकमात्र कानूनी रूप से बाध्यकारी ढाँचा है।
    • यह भूमि क्षरण के प्रभाव को कम करने और भूमि की रक्षा करने के लिए एक बहुपक्षीय प्रतिबद्धता है ताकि सभी लोगों को भोजन, पानी, आश्रय और आर्थिक अवसर प्रदान कर सकें।
  • यह रियो डी जेनेरियो में वर्ष 1992 के पृथ्वी शिखर सम्मेलन के तीन सम्मेलनों में से एक है।
  • वर्ष 1994 में शुरू किया गया। 
  • सदस्य: 197 पक्षकार (196 राष्ट्र + यूरोपीय संघ),
    • भारत ने वर्ष 1994 में इस पर हस्ताक्षर किए तथा वर्ष 1996 में इसका अनुसमर्थन किया।
  • सचिवालय: UNCCD का स्थायी सचिवालय जर्मनी के बॉन में अवस्थित है।
  • सिद्धांत: यह अभिसमय भागीदारी, साझेदारी और विकेंद्रीकरण के सिद्धांतों पर आधारित है।
  • फोकस क्षेत्र: अभिसमय विशेष रूप से शुष्क, अर्द्ध-शुष्क और शुष्क उप-आर्द्र पारिस्थितिकी तंत्रों को संबोधित करता है, जिन्हें शुष्क भूमि के रूप में जाना जाता है।
  • ‘कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज’ (COP): इसका आयोजन प्रत्येक दो वर्ष में किया जाता है।
  • वित्तीय तंत्र: इसके अनुच्छेद-21 के तहत वर्ष 1994 में स्थापित वैश्विक तंत्र (GM) अभिसमय को लागू करने और मरुस्थलीकरण, भूमि क्षरण और सूखे को संबोधित करने के लिए वित्तीय संसाधनों को जुटाने की सुविधा प्रदान करता है।
  • UNCCD 2018-2030 रणनीतिक रूपरेखा: यह भूमि क्षरण तटस्थता (Land Degradation Neutrality-LDN) प्राप्त करने के लिए एक वैश्विक प्रतिबद्धता है।
    • उद्देश्य: इसका उद्देश्य क्षरित भूमि के विशाल विस्तार की उत्पादकता को पुनर्स्थापित  करना, 1.3 बिलियन से अधिक लोगों की आजीविका में सुधार करना और कमजोर आबादी पर सूखे के प्रभावों को कम करना है।

भूमि क्षरण तटस्थता ( Land Degradation Neutrality-LDN) के बारे में

  • LDN एक ऐसी स्थिति है, जहाँ पारिस्थितिकी तंत्र और खाद्य सुरक्षा के लिए आवश्यक भूमि संसाधन स्थिर रहते हैं या समय के साथ बेहतर होते हैं।
  • इस रणनीति का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा उचित वित्तपोषण और कार्रवाई के साथ वर्ष 2030 तक एक बिलियन हेक्टेयर भूमि को पुनर्स्थापित करना है।
  • 109 देशों ने वर्ष 2030 के लिए स्वैच्छिक LDN लक्ष्य निर्धारित किए हैं।
  • वर्ष 2016 से 2019 के बीच, द्विपक्षीय और बहुपक्षीय स्रोतों से लगभग 5 बिलियन डॉलर मरुस्थलीकरण, भूमि क्षरण और सूखे से निपटने के लिए आवंटित किए गए हैं, जिससे 124 देशों में परियोजनाओं को समर्थन मिला है।

UNCCD रिपोर्ट की मुख्य विशेषताएँ

  • भूमि क्षरण का स्तर: वर्तमान में, दुनिया की 40% भूमि क्षरित हो चुकी है, जिसका असर वैश्विक स्तर पर 3.2 बिलियन लोगों, विशेष रूप से स्वदेशी समुदायों, ग्रामीण परिवारों, युवाओं और महिलाओं के जीवन पर पड़ रहा है।
  • सूखे की वार्षिक लागत: सूखे की वार्षिक वैश्विक लागत पहले से ही $307 बिलियन से अधिक है, जो भूमि कुप्रबंधन, वनों की कटाई, भूजल अतिदोहन और जलवायु परिवर्तन के कारण है।
  • मानव-प्रेरित सूखा: वर्ष 2000 से मानव-प्रेरित सूखे में 29% की वृद्धि हुई है और अनुमानों से पता चलता है कि वर्ष 2050 तक, दुनिया भर में चार में से तीन लोग इससे प्रभावित हो सकते हैं।
    • सूखे का संबंध केवल वर्षा की कमी से नहीं, बल्कि अस्थिर भूमि और जल प्रबंधन प्रथाओं से भी है।

  • वित्तीय घाटा: भूमि पुनर्स्थापन और सूखा सहनीयता लक्ष्यों को पूरा करने के लिए दुनिया को वर्ष 2025 से 2030 तक सालाना 355 बिलियन डॉलर की आवश्यकता है।
    • वर्तमान निवेश वर्ष 2016 में 37 बिलियन डॉलर से बढ़कर 2022 में 66 बिलियन डॉलर हो गया है, लेकिन वार्षिक कमी 278 बिलियन डॉलर की बनी हुई है।
    • निजी क्षेत्र वर्तमान में आवश्यक वित्तपोषण का केवल 6% योगदान देता है और निजी निवेश को बढ़ाना आवश्यक है।
  • निष्क्रियता की लागत: भूमि क्षरण से वैश्विक अर्थव्यवस्था को पहले से ही सालाना 878 बिलियन डॉलर का नुकसान हो रहा है, जिसमें कृषि उत्पादकता, पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं और सूखे से होने वाली क्षति शामिल है।
  • प्रकृति आधारित समाधानों (NbS) के लिए आर्थिक और पर्यावरणीय मामले
    • प्रकृति आधारित समाधान (NbS) जल प्रवाह, भंडारण और आपूर्ति को बढ़ाने के लिए पारिस्थितिकी तंत्र के कार्यों और मृदा स्वास्थ्य को पुनर्स्थापित करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
      • उदाहरणों में शामिल हैं: पुनर्वनीकरण, चराई प्रबंधन, और जलग्रहण पुनरुद्धार।
    • NbS का तिगुना लाभांश:
      • सूखे से होने वाले नुकसान और क्षति को कम करना।
      • भूमि और जल उपयोगकर्ताओं की आय बढ़ाना।
      • जलवायु लचीलापन, जैव विविधता और सतत विकास के लिए सह-लाभ उत्पन्न करना।
    • NbS में निवेश किए गए प्रत्येक $1 से $27 तक का लाभ मिलता है, जैसे:
      • किसानों की आय में वृद्धि।
      • मूल्य शृंखला में लचीलापन।
      • दीर्घकालिक आर्थिक लागत में कमी।
    • व्यावसायिक संभावना: वर्ष 2030 तक, NbS $10.1 ट्रिलियन का व्यावसायिक मूल्य उत्पन्न कर सकता है और वैश्विक स्तर पर 395 मिलियन नौकरियाँ उत्पन्न कर सकता है।

भूमि क्षरण के बारे में

  • UNCCD के अनुसार, भूमि क्षरण से तात्पर्य वर्षा आधारित कृषि भूमि, सिंचित कृषि भूमि, चरागाह, वन और वन्य भूमि की जैविक या आर्थिक उत्पादकता और जटिलता में कमी या क्षति से है।

भारत में भूमि क्षरण की स्थिति

भूमि क्षरण के कारण

  • असंवहनीय कृषि पद्धतियाँ: जल संसाधनों का असंवहनीय उपयोग, विशेष रूप से शुष्क या सूखे क्षेत्रों में, मृदा क्षरण और अपरदन को बढ़ावा देता है।
    • असंवहनीय सिंचाई, मीठे जल संसाधनों को कम करती है, विशेष रूप से पंजाब जैसे क्षेत्रों में, जहाँ भूजल निष्कर्षण पुनःपूर्ति स्तर से 165% अधिक है, जिससे लवणीकरण की समस्या भी उत्पन्न होती है।
  • उर्वरकों का अत्यधिक उपयोग: नाइट्रोजन और फास्फोरस आधारित उर्वरकों का अत्यधिक उपयोग पोषक तत्त्वों के असंतुलन के कारण पारिस्थितिकी तंत्र को अस्थिर करता है।
    • उदाहरण के लिए, मैक्सिको की खाड़ी के “मृत क्षेत्र” जैसे जल निकायों का सुपोषण उर्वरक अपवाह से संबंधित है।
  • जलवायु परिवर्तन: ग्लोबल वार्मिंग भारी वर्षा और सूखे जैसी चरम मौसमी घटनाओं की आवृत्ति एवं तीव्रता को बढ़ाती है, जिससे मृदा क्षरण में तेजी आती है।
    • जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (IPCC) के अनुसार, ग्लोबल वार्मिंग ने अफ्रीका के साहेल क्षेत्र में मरुस्थलीकरण को और खराब कर दिया है।
  • वनों की कटाई: कृषि और शहरी विस्तार के लिए वनों की कटाई से वनस्पति आवरण नष्ट हो जाता है, जिससे मृदा क्षरण के प्रति संवेदनशील हो जाती है।
    • वर्ष 1980 से भारत ने विकास के लिए 1.5 मिलियन हेक्टेयर वन भूमि को नष्ट कर दिया है और इस नुकसान का अधिकांश हिस्सा वर्ष 2000 के बाद हुआ है।
  • शहरीकरण का विस्तार: शहरीकरण ने आवास विनाश, प्रदूषण और जैव विविधता के नुकसान में योगदान देकर भूमि क्षरण को तेज कर दिया है।
    • दिल्ली-राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (NCR) ने नोएडा, गुरुग्राम और गाजियाबाद जैसे क्षेत्रों में तेजी से शहरी विस्तार का अनुभव किया है, जिससे कृषि भूमि का महत्त्वपूर्ण नुकसान हुआ है।
  • अतिचारण: पशुओं द्वारा अनियंत्रित चराई वनस्पति आवरण को कम करती है, मिट्टी के पोषक तत्त्वों को कम करती है और मरुस्थलीकरण को तीव्र करती है।
    • भारत और पाकिस्तान में थार रेगिस्तान का विस्तार अतिचारण और खराब भूमि प्रबंधन प्रथाओं के कारण हुआ है।

भूमि क्षरण के प्रभाव

  • कृषि उत्पादकता में कमी: मिट्टी की उर्वरता में कमी से फसल की पैदावार कम होती है, जिससे खाद्य असुरक्षा का जोखिम बढ़ता है।
    • FAO के अनुसार, खराब होती भूमि वैश्विक कृषि उत्पादकता को 12% तक कम करती है, जो सालाना 400 बिलियन डॉलर के नुकसान के बराबर है।
  • बीमारियों का बढ़ता जोखिम: भूमि क्षरण के कारण स्वच्छ जल की कमी से हैजा और पेचिश जैसी जल जनित बीमारियाँ फैलती हैं।
    • उदाहरण के लिए, उप-सहारा अफ्रीका में सूखा प्रभावित क्षेत्रों में पानी से संबंधित बीमारियों का बार-बार प्रकोप होता है।
  • समुद्री और मीठे पानी के पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान: नदियों और महासागरों में उर्वरकयुक्त मृदा के बहाव से शैवाल का विकास होता है, जिससे ऑक्सीजन का स्तर कम होता है और जलीय जीवन को नुकसान पहुँचता है।
    • गंगा नदी पोषक तत्त्वों के प्रदूषण से ग्रस्त है, जिससे मछलियों की आबादी में कमी आ रही है।
  • जलवायु परिवर्तन में योगदान: दूषित मृदा से कार्बन और नाइट्रस ऑक्साइड निकलता है, जिससे ग्लोबल वार्मिंग में वृद्धि होती है।
    • UNCCD रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि भूमि क्षरण से कार्बन अवशोषण क्षमता 20% कम हो जाती है।
  • जैव विविधता का नुकसान: वनों की कटाई और शहरीकरण के कारण आवास विनाश से वन्यजीव प्रजातियों को खतरा है।
    • उदाहरण के लिए, अमेजन वर्षावन में भूमि परिवर्तन ने जगुआर और ऊदबिलाव जैसी प्रजातियों को खतरे में डाल दिया है।
  • आर्थिक नुकसान और आजीविका पर प्रभाव: भूमि क्षरण के कारण वैश्विक आर्थिक हानि सालाना 10.6 ट्रिलियन डॉलर या दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 17% होने का अनुमान है।
    • इथियोपिया में किसानों को क्षरित फसल भूमि से सालाना 4 बिलियन डॉलर का नुकसान होता है, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी और बढ़ रही है।

भूमि क्षरण के प्रमुख स्थल

  • भूमि क्षरण से गंभीर रूप से प्रभावित क्षेत्रों में दक्षिण एशिया, उत्तरी चीन, संयुक्त राज्य अमेरिका में उच्च पठार और कैलिफोर्निया तथा भूमध्यसागरीय क्षेत्र शामिल हैं।
  • शुष्क भूमि, जो मानवता की एक-तिहाई आबादी का आवास क्षेत्र है, विशेष रूप से असुरक्षित है। इन क्षेत्रों में अफ्रीका का तीन-चौथाई हिस्सा शामिल है।

निम्न आय वाले देशों पर असमानुपातिक प्रभाव

  • कम आय वाले देश, विशेषतौर पर उष्णकटिबंधीय एवं शुष्क क्षेत्रों में, भूमि क्षरण का असंगत भार  वहन करते हैं।
  • गरीब देशों को भूमि क्षरण प्रभावों का अधिक सामना करना पड़ता है, जबकि इसकी चुनौतियों से निपटने के लिए उनके पास पर्याप्त क्षमता का अभाव है।

भूमि क्षरण और मरुस्थलीकरण से निपटने के लिए सरकारी उपाय

  • मरुस्थलीकरण और भूमि क्षरण एटलस: इसे भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के अंतरिक्ष अनुप्रयोग केंद्र (SAC) द्वारा प्रकाशित किया गया है। यह पुनर्स्थापन योजना में सहायता के लिए क्षरित भूमि पर राज्यवार जानकारी प्रदान करता है।
    • भारत में अनुमानित भूमि क्षरण और मरुस्थलीकरण: वर्ष 2018-19 में 97.84 मिलियन हेक्टेयर।
  • मरुस्थलीकरण से निपटने के लिए राष्ट्रीय कार्य योजना: इस योजना का लक्ष्य है:
    • वर्ष 2030 तक 26 मिलियन हेक्टेयर बंजर भूमि को बहाल करना
    • वर्ष 2030 तक 2.5-3 बिलियन टन CO2 समतुल्य उत्पन्न करने के लिए वन और वृक्ष आवरण को बढ़ाना।
  • वनरोपण योजनाएँ
    • हरित भारत के लिए राष्ट्रीय मिशन (GIM) (2014): जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना के तहत आठ मिशनों में से एक।
    • वनाग्नि सुरक्षा एवं प्रबंधन योजना (FFPM) (2017): वनाग्नि से निपटने में राज्यों की सहायता करने के लिए बनाई गई।
    • CAMPA (2004) के तहत प्रतिपूरक वनरोपण: प्रतिपूरक वनरोपण के लिए जारी किए गए धन का कुशल और पारदर्शी उपयोग सुनिश्चित करना।
    • राष्ट्रीय तटीय मिशन कार्यक्रम (2014): तटीय क्षेत्रों के सतत् विकास को सुनिश्चित करना।
  • राष्ट्रीय वनरोपण कार्यक्रम (NAP): यह योजना वर्ष 2000 से राष्ट्रीय वनरोपण एवं पारिस्थितिकी विकास बोर्ड (NAEB) द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर क्रियान्वित की जा रही है।
    • इसका उद्देश्य जन भागीदारी के माध्यम से क्षरित वनों और आस-पास के क्षेत्रों को पुनः स्थापित करना है।
  • प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (PMKSY) (2015) का वाटरशेड विकास घटक: भूदृश्य के पारिस्थितिकी कायाकल्प और आर्थिक विकास में सुधार करना।
  • विजुअलाइजेशन के लिए ऑनलाइन पोर्टल: अंतरिक्ष अनुप्रयोग केंद्र (SAC), अहमदाबाद के सहयोग से विकसित किया गया।
    • क्षरित भूमि क्षेत्रों और क्षरण का कारण बनने वाली प्रक्रियाओं को विजुअलाइज करने की अनुमति देता है।
  • ICFRE देहरादून में उत्कृष्टता केंद्र: भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद (ICFRE), देहरादून में परिकल्पित है।
    • ज्ञान साझा करने और सर्वोत्तम प्रथाओं के लिए दक्षिण-दक्षिण सहयोग पर ध्यान केंद्रित करता है।
    • सतत् भूमि प्रबंधन में भारत के अनुभवों को साझा करने का लक्ष्य रखता है।
  • अंतरराष्ट्रीय सहयोग: भारत UNCCD का एक पक्ष है और मरुस्थलीकरण से निपटने के लिए अंतरराष्ट्रीय प्रयासों में सक्रिय रूप से भाग लेता है।

वैश्विक प्रयास

  • बॉन चैलेंज (Bonn Challenge): इसका लक्ष्य वर्ष 2020 तक 150 मिलियन हेक्टेयर वनविहीन और क्षरित भूमि को पुनर्स्थापित करना तथा वर्ष 2030 तक 350 मिलियन हेक्टेयर भूमि को पुनर्स्थापित करना है।
  • ग्रेट ग्रीन वॉल (Great Green Wall): इसे ग्लोबल एनवायरमेंट फैसिलिटी (GEF) द्वारा शुरू किया गया।
    • साहेल-सहारा अफ्रीका के 11 देश भूमि क्षरण से निपटने और परिदृश्य में देशज पौधों को पुनर्स्थापित करने के लिए कार्य कर रहे हैं।

आगे की राह

  • सतत् कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देना: कृषि वानिकी, फसल चक्र और जैविक खेती जैसी सतत् कृषि तकनीकों को अपनाने से मिट्टी का कटाव और रासायनिक प्रदूषण कम हो सकता है।
    • भारत में ‘शून्य बजट प्राकृतिक खेती’ (Zero Budget Natural Farming- ZBNF) पहल ने मृदा के स्वास्थ्य में सुधार किया है और किसानों के लिए इनपुट लागत कम की है।
  • वनीकरण और वनीकरण कार्यक्रमों को बढ़ावा देना: भारत के ग्रीन इंडिया मिशन जैसी बड़े पैमाने पर वनीकरण परियोजनाएँ जैव विविधता और कार्बन पृथक्करण में सुधार करते हुए क्षरित भूमि को पुनर्स्थापित कर सकती हैं।
  • प्रकृति आधारित समाधान (NbS) अपनाना: वाटरशेड प्रबंधन और आर्द्रभूमि पुनर्स्थापन जैसे NbS को लागू करने से जल संरक्षण और जैव विविधता के लिए सह-लाभ प्रदान करते हुए भूमि क्षरण को संबोधित किया जा सकता है।

UNCCD रिपोर्ट की नीतिगत सिफारिशें

  • राष्ट्रीय सूखा प्रबंधन योजनाओं में NbS को शामिल किया जाना चाहिए ताकि सतत् भूमि और जल प्रथाओं को मुख्यधारा में लाया जा सके।
  • स्थानीय समुदायों को स्थायी प्रथाओं को लागू करने में सहायता करने के लिए भूमि स्वामित्व और जल अधिकार सुनिश्चित करना।
  • प्रभावी भूमि और जल प्रबंधन नीतियों को लागू करने के लिए स्थानीय शासन को मजबूत करना।
  • NbS में निवेश आकर्षित करने के लिए सार्वजनिक-निजी भागीदारी को बढ़ावा देना।
  • हानिकारक सब्सिडी को स्थायी भूमि और जल प्रबंधन की दिशा में पुनर्निर्देशित करना।
  • NbS के लाभों को प्रदर्शित करने के लिए प्रभावी डेटा संग्रह और निगरानी को बढ़ाना, निजी क्षेत्र के निवेश को प्रोत्साहित करना।
  • संपूर्ण समाज का दृष्टिकोण अपनाना: सरकारों, व्यवसायों, नागरिक समाज और शिक्षाविदों को सूखे के प्रति समुदाय और पारिस्थितिकी तंत्र को लचीला बनाने के लिए सहयोग करना चाहिए।

    • केन्या की ताना नदी बेसिन परियोजना ने क्षरण को कम किया और स्थानीय जल उपलब्धता में सुधार किया, जिससे लोगों और पारिस्थितिकी तंत्र दोनों को लाभ हुआ।
  • कानूनी और नीतिगत ढाँचों को मजबूत करना: सरकारों को भूमि क्षरण शमन को राष्ट्रीय नीतियों में शामिल करना चाहिए और भूमि उपयोग विनियमनों को लागू करना चाहिए।
  • भूमि निगरानी के लिए प्रौद्योगिकी और डेटा का लाभ उठाना: उपग्रह इमेजरी और GIS का उपयोग भूमि उपयोग में परिवर्तनों को ट्रैक करने, क्षरण हॉटस्पॉट की पहचान करने और पुनर्स्थापन प्रयासों को निर्देशित करने में मदद कर सकता है।
    • यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी के प्रहरी उपग्रह साहेल क्षेत्र में मरुस्थलीकरण की निगरानी कर रहे हैं, जिससे लक्षित हस्तक्षेपों में सहायता मिल रही है।
  • वित्तीय संसाधन जुटाना: सार्वजनिक-निजी भागीदारी, ग्रीन बॉण्ड और हानिकारक सब्सिडी को पुनः प्रयोग करने के माध्यम से निवेश को बढ़ाना वित्तपोषण अंतराल को संबोधित कर सकता है।
    • FAO की रिपोर्ट के अनुसार, वार्षिक वैश्विक कृषि सब्सिडी में से 540 बिलियन डॉलर को स्थायी प्रथाओं के लिए पुनर्निर्देशित करने से भूमि क्षरण से निपटने के लिए संसाधन मिल सकते हैं।
  • समुदायों को शामिल करना और स्थानीय शासन को मजबूत करना: भूमि पुनर्स्थापन के प्रयासों में स्थानीय समुदायों को शामिल करने से स्वामित्व, बेहतर कार्यान्वयन और दीर्घकालिक सफलता सुनिश्चित होती है।
    • भारत में सुखोमाजरी वाटरशेड परियोजना ने समुदायों को बेहतर सिंचाई और पीने के पानी के साथ प्रोत्साहित करके सफलता प्राप्त की, जिससे मिट्टी का क्षरण कम हुआ और वन क्षेत्र बढ़ा है।
    • इथियोपिया में, समुदाय आधारित भूमि स्वामित्व सुधारों ने स्थानीय लोगों को अपनी भूमि का स्थायी प्रबंधन करने के लिए सशक्त बनाकर क्षरण को कम किया है।

निष्कर्ष 

भूमि क्षरण पारिस्थितिकी तंत्र, आजीविका और वैश्विक स्थिरता के लिए एक महत्त्वपूर्ण खतरा है। इस चुनौती से निपटने के लिए एक समन्वित दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जो सतत् प्रथाओं, तकनीकी नवाचार और सामुदायिक भागीदारी को जोड़ता है।

  • पुनर्स्थापना प्रयासों को प्राथमिकता देकर, प्रमुख विकासात्मक और पर्यावरणीय लक्ष्यों को प्राप्त करते हुए भविष्य की पीढ़ियों के लिए पृथ्वी को सुरक्षित कर सकते हैं।

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