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CrPC के तहत तलाकशुदा मुस्लिम महिला को भरण-पोषण का अधिकार

Lokesh Pal July 12, 2024 03:59 128 0

संदर्भ

एक ऐतिहासिक फैसले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने दोहराया कि एक मुस्लिम महिला आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के तहत अपने पति से गुजारा भत्ता माँगने की हकदार है, भले ही उनका तलाक धार्मिक व्यक्तिगत कानून के तहत हुआ हो।

वर्तमान मामला: मोहम्मद अब्दुल समद बनाम तेलंगाना राज्य, 2024

  • याचिकाकर्ता ने फैमिली कोर्ट के आदेश को चुनौती दी: याचिकाकर्ता मोहम्मद अब्दुल समद ने वर्ष 2017 के फैमिली कोर्ट के आदेश को चुनौती दी, जिसमें उसे अपनी पूर्व पत्नी को भरण-पोषण के लिए 20,000 रुपये प्रति माह देने का निर्देश दिया गया था।
  • उच्च न्यायालय का निर्णय: अपील पर तेलंगाना उच्च न्यायालय ने पारिवारिक न्यायालय के निर्णय को पलटने से इनकार कर दिया।
  • उच्चतम न्यायालय में अपील: याचिकाकर्ता ने तेलंगाना उच्च न्यायालय के निर्देश को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी।
  • याचिकाकर्ता का तर्क: याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि भरण-पोषण का दावा CrPC की धारा 125 के बजाय मुस्लिम महिला (विवाह विच्छेद पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 (वर्ष 1986 के अधिनियम) द्वारा शासित होना चाहिए।
    • याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि वर्ष 1986 के अधिनियम के प्रावधान, एक विशेष कानून होने के कारण, CrPC की धारा 125 पर प्रभावी होंगे।

मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) अधिनियम 2019

  • उद्देश्य: एक मुस्लिम महिला जिसे उसके पति ने तलाक कहकर तलाक दे दिया है, वह मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) अधिनियम 2019 के तहत भरण-पोषण भत्ता माँग सकती है।
  • तीन तलाक शून्य एवं अवैध: मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 2019 तीन बार तलाक कहकर दिए गए तत्काल तलाक को शून्य तथा अवैध घोषित करता है। 
    • इसमें तत्काल तीन तलाक देने वाले पति को 3 वर्ष तक की कैद एवं जुर्माने का प्रावधान है।

उच्चतम न्यायालय का फैसला

  • CrPC की धारा 125 तथा मुस्लिम महिला (विवाह विच्छेद पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 के तहत भरण-पोषण: निर्णय में दोहराया गया कि CrPC की धारा 125 के तहत भरण-पोषण मुस्लिम महिला (विवाह विच्छेद पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 (MWPRD अधिनियम) के तहत भरण-पोषण के प्रावधानों के ‘अतिरिक्त’ है, न कि इसके ‘खिलाफ’।
  • तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं पर कोई रोक नहीं: वर्ष 1986 के अधिनियम को लागू करते समय संसद ने CrPC की धारा 125 के तहत तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं पर भरण-पोषण का दावा करने पर कोई रोक नहीं लगाई।
    • डेनियल लतीफी एवं अन्य बनाम भारत संघ: यह स्थिति पहली बार वर्ष 2001 में डेनियल लतीफी एवं अन्य बनाम भारत संघ के ऐतिहासिक निर्णय में ली गई थी।
  • मुस्लिम महिलाओं के पास विकल्प है: न्यायालय ने कहा कि CrPC की धारा 125 या वर्ष 1986 के अधिनियम के तहत भरण-पोषण के लिए आवेदन करने का विकल्प मुस्लिम महिला के पास है। 
    • यदि वह अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है, तो वह धारा 125 के तहत भत्ते की माँग कर सकती है। 
    • वैकल्पिक रूप से, यदि वह आर्थिक रूप से स्वतंत्र है, तो वह इद्दत अवधि की समाप्ति तक वर्ष 1986 के अधिनियम के तहत रखरखाव की माँग कर सकती है। तलाकशुदा मुस्लिम महिला किसी एक या दोनों प्रावधानों का सहारा लेने की हकदार है। यह विकल्प महिलाओं के पास है।
  • तीन तलाक से तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएँ राहत की हकदार: न्यायमूर्ति नागरत्ना ने स्पष्ट किया कि तीन तलाक जैसे अवैध तरीकों से तलाक लेने वाली मुस्लिम महिलाएँ भी CrPC की धारा 125 के तहत भरण-पोषण की हकदार हैं। 
    • उच्चतम न्यायालय ने वर्ष 2017 में ‘तीन तलाक’ की प्रथा को असंवैधानिक घोषित कर दिया था एवं बाद में मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 2019 के तहत इसे अपराध घोषित कर दिया गया था।
  • सामाजिक न्याय संबंधी उपाय: पीठ ने माना कि CrPC की धारा 125 को महिलाओं एवं बच्चों की सुरक्षा के लिए सामाजिक न्याय के उपाय के रूप में प्रस्तुत किया गया था।
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यह प्रावधान भारतीय संविधान के अनुच्छेद-15(3) की प्रतिबद्धता को दर्शाता है: भारत के संविधान में अनुच्छेद-15(3) नामक एक खंड है, जो राज्य को महिलाओं एवं बच्चों के लिए विशेष प्रावधान करने का अधिकार देता है।
      • भारतीय संविधान का अनुच्छेद-39(e): अनुच्छेद-39(e) के तहत राज्य को यह सुनिश्चित करने का दायित्व दिया गया है कि “नागरिकों को आर्थिक आवश्यकता के कारण उनकी उम्र या क्षमता के लिए अनुपयुक्त व्यवसायों में प्रवेश करने के लिए मजबूर नहीं किया जाता है”।
      • गरिमा सुनिश्चित करना: इसका उद्देश्य महिलाओं के लिए उनके जीवन के सभी चरणों में गरिमापूर्ण जीवन सुनिश्चित करना है।
  • राहत की धर्म निरपेक्ष प्रकृति: CrPC की धारा 125 के तहत दावा पक्षकारों पर लागू होने वाले व्यक्तिगत कानूनों के बावजूद स्वीकार्य है।
  • आस्था तटस्थता: यह प्रावधान इस बात पर ध्यान दिए बिना लागू होता है कि महिला किसी भी धर्म की हो।
  • समर्थन का महत्त्वपूर्ण स्रोत: निराश्रित, परित्यक्त एवं वंचित महिलाओं के समर्थन के लिए भरण-पोषण का उपाय महत्त्वपूर्ण है।
  • महिलाओं के बलिदानों को मान्यता: न्यायमूर्ति नागरत्ना ने स्वीकार किया कि विवाहित महिलाएँ अक्सर अपने परिवार का पालन-पोषण करने, बच्चों का पालन-पोषण करने एवं बुजुर्गों की देखभाल करने के लिए रोजगार के अवसर छोड़ देती हैं। 

भारत में भरण-पोषण संबंधी कानून का विकास

  • शाह बानो केस (1985)
    • पृष्ठभूमि: वर्ष 1978 में, शाह बानो बेगम ने CrPC की धारा 125 के तहत एक याचिका दायर की एवं अपने पति मोहम्मद अहमद खान से अपने तथा अपने पाँच बच्चों के लिए गुजारा भत्ता माँगा।
    • तलाक: मोहम्मद अहमद खान ने उस वर्ष के अंत में मुस्लिम पर्सनल लॉ का इस्तेमाल करते हुए ‘अपरिवर्तनीय तलाक’ का उपयोग करते हुए शाह बानो को तलाक दे दिया, जिसके तहत केवल इद्दत अवधि के दौरान भरण-पोषण की बाध्यता थी।
    • कानूनी कार्यवाही: मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने वर्ष 1980 में शाह बानो की याचिका मंजूर कर ली, जिसके बाद अपील उच्चतम न्यायालय तक पहुँची।
    • उच्चतम न्यायालय का निर्णय: पाँच जजों की संवैधानिक पीठ ने उच्च न्यायालय के निर्णय को बरकरार रखा। 
      • तब भारत के मुख्य न्यायाधीश वाई. वी. चंद्रचूड़ ने माना कि CrPC की धारा 125 जैसे प्रावधान ‘धर्म की बाधाओं को दूर करते हैं’, एवं ‘चाहे पति-पत्नी हिंदू हों या मुस्लिम, ईसाई या पारसी, बुतपरस्त या नास्तिक, पूरी तरह से अप्रासंगिक हैं’। 
      • न्यायालय ने यह भी माना कि तलाकशुदा पत्नी इद्दत अवधि के बाद भी धारा 125 के तहत भरण-पोषण की हकदार है, “यदि वह अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है”।
  • मुस्लिम महिला (विवाह विच्छेद पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम 1986, का अधिनियमन
    • शाह बानो फैसले को पलटना: भारतीय संसद में वर्ष 1986 में MWPRD अधिनियम लाया गया,  जिसने शाह बानो फैसले को प्रभावी ढंग से पलट दिया। 
    • भरण-पोषण देने की बाध्यता: इस अधिनियम के तहत, इद्दत अवधि के बाद गुजारा भत्ता देने का दायित्व तलाकशुदा पत्नी के रिश्तेदारों या बच्चों पर और उनकी अनुपस्थिति में राज्य वक्फ बोर्ड पर रखा गया था।
  •  डेनियल लतीफी बनाम भारत संघ (2001)
    • MWPRD अधिनियम को चुनौती: MWPRD अधिनियम के लागू होने के बाद, शाह बानो के वकील, डेनियल लतीफी नफेस अहमद सिद्दीकी ने इसकी संवैधानिकता को लेकर  सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी।
    • तर्क: उन्होंने तर्क दिया कि CrPC की धारा 125 सभी धर्मों की महिलाओं को बेसहारा होने से बचाती है।
      • भारतीय संविधान के अनुच्छेद-14 एवं अनुच्छेद-21 का उल्लंघन: MWPRD अधिनियम, मुस्लिम महिलाओं के खिलाफ भेदभाव करता है, उनके समानता के अधिकार (अनुच्छेद-14) तथा सम्मान के साथ जीवन के अधिकार (अनुच्छेद-21) का उल्लंघन करता है।
    • सरकार का बचाव: केंद्र सरकार ने तर्क दिया कि पर्सनल लॉ भेदभाव का एक वैध आधार है और यह समानता के अधिकार का उल्लंघन नहीं करता है।
    • मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की स्थिति: ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने तर्क दिया कि MWPRD अधिनियम मुस्लिम महिलाओं का ख्याल रखता है एवं मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुरूप होने के साथ-साथ ‘भटकाव’ को रोकता है, जो केवल इद्दत की अवधि के दौरान पति पर भरण-पोषण का दायित्व डालता है। 
    • सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय
      • रचनात्मक व्याख्या: पाँच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने MWPRD अधिनियम की धारा 3 (a) की रचनात्मक व्याख्या की, जो इद्दत अवधि के अंतर्गत रखरखाव के प्रावधान को अनिवार्य करती है।
      • विस्तारित जिम्मेदारी: न्यायालय ने फैसला सुनाया कि पति को इद्दत अवधि के भीतर अपनी तलाकशुदा पत्नी की भविष्य की जरूरतों का अनुमान लगाना चाहिए और उसके लिए तैयारी करनी चाहिए।
      • इद्दत से परे भरण-पोषण: न्यायालय ने माना कि भरण-पोषण का दायित्व इद्दत अवधि से आगे भी जारी रहता है, संभवतः तलाकशुदा पत्नी के पूरे जीवन के लिए जब तक कि वह पुनर्विवाह न कर ले और MWPRD अधिनियम की संवैधानिकता को बरकरार रखा। 

प्रयुक्त शब्दावली

इद्दत (Iddat)

  • इद्दत एक अरबी शब्द है एवं इसका शाब्दिक अर्थ ‘गिनती’ है।
  • मुस्लिम कानून के तहत, यह वह अवधि है, जिसके दौरान किसी महिला को अपने विवाह के विघटन के बाद पुनर्विवाह करने पर प्रतिबंध होता है और उसे सादा जीवन व्यतीत करना होता है।

मुस्लिम महिला (विवाह विच्छेद पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 1986 (MWPRD अधिनियम) के बारे में

  • MWPRD अधिनियम: वर्ष 1986 का यह अधिनियम एक धर्म-विशिष्ट कानून है, जो एक मुस्लिम महिला को तलाक के दौरान भरण-पोषण का दावा करने की प्रक्रिया प्रदान करता है। 
  • अनिवार्य रूप से अधिनियमित: यह अधिनियम मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के वर्ष 1985 के फैसले को अनिवार्य रूप से निष्प्रभावी करने के लिए बनाया गया था, जिसमें CrPC की धारा 125 के तहत एक मुस्लिम महिला को अपने तलाकशुदा पति से भरण-पोषण माँगने के अधिकार को बरकरार रखा गया था।
    • हालाँकि, इस फैसले को कई लोगों ने धार्मिक व्यक्तिगत कानूनों का अपमान माना।
  • अधिनियम के तहत गारंटी: वर्ष 1986 के अधिनियम की धारा 3 तलाकशुदा मुस्लिम महिला को उसके पूर्व पति द्वारा केवल इद्दत की अवधि के दौरान भरण-पोषण के भुगतान की गारंटी देती है, जो आमतौर पर तीन महीने की होती है, जिसका पालन महिला को अपने पति की मृत्यु या तलाक के बाद पुनर्विवाह करने से पहले करना होता है।
    • यह राशि उसके विवाह के समय या उसके बाद किसी भी समय उसे दी गई मेहर या दहेज की राशि के बराबर होगी।
    • इद्दत अवधि पूरी होने के बाद, यदि महिला ने दोबारा शादी नहीं की है और वह आर्थिक रूप से अपना भरण-पोषण करने की स्थिति में नहीं है, तो वह भरण-पोषण के लिए प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट के समक्ष अपनी शिकायत दर्ज करा सकती है।

CrPC की धारा 125 के बारे में

  • परिचय: निराश्रित पत्नियों, बच्चों एवं माता-पिता के भरण-पोषण को नियंत्रित करने वाले कानून को CrPC की धारा 125 के तहत संहिताबद्ध किया गया है।
  • गुजारा भत्ता देने की बाध्यता: इसमें प्रावधान है कि यदि कोई व्यक्ति, जो पर्याप्त साधन होते हुए भी अपनी पत्नी की उपेक्षा करता है या भरण-पोषण करने से इनकार करता है, तो प्रथम श्रेणी का मजिस्ट्रेट, ऐसी उपेक्षा या इनकार के साबित होने पर, ऐसे व्यक्ति को आदेश दे सकता है कि वह अपनी पत्नी के भरण-पोषण के लिए मासिक भत्ता उस दर पर दे, जिसे मजिस्ट्रेट उचित समझे।
  • ‘पत्नी’ शब्द का स्पष्टीकरण: अनुभाग में स्पष्टीकरण स्पष्ट करता है कि “पत्नी” शब्द में एक तलाकशुदा महिला भी शामिल है जिसने दोबारा शादी नहीं की है।
    • इसमें महिला के धर्म के बारे में कुछ भी निर्दिष्ट नहीं किया गया है। 
  • क्षेत्र विशिष्ट संशोधन: कई राज्यों ने न्यायालय द्वारा आदेशित भरण-पोषण राशि की अधिकतम सीमा की अनुमति देने के लिए अनुभाग में क्षेत्र-विशिष्ट संशोधन किए हैं।

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (Bharatiya Nagrik Suraksha Sanhit- BNSS)

  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) को 11 अगस्त, 2023 को आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) को बदलने के उद्देश्य से प्रस्तुत किया गया था। 
  • यह कानून जमानत से संबंधित प्रावधानों में संशोधन करता है, संपत्ति जब्ती के दायरे का विस्तार करता है, तथा पुलिस अधिकारियों और मजिस्ट्रेटों की शक्तियों में परिवर्तन करता है।

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