काॅप संयुक्त राष्ट्र (United Nations) द्वारा प्रतिवर्ष आयोजित की जाने वाली एक अंतरराष्ट्रीय जलवायु बैठक है।
काॅप (COP), कॉन्फ्रेंस ऑफ द पार्टीज़ (Conference of the Parties) का संक्षिप्त रूप है, यहाँ ‘पार्टीज़’ से आशय उन देशों (वर्तमान में 198) से है, जो‘जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन’ (UNFCCC) नामक अंतरराष्ट्रीय संधि में शामिल हो गए हैं।
इस संधि में शामिल सभी देशों ने जलवायु प्रणाली में खतरनाक मानवजनित हस्तक्षेप” को रोकने के लिए स्वैच्छिक कार्रवाई करने की प्रतिबद्धता व्यक्त की है।
क्योटो प्रोटोकॉल:
क्योटो प्रोटोकॉल एक अंतरराष्ट्रीय संधि है जिसे वर्ष 1997 में क्योटो (जापान) में अपनाया गया था, यह संधि विकसित और औद्योगिक देशों पर अपने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में निर्धारित मात्रा में कटौती करने का दायित्व निर्धारित करती थी, इसे फरवरी 2005 में लागू किया गया।
यह संधि औपचारिक रूप से वर्ष 2020 में समाप्त हो गई और इसे जलवायु परिवर्तन के खिलाफ वैश्विक कार्रवाई के समन्वय के लिए अंतरराष्ट्रीय संधि के रूप में पेरिस समझौते द्वारा प्रतिस्थापित किया गया।
पेरिस समझौता:
वर्ष 2015 में पेरिस में COP21 में अपनाए गए इस समझौते का उद्देश्य बढ़ते वैश्विक औसत तापमान को सीमित करना है। इसे एक ऐतिहासिक समझौता माना जाता है क्योंकि यह जलवायु परिवर्तन से निपटने और इसके प्रभावों को अनुकूलित करने के लिए सदस्य देशों (वर्तमान में 195) को कानूनी रूप से बाध्य करता है।
1.5०C डिग्री की सीमा: पेरिस समझौते के तहत विश्व भर की सरकारों ने इस सदी में औसत वैश्विक तापमान को पूर्व-औद्योगिक स्तर की तुलना में 2०C से नीचे रखने पर सहमति व्यक्त की है। उन्होंने तापमान में वृद्धि को1.5०C तक सीमित करने के प्रयासों को आगे बढ़ाने का भी वादा किया है
गौरतलब है कि तापमान वृद्धि की एक सीमा को पार करने से जलवायु परिवर्तन के कहीं अधिक गंभीर प्रभाव देखने को मिल सकते हैं, जिसमें लगातार और गंभीर सूखा, हीटवेव तथा अनिश्चित वर्षा शामिल हैं।
ग्लासगो संधि:
ग्लासगो संधि (Glasgow Pact) को स्कॉटलैंड के ग्लासगो में आयोजित COP26 शिखर सम्मेलन के दौरान अपनाया गया था। इस समझौते के तहत कोयले और जीवाश्म ईंधन के उपयोग को धीरे-धीरे समाप्त करने का आह्वान किया गया।
यह पहली बार था कि संयुक्त राष्ट्र जलवायु समझौते में कोयले का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया था। इस समझौते के तहत कार्बन बाजारों से जुड़े मतभेद के समाधान हेतु प्रयास सुझाए गए।
कार्बन बाज़ार: कार्बन बाज़ार ऐसी व्यापारिक प्रणालियाँ हैं जिनमें कार्बन क्रेडिट बेचे और खरीदे जाते हैं। कार्बन बाज़ार देशों या उद्योगों को अपने लक्ष्य से अधिक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कटौती के लिए कार्बन क्रेडिट अर्जित करने की अनुमति देते हैं।
कार्बन क्रेडिट को पैसे के बदले में सबसे अधिक बोली लगाने वाले को बेचा जा सकता है। कार्बन क्रेडिट के खरीदार इस क्रेडिट को अपने उत्सर्जन में कटौती के रूप में दिखा सकते हैं और अपने कटौती लक्ष्यों को पूरा करने के लिए उनका उपयोग कर सकते हैं।
एक व्यापार (या हस्तांतरण) योग्य कार्बन क्रेडिट एक टन कार्बन डाइऑक्साइड या कम की गई, पृथक की गई अथवा टाली गई विभिन्न ग्रीनहाउस गैस की समतुल्य मात्रा के बराबर है।
एक बार क्रेडिट का उपयोग उत्सर्जन को कम करने, अलग करने या उससे बचने के लिए किया जाता है, तो यह एक ऑफसेट (Offset) बन जाता है और अब इसका व्यापार नहीं किया जा सकता है।
ग्रीन हाउस गैसें:
ऐसी गैसें जो प्राकृतिक कारणों या मानवीय गतिविधियों से उत्पन्न होने वाली ऊष्मा या गर्मी को वायुमंडल से बाहर निकलने से रोकती हैं, उन्हें ग्रीन हाउस गैसों (Greenhouse Gases- GHGs) के रूप में जाना जाता है।
इस प्रकार की गैसें सूर्य के प्रकाश को वायुमंडल से गुज़रने की अनुमति देती हैं, लेकिन सूर्य के प्रकाश से होने वाली गर्मी को वापस निकलने से रोक देती हैं।
GHGs का मुख्य स्रोत कोयला, डीज़ल, गैसोलीन या पेट्रोल, केरोसिन और प्राकृतिक गैस जैसे जीवाश्म ईंधन का जलना है। कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड सबसे प्रमुख GHGs के उदाहरण हैं।
शुद्ध-शून्य या नेट ज़ीरो (Net Zero):
इसे कार्बन-तटस्थता के रूप में भी जाना जाता है, नेट ज़ीरो का मतलब यह नहीं है कि कोई देश अपने उत्सर्जन को शून्य कर देगा। बल्कि, यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें किसी देश द्वारा किया जाने वाला उत्सर्जन वायुमंडल से निकाली जाने वाली ग्रीन हाउस गैसों के बराबर होता है।
वनों के क्षेत्रफल को बढ़ाने जैसे अधिक कार्बन सिंक बनाकर या कार्बन डाइऑक्साइड निष्कासन (CDR) जैसी भविष्य की प्रौद्योगिकियों को लागू करके ग्रीन हाउस गैसों का निष्कासन किया जा सकता है।
वर्ष 2018 में, जलवायु परिवर्तन पर अंतरसरकारी पैनल (Intergovernmental Panel on Climate Change- IPCC) ने ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने हेतु वर्ष 2050 को नेट ज़ीरो के लक्ष्य को प्राप्त करने की समय-सीमा के रूप में चिह्नित किया था।
कार्बन कैप्चर और भंडारण (Carbon capture and storage-CCS): CCS मूल रूप से एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके तहत कार्बन डाइऑक्साइड को वायुमंडल से एकत्र कर पृथ्वी के नीचे इसका भंडारण किया जाता है, जिससे इसके उत्सर्जन को कम किया जा सके। इसका उपयोग आमतौर पर जीवाश्म ईंधन संयंत्रों और कारखानों में किया जाता है।
कार्बन कैप्चर, उपयोग और भंडारण (Carbon capture, utilisation and storage- CCUS): यह CCS के प्रयासों से आगे बढ़ते हुए भंडारित कार्बन का उपयोग अल्कोहल, जैव ईंधन, प्लास्टिक या कंकरीट जैसे सामानों के उत्पादन में किया जाता है।
भू-इंजीनियरिंग या जियो इंजीनियरिंग (Geo-engineering): यह जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए पृथ्वी की प्राकृतिक प्रणालियों में जानबूझकर किया गया बड़े पैमाने पर हस्तक्षेप है। CDR भू-इंजीनियरिंग तकनीक का एक उदाहरण है। हालाँकि, उनकी प्रभावशीलता या दुष्प्रभाव अभी भी शोध का विषय हैं।
आईपीसीसी (IPCC): आईपीसीसी या ‘जलवायु परिवर्तन पर अंतरसरकारी पैनल’ जलवायु परिवर्तन से संबंधित विज्ञान का आकलन करने वाली संयुक्त राष्ट्र संस्था है। इसकी स्थापना वर्ष 1988 में ‘विश्व मौसम विज्ञान संगठन’ (WMO) और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) द्वारा की गई थी। आईपीसीसी की मुख्य रूप से जलवायु परिवर्तन के ज्ञान की स्थिति का आकलन करने वाली मूल्यांकन रिपोर्ट, विशेष रिपोर्ट और कार्यप्रणाली रिपोर्ट तैयार करता है।
राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (Nationally Determined Contributions- NDC): वर्ष 2015 केपेरिस समझौते के तहत प्रत्येक देश के लिए राष्ट्रीय उत्सर्जन को कम करने और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के अनुकूल होने के अपने प्रयासों की रूपरेखा तैयार करने का आह्वान किया गया है। इन प्रतिबद्धताओं को NDC के रूप में जाना जाता है। इन्हें हर पाँच वर्ष में प्रस्तुत किया जाता है और नए NDC को पिछले की तुलना में अधिक महत्त्वाकांक्षी बनाया जाना चाहिए।
राष्ट्रीय अनुकूलन योजनाएँ (National Adaptation Plans- NAPs): NAP देशों को जलवायु परिवर्तन के वर्तमान और भविष्य के प्रभावों पर प्रतिक्रिया देने के लिए योजनाएँ विकसित करने में मदद करता है। इनका उद्देश्य जलवायु परिवर्तन के गंभीर प्रभावों के प्रति संवेदनशीलता को कम करना और अनुकूल क्षमता को मज़बूत करना है।
वैश्विक स्टॉकटेक (Global stocktake): यह किसी भी देश द्वारा पाँच वर्ष के दौरान जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध उसकी करवाई तथा इस संदर्भ में अगले पाँच वर्षों की रूप रेखा की समीक्षा को संदर्भित करता है। नवंबर, 2023 दुबई में आयोजित किए जाने वाले COP28 में पहले स्टॉकटेक निष्कर्षों को प्रस्तुत किया जाएगा।
जस्ट ट्रांज़िशन (Just Transition): यह शब्द श्रमिकों के अधिकारों और समुदायों की ज़रूरतों को खतरे में डाले बिना कम-कार्बन या नेट- शून्य अर्थव्यवस्था में बदलाव का वर्णन करता है, जो जीवाश्म ईंधन जैसे उद्योगों में बड़े बदलावों के कारण प्रभावित हो सकता है।
जस्ट ट्रांज़िशन या न्यायसंगत परिवर्तन की पृष्ठभूमि 1980 और 1990 के दशक के अमेरिकी श्रमिक आंदोलन से जुड़ी हुई है, जहाँ ऊर्जा के अन्य स्रोतों की उपलब्धता के कारण कोयला खदानों को बंद करने जैसी ऊर्जा संक्रमण गतिविधियों के कारण विस्थापन का सामना कर रहे श्रमिकों ने न्याय – मुआवज़ा, प्रशिक्षण, शिक्षा की माँग की थी। वर्ष 2015 में, पेरिस समझौते की प्रस्तावना में जस्ट ट्रांज़िशन के विचार को अपनाया गया।
सामान्य परंतु विभेदित उत्तरदायित्व (Common but differentiated responsibilities-CBDR): यह अंतरराष्ट्रीय कानून का एक सिद्धांत है जो बताता है कि जलवायु परिवर्तन जैसी सीमा पार पर्यावरणीय समस्याओं से निपटने के लिए विभिन्न देशों की अलग-अलग क्षमताएँ एवं जिम्मेदारियाँ हैं। वर्ष 1989 का मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल, CBDR सिद्धांत का एक उदाहरण है, जो ओज़ोन परत की रक्षा के लिए बनाई गई एक अंतरराष्ट्रीय संधि है। इसके तहत उत्सर्जन नियंत्रण उपायों को लागू करने के लिए ‘विकासशील देशों’ को 10 वर्ष की छूट अवधि दी।
हानि और क्षति (Loss and damage): संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) के अनुसार, अंतरराष्ट्रीय जलवायु वार्ता में ‘नुकसान और क्षति’ की कोई सहमत परिभाषा नहीं है। सामान्य तौर पर, यह चरम मौसम की घटनाओं के कारण होने वाले अपरिहार्य सामाजिक और वित्तीय प्रभावों को संदर्भित करता है।
पिछले वर्ष COP27 में, विकासशील देश एक ‘हानि एवं क्षति कोष’ (Loss and Damage Fund) स्थापित करने में सफल रहे। इसका उद्देश्य जलवायु आपदाओं से प्रभावित देशों को वित्तीय सहायता प्रदान करना है। हालाँकि, यह अभी सक्रिय नहीं है।
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