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महिलाओं के लिए पैतृक संपत्ति अधिकार

Lokesh Pal July 25, 2025 03:56 56 0

संदर्भ

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने यह पुष्टि की है कि आदिवासी समुदाय की महिलाओं को भी अपने परिवार की पैतृक संपत्ति पर समान अधिकार प्राप्त है।

मामले की पृष्ठभूमि

  • धैया (आदिवासी महिला) वर्ष 1992 से अपनी नानी की संपत्ति के बँटवारे की माँग कर रही थी।
  • निचली अदालत और प्रथम अपीलीय अदालत ने कानूनी उत्तराधिकारियों की याचिका यह कहते हुए खारिज कर दी कि उनकी माँ का अपने पिता की संपत्ति में कोई अधिकार नहीं है।
  • छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय (2022) ने उत्तराधिकार अधिकार प्रदान करने वाले किसी विशिष्ट प्रथागत कानून के अभाव का हवाला देते हुए उनके दावे को खारिज कर दिया।
  • मुख्य मुद्दा: हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (Hindu Succession Act- HSA) अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं होता है।
    • भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 भी राज्यों को आदिवासियों को इसके प्रावधानों से बाहर रखने की शक्ति प्रदान करता है।

सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय (राम चरण बनाम सुखराम)

  • पैतृक संपत्ति में आदिवासी महिलाओं के समान उत्तराधिकार अधिकारों की पुष्टि की गई।
  • छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के वर्ष 2022 के उस आदेश को रद्द कर दिया गया, जिसमें प्रथागत कानून के अभाव का हवाला देते हुए अधिकारों से वंचित किया गया था।
  • न्यायालय ने घोषणा की कि महिलाओं को उत्तराधिकार से वंचित करना संविधान के अनुच्छेद-14 (कानून के समक्ष समानता) और अनुच्छेद-15(1) (लैंगिक के आधार पर भेदभाव का निषेध) का उल्लंघन है।
    • इसमें अनुच्छेद-38 और 46 का भी उल्लेख किया गया है, जिनका उद्देश्य न्याय को बढ़ावा देना तथा असमानता को समाप्त करना है।
  • न्यायालय ने कहा कि महिलाओं के अधिकारों पर प्रतिबंध लगाने वाले किसी विशिष्ट आदिवासी रीति-रिवाज या संहिताबद्ध कानून के अभाव में, न्यायालयों को ‘न्याय, समता और सद्विवेक’ का प्रयोग करना चाहिए।
  • टिप्पणी: ‘रीति-रिवाज समय की सीमाओं में नहीं बँधे रह सकते’ और उन्हें अधिकारों से वंचित नहीं करना चाहिए।
  • सुझाव: दिसंबर 2022 के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र को “इस मामले पर विचार करने और यदि आवश्यक हो, तो हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (HSA) के प्रावधानों में संशोधन करने” की सलाह दी।

पैतृक संपत्ति क्या है?

  • पैतृक संपत्ति से तात्पर्य ऐसी संपत्तियों से है, जो पूर्वजों से विरासत में मिलती हैं और आमतौर पर परिवार में पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्थानांतरित होती हैं।
  • हिंदू कानून के तहत, पैतृक संपत्ति को पुरुष वंश से चार पीढ़ियों तक विरासत में मिली संपत्ति के रूप में परिभाषित किया गया है और इसे अविभाजित रहना चाहिए।
    • ऐतिहासिक रूप से, इसे संयुक्त परिवार की संपत्ति (Joint Family Property- JFP) माना जाता था।
    • प्रत्येक कानूनी उत्तराधिकारी, जिसमें पुत्र और विशेष रूप से पुत्रियाँ (हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के बाद) शामिल हैं, का जन्म से ही इसमें अधिकार होता है।
    • ऐसी संपत्ति को सभी सहदायिकों की सहमति के बिना बेचा या हस्तांतरित नहीं किया जा सकता है।
  • सहदायिक से तात्पर्य ऐसे व्यक्ति से है, जो जन्म से ही अपनी पैतृक संपत्ति में कानूनी अधिकार प्राप्त करने की क्षमता रखता है।

महिलाओं के संपत्ति अधिकारों का ऐतिहासिक संदर्भ और विकास (हिंदू कानून)

  • प्राचीन काल: मनुस्मृति जैसी अधिकांश स्मृतियों में महिलाओं को आश्रित माना गया है, जिन्हें केवल भरण-पोषण का अधिकार है, पारिवारिक संपत्ति में उत्तराधिकार या स्वामित्व का अधिकार नहीं।
    • संपत्ति के अधिकार अंतिम संस्कार से जुड़े थे, जिसे केवल पुत्र ही अर्पित करने के लिए सक्षम माने जाते थे।
  • मिताक्षरा और दयाभाग स्कूल
    • मिताक्षरा विचारधारा (जो भारत के अधिकांश भागों में प्रचलित है) ने पैतृक संपत्ति में महिलाओं को सहदायिक के रूप में मान्यता नहीं दी।
      • वे भरण-पोषण की हकदार थीं और केवल सगोत्रीय पुरुषों की अनुपस्थिति में ही उत्तराधिकार प्राप्त कर सकती थीं, और प्रायः सीमित संपत्ति (केवल अपने जीवनकाल में ही) के रूप में अधिकार रखती थीं।
    • दयाभाग शाखा (मुख्य रूप से बंगाल और असम) ने भी महिलाओं की विरासत को पुरुष उत्तराधिकारियों की अनुपस्थिति तक सीमित कर दिया, हालाँकि इसने JFP और अलग संपत्ति के बीच मिताक्षरा की तरह अंतर नहीं किया।

महिलाओं के संपत्ति अधिकारों का समर्थन करने वाले संवैधानिक सिद्धांत

  • अनुच्छेद-14 (विधि के समक्ष समता): समानता की गारंटी देता है और लैंगिक आधार पर भेदभावपूर्ण व्यवहार का निषेध करता है।
  • अनुच्छेद-15 (लैंगिक के आधार पर भेदभाव का निषेध): लैंगिक आधार पर किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध भेदभाव को स्पष्ट रूप से अस्वीकार करता है।
  • अनुच्छेद-38 और 46 (राज्य नीति के निदेशक सिद्धांत): ये अनुच्छेद ‘महिलाओं के विरुद्ध कोई भेदभाव न हो, यह सुनिश्चित करने के संविधान के सामूहिक लोकाचार’ की ओर संकेत करते हैं।
    • यद्यपि ये प्रत्यक्ष रूप से लागू करने योग्य नहीं हैं, फिर भी ये लैंगिक न्याय के लिए कानूनों की व्याख्या और अनुप्रयोग का मार्गदर्शन करते हैं।
  • जीवन का अधिकार (अनुच्छेद-21): हालाँकि यह सीधे तौर पर संपत्ति का अधिकार नहीं है, लेकिन आजीविका का अधिकार, जो जीवन के अधिकार का अभिन्न अंग है।
  • आदिवासी समुदायों के लिए विशेष प्रावधान
    • संविधान की पाँचवीं और छठी अनुसूचियाँ: जनजातीय समुदायों की सांस्कृतिक और कानूनी स्वायत्तता की रक्षा करती हैं, जिससे उन्हें परंपरागत प्रथाओं के माध्यम से उत्तराधिकार और संपत्ति के अधिकारों पर शासन करने की अनुमति मिलती है।
    • अनुच्छेद-371(A) (नागालैंड के लिए विशेष दर्जा): नागा प्रथागत कानून और प्रक्रिया की रक्षा करता है, अर्थात् संसद का कोई भी अधिनियम, जिसमें भूमि स्वामित्व से संबंधित अधिनियम भी शामिल हैं, नागालैंड पर तब तक लागू नहीं होता, जब तक कि उसकी विधान सभा ऐसा निर्णय न ले।

प्रमुख विधायी सुधार

  • हिंदू महिला संपत्ति अधिकार अधिनियम, 1937: विधवाओं को नए अधिकार प्रदान किए गए, जिससे उन्हें भरण-पोषण के लिए अपने पति की संपत्ति में अधिकार प्राप्त हुआ, हालाँकि यह एक सीमित आजीवन संपत्ति थी और इसमें बेटियों को कोई अधिकार नहीं दिया गया था।
  • हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (Hindu Succession Act- HSA), 1956: वर्ष 1937 के अधिनियम को निरस्त कर हिंदू महिलाओं को पूर्ण संपत्ति अधिकार प्रदान किया गया।
    • इसने बेटियों, विधवाओं और माताओं को प्रथम श्रेणी की कानूनी उत्तराधिकारी बनाया, जो मृत हिंदू पुरुष से संपत्ति प्राप्त करने के लिए पात्र थीं।
    • हालाँकि, इसने शुरुआत में महिलाओं को सहदायिक अधिकारों से वंचित कर दिया और कृषि भूमि पर उनके अधिकारों को काफी हद तक सीमित कर दिया, जिससे यह कई राज्यों में राज्य-स्तरीय काश्तकारी कानूनों के अधीन हो गई।
    • HSA की धारा 14 ने हिंदू महिलाओं को उनके पास मौजूद किसी भी संपत्ति पर पूर्ण स्वामित्व प्रदान किया, चाहे वह अधिनियम से पहले अर्जित की गई हो या बाद में, सीमित स्वामित्व’ की पूर्व धारणाओं को दरकिनार करते हुए।
    • HSA की धारा 15 ने बिना वसीयत के मरने वाली हिंदू महिला के उत्तराधिकार के क्रम को रेखांकित किया।
    • HSA की धारा 30 ने हिंदू महिलाओं को वसीयत द्वारा अपनी संपत्ति का निपटान करने के कानूनी अधिकार की पुष्टि की, जो पहले केवल पुरुषों तक ही सीमित था।
  • हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम (Hindu Succession (Amendment) Act- HSAA), 2005: यह एक क्रांतिकारी परिवर्तन था।
    • समान सहदायिक अधिकार: इसने HSA 1956 की धारा 6 में संशोधन किया, जिससे सभी बेटियों (विवाहित या अविवाहित) को जन्म से ही JFP में बेटों के समान दावेदार बना दिया गया।
    • यह अधिकार वसीयत से नहीं छोड़ा जा सकता था। बेटियाँ भी बँटवारे की माँग कर सकती थीं और JFP के प्रबंधक के रूप में कार्य कर सकती थीं।
    • कृषि भूमि: इसने HSA 1956 की धारा 4(2) में भेदभावपूर्ण खंड को हटा दिया, जिससे सभी हिंदू महिलाओं को कृषि भूमि में अपने भाइयों के समान उत्तराधिकार का अधिकार प्राप्त हुआ, जो असंगत राज्य कानूनों को दरकिनार करता है।
    • पूर्वव्यापी अनुप्रयोग: सर्वोच्च न्यायालय ने बाद में स्पष्ट किया कि बेटियों को जन्म से ही सहदायिक अधिकार प्राप्त होते हैं, और यह अधिकार इस बात पर निर्भर नहीं करता है कि उनके पिता 9 सितंबर, 2005 (संशोधन के अधिनियमन की तिथि) को जीवित थे या नहीं।
      • एक बार बेटी, हमेशा बेटी’ के इस सिद्धांत ने इस प्रावधान को कठोर कर दिया।
  • भारत में अन्य कानून
    • मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) अनुप्रयोग अधिनियम, 1937: इस्लामी उत्तराधिकार को संहिताबद्ध करता है, जिसमें बेटियों को एक निश्चित हिस्सा दिया जाता है, जो आमतौर पर बेटों के हिस्से का आधा होता है।
      • पैतृक और स्व-अर्जित संपत्ति में कोई अंतर नहीं है। इसमें माताओं और पत्नियों के लिए भी विशिष्ट हिस्से का प्रावधान है।
    • भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925: ईसाइयों और पारसियों पर लागू, यह अधिनियम बेटों और बेटियों के लिए समान उत्तराधिकार संबंधी अधिकार प्रदान करता है।
    • विशेष विवाह अधिनियम, 1954: अपने समुदाय से बाहर विवाह करने वाले व्यक्तियों के उत्तराधिकार को नियंत्रित करता है, जिसमें लैंगिक तटस्थ उत्तराधिकार प्रावधान लागू होते हैं।
    • घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 (Protection of Women from Domestic Violence Act- PWDVA): स्वामित्व की परवाह किए बिना, साझा घर में रहने के महिलाओं के अधिकार की रक्षा करता है, यह सुनिश्चित करता है कि उन्हें जबरन बेदखल न किया जाए।
    • हिंदू दत्तक ग्रहण एवं भरण-पोषण अधिनियम (Hindu Adoption and Maintenance Act- HAMA), 1956: HAMA की धारा 19 एक पुत्रवधू को कुछ शर्तों के अधीन अपने ससुर से भरण-पोषण माँगने की अनुमति देती है, बशर्ते कि उसके पास सहदायिक संपत्ति हो।

ऐतिहासिक न्यायिक व्याख्याएँ और उदाहरण

  • प्रकाश बनाम फुलवती (वर्ष 2016) मामला: प्रारंभ में, सर्वोच्च न्यायालय ने यह माना था कि एक बेटी केवल तभी सहदायिक हिस्से का दावा कर सकती है, जब उसके पिता 9 सितंबर, 2005 (जिस दिन HASA 2005 लागू हुआ) को जीवित हों। इससे काफी भ्रम की स्थिति उत्पन्न हुई।
  • दानम्मा सुमन सुरपुर बनाम अमर (वर्ष 2018) मामला: सर्वोच्च न्यायालय ने एक अलग दृष्टिकोण अपनाया और कहा कि सहदायिक संपत्ति पर बेटी का अधिकार जन्मसिद्ध अधिकार है, जिससे संशोधन तिथि पर पिता का जीवित रहना अप्रासंगिक हो जाता है। इस निर्णय ने लैंगिक समानता को पुष्ट किया।
  • विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा (वर्ष 2020): यह मानते हुए कि चूँकि सहदायिक अधिकार जन्म के समय महिला को प्राप्त होता है, इसलिए 9 सितंबर, 2005 को उसके पिता का जीवित होना आवश्यक नहीं था।
  • मैरी रॉय बनाम केरल राज्य (वर्ष 1986): सर्वोच्च न्यायालय ने घोषित किया कि पूर्ववर्ती त्रावणकोर राज्य (केरल और कन्याकुमारी जिले) के ईसाई भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 द्वारा शासित हैं।
    • यह भेदभावपूर्ण स्थानीय कानूनों के प्रावधानों के विपरीत, पूरे भारत में ईसाई महिलाओं के लिए समान उत्तराधिकार सुनिश्चित करता है।

प्रथागत कानून और संवैधानिक अधिकार

  • प्रथागत कानून: उत्तराधिकार और संपत्ति से संबंधित पारंपरिक, समुदाय-विशिष्ट नियम, जो प्रायः सांस्कृतिक, धार्मिक या जनजातीय प्रथाओं में निहित होते हैं।
    • भारत के विभिन्न क्षेत्रों और समुदायों में ये नियम व्यापक रूप से भिन्न होते हैं।
      • विशिष्ट प्रथागत कानून: संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम, 1949 की धारा 20, एक महिला को अपने पिता की संपत्ति का उत्तराधिकार प्राप्त करने की अनुमति देती है, बशर्ते वह किसी पुरुष से विवाह करके उसे अपने पिता के जीवनकाल में घर-जमाई (निवासी दामाद) बना ले।
        • यह समान अधिकारों के संवैधानिक आदर्श की तुलना में कुछ मौजूदा प्रथागत प्रावधानों की सशर्त प्रकृति को उजागर करता है।
  • संवैधानिक अधिकार: भारतीय संविधान के तहत कानूनी गारंटी, विशेष रूप से अनुच्छेद-14 (कानून के समक्ष समानता), 15 (भेदभाव रहित व्यवहार), और 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार), जो लैंगिक रूप से समान संपत्ति अधिकारों का समर्थन करते हैं।

प्रथागत कानून और महिलाओं के संपत्ति अधिकार

  • पितृसत्तात्मक पूर्वाग्रह: कई प्रथागत कानून पुरुष उत्तराधिकारियों को प्राथमिकता देते हैं, जिससे महिलाओं की पैतृक संपत्ति तक पहुँच सीमित हो जाती है।
    • उदाहरण: वर्ष 2005 से पूर्व कुछ हिंदू समुदायों में, मिताक्षरा कानून के तहत बेटियों को सहदायिक अधिकारों से वंचित रखा जाता था।
    • जनजातीय रीति रिवाजों (जैसे- कुछ पूर्वोत्तर भारतीय जनजातियों में) में भूमि उत्तराधिकार के लिए प्रायः पुरुष वंश को प्राथमिकता दी जाती है।
  • क्षेत्रीय विविधताएँ: विभिन्न समुदायों में रीति रिवाज अलग-अलग होते हैं, उदाहरण के लिए, केरल में मातृवंशीय व्यवस्था (नायर समुदाय) महिलाओं को अन्य जगहों की पितृवंशीय व्यवस्थाओं की तुलना में अधिक अधिकार प्रदान करती है।
  • धार्मिक प्रभाव: इस्लामी व्यक्तिगत कानून महिलाओं को कम हिस्सा (जैसे- पुरुष के हिस्से का आधा) आवंटित करता है, जबकि कुछ आदिवासी रीति रिवाज महिलाओं को भूमि के स्वामित्व से पूरी तरह से बाहर रखते हैं।
  • संहिता का अभाव: कई प्रथागत कानून अलिखित हैं, जिसके कारण असंगत अनुप्रयोग और विवाद होते हैं।

महिलाओं के लिए पैतृक संपत्ति अधिकारों का महत्त्व

  • आर्थिक सशक्तीकरण और सुरक्षा में वृद्धि: अचल संपत्ति, विशेष रूप से कृषि भूमि, पर महिलाओं का स्वामित्व उनकी आर्थिक सुरक्षा में उल्लेखनीय सुधार ला सकता है और उन्हें पुरुष रिश्तेदारों पर वित्तीय निर्भरता से मुक्त होने में सक्षम बना सकता है।
  • बेहतर कल्याण और शारीरिक सुरक्षा: अचल संपत्तियों के स्वामित्व से महिलाओं और उनके परिवारों के कल्याण में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है।
    • यह महिलाओं की शारीरिक सुरक्षा में योगदान देता है, विशेष रूप से घरेलू हिंसा के जोखिम को कम करके।
  • बच्चों का बेहतर स्वास्थ्य और शैक्षिक परिणाम: अचल संपत्ति पर महिलाओं का स्वामित्व उनके बच्चों के लिए बेहतर परिणामों से जुड़ा है, विशेष रूप से उनके स्वास्थ्य और शैक्षिक उपलब्धि के संदर्भ में।
  • एजेंसी और निर्णय लेने की शक्ति: जब महिलाओं के पास पैतृक संपत्ति में हिस्सेदारी होती है, तो वे संपत्ति संबंधी चर्चाओं में हाशिए पर नहीं रहतीं।
    • यह भागीदारी संपत्तियों के प्रबंधन, उपयोग और निपटान से संबंधित विचार-विमर्श में सक्रिय भागीदारी तक विस्तारित होती है।
  • लैंगिक समानता और सामाजिक न्याय को बढ़ावा: लैंगिक असमानताओं को मिटाने और संपत्ति के स्वामित्व में ऐतिहासिक अन्याय को दूर करने तथा व्यापक समानता की ओर बढ़ने के स्पष्ट उद्देश्य से कानूनी सुधार लागू किए गए।
    • भूमि अधिकारों में लैंगिक समानता को बढ़ावा देना संयुक्त राष्ट्र के सतत् विकास लक्ष्यों (Sustainable Development Goals- SDG) के अंतर्गत एक महत्त्वपूर्ण लक्ष्य माना गया है, जो गरीबी और भुखमरी उन्मूलन से संबंधित व्यापक उद्देश्यों के साथ संरेखित है।
  • ऐतिहासिक अन्याय का कानूनी संरक्षण और निवारण: महिलाओं के संपत्ति अधिकार मजबूत कानूनी सुरक्षा प्रदान करते हैं, उनकी संपत्ति को उल्लंघन और हेर-फेर से बचाते हैं।
    • ये कानूनी ढाँचे महिलाओं को उनके उचित हिस्से से बेदखल किए जाने, जबरदस्ती किए जाने या वंचित किए जाने के विरुद्ध निवारण का मार्ग प्रदान करते हैं और लंबे समय से चले आ रहे प्रणालीगत पूर्वाग्रहों का प्रत्यक्ष समाधान प्रदान करते हैं।
  • राष्ट्रीय विकास और आर्थिक वृद्धि में योगदान: महिलाओं के संपत्ति स्वामित्व का देश के आर्थिक विकास और खाद्य सुरक्षा में योगदान देखा गया है।
    • किसी राष्ट्र की प्रगति मूलतः इस बात पर निर्भर करती है कि उसकी महिलाओं को सिद्धांत और व्यवहार दोनों में सभी पहलुओं में समान अधिकार और अवसर प्राप्त हों।

कार्यान्वयन और प्रवर्तन में चुनौतियाँ

  • सामाजिक बाधाएँ
    • गहरी जड़ें जमाए पितृसत्ता: संपत्ति के स्वामित्व को पुरुषों का विशेषाधिकार माना जाता है; महिलाओं से अपेक्षा की जाती है कि वे पुरुष संबंधियों पर निर्भर रहें।
    • पारिवारिक दबाव: पारिवारिक सामंजस्य बनाए रखने के लिए महिलाओं पर प्रायः बिना पूरी समझ के ही अपने दावे को छोड़ने का दबाव डाला जाता है।
    • आर्थिक निर्भरता: स्वतंत्र आय का अभाव महिलाओं को पितृसत्तात्मक मानदंडों को चुनौती देने से हतोत्साहित करता है।
    • उपेक्षा: अधिकारों का दावा करने से बहिष्कार, संघर्ष और सामाजिक उपेक्षा लग सकता है।
  • कानूनी और प्रशासनिक बाधाएँ
    • जागरूकता का अभाव: कई ग्रामीण महिलाएँ अपने कानूनी अधिकारों से अनभिज्ञ हैं; शिक्षा और सूचना तक उनकी पहुँच सीमित है।
    • सीमित कानूनी सहायता: विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में, वहनीय और गुणवत्तापूर्ण कानूनी सेवाओं तक अपर्याप्त पहुँच।
    • लंबी/जटिल न्यायिक प्रक्रियाएँ: देरी, लंबित मामले और लागत महिलाओं को हतोत्साहित करती हैं; संपत्ति विवाद वर्षों तक चलते रहते हैं।
    • न्यायिक पूर्वाग्रह/अस्पष्टता: परस्पर विरोधी निर्णयों और पितृसत्तात्मक पूर्वाग्रह, में हालाँकि सुधार हो रहा है, फिर भी ये न्याय में बाधा डाल सकते हैं।
    • खंडित कानूनी ढाँचा: कई कानूनी प्रणालियों के अतिव्यापन से क्षेत्राधिकार संबंधी संघर्ष पैदा होता है।
  • जनजातीय समुदाय और ‘हिंदूकरण का परीक्षण’
    • HSA, 1956 स्पष्ट रूप से अनुसूचित जनजातियों (Scheduled Tribes- ST) को केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित किए जाने तक (धारा 2(2)) से बाहर रखता है।
    • ऐतिहासिक रूप से, अदालतों नेहिंदूकरण परीक्षण’ अपनाया है, जिसके तहत आदिवासी महिलाओं को HSA प्रावधानों का लाभ उठाने के लिए प्रथागत कानूनों का परित्याग और हिंदू प्रथाओं को अपनाने का प्रमाण देना होता है।
    • मधु किश्वर एवं अन्य बनाम बिहार राज्य एवं अन्य (1996): अदालत ने दावों की अधिकता की आशंका के चलते आदिवासी रीति-रिवाजों का बचाव किया, लेकिन विधवाओं के आजीविका अधिकारों को मान्यता दी। अल्पमत के निर्णय में मौलिक अधिकारों के साथ असंगति का तर्क दिया गया।
    • कार्तिक ओरांव बनाम डेविड मुंज़ी: ईसाई धर्म अपनाने के बाद भी उत्तराधिकार के लिए ST का दर्जा बरकरार रहता है।

आगे की राह 

  • कानूनी सुधारों को मजबूत करना: हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम को सभी आदिवासी समुदायों तक विस्तारित करना, समान उत्तराधिकार अधिकार सुनिश्चित करना।
  • जागरूकता बढ़ाना: महिलाओं के उत्तराधिकार संबंधी अधिकारों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए समुदाय-आधारित कार्यक्रम, विशेष रूप से ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में।
  • कानूनी सहायता तक पहुँच बढ़ाना: महिलाओं को उनके उत्तराधिकार संबंधी अधिकारों का दावा करने के लिए वहनीय कानूनी सहायता सुनिश्चित करना।
  • सामाजिक परिवर्तन को प्रोत्साहित करना: लैंगिक रूप से समान उत्तराधिकार प्रथाओं को अपनाने को बढ़ावा देने में सामुदायिक नेताओं को शामिल करना।
  • प्रथागत और वैधानिक कानूनों में सामंजस्य स्थापित करना: सुनिश्चित करना कि प्रथागत कानून समानता के संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप हों।
  • न्यायिक निर्णयों में लैंगिक समानता को बढ़ावा देना: महिलाओं के अधिकारों को बनाए रखने में न्यायिक निरंतरता को प्रोत्साहित करना, लैंगिक समानता को कम करने वाले पूर्वाग्रहों को कम करना।

निष्कर्ष

महिलाओं को पैतृक संपत्ति में अधिकार प्रदान करना, ऐतिहासिक कानूनों और न्यायिक उदाहरणों से सुदृढ़, लैंगिक समानता की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण प्रगति है। फिर भी, महिलाओं के आर्थिक और सामाजिक सशक्तीकरण के लिए संवैधानिक गारंटी और व्यावहारिक प्रथाओं के बीच के अंतराल को पाटना अब भी एक बड़ी चुनौती बना हुआ है।

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