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दल-बदल विरोधी कानून

Lokesh Pal November 20, 2025 03:52 17 0

संदर्भ 

तेलंगाना विधानसभा अध्यक्ष (संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत गठित न्यायाधिकरण की अध्यक्षता करते हुए) सत्तारूढ़ पार्टी में शामिल होने के आरोपी चार BRS विधायकों के खिलाफ अयोग्यता याचिकाओं पर दलीलें सुनना शुरू करेंगे।

पृष्ठभूमि

  • इससे पहले, सर्वोच्च न्यायालय ने तेलंगाना विधानसभा अध्यक्ष को चेतावनी दी थी कि भारत राष्ट्र समिति (BRS) के नेताओं द्वारा दायर याचिकाओं पर निर्णय में देरी करने के लिए वह “घोर अवमानना” कर रहे हैं। इन याचिकाओं में राज्य में सत्तारूढ़ दल में शामिल होने वाले 10 विधायकों को अयोग्य ठहराने की माँग की गई थी।
  • जुलाई में: भारत के मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली एक पीठ ने अध्यक्ष को संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्यता की कार्यवाही पूरी करने के लिए तीन महीने का समय दिया था।
  • पाडी कौशिक रेड्डी बनाम तेलंगाना राज्य: सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी टिप्पणी की कि दसवीं अनुसूची (दल-बदल विरोधी कानून) के तहत न्यायाधिकरण के रूप में कार्य करते समय अध्यक्ष को संवैधानिक छूट प्राप्त नहीं है।

दल-बदल क्या है?

  • यह किसी निर्वाचित प्रतिनिधि द्वारा उस राजनीतिक दल को छोड़कर, जिससे वह निर्वाचित हुआ था, किसी अन्य दल में शामिल होने या स्वतंत्र होने के कृत्य को संदर्भित करता है।
  • अस्थिरता का कारण: दल-बदल विधायी बहुमत को परिवर्तित कर और लोकतांत्रिक जनादेश को कमजोर करके राजनीतिक स्थिरता को बाधित करता है।
  • अलोकतांत्रिक: दल-बदल सरकारों में अस्थिरता पैदा करता है, राजनीतिक अवसरवाद को बढ़ावा देता है और निर्वाचित प्रतिनिधियों में जनता का विश्वास कम करता है।

दल-बदल विरोधी कानून के बारे में

  • इसे 52वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1985 के माध्यम से भारतीय संविधान में दसवीं अनुसूची सम्मिलित करके प्रस्तुत किया गया था।
  • उद्देश्य: निर्वाचित विधायकों को दल बदलने, पार्टी व्हिप की अवज्ञा करने या स्वेच्छा से पार्टी की सदस्यता छोड़ने से रोकना।
  • निर्णायक प्राधिकारी: दल-बदल के कारण अयोग्यता के प्रश्नों का निर्धारण संबंधित सदन के पीठासीन अधिकारी द्वारा किया जाता है:
    • राज्यसभा (RS) में सभापति
    • लोकसभा (LS) में अध्यक्ष
    • विधानसभा के अध्यक्ष
  • प्रक्रिया: पीठासीन अधिकारी सदन के किसी सदस्य से औपचारिक शिकायत प्राप्त होने पर ही दल-बदल मामले में कार्रवाई कर सकते हैं।
    • अंतिम निर्णय पर पहुँचने से पहले, पीठासीन अधिकारी को उस सदस्य को, जिसके विरुद्ध शिकायत की गई है, अपना स्पष्टीकरण प्रस्तुत करने का अवसर प्रदान करना होगा।
  • दल-बदल के आधार
    • स्वेच्छा से सदस्यता त्यागना: यदि कोई निर्वाचित सदस्य स्वेच्छा से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता त्याग देता है।
    • दलीय निर्देश के विपरीत मतदान: यदि वह अपने राजनीतिक दल या ऐसा करने के लिए अधिकृत किसी व्यक्ति द्वारा जारी किसी निर्देश के विपरीत, पूर्व अनुमति प्राप्त किए बिना, सदन में मतदान करता है या मतदान से विरत रहता है।
    • निर्वाचित स्वतंत्र सदस्य: यदि कोई स्वतंत्र रूप से निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल होता है।
    • मनोनीत सदस्य: यदि वह सदन में अपना स्थान ग्रहण करने की तिथि से छह महीने की समाप्ति के बाद किसी राजनीतिक दल में शामिल होता है, तो वह सदन का सदस्य होने के लिए अयोग्य हो जाता है।
      • वह सदन में अपना स्थान ग्रहण करने के छह महीने के भीतर बिना किसी अयोग्यता के किसी भी राजनीतिक दल में शामिल हो सकता है।
  • अपवाद: कानून में दो-तिहाई विधायकों द्वारा समर्थित विलय और पीठासीन अधिकारियों द्वारा स्वैच्छिक त्याग-पत्र जैसे अपवाद शामिल हैं।
  • कोई समय-सीमा नहीं: वर्तमान में पीठासीन अधिकारी द्वारा दल-बदल के मामलों पर निर्णय लेने के लिए कोई निर्धारित समय-सीमा नहीं है, जिसके कारण देरी हो सकती है।
  • न्यायिक समीक्षा: दसवीं अनुसूची के अंतर्गत अध्यक्ष के निर्णयों की न्यायिक समीक्षा की जाती है।
  • अध्यक्ष की भूमिका: अयोग्यता संबंधी याचिकाओं पर संबंधित सदन के अध्यक्ष (या पीठासीन अधिकारी) द्वारा निर्णय लिया जाता है।
    • न्यायाधिकरण प्रमुख के रूप में अध्यक्ष: दसवीं अनुसूची (दल-बदल विरोधी कानून) के अंतर्गत, अध्यक्ष अर्द्ध-न्यायिक प्राधिकारी के रूप में कार्य करता है, जो विधायकों के विरुद्ध अयोग्यता याचिकाओं की जाँच, सुनवाई और निर्णय करता है।
    • अंतिम निर्णय प्राधिकारी: विधानमंडल के भीतर अध्यक्ष/न्यायाधिकरण का निर्णय अंतिम होता है, और यदि उसे चुनौती दी जाती है तो केवल न्यायालयों द्वारा न्यायिक समीक्षा के अधीन होता है।

ADL से संबंधित संशोधन: 91वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2003

  • मंत्रिपरिषद की सीमा: केंद्रीय मंत्रिपरिषद में प्रधानमंत्री सहित मंत्रियों की कुल संख्या लोकसभा की कुल सदस्य संख्या के 15% से अधिक नहीं हो सकती।
  • राज्य मंत्रिपरिषद की सीमा: राज्य मंत्रिपरिषद में मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों की कुल संख्या विधानसभा की कुल सदस्य संख्या के 15% तक सीमित है, जिसमें न्यूनतम 12 मंत्री होने आवश्यक हैं।
  • मंत्रिस्तरीय नियुक्तियों से अयोग्यता: दल-बदल के कारण अयोग्य घोषित संसद या राज्य विधानमंडल के किसी भी सदन का सदस्य मंत्री नियुक्त होने से भी अयोग्य घोषित कर दिया जाता है।
  • राजनीतिक पदों से अयोग्यता: दल-बदल के कारण अयोग्य घोषित संसद या राज्य विधानमंडल के सदस्य किसी भी लाभकारी राजनीतिक पद धारण करने से भी अयोग्य घोषित किए जाते हैं।
  • विभाजन प्रावधान की सीमा बढ़ाना: दलीय विभाजन की सीमा को एक-तिहाई (52वें संशोधन अधिनियम के माध्यम से लागू) से बढ़ाकर विलय पर सहमत सदस्यों के दो-तिहाई कर दिया गया है।
    • इससे छोटे पैमाने पर दल-बदल की घटनाएँ और अधिक चुनौतीपूर्ण हो गईं और इस तरह की राजनीतिक घटनाएँ कम हो गईं।

दल-बदल विरोधी कानून के लाभ

  • स्थिरता को बढ़ावा: यह कानून व्यक्तिगत लाभ से प्रेरित होकर बार-बार होने वाले दल-बदल को रोककर राजनीतिक स्थिरता को बढ़ावा देता है।
  • दलगत अनुशासन: यह यह सुनिश्चित करके पार्टी अनुशासन को मजबूत करता है कि सदस्य महत्त्वपूर्ण मतदान में पार्टी की नीतियों का पालन करें।
  • अलोकतांत्रिक प्रथाओं पर रोक: यह “खरीद-फरोख्त” और अवसरवादी गठबंधनों की संभावना को कम करके चुनावी जनादेश की रक्षा करता है।
    • यह निर्वाचित सरकारों के मध्यावधि पतन को रोककर सरकार की निरंतरता को बढ़ाता है।

दल-बदल विरोधी कानून की सीमाएँ

  • अनिश्चितकालीन निर्णय: अध्यक्ष के लिए अयोग्यता के मामलों पर निर्णय लेने की कोई समय सीमा नहीं है, जिसके कारण देरी और चुनिंदा निर्णय होते हैं।
  • राजनीतिक पूर्वाग्रह: अध्यक्ष की विवेकाधीन शक्तियाँ राजनीतिक पूर्वाग्रहों से प्रभावित हो सकती हैं, जिससे निष्पक्ष निर्णय प्रभावित हो सकते हैं।
  • कानून की अवहेलना: दो-तिहाई विलय का अपवाद एक ऐसी त्रुटि उत्पन्न करता है, जिससे विलय के रूप में जानबूझकर दल-बदल की अनुमति मिल जाती है।
  • मत को सीमित करता है: यह कानून विधायकों को सामान्य नीतिगत मामलों में भी पार्टी व्हिप का पालन करने के लिए बाध्य करके वैध असहमति को प्रतिबंधित करता है।

भारत में दल-बदल विरोधी कानून से संबंधित सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय

  • किहोतो होलोहन बनाम जाचिल्हु एवं अन्य (1993): सर्वोच्च न्यायालय ने दसवीं अनुसूची की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा और कहा कि दल-बदल विरोधी कानून के तहत अध्यक्ष के निर्णय, न्यायिक समीक्षा के अधीन हैं।
    • दुर्भावनापूर्ण उद्देश्य या निर्णय लेने में विकृति जैसे आधारों पर समीक्षा की अनुमति है।
  • रवि एस. नाइक बनाम भारत संघ (1994): न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि “स्वेच्छा से सदस्यता का त्याग” एक औपचारिक त्याग-पत्र देने से भिन्न अवधारणा है तथा विधायक का आचरण भी उसकी पार्टी सदस्यता छोड़ने के संकेत के रूप में व्याख्यायित किया जा सकता है।
  • केइशम मेघचंद्र सिंह बनाम अध्यक्ष, मणिपुर विधानसभा (2020): न्यायालय ने निर्देश दिया कि असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर, अयोग्यता याचिकाओं पर तीन महीने के भीतर निर्णय सुनाया जाना चाहिए, और दल-बदल विरोधी मामलों पर फैसला करने के लिए अध्यक्ष के स्थान पर एक स्वतंत्र न्यायाधिकरण की सिफारिश की।

दल-बदल विरोधी कानून को मजबूत करने की सिफारिशें

  • दिनेश गोस्वामी समिति (1990) ने सिफारिश की थी कि अयोग्यता केवल विश्वास प्रस्ताव, धन विधेयक और राष्ट्रपति के अभिभाषण तक ही सीमित होनी चाहिए।
  • हलीम समिति (1994) ने “स्वेच्छा से सदस्यता त्यागने” को स्पष्ट रूप से परिभाषित करने और निष्कासित सदस्यों पर प्रतिबंध लगाने का सुझाव दिया था।
  • 170वीं विधि आयोग रिपोर्ट (1999) ने सभी प्रकार के दल-बदल के लिए अयोग्यता और पार्टी की कार्यप्रणाली में पारदर्शिता को मजबूत करने का प्रस्ताव रखा था।
  • द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने चुनाव आयोग की बाध्यकारी सलाह पर कार्य करते हुए दल-बदल संबंधी निर्णयों को राष्ट्रपति या राज्यपाल को सौंपने की सिफारिश की थी।
  • 255वीं विधि आयोग रिपोर्ट (2015) ने कानून में आमूल-चूल परिवर्तन की सिफारिश की थी, जिसमें केवल पार्टी संबद्धता के स्थान पर सदस्य के आचरण पर ध्यान केंद्रित किया गया था।

निष्कर्ष

दल-बदल विरोधी कानून ने अस्थिरता और राजनीतिक अवसरवाद को रोकने में मदद की है, लेकिन लगातार त्रुटियाँ तथा देरी इसकी प्रभावशीलता में बाधा डालती हैं। लोकतांत्रिक अखंडता की रक्षा के लिए तटस्थता, समय सीमा और पारदर्शिता को मजबूत करना आवश्यक है।

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