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भारत में दल-बदल विरोधी कानून

Lokesh Pal October 28, 2024 02:35 150 0

संदर्भ

दल-बदल विरोधी कानून ने राजनीतिक स्थिरता में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है, लेकिन इसे अधिक प्रभावी और निष्पक्ष बनाने के लिए अभी भी कुछ कमियाँ हैं, जिन्हें दूर करने की आवश्यकता है।

राजनीतिक शब्दावली से ‘दल-बदल’ के बारे में

  • दल-बदल से तात्पर्य किसी राजनीतिक दल के सदस्य द्वारा एक दल को छोड़कर दूसरे दल में शामिल होना या स्वतंत्र हो जाना है।
    • यह कृत्य राजनीतिक स्थिरता को बाधित कर सकता है तथा विधायी निकायों में शक्ति संतुलन को बदल सकता है।

भारत में दल-बदल विरोधी कानून की आवश्यकता

  • बार-बार दल-बदल करना: 1960 तथा 1970 के दशक में, विधायक अक्सर कार्यकाल के मध्य में दल बदल लेते थे, जिसके परिणामस्वरूप सरकारें अपना बहुमत खो देती थीं, जिसके परिणामस्वरूप पुनः चुनाव कराने पड़ते थे।
    • ‘आया राम, गया राम’ सिंड्रोम: यह शब्द तब लोकप्रिय हुआ, जब हरियाणा के एक विधायक गया लाल ने एक ही दिन में तीन बार पार्टी बदली थी।
  • सार्वजनिक विश्वास में कमी: मंत्री पद तथा वित्तीय प्रोत्साहन जैसे व्यक्तिगत लाभ के लिए विधायकों द्वारा बार-बार दल-बदल करने से भ्रष्टाचार की चिंताएँ बढ़ीं और जनता का विश्वास कम हुआ, सरकार अस्थिर हुई और चुनावी जनादेश कमजोर हुआ।
    • विधायकों के दल-बदल और खरीद-फरोख्त को सीमित करके, दल-बदल विरोधी कानून का उद्देश्य भारत की संसदीय प्रणाली की लोकतांत्रिक अखंडता को बनाए रखना था।
  • पार्टी की वफादारी सुनिश्चित करना: कानून का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि विधायक अपनी पार्टी के प्रति वफादार रहें और पार्टी अनुशासन का पालन करें, विशेषकर बजट पर वोट और विश्वास प्रस्ताव जैसे प्रमुख मुद्दों पर।
  • सरकार की स्थिरता की आवश्यकता: नीतियों को प्रभावी ढंग से लागू करने और सुसंगत शासन प्रदान करने के लिए एक स्थिर सरकार आवश्यक है।

भारत में दल-बदल विरोधी कानून से संबंधित सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय

  • किहोतो होलोहान बनाम जाचिल्हु एवं अन्य (वर्ष 1993): सर्वोच्च न्यायालय ने दसवीं अनुसूची (दल-बदल विरोधी कानून) की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा।
    • इसने फैसला सुनाया कि दसवीं अनुसूची के तहत अध्यक्ष के फैसले अंतिम नहीं है तथा न्यायिक समीक्षा के अधीन हैं। 
    • समीक्षा के आधार में शामिल हैं
      • दुर्भावनापूर्ण उद्देश्य।
      • फैसले की विकृतियाँ।
  • रवि एस. नाइक बनाम भारत संघ (वर्ष 1994): ‘स्वेच्छा से सदस्यता छोड़ना (voluntarily giving up membership)’ शब्दों का अर्थ व्यापक है।
    • सदस्य के आचरण से यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि उसने स्वेच्छा से अपनी पार्टी की सदस्यता त्याग दी है।
  • कैशम मेघचंद्र सिंह बनाम माननीय अध्यक्ष मणिपुर विधानसभा एवं अन्य (वर्ष 2020): सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि विधानसभाओं और संसद के अध्यक्षों को असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर, तीन महीने के भीतर अयोग्यता याचिकाओं पर फैसला करना आवश्यक है।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने दल-बदल विरोधी मामलों में अध्यक्ष की भूमिका के स्थान पर एक स्वतंत्र न्यायाधिकरण या भारत के चुनाव आयोग द्वारा नियुक्त निकाय की स्थापना की भी सिफारिश की।

भारत के दलब-दल विरोधी कानून के बारे में

  • भारत में दलबदल विरोधी कानून का उद्देश्य निर्वाचित सांसदों (संसद सदस्यों) और विधायकों (विधानसभा सदस्यों) को चुनाव के बाद दल बदलने या महत्त्वपूर्ण मतों पर व्हिप की अवहेलना करने से रोकना है।
    • यह कानून ‘पार्टी-होपिंग’ (Party-Hopping) को हतोत्साहित करता है, जो सरकारों को अस्थिर करता है और चुनावी जनादेश को कमजोर करता है।
  • समावेशन: संसद ने 52वें संशोधन अधिनियम, 1985 के माध्यम से दल-बदल विरोधी कानून को दसवीं अनुसूची के रूप में संविधान में शामिल किया।
  • दल-बदल के लिए आधार
    • स्वेच्छा से सदस्यता त्यागना: यदि कोई निर्वाचित सदस्य स्वेच्छा से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता त्याग देता है।
    • पार्टी निर्देश के विपरीत मतदान करना: यदि वह अपने राजनीतिक दल या ऐसा करने के लिए अधिकृत किसी व्यक्ति द्वारा जारी किसी निर्देश के विपरीत बिना पूर्व अनुमति प्राप्त किए ऐसे सदन में मतदान करता है या मतदान से दूर रहता है।
    • स्वतंत्र निर्वाचित सदस्य: यदि कोई स्वतंत्र रूप से निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल होता है।
    • नामांकित सदस्य: यदि वह सदन में अपना स्थान ग्रहण करने की तिथि से छह महीने की समाप्ति के बाद किसी राजनीतिक दल में शामिल होता है, तो वह सदन का सदस्य होने के लिए अयोग्य हो जाता है।
      • वह इस अयोग्यता को आमंत्रित किए बिना सदन में अपनी सीट लेने के छह महीने के भीतर किसी भी राजनीतिक दल में शामिल हो सकते हैं।
  • दल-बदल विरोधी कानून के अपवाद
    • पार्टियों का विलय: किसी पार्टी का किसी अन्य पार्टी में विलय होने के परिणामस्वरूप कोई सदस्य अपनी पार्टी से बाहर चला जाता है।
      • वर्ष 1985 के अधिनियम के अनुसार, विलय तब होता है, जब पार्टी के दो-तिहाई सदस्य ऐसे विलय पर सहमत हो जाते हैं।
    • पीठासीन अधिकारी का स्वैच्छिक त्याग: सदन के पीठासीन अधिकारी के रूप में निर्वाचित होने के बाद, कोई सदस्य स्वेच्छा से अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ देता है या उस पद पर न रहने के बाद पुनः उसमें शामिल हो जाता है।

दल-बदल विरोधी कानून का न्यायनिर्णयन प्राधिकरण

  • निर्णायक प्राधिकारी
    • दल-बदल के कारण अयोग्यता के प्रश्नों का निर्धारण संबंधित सदन के पीठासीन अधिकारी द्वारा किया जाता है:
      • राज्यसभा में सभापति
      • लोकसभा में अध्यक्ष
  • प्रक्रिया: पीठासीन अधिकारी सदन के किसी सदस्य से औपचारिक शिकायत प्राप्त होने पर ही दल-बदल मामले पर कार्रवाई कर सकता है।
    • अंतिम निर्णय पर पहुँचने से पहले, पीठासीन अधिकारी को उस सदस्य को, जिसके विरुद्ध शिकायत की गई है, अपना स्पष्टीकरण प्रस्तुत करने का अवसर प्रदान करना चाहिए।
  • समय-सीमा का अभाव
    • वर्तमान में दल-बदल के मामलों पर निर्णय लेने के लिए पीठासीन अधिकारी के लिए कोई निर्धारित समय-सीमा नहीं है, जिसके कारण देरी होने की संभावना रहती है।
  • न्यायिक समीक्षा: दसवीं अनुसूची के अंतर्गत अध्यक्ष के निर्णय न्यायिक समीक्षा के अधीन होते हैं।

भारत में दल-बदल विरोधी कानून से संबंधित संशोधन

  • 52वाँ संशोधन अधिनियम, 1985: भारतीय संविधान की दसवीं अनुसूची, जिसे दल-बदल विरोधी कानून के रूप में भी जाना जाता है, को जोड़ा गया।
    • इसमें एक प्रावधान शामिल था, जिसके अनुसार, यदि कम-से-कम एक-तिहाई सदस्य दलबदल कर जाएँ तो पार्टी का विभाजन हो सकता था।
      • इसके कारण अक्सर बड़े पैमाने पर दल-बदल हुआ।
  • 91वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2003
    • मंत्रिपरिषद की सीमा: केंद्रीय मंत्रिपरिषद में प्रधानमंत्री सहित मंत्रियों की कुल संख्या लोकसभा की कुल संख्या के 15% से अधिक नहीं हो सकती।
    • राज्य मंत्रिपरिषद की सीमा: राज्य मंत्रिपरिषद में मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों की कुल संख्या विधानसभा की कुल संख्या के 15% तक सीमित है, जिसमें न्यूनतम 12 मंत्री होने चाहिए।
    • मंत्रिपरिषद की नियुक्ति से अयोग्यता: दल-बदल के कारण अयोग्य घोषित किए गए संसद या राज्य विधानमंडल के किसी भी सदन के सदस्य को मंत्री के रूप में नियुक्त किए जाने से भी अयोग्य घोषित किया जाता है।
    • राजनीतिक पदों से अयोग्यता: दल-बदल के कारण अयोग्य घोषित किए गए संसद या राज्य विधानमंडल के सदस्य किसी भी लाभकारी राजनीतिक पद को धारण करने से भी अयोग्य घोषित किए जाते हैं।
    • विभाजन प्रावधान की सीमा को बढ़ाना: पार्टी विभाजन की सीमा को एक-तिहाई (52वें संशोधन अधिनियम के माध्यम से पेश किया गया) से बढ़ाकर विलय पर सहमत सदस्यों के दो-तिहाई कर दिया गया।
      • इससे छोटे पैमाने पर दल-बदल की घटनाएँ अधिक चुनौतीपूर्ण हो गईं तथा इस प्रकार की राजनीतिक चालबाजी की घटनाएँ कम हो गईं।

  • व्हिप (Whip): यह किसी राजनीतिक दल द्वारा विधानमंडल में अपने सदस्यों को दिया जाने वाला आधिकारिक निर्देश है, जिसमें उन्हें विशिष्ट मुद्दों पर मतदान करने के तरीके के बारे में निर्देश दिए जाते हैं।
  • ‘व्हिप’ के पद का उल्लेख न तो भारत के संविधान में, न ही सदन के नियमों में और न ही संसदीय कानून में किया गया है।
  • यह संसदीय सरकार की परंपराओं पर आधारित है।

भारत में दल-बदल विरोधी कानून के प्रभावी कार्यान्वयन मे चुनौतियाँ

  • निर्णयों में देरी: एक प्रमुख मुद्दा दल-बदल के मामलों को सुलझाने में होने वाली देरी है, जो अक्सर महीनों या वर्षों तक चलती है, जिससे दलबदलू अपनी सीट बरकरार रख पाते हैं और ऐसी स्थिति में कानून की प्रभावशीलता कम हो जाती है।
  • स्पीकर की विवेकाधीन शक्ति: स्पीकर या चेयरमैन की भूमिका, जिसमें निर्णयों के लिए कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं होती, संभावित दुरुपयोग और पक्षपातपूर्ण पूर्वाग्रह की अनुमति देती है, जिससे समय पर प्रवर्तन कम होता है।
  • पार्टी ‘व्हिप’ में पारदर्शिता की कमी: अनुशासन लागू करने के लिए बनाए गए आंतरिक पार्टी व्हिप अक्सर अस्पष्ट या अपर्याप्त रूप से संप्रेषित होते हैं, जिससे इस बात पर विवाद होता है कि सदस्यों को उनकी पार्टी के रुख के बारे में पर्याप्त जानकारी दी गई थी या नहीं।
    • स्पष्टता की कमी के कारण दल-बदल के मामलों की वैधता निर्धारित करना कठिन हो जाता है।
  • न्यायिक समीक्षा और विधायी स्वायत्तता: दल-बदल के मामलों के संबंध में अध्यक्ष या सभापति के निर्णय न्यायिक समीक्षा के अधीन होते हैं।
    • न्यायालय आमतौर पर हस्तक्षेप करने से बचते है तथा विधायिका की स्वायत्तता का सम्मान करने की आवश्यकता पर बल देते हैं।
  • दल-बदल में कमियाँ: दल-बदल विरोधी कानून, सदस्यों के एक समूह को बिना किसी दंड के दल बदलने की अनुमति देता है, बशर्ते कि वे अपनी मूल पार्टी के कम-से-कम दो-तिहाई सदस्य हों।
    • इससे अवसरवादी विलय और विभाजन को बढ़ावा मिलता है तथा विधायकों के बीच ‘खरीद-फरोख्त’ (Horse-trading) को बढ़ावा मिलता है।

भारत में दल-बदल विरोधी कानून से संबंधित समितियाँ

  • दिनेश गोस्वामी समिति की रिपोर्ट (वर्ष 1990): चुनाव सुधारों पर दिनेश गोस्वामी समिति (1990) ने सिफारिश की थी कि दल-बदल के आधार पर अयोग्यता निम्नलिखित तक सीमित होनी चाहिए।
    • निर्वाचित सदस्य द्वारा स्वेच्छा से अपने राजनीतिक दल की सदस्यता त्यागना।
    • केवल विश्वास मत/अविश्वास मत, धन विधेयक या राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव के संबंध में पार्टी व्हिप के विपरीत मतदान करना।
  • हाशिम अब्दुल हलीम समिति की रिपोर्ट (वर्ष 1994): ‘किसी राजनीतिक दल की सदस्यता स्वेच्छा से त्यागना’ शब्दों को व्यापक रूप से परिभाषित किया जाना चाहिए।
    • निष्कासित सदस्यों पर किसी अन्य पार्टी में शामिल होने या सरकार में कोई पद धारण करने पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए।
  • दूसरा प्रशासनिक सुधार आयोग: दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग के अनुसार, दसवीं अनुसूची के अंतर्गत निर्णय राष्ट्रपति/राज्यपाल द्वारा चुनाव आयोग की बाध्यकारी सलाह पर लिए जाने चाहिए।
  • भारतीय विधि आयोग की 170वीं रिपोर्ट (वर्ष 1999): विभिन्न परिस्थितियों में दल बदलने वाले विधायकों को अयोग्य ठहराने के लिए अनुशंसित प्रावधान।
  • संविधान के कार्यकरण की समीक्षा के लिए राष्ट्रीय आयोग की रिपोर्ट (2002): पार्टी अनुशासन और जवाबदेही को मजबूत करने की वकालत की गई।
    • विलय के लिए सीमा को संशोधित करने तथा दल-बदल से संबंधित परिभाषाओं को स्पष्ट करने का प्रस्ताव किया गया।
  • भारतीय विधि आयोग की 255वीं रिपोर्ट (2015): दल-बदल विरोधी कानून को और अधिक मजबूत बनाने के लिए इसमें व्यापक सुधार की सिफारिश की गई।
    • केवल पार्टी संबद्धता के बजाय सदस्य के कार्यों के आधार पर अयोग्यता के प्रावधान शुरू करने का सुझाव दिया गया।

दल-बदल कानून को मजबूत करने के लिए उठाए जा सकने वाले कदम

  • दल-बदल मामलों के लिए समय-सीमा: शीघ्र निर्णय सुनिश्चित करने के लिए, दल-बदल के मामलों को निपटाने के लिए चार सप्ताह की समय-सीमा निर्धारित करना।
    • यदि इस अवधि के भीतर समस्या का समाधान नहीं किया गया तो दल-बदल करने वाले सदस्य को अयोग्य माना जाएगा।
  • पार्टी व्हिप की सार्वजनिक सूचना: स्पष्टता तथा जवाबदेही में सुधार के लिए राजनीतिक दलों को व्हिप को समाचार-पत्रों की घोषणाओं या इलेक्ट्रॉनिक संचार के माध्यम से सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराना चाहिए।
  • स्पीकर की भूमिका को मजबूत करना, न कि दरकिनार करना: वर्ष 2020 के सर्वोच्च न्यायालय के मामले (केशम मेघचंद्र सिंह) द्वारा सुझाए गए अनुसार, स्पीकर को एक स्वतंत्र न्यायाधिकरण के साथ प्रतिस्थापित करने के बजाय, ऐसे सुधार होने चाहिए, जो स्पीकर के कामकाज में जवाबदेही और पारदर्शिता बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करें।
  • न्यायिक प्रोत्साहन: विशिष्ट मामलों में सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों में सीधे अपील की अनुमति देने से दल-बदल विरोधी कानून से संबंधित मनमाने निर्णयों के विरुद्ध आवश्यक सुरक्षा प्रदान की जा सकती है।

अन्य देशों द्वारा दल-बदल का प्रबंधन

  • संयुक्त राज्य अमेरिका: अमेरिका में, पार्टी के प्रति वफादारी अक्सर औपचारिक दल-बदल विरोधी कानूनों के बजाय राजनीतिक मानदंडों तथा अनौपचारिक प्रतिबंधों के माध्यम से बनाए रखी जाती है। 
  • यूनाइटेड किंगडम: ब्रिटेन पार्टी अनुशासन लागू करने के लिए व्हिप प्रणाली का उपयोग करता है।
    • राजनीतिक दल-बदल पर कानून द्वारा स्पष्ट रूप से प्रतिबंध नहीं लगाया गया है।
  • दक्षिण अफ्रीका: दक्षिण अफ्रीका के संविधान में पार्टी बदलने वाले सदस्यों को अयोग्य ठहराने के प्रावधान शामिल हैं, जो पार्टी के प्रति वफादारी के महत्त्व को पुष्ट करता है।
  • कनाडा: कनाडाई राजनीतिक दल अनुशासन बनाए रखने के लिए कॉकस का उपयोग करते हैं, जहाँ सदस्यों से पार्टी के अनुरूप मतदान करने की अपेक्षा की जाती है।
    • दल-बदल के मामले में पार्टी से निष्कासन संभव हो सकता है।

निष्कर्ष

सरकार के ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ दृष्टिकोण के साथ, दल-बदल विरोधी सुधार पार्टी की वफादारी और चुनावी अखंडता सुनिश्चित करने के लिए महत्त्वपूर्ण हैं ताकि लोकतांत्रिक स्थिरता को बढ़ाया जा सके।

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