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तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति

Lokesh Pal February 25, 2025 02:18 14 0

संदर्भ

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उच्च न्यायालयों को लंबित आपराधिक मामलों की बढ़ती संख्या से निपटने के लिए तदर्थ आधार पर सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति की अनुमति दी गई है।

तदर्थ न्यायाधीशों के बारे में

  • तदर्थ न्यायाधीश सेवानिवृत्त न्यायाधीश होते हैं जिन्हें विशिष्ट आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अस्थायी रूप से पुनः नियुक्त किया जाता है, जैसे कि लंबित मामलों को कम करना या स्थायी न्यायाधीशों के उपलब्ध न होने पर रिक्तियों को भरना।
  • संवैधानिक आधार: भारतीय संविधान का अनुच्छेद 224-A, जिसे संविधान (पंद्रहवाँ संशोधन) अधिनियम, 1963 द्वारा प्रस्तुत किया गया है, उच्च न्यायालयों में सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की तदर्थ आधार पर नियुक्ति की अनुमति देता है।

कानूनी ढाँचा

  • अनुच्छेद 224 A: उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में कार्य करने का अनुरोध करने की अनुमति देता है।
    • सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को नियुक्ति के लिए सहमति देनी होगी।
    • उन्हें राष्ट्रपति द्वारा निर्धारित भत्ते प्राप्त होते हैं और वे उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के समान अधिकार क्षेत्र, शक्तियाँ और विशेषाधिकारों का प्रयोग करते हैं।

  • प्रक्रिया ज्ञापन (MoP), 1998: तदर्थ नियुक्तियों के लिए विस्तृत प्रक्रिया की रूपरेखा।
    • उच्चतम न्यायालय ‘एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ’ (1993) मामले के बाद तैयार किया गया, जिसने कॉलेजियम प्रणाली की स्थापना की।

तदर्थ नियुक्तियों के लिए शर्तें

  • लोक प्रहरी बनाम भारत संघ (2021)
    • तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति तब की जा सकती है, जब:-
      • रिक्तियाँ स्वीकृत पदों की 20% से अधिक हैं।
      • एक विशिष्ट श्रेणी के मामले पाँच वर्ष से अधिक समय से लंबित हैं।
      • उच्च न्यायालय के 10% से अधिक मामले पाँच वर्ष से अधिक समय से लंबित हैं।
      • केस निपटान दर नए केस दायर किए जाने की दर से कम है।
    • पैनल गठन: मुख्य न्यायाधीशों को सेवानिवृत्त और जल्द ही सेवानिवृत्त होने वाले न्यायाधीशों का एक पैनल बनाना चाहिए, जिसमें मामले की प्रकृति एवं मात्रा के संदर्भ में उनके पिछले प्रदर्शन का मूल्यांकन किया जाना चाहिए।
    • कार्यकाल: आमतौर पर 2 से 3 वर्ष, जिसमें प्रत्येक उच्च न्यायालय में 2 से 5 तदर्थ न्यायाधीश होंगे।
    • समय सीमा: पूरी प्रक्रिया तीन महीने के भीतर पूरी हो जानी चाहिए।
  • सर्वोच्च न्यायालय का आदेश (30 जनवरी, 2025)
    • इस शर्त में ढील दी गई है कि तदर्थ नियुक्तियाँ केवल तभी की जा सकती हैं जब रिक्तियाँ स्वीकृत संख्या के 20% से अधिक हों।
    • अब रिक्तियाँ 20% से कम होने पर भी तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति की जा सकती है।
    • प्रतिबंध
      • तदर्थ न्यायाधीश केवल आपराधिक अपीलों की सुनवाई कर सकते हैं और उन्हें किसी मौजूदा न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ का हिस्सा होना चाहिए। 
      • तदर्थ न्यायाधीशों की संख्या स्वीकृत संख्या (प्रति उच्च न्यायालय 2 से 5 न्यायाधीश) के 10% से अधिक नहीं हो सकती।
  • भत्ते एवं लाभ: लोक प्रहरी केस (2021)
    • तदर्थ न्यायाधीशों को पेंशन को छोड़कर, उच्च न्यायालय के स्थायी न्यायाधीशों के समान वेतन एवं भत्ते मिलते हैं।
    • भुगतान भारत की संचित निधि से किया जाता है।
    • स्थायी न्यायाधीशों के समान किराया-मुक्त आवास या आवास भत्ते के हकदार हैं।

तदर्थ नियुक्तियों के ऐतिहासिक उदाहरण

  • केवल तीन प्रलेखित उदाहरण
    • वर्ष 1972: चुनाव याचिकाओं पर निर्णय लेने के लिए न्यायमूर्ति सूरज भान को मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में नियुक्त किया गया।
    • वर्ष 1982: न्यायमूर्ति पी. वेणुगोपाल को मद्रास उच्च न्यायालय में नियुक्त किया गया।
    • वर्ष 2007: न्यायमूर्ति ओ.पी. श्रीवास्तव को अयोध्या भूमि विवाद पर सुनवाई के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय में नियुक्त किया गया।

अनुच्छेद 127: सर्वोच्च न्यायालय में तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति

  • उद्देश्य: यदि सत्र आयोजित करने या जारी रखने के लिए न्यायाधीशों की संख्या पर्याप्त नहीं है, तो भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) एक तदर्थ न्यायाधीश की नियुक्ति कर सकते हैं।
  • मुख्य प्रावधान
    • नियुक्ति प्रक्रिया: भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश से सर्वोच्च न्यायालय में तदर्थ न्यायाधीश के रूप में कार्य करने का अनुरोध कर सकते हैं।
      • इसके लिए राष्ट्रपति की पूर्व सहमति और संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श की आवश्यकता होती है।
    • योग्यताएँ: उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिए विधिवत योग्य होना चाहिए।
    • कर्तव्य एवं शक्तियाँ: तदर्थ न्यायाधीश को अन्य कर्तव्यों की तुलना में सर्वोच्च न्यायालय में उपस्थित होने को प्राथमिकता देनी चाहिए।
      • सेवा करते समय, तदर्थ न्यायाधीश के पास सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के समान ही अधिकार क्षेत्र, शक्तियाँ एवं विशेषाधिकार होते हैं।

तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति के पक्ष में तर्क

  • न्यायिक बैकलॉग को संबोधित करना: तदर्थ न्यायाधीश लंबे समय से लंबित मामलों, विशेषकर पाँच वर्ष से अधिक समय से लंबित मामलों पर ध्यान केंद्रित करके इस बैकलॉग को कम करने में मदद कर सकते हैं।
    • जनवरी 2025 तक, उच्च न्यायालयों में 62 लाख मामले लंबित हैं।
  • अनुभवी न्यायाधीशों का उपयोग करना: सेवानिवृत्त न्यायाधीशों के पास दशकों का न्यायिक अनुभव होता है, जिसका उपयोग जटिल एवं लंबे समय से लंबित मामलों को कुशलतापूर्वक निपटान के लिए किया जा सकता है।
    • वर्ष 2007 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय में तदर्थ न्यायाधीश के रूप में नियुक्त न्यायमूर्ति ओ.पी. श्रीवास्तव ने अयोध्या भूमि विवाद मामले की सुनवाई की, जो संवेदनशील और ‘हाई-प्रोफाइल मामलों को संभालने में अनुभवी न्यायाधीशों की प्रभावशीलता को दर्शाता है।
  • रिक्तियों के लिए अस्थायी समाधान: नियमित नियुक्तियों की प्रक्रिया के दौरान तदर्थ न्यायाधीश अस्थायी रूप से इन रिक्तियों को भर सकते हैं।
    • वर्ष 2025 तक, उच्च न्यायालयों में 1,122 न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या में से 367 रिक्तियाँ हैं, जिससे रिक्तियों की दर 30% हो जाती है।
  • आपराधिक अपीलों का तेजी से निपटारा: तदर्थ न्यायाधीशों को विशेष रूप से आपराधिक अपीलों की सुनवाई का कार्य सौंपा जाता है, जो लंबित मामलों का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है।
    • लोक प्रहरी मामले (2021) में, उच्चतम न्यायालय ने निर्देश दिया कि तदर्थ न्यायाधीशों को न्याय वितरण में तेजी लाने के लिए पाँच वर्ष से अधिक समय से लंबित मामलों, विशेष रूप से आपराधिक अपीलों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
  • नियमित नियुक्तियों में कोई हस्तक्षेप नहीं: तदर्थ नियुक्तियाँ स्थायी न्यायाधीशों की नियमित नियुक्ति प्रक्रिया में बाधा नहीं डालती हैं।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने अपने वर्ष 2025 के आदेश में स्पष्ट किया कि तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति 2-3 वर्ष की निश्चित अवधि के लिए की जाती है और इससे वर्तमान न्यायाधीशों की वरिष्ठता या पदोन्नति प्रभावित नहीं होती।
  • न्यायपालिका में जनता का विश्वास मजबूत करना: ‘वर्ल्ड जस्टिस प्रोजेक्ट’ के रूल ऑफ लॉ इंडेक्स’ (2023) में भारत सिविल न्याय में 111वें और आपराधिक न्याय में 93वें स्थान पर है।
    • यदि लोगों को विश्वास हो कि उनके मामले वर्षों तक अटके नहीं रहेंगे तो वे कानूनी उपाय अपनाने के लिए अधिक इच्छुक होंगे।

तदर्थ न्यायाधीशों के विरुद्ध तर्क

  • अस्थायी समाधान, दीर्घकालिक समाधान नहीं: तदर्थ न्यायाधीश अपर्याप्त नियमित नियुक्तियों और खराब न्यायिक बुनियादी ढाँचे जैसे मूल कारणों को संबोधित किए बिना न्यायिक लंबित मामलों और रिक्तियों की समस्या का केवल अल्पकालिक समाधान प्रदान करते हैं।
    • भारतीय विधि आयोग ने बार-बार इस बात पर जोर दिया है कि लंबित मामलों को सुलझाने के लिए अस्थायी उपायों पर निर्भर रहने के बजाय स्थायी न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने की आवश्यकता है।
  • न्यायिक स्वतंत्रता को कमजोर करने का जोखिम: सेवानिवृत्त होने और संभावित रूप से सेवानिवृत्ति के बाद लाभ की मांग करने वाले तदर्थ न्यायाधीशों को हितों के टकराव या कार्यपालिका के दबाव का सामना करना पड़ सकता है, जिससे न्यायिक स्वतंत्रता कमजोर हो सकती है।
    • लोक प्रहरी मामले (2021) ने इस चिंता को प्रदर्शित किया कि तदर्थ नियुक्तियाँ नियमित न्यायिक नियुक्तियों के लिए ‘सिफारिशें करने में निष्क्रियता’ का कारण बन सकती हैं, जिससे न्यायपालिका का राजनीतिकरण हो सकता है।
  • जवाबदेही का अभाव: सीमित अवधि के लिए सेवारत तदर्थ न्यायाधीशों में स्थायी न्यायाधीशों के समान जवाबदेही का अभाव हो सकता है, जो दीर्घकालिक प्रदर्शन समीक्षा और अनुशासनात्मक तंत्र के अधीन होते हैं।
    • 245वीं विधि आयोग रिपोर्ट (2014) ने तदर्थ न्यायाधीशों की जवाबदेही के बारे में चिंता व्यक्त की, जिसमें कहा गया कि उनके लघु कार्यकाल के कारण असंगत न्यायिक निर्णय हो सकते हैं।
  • न्यायिक बुनियादी ढाँचे पर दबाव: न्यायालय के बुनियादी ढांचे और सहायक कर्मचारियों में उचित सुधार किए बिना तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति मौजूदा समस्याओं को और बढ़ा सकती है, जैसे कि भीड़भाड़ वाले न्यायालय कक्ष और अपर्याप्त लिपिकीय सहायता।
    • केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्रालय द्वारा प्रकाशित वर्ष 2024 की रिपोर्ट में बताया गया है कि 45% न्यायिक अधिकारियों के पास इलेक्ट्रॉनिक डिस्प्ले सुविधाएँ नहीं हैं, और 32.7% के पास वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग क्षमता नहीं है, जो खराब बुनियादी ढाँचे को दर्शाता है।
  • नियमित न्यायिक नियुक्तियों को हतोत्साहित करना: तदर्थ न्यायाधीशों पर निर्भरता स्थायी न्यायिक रिक्तियों को भरने के प्रयासों को हतोत्साहित कर सकती है, जिससे अस्थायी नियुक्तियों और लगातार रिक्तियों का दुष्चक्र बन सकता है।
    • सर्वोच्च न्यायालय के वर्ष 2025 के आदेश में इस शर्त में ढील दी गई थी कि तदर्थ नियुक्तियाँ केवल तभी की जा सकती हैं जब रिक्तियाँ 20% से अधिक हों, जिससे नियमित रिक्तियों को भरने की आवश्यकता कम हो सकती है।

तदर्थ न्यायाधीशों और अस्थायी न्यायिक नियुक्तियों की वैश्विक प्रथाएँ

  • यू.के. में तदर्थ न्यायाधीश: यू.के. में उच्च न्यायालय उप-न्यायाधीश और अभिलेखकर्ता प्रायः सेवानिवृत्त न्यायाधीश या वरिष्ठ वकील, विशिष्ट मामलों को संभालने या स्थायी न्यायाधीशों के कार्यभार को कम करने के लिए नियुक्त किए जाते हैं, जो अंशकालिक न्यायाधीश होते हैं, ।
  • यू.एस. में वरिष्ठ न्यायाधीश: यू.एस. में, वरिष्ठ न्यायाधीश सेवानिवृत्त न्यायाधीश होते हैं, जो अंशकालिक आधार पर सेवा करना जारी रखते हैं, और कम मामलों का निपटन करते हैं।
  • ऑस्ट्रेलिया में कार्यवाहक न्यायाधीश: ऑस्ट्रेलिया, कार्यवाहक न्यायाधीशों की नियुक्ति  करता है, जो आमतौर पर सेवानिवृत्त न्यायाधीश या वरिष्ठ कानूनी व्यवसायी होते हैं, जिन्हें विशिष्ट न्यायिक आवश्यकताओं को संबोधित करने के लिए अस्थायी आधार पर नियुक्त किया जाता है।
  • जर्मनी में मानद न्यायाधीश: जर्मनी मानद न्यायाधीशों (शोफेन) को नियुक्त करता है, जो कुछ मामलों में पेशेवर न्यायाधीशों की सहायता करते हैं, जिससे न्यायिक कार्यभार कम होता है।
    • मानद न्यायाधीश अनुभवी कानूनी पेशेवर या विद्वान होते हैं, सेवानिवृत्त न्यायाधीश नहीं, जो हितों के टकराव को रोकते हैं।

तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में आगे की राह

  • नियमित न्यायिक नियुक्तियों में वृद्धि: तदर्थ न्यायाधीशों पर निर्भरता कम करने के लिए स्थायी न्यायिक पदों को भरने पर ध्यान केंद्रित करना।
    • भारत में वर्तमान न्यायाधीश-जनसंख्या अनुपात लगभग 21 न्यायाधीश प्रति मिलियन है, जो विधि आयोग की 120वीं रिपोर्ट द्वारा अनुशंसित 50 न्यायाधीश प्रति मिलियन से बहुत कम है।
  • न्यायिक अवसंरचना में सुधार: स्थगन को कम करने और सुनवाई में तेजी लाने के लिए वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग और ई-कोर्ट का उपयोग बढ़ाना।
    • फास्ट-ट्रैक केस मैनेजमेंट सिस्टम: AI-आधारित केस प्राथमिकता लंबे समय से लंबित मामलों को कुशलतापूर्वक निपटाने में मदद कर सकती है।
  • प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण को बढ़ावा देना: न्यायाधीशों को उनकी कार्यकुशलता और केस निपटान दरों में सुधार करने के लिए निरंतर प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण कार्यक्रम प्रदान करना।
    • भारत में राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी (NJA) न्यायाधीशों के लिए विभिन्न प्रशिक्षण कार्यक्रम प्रदान करती है, लेकिन इनका विस्तार करने और उन्हें अधिक सुलभ बनाने की आवश्यकता है।
  • न्यायिक प्रभाव आकलन लागू करना: नए कानून के लिए न्यायिक प्रभाव आकलन करना ताकि अत्यधिक मामलों के संदर्भ में संभावित वृद्धि का अनुमान लगाया जा सके और उसके अनुसार योजना बनाई जा सके।
    • न्यायमूर्ति एम. जगन्नाथ राव समिति ने प्रत्येक नए विधेयक के लिए न्यायिक प्रभाव आकलन की सिफारिश की है, ताकि यह अनुमान लगाया जा सके कि इससे कितने अतिरिक्त मामले उत्पन्न हो सकते हैं।
  • प्रौद्योगिकी का लाभ उठाना: न्यायिक प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करने के लिए ई-कोर्ट, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग और केस मैनेजमेंट सिस्टम जैसी प्रौद्योगिकी का उपयोग करना।
    • भारत में ई-कोर्ट मिशन मोड परियोजना ने केस रिकॉर्ड को डिजिटल करना शुरू कर दिया है, लेकिन सभी उच्च न्यायालयों में इसके पूर्ण कार्यान्वयन की आवश्यकता है।
  • आवधिक समीक्षा और निगरानी: तदर्थ नियुक्तियों की प्रभावशीलता की नियमित समीक्षा करना और यह सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक समायोजन करना कि वे अपने इच्छित उद्देश्य को पूरा करते हैं।
    • लोक प्रहरी मामले (2021) में सिफारिश की गई थी कि समय पर न्याय सुनिश्चित करने के लिए तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया तीन महीने के भीतर पूरी की जाए।

निष्कर्ष 

तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय लंबित मामलों, विशेषकर आपराधिक अपीलों के बढ़ते बोझ से अस्थायी राहत प्रदान करता है। हालाँकि, स्थायी न्याय प्रदान करने के लिए दीर्घकालिक न्यायिक सुधार, तेजी से नियमित नियुक्तियाँ और बेहतर बुनियादी ढाँचा आवश्यक है। तदर्थ न्यायाधीशों को भारत की न्यायपालिका में प्रणालीगत सुधारों के विकल्प के रूप में नहीं, बल्कि एक पूरक उपाय के रूप में प्रयोग किया जाना चाहिए।

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