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अरब नाटो: एक व्यापक विश्लेषण

Lokesh Pal September 23, 2025 02:18 19 0

संदर्भ 

सितंबर 2025 में कतर की राजधानी दोहा पर हमास नेताओं को निशाना बनाकर किए गए इजरायली हवाई हमले को कतर की संप्रभुता का उल्लंघन माना गया और इस घटना ने अरब और इस्लामी राष्ट्रों के बीच नाटो जैसे सैन्य गठबंधन को लेकर पुनः चर्चा शुरू हो गई।

  • हाल ही में दोहा में आयोजित अरब-इस्लामिक शिखर सम्मेलन में अरब लीग (Arab League) और इस्लामिक सहयोग संगठन (Organisation of Islamic Cooperation- OIC) के 40 से अधिक देशों के नेताओं ने भाग लिया।

अरब नाटो (Arab NATO) के बारे में 

  • अरब और/या इस्लामी देशों के बीच प्रस्तावित सैन्य गठबंधन है।
  • नाटो के अनुच्छेद 5 पर आधारित: एक सदस्य पर हमला सभी पर हमला माना जाता है।
  • उद्देश्य: बाह्य खतरों (जैसे- इजराइली हवाई हमले, क्षेत्रीय संघर्ष) के विरुद्ध सामूहिक रक्षा करना।

उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (North Atlantic Treaty Organization- NATO)

  • उत्पत्ति: द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सोवियत विस्तार का मुकाबला करने के लिए वाशिंगटन संधि के तहत वर्ष 1949 में स्थापित किया गया था।
  • मुख्यालय: ब्रुसेल्स, बेल्जियम।
  • स्वरूप: यूरोप और उत्तरी अमेरिका के 32 देशों का राजनीतिक और सैन्य गठबंधन।
  • मुख्य सिद्धांत: अनुच्छेद 5 के तहत सामूहिक रक्षा (9/11 के बाद केवल एक बार लागू)।
  • संस्थापक सदस्य (12): अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, कनाडा, बेल्जियम, नीदरलैंड, लक्जमबर्ग, डेनमार्क, नॉर्वे, पुर्तगाल, आइसलैंड।
  • नवीनतम सदस्य: स्वीडन (2024)
  • यूक्रेन: वर्ष 2022 में आवेदन किया गया; विलनियस शिखर सम्मेलन (2023) में आश्वासन प्राप्त हुआ।
  • नाटो में यूरोपीय संघ के गैर-सदस्य: ऑस्ट्रिया, साइप्रस, आयरलैंड, माल्टा।
  • उद्देश्य: रक्षा, संकट प्रबंधन और निवारण के लिए ट्रान्साटलांटिक संपर्क प्रदान करता है।
  • वित्तपोषण: सकल राष्ट्रीय आय पर आधारित लागत-साझाकरण सूत्र के माध्यम से।
  • भागीदारियाँ
    • शांति के लिए साझेदारी (Partnership for Peace- PfP): रूस (निलंबित) सहित 8 देश।
    • भूमध्यसागरीय संवाद (Mediterranean Dialogue- MD): उत्तरी अफ्रीकी देश।
    • इस्तांबुल सहयोग पहल (Istanbul Cooperation Initiative- ICI): मध्य पूर्व के साझेदार।
    • संयुक्त राष्ट्र और यूरोपीय संघ अंतरराष्ट्रीय साझेदार हैं।

इस विचार में निहित प्रेरक

  • सुरक्षा खतरे: कतर पर इजराइली हवाई हमले ने क्षेत्र की सुरक्षा संरचना की कमजोरियों को उजागर किया और एक एकीकृत रक्षा तंत्र की आवश्यकता पर बल दिया।
    • गाजा, यमन और सीरिया में चल रहे संघर्षों ने क्षेत्रीय स्थिरता को और भी तनावपूर्ण बना दिया है, जिससे सामूहिक रक्षा व्यवस्था की माँग उठ रही है।
  • आंतरिक वैधता: अरब और मुस्लिम बहुल देशों के नेता बाहरी खतरों के विरुद्ध एकजुट मोर्चा बनाकर घरेलू समर्थन को मजबूत करना चाहते हैं।
    • सामूहिक रक्षा तंत्र का प्रस्ताव राजनीतिक सुदृढ़ीकरण और क्षेत्रीय नेतृत्व के लिए एक उपकरण के रूप में कार्य करता है।
  • अमेरिका की घटती विश्वसनीयता: सुरक्षा प्रदाता  के रूप में अमेरिका के कथित अलगाव ने अरब और मुस्लिम देशों को आत्मनिर्भर रक्षा तंत्रों पर विचार करने के लिए प्रेरित किया है।
    • उदाहरण: गाजा में सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात की सतर्कता, संयुक्त राज्य अमेरिका पर अत्यधिक निर्भरता को कम करने की दिशा में पुनर्संतुलन को दर्शाती है।
  • सामरिक प्रतिस्पर्द्धा: इसमें शामिल देश इजराइल के सैन्य लाभ को संतुलित करने और उन्नत रक्षा क्षमताओं को साझा करने का प्रयास करेंगे।
    • उदाहरण: जॉर्डन ने पहले क्षेत्रीय सुरक्षा नेटवर्क के लिए इजराइल की वायु रक्षा विशेषज्ञता की माँग की थी।
  • भू-राजनीतिक संकेत: अरब नाटो की अवधारणा बाहरी शक्तियों को एक संदेश है, जिससे वैश्विक मंचों पर सामूहिक सौदेबाजी की शक्ति मजबूत होती है।
    • उदाहरण: इस्लामिक नाटो के लिए ईरान का समर्थन पश्चिम एशिया में अमेरिका-विरोधी प्रभाव की महत्त्वाकांक्षाओं का संकेत है।

चुनौतियाँ एवं विरोधाभास

  • पृथक सुरक्षा चिंताएँ: विभिन्न सदस्य अलग-अलग सुरक्षा चिंताओं को प्राथमिकता देते हैं, जिससे एकीकृत कार्रवाई करना कठिन होता है।
    • उदाहरण: मिस्र, इजराइल को मुख्य खतरा मानता है, तुर्किए कुर्द अलगाववाद पर ध्यान केंद्रित कर रहा है और ईरान अमेरिकी सैन्य उपस्थिति को प्रतिसंतुलित करने पर जोर दे रहा है।
  • शिया-सुन्नी विभाजन: सांप्रदायिक मतभेद सदस्य देशों के बीच विश्वास और परिचालन समन्वय को जटिल बनाते हैं।
    • उदाहरण: ईरान (शिया बहुल) की सुन्नी नेतृत्व वाले सऊदी अरब और मिस्र के साथ परस्पर विरोधी प्राथमिकताएँ हो सकती हैं।
  • अब्राहम एकाॅर्ड के साथ ओवरलैप: संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन जैसे देश, जिन्होंने ‘अब्राहम एकाॅर्ड’ के तहत इजराइल के साथ संबंधों को सामान्य किया है, एक सामूहिक रक्षा समझौते में शामिल होने से हिचकिचा सकते हैं जो इजराइल को नाराज कर सकता है।
  • क्षमता की सीमाएँ: सदस्य देशों के बीच सैन्य क्षमताओं में असमानताएँ सामूहिक रक्षा व्यवस्था की प्रभावशीलता में बाधा उत्पन्न कर सकती हैं।
    • उदाहरण: मिस्र के पास एक आधुनिक सेना और वायु सेना है। बहरीन या ओमान जैसे छोटे देश केवल प्रतीकात्मक रूप से ही सहयोग ही दे सकते हैं।
  • राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता: प्रतिस्पर्द्धी महत्त्वाकांक्षाएँ और विश्वास का अभाव गठबंधन की एकजुटता में बाधा उत्पन्न करते हैं।
    • उदाहरण: सऊदी अरब क्षेत्रीय नेतृत्व चाहता है, मिस्र सैन्य श्रेष्ठता का दावा करता है, और ईरान व्यापक स्तर पर इस्लामी नेतृत्व करता है।

नैतिक और दीर्घकालिक चिंतन

  • सैन्य गुटों की स्थिरता: हालाँकि सैन्य गठबंधन अल्पकालिक सुरक्षा लाभ प्रदान कर सकते हैं, उनकी दीर्घकालिक स्थिरता साझा हितों, आपसी विश्वास और प्रभावी संघर्ष समाधान तंत्रों पर निर्भर करती है।
  • सामूहिक रक्षा बनाम कूटनीति: सैन्य समाधानों पर अत्यधिक निर्भरता कूटनीतिक प्रयासों को कमजोर कर सकती है और संघर्षों के शांतिपूर्ण समाधान की दिशा में बाधा उत्पन्न कर सकती है।

भारत के लिए निहितार्थ

  1. सामरिक और सुरक्षा संबंधी चिंताएँ
    • गठबंधन में पाकिस्तान की भूमिका: इस्लामिक नाटो के लिए पाकिस्तान का प्रयास, विशेषकर सऊदी अरब के साथ उसके हालिया रक्षा समझौते के कारण, उसके सैन्य रुख को और मजबूत कर सकता है।
      • यह घटनाक्रम भारत की सुरक्षा प्रणाली के लिए अनिश्चितताएँ उत्पन्न कर सकता है।
    • संभावित परमाणु निहितार्थ: सऊदी-पाकिस्तान रक्षा समझौता सऊदी अरब को एक परमाणु समाधान प्रदान करता है। यह क्षेत्रीय सुरक्षा गतिशीलता को परिवर्तित कर सकता है और भारत की रणनीतिक स्थिति को प्रभावित कर सकता है।
  2. कूटनीतिक संतुलन 
    • खाड़ी देशों के साथ जुड़ाव: भारत ने सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात सहित खाड़ी देशों के साथ ऊर्जा सुरक्षा, व्यापार और निवेश पर ध्यान केंद्रित करते हुए मजबूत संबंध विकसित किए हैं।
      • एक सैन्यीकृत अरब नाटो भारत के राजनयिक संबंधों को जटिल बना सकता है, जिससे इन साझेदारियों को बनाए रखने के लिए एक संवेदनशील संतुलन की आवश्यकता होगी।
    • इजराइल के साथ संबंध: द्विपक्षीय निवेश समझौते के उदाहरण के रूप में, इजराइल के साथ भारत के बढ़ते रक्षा और तकनीकी सहयोग को चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है, अगर एक अरब नाटो इजराइली हितों के विरुद्ध नीतियाँ अपनाता है।
  3. आर्थिक और ऊर्जा निहितार्थ
    • ऊर्जा सुरक्षा जोखिम: तेल आयात के लिए खाड़ी देशों पर भारत की निर्भरता उसे क्षेत्रीय संघर्षों के प्रति संवेदनशील बनाती है।
      • एक सैन्यीकृत अरब नाटो तनाव बढ़ा सकता है, जिससे ऊर्जा आपूर्ति बाधित हो सकती है और भारत की ऊर्जा सुरक्षा प्रभावित हो सकती है।
    • व्यापार और निवेश गतिशीलता: जैसा कि वाणिज्य और उद्योग मंत्री ने रेखांकित किया है, भारत, संयुक्त अरब अमीरात से अधिक निवेश चाहता है, लेकिन एक सैन्य गठबंधन से व्यापार संबंधों और निवेश प्रवाह में अनिश्चितताएँ उत्पन्न हो सकती हैं।
  4. क्षेत्रीय प्रभाव और रणनीतिक गठबंधन
    • चीन का बढ़ता प्रभाव: संभवतः इस क्षेत्र में भारत के समुद्री और व्यापारिक हितों की कीमत पर, खाड़ी देशों के साथ चीन के सामरिक संबंध बढ़ रहे हैं।

भारत के लिए आगे की राह

  • इजराइल और अरब संबंधों में संतुलन: भारत को इस क्षेत्र में अपने हितों की रक्षा के लिए अरब देशों के साथ मजबूत संबंध बनाए रखते हुए इजराइल के साथ अपनी रणनीतिक साझेदारी को निरंतर मजबूत करने के दिशा में प्रयास करना चाहिए।
  • भारत की वैचारिक भूमिका: भारत को मध्य पूर्व में स्थायी शांति और स्थिरता को बढ़ावा देने के लिए संवाद, विश्वास-निर्माण उपायों और समावेशी सुरक्षा व्यवस्था का समर्थन करना चाहिए।
  • ऊर्जा कूटनीति और विविधीकरण: भारत को नवीकरणीय साझेदारी और हरित सहयोग का विस्तार करके एक संतुलित ऊर्जा रणनीति अपनानी चाहिए।
    • अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA) और संयुक्त हरित हाइड्रोजन पहल जैसे मंच पारंपरिक हाइड्रोकार्बन संबंधों को पूरक बनाते हुए एक स्थायी और सुरक्षित ऊर्जा भविष्य का आधार निर्मित कर सकते हैं।
  • निगरानी और अनुकूलन: अरब नाटो से जुड़े घटनाक्रमों की निरंतर निगरानी करना और अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए भारत की विदेश और सुरक्षा नीतियों को तदनुसार अनुकूलित करना।
  • बहुपक्षीय जुड़ाव: भारत को मध्य पूर्व में सुरक्षा ढांँचे को प्रभावित करने और स्थिरता को बढ़ावा देने हेतु क्षेत्रीय मंचों और पहलों में सक्रिय रूप से भाग लेना चाहिए।
  • भारतीय प्रवासियों का लाभ लेना: खाड़ी देशों (जैसे- सऊदी अरब में 30 लाख से अधिक) में भारत के विशाल कार्यबल को द्विपक्षीय सद्भावना बढ़ाने के लिए शामिल करना।
    • प्रवासी हितों की रक्षा से क्षेत्रीय नीतिगत गणनाओं में भारत की ‘सॉफ्ट पावर’ और रणनीतिक प्रभाव बढ़ता है।

निष्कर्ष

अरब नाटो की अवधारणा क्षेत्र की उभरती सुरक्षा गतिशीलता और रक्षा मामलों में अधिक स्वायत्तता की इच्छा को दर्शाती है। हालाँकि, आंतरिक मतभेद, खतरे के अलग-अलग प्रतिरूप और भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता इसके कार्यान्वयन में महत्त्वपूर्ण चुनौतियाँ प्रस्तुत करती हैं। भारत के लिए, ऐसे गठबंधन के निर्माण हेतु सामरिक हितों की रक्षा और क्षेत्रीय स्थिरता को बढ़ावा देने के लिए सावधानीपूर्वक कूटनीतिक जुड़ाव आवश्यक है।

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