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असम में बाढ़

Lokesh Pal July 09, 2024 02:42 156 0

संदर्भ

असम राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (Assam State Disaster Management Authority) के अनुसार, इस वर्ष बाढ़ से 50 से अधिक लोगों की जान जा चुकी है और 3,60,000 लोग विस्थापित हुए हैं। 

  • 40,000 हेक्टेयर से अधिक फसल क्षेत्र प्रभावित हुआ है तथा असम के डिब्रूगढ़ और गुवाहाटी क्षेत्र का बड़ा हिस्सा जलमग्न है।

बाढ़ (Flood) के बारे में 

बाढ़ प्राकृतिक आपदा का सर्वाधिक बारंबारता वाला प्रकार है और यह तब होता है जब जल का अतिप्रवाह ऐसी भूमि को जलमग्न कर देता है, जो आमतौर पर सूखी रहती है।

  • कारण: बाढ़ सामान्यतः भारी वर्षा, तेजी से बर्फ पिघलने या तटीय क्षेत्रों में उष्णकटिबंधीय चक्रवात अथवा सुनामी से उत्पन्न झंझा महोर्मि के कारण आती है।
  • बाढ़ के प्रकार: बाढ़ के तीन सामान्य प्रकार निम्नलिखित हैं:
    • फ्लैश फ्लड (Flash Floods): ये तीव्र और अत्यधिक वर्षा के कारण होते हैं, जिससे जल स्तर तेजी से बढ़ जाता है और नदियाँ, नाले, नहरें या सड़कें जलमग्न हो जाती हैं।
    • नदीय बाढ़ (River Floods): ऐसा तब होता है, जब लगातार बारिश या बर्फ पिघलने से नदी का जलस्तर अपनी क्षमता से अधिक हो जाता है।
    • तटीय बाढ़ (Coastal Floods): ये उष्णकटिबंधीय चक्रवातों और सुनामी से संबंधित ‘झंझा महोर्मि’ के कारण होते हैं।

भारत में बाढ़ के प्रभाव और आँकड़े

बाढ़ से व्यापक तबाही हो सकती है, जिसके परिणामस्वरूप जान-माल की हानि हो सकती है तथा व्यक्तिगत संपत्ति एवं महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक स्वास्थ्य बुनियादी ढाँचे को नुकसान पहुँच सकता है।

  • विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization- WHO) के अनुसार, वर्ष 1998-2017 के बीच बाढ़ से दुनिया भर में 2 अरब से अधिक लोग प्रभावित हुए। 
  • राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (National Disaster Management Authority- NDMA) के अनुसार, बाढ़ के कारण प्रत्येक वर्ष औसतन 75 लाख हेक्टेयर भूमि प्रभावित होती है, 1,600 लोगों की जान जाती है तथा फसलों, घरों एवं सार्वजनिक उपयोगिताओं को 1,805 करोड़ रुपये का नुकसान होता है। 
  • उच्च मृत्यु का कारण
    • डूबना: बाढ़ आपदाओं में होने वाली मौतों में 75% मौतें इसी कारण होती हैं। बाढ़ के साथ डूबने का जोखिम बढ़ जाता है, विशेष तौर पर निम्न और मध्यम आय वाले देशों में, जहाँ लोग बाढ़ की आशंका वाले क्षेत्रों में रहते हैं और बाढ़ से समुदायों को आगाह करने, उन्हें निकालने या उनकी रक्षा करने की क्षमता में कमी है या यह अभी विकसित हो रही है।
    • विभिन्न कारक: बाढ़ के कारण होने वाली शारीरिक चोट, दिल का दौरा, विद्युत का झटका, कार्बन मोनोऑक्साइड विषाक्तता या आग लगने से भी मौतें होती हैं। अक्सर बाढ़ से होने वाली केवल तात्कालिक दर्दनाक मौतें ही दर्ज की जाती हैं।
  • बाढ़ के मध्यम और दीर्घकालिक स्वास्थ्य प्रभाव भी हो सकते हैं, जिनमें शामिल हैं:
    • जल और वेक्टर जनित रोग, जैसे- हैजा, टाइफाइड या मलेरिया
    • चोटें, जैसे- निकासी और आपदा सफाई से होने वाले घाव या पंक्चर
    • रासायनिक खतरे
    • आपातकालीन स्थितियों से जुड़े मानसिक स्वास्थ्य प्रभाव
    • स्वास्थ्य प्रणालियों, सुविधाओं और सेवाओं में व्यवधान, जिससे समुदाय स्वास्थ्य देखभाल तक पहुँच से वंचित रह जाते हैं।
    • खाद्य और जल आपूर्ति, और सुरक्षित आश्रय जैसे बुनियादी ढाँचे को नुकसान।

असम की बाढ़ के प्रति संवेदनशीलता

असम की संवेदनशीलता जल विज्ञान और जलवायु कारकों के जटिल संयोजन से उत्पन्न होती है।

  • बड़ी संख्या में नदियों की उपस्थिति: असम में 120 से अधिक नदियाँ हैं, जिनमें से कई अरुणाचल प्रदेश और मेघालय के साथ-साथ चीन तथा भूटान के अत्यधिक वर्षा वाले क्षेत्रों की पहाड़ियों एवं पर्वतों से निकलती हैं।
    • उदाहरण: ब्रह्मपुत्र नदी असम में लगभग 650 किलोमीटर लंबाई और 5.46 किलोमीटर औसत चौड़ाई में बहती है, जिससे यह बाढ़ के मैदानों को पार करने वाली प्रमुख नदी बन जाती है।

    • कैलाश पर्वतमाला (उच्च ऊँचाई) से आने वाली यह नदी असम (निम्न ऊँचाई) में प्रवेश करते समय अत्यधिक तलछटयुक्त हो जाती है।
    • ढलान के समतल होने के कारण, वेग में अचानक गिरावट आती है और नदी पहाड़ी इलाकों से एकत्रित भारी मात्रा में तलछट और अन्य मलबे को नदी तल पर जमा कर देती है, जिससे इसका स्तर बढ़ जाता है।
    • ग्रीष्मकाल के दौरान ग्लेशियरों के पिघलने से मिट्टी का कटाव होने से अवसादन बढ़ जाता है।
  • एक बड़ा बाढ़ प्रवण क्षेत्र: राष्ट्रीय बाढ़ आयोग (Rashtriya Barh Ayog) के आकलन के अनुसार, असम का बाढ़ प्रभावित क्षेत्र लगभग 39.58% है। यह भारत के कुल बाढ़ प्रभावित क्षेत्र का लगभग 9.40% है। 
    • समग्र रूप से भारत का बाढ़ प्रवण क्षेत्र देश के कुल क्षेत्रफल का लगभग 10.2% है, जो दर्शाता है कि असम का बाढ़ प्रवण क्षेत्र देश के बाढ़ प्रवण क्षेत्र के राष्ट्रीय स्तर से चार गुना अधिक है।
  • भौगोलिक कारक (Geographical Factor): गुवाहाटी एक कटोरे के आकार का निचला इलाका है, जो जलभराव के प्रति संवेदनशील है।
    • पड़ोसी राज्य मेघालय और आसपास की पहाड़ियों से आने वाला वर्षा का जल अचानक बाढ़ का कारण बनता है।
  • पुरानी संरचनाएँ: ऐतिहासिक बाढ़ नियंत्रण संरचनाएँ अब पुरानी हो चुकी हैं और वर्तमान परिस्थितियों में प्रभावी नहीं हैं। अधिकांश भारतीय शहरों की तरह, गुवाहाटी की जल निकासी व्यवस्था भी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है।
  • मानसून कारक (Monsoon Factor): पूर्वोत्तर में मानसून तीव्र होता है। राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के अनुसार, वार्षिक वर्षा औसतन 2900 मिमी. होती है, जिसमें अधिकतम वर्षा जून और जुलाई में होती है। 
    • असम के जल संसाधन मंत्रालय का कहना है कि ब्रह्मपुत्र बेसिन में वार्षिक वर्षा का 85% हिस्सा मानसून के महीनों में होता है।
    • इसके अलावा, असम में अप्रैल और मई में तडित झंझा गतिविधियों के कारण अच्छी मात्रा में वर्षा होती है, जिसके कारण जून में भारी वर्षा के दौरान बाढ़ आ जाती है, जब मिट्टी पहले से ही जलमग्न हो जाती है।
  • नदी तट का कटाव (Erosion of Riverbank): कटाव के कारण होने वाली क्षति प्रत्येक वर्ष कई सौ करोड़ रुपये तक पहुँच जाती है। नदियों द्वारा तट कटाव पिछले छह दशकों से एक गंभीर मुद्दा रहा है क्योंकि वर्ष 1950 से अब तक ब्रह्मपुत्र नदी और उसकी सहायक नदियों द्वारा 4.27 लाख हेक्टेयर से अधिक भूमि का कटाव हो चुका है, जो राज्य के क्षेत्रफल का 7.40% है।
    • जैसे-जैसे नदियों का क्षेत्रफल बढ़ता है, मिट्टी का कटाव होता है और उनका विस्तार होता है, जिससे बाढ़ आती है। नदियों के किनारे की भूमि का यह कटाव असम के लिए एक गंभीर समस्या के रूप में उभरा है।
    • असम में कुछ स्थानों पर तट कटाव के कारण ब्रह्मपुत्र की चौड़ाई 15 किलोमीटर तक बढ़ गई है।

  • मानव हस्तक्षेप
    • तटबंधों का निर्माण: असम में बाढ़ को नियंत्रित करने के लिए तटबंधों का निर्माण पहली बार 1960 के दशक में शुरू हुआ था। हालाँकि, छह दशक बाद, इनमें से अधिकतर तटबंध या तो अपनी उपयोगिता खो चुके हैं या फिर खराब हालत में हैं। कई अन्य तटबंध बह गए। 
    • जनसंख्या में वृद्धि (Population Boom): जनसंख्या वृद्धि ने राज्य की पारिस्थितिकी पर अधिक दबाव डाला है।
      • उदाहरण: ब्रह्मपुत्र बोर्ड की एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार ब्रह्मपुत्र घाटी का जनसंख्या घनत्व काफी बढ़ गया है। 
      • जल शक्ति मंत्रालय के अंतर्गत बोर्ड ब्रह्मपुत्र और बराक घाटी की निगरानी करता है तथा ब्रह्मपुत्र बेसिन के अंतर्गत आने वाले राज्यों को कवर करता है।
  • जलवायु परिवर्तन (Climate Change): बाढ़ की आवृत्ति और तीव्रता में भी वृद्धि हो रही है तथा जलवायु परिवर्तन के कारण अत्यधिक वर्षा की आवृत्ति और तीव्रता में भी वृद्धि जारी रहने की संभावना है।
    • राज्य सरकार की एक रिपोर्ट के अनुसार, अत्यधिक वर्षा की घटनाएँ 38% बढ़ जाएँगी।
    • उदाहरण: बढ़ते तापमान के कारण ग्लेशियरों के पिघलने का मतलब है कि हिमालय से आने वाली नदियाँ असम में प्रवेश करने से पहले ही अधिक जल और तलछट लेकर आएँगी, जहाँ लगातार वर्षा के कारण छोटी नदियाँ उफान पर हैं।
  • अन्य आपदाओं का प्रभाव: असम और पूर्वोत्तर क्षेत्र के कुछ अन्य हिस्से अक्सर भूकंप के प्रति संवेदनशील होते हैं, जिसके कारण भूस्खलन होता है, जिसके परिणामस्वरूप नदियों में भारी मात्रा में मलबा जमा हो जाता है, जिससे नदी का तल ऊपर उठ जाता है और बाढ़ आ जाती है।
  • अत्याधुनिक चेतावनी प्रणालियों का अभाव: वर्ष 2021 में एक संसदीय पैनल ने केंद्र से पूर्वोत्तर के बाँधों के अपस्ट्रीम जलग्रहण क्षेत्र में आधुनिक मौसम केंद्र स्थापित करने और बाढ़ के बारे में लोगों को सचेत करने के लिए सायरन लगाने को कहा था। हालाँकि, इस क्षेत्र में अत्याधुनिक चेतावनी प्रणालियों का अभाव बना हुआ है।
  • कार्रवाई का अभाव: बाढ़-रोधी मकान बनाने, नदियों की सफाई, कटाव को रोकने या अधिक लचीले तटबंध बनाने के लिए स्वदेशी लोगों की ज्ञान प्रणालियों का उपयोग करने जैसे समाधान या तो कागजों तक ही सीमित रह गए हैं अथवा उन्हें पर्याप्त रूप से क्रियान्वित नहीं किया गया है।
  • अन्य कारकों ने बाढ़ की स्थिति को और खराब कर दिया: वनों की कटाई, पहाड़ियों का उत्खनन, अतिक्रमण, आर्द्रभूमि का विनाश, राज्य में जल निकासी प्रणाली का अभाव, अनियोजित शहरी विकास, बाँधों का निर्माण, जल विद्युत परियोजनाएँ, सिंचाई परियोजनाएँ आदि।

बाढ़ प्रबंधन के लिए भारत सरकार द्वारा उठाए गए कदम

भारत में बाढ़ प्रबंधन की दिशा में निम्नलिखित कार्यवाहियाँ की गई हैं:

  • राष्ट्रीय बाढ़ प्रबंधन कार्यक्रम (1954): इस कार्यक्रम में समस्या की प्रकृति, भौगोलिक परिस्थितियों और उपलब्ध संसाधनों के आधार पर संरचनात्मक तथा गैर-संरचनात्मक तरीके अपनाए गए थे।
  • राष्ट्रीय बाढ़ आयोग (National Flood Commission, 1976): कृषि एवं सिंचाई मंत्रालय द्वारा स्थापित इस समिति का उद्देश्य बाढ़ नियंत्रण समस्याओं के लिए एक एकीकृत एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करना तथा प्राथमिकताएँ तय करने के लिए एक राष्ट्रीय योजना तैयार करना है।
  • राष्ट्रीय जल संसाधन आयोग (National Commission for Water Resources, 1999): इसने सुझाव दिया कि भंडारण बाँध और तटबंध बाढ़-प्रवण क्षेत्रों को प्रभावी सुरक्षा प्रदान करते हैं और बाढ़ मैदान क्षेत्रीकरण अधिनियम को तत्काल लागू करने की आवश्यकता है।
  • राष्ट्रीय जल नीति (National Water Policy, 2012): जल शक्ति मंत्रालय द्वारा मौजूदा बाढ़ की स्थिति का संज्ञान लेने और राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य से एक कार्य योजना प्रस्तावित करने के उद्देश्य से तैयार किया गया है।
    • इसने सुझाव दिया कि जलाशय संचालन के माध्यम से बाढ़ के मौसम के दौरान तलछट के फँसने को कम करने के लिए बाढ़ कुशन की स्थापना की जा सकती है।
  • राष्ट्रीय जल विज्ञान परियोजना (National Hydrology Project, 2016): यह परियोजना जल-मौसम संबंधी डेटा एकत्र करती है, जिसे वास्तविक समय के आधार पर संगृहीत और विश्लेषण किया जाएगा तथा राज्य, जिला एवं ग्राम स्तर पर कोई भी उपयोगकर्ता इस तक पहुँच सकता है।
  • बाढ़ प्रबंधन और सीमा क्षेत्र कार्यक्रम (Flood Management and Border Areas Programme- FMBAP, 2017-20): इसे प्रभावी बाढ़ प्रबंधन, मिट्टी और समुद्री कटाव रोधी के लिए पूरे देश में लागू किया गया था।
    • जलग्रहण क्षेत्र उपचार से नदियों में अवसादन भार को कम करने में मदद मिलती है।
  • बाँधों की स्थापना द्वारा बाढ़ प्रबंधन: दामोदर घाटी निगम (Damodar Valley Corporation- DVC), सतलुज पर भाखड़ा बाँध, महानदी पर हीराकुंड बाँध आदि जैसे विभिन्न बाँध बाढ़ को नियंत्रित करने के लिए बनाए गए हैं।
  • राष्ट्रीय आपदा दल की स्थापना द्वारा बाढ़ प्रबंधन: बाढ़ के दृष्टिकोण को प्रबंधित करने और लोगों को निकालने तथा उन्हें आश्रय गृह में ले जाने के लिए विभिन्न राष्ट्रीय आपदा दल बनाए गए हैं, जहाँ उन्हें स्थिति के नियंत्रण में आने तक भोजन, पानी तथा कपड़े दिए जाते हैं।
  • प्रशासनिक/गैर-संरचनात्मक उपाय: प्रशासनिक तरीके बाढ़ से होने वाले नुकसान को कम करने का प्रयास करते हैं:
    • आने वाली बाढ़ की पूर्व चेतावनी यानी बाढ़ की भविष्यवाणी, बाढ़ की आशंका के मामले में बाढ़ की चेतावनी देकर लोगों की समय पर निकासी और उनकी चल संपत्ति को सुरक्षित स्थानों पर स्थानांतरित करने की सुविधा प्रदान करना।
    • बार-बार बाढ़ आने वाले क्षेत्रों में मूल्यवान संपत्तियों के निर्माण/लोगों की बसावट को हतोत्साहित करना यानी बाढ़ मैदान क्षेत्रीकरण विनियमन लागू करना।
  • बाढ़ मैदान जोनिंग: इसका उद्देश्य विभिन्न परिमाणों या आवृत्तियों और संभाव्यता स्तरों की बाढ़ से प्रभावित होने वाले क्षेत्रों अथवा क्षेत्रों का सीमांकन करना है तथा इन क्षेत्रों में अनुमेय विकास के प्रकारों को निर्दिष्ट करना है, ताकि जब कभी बाढ़ आए, तो क्षति को कम-से-कम किया जा सके, भले ही उसे टाला न जा सके।
  • बाढ़ निरोधक: इसे अतीत में भारत में अपनाया गया था, जिसमें कुछ गाँवों को पूर्व-निर्धारित बाढ़ स्तर से ऊपर उठाना और उन्हें पास की सड़कों या ऊँचे इलाकों से जोड़ना शामिल था।

आगे की राह

बाढ़ के खतरे और चुनौती से निपटने के लिए निम्नलिखित उपाय सुझाए गए हैं:

  • प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली: बाढ़ के प्रति अनुकूलन में पिछले अनुभवों से कई मूल्यवान सबक मिलते हैं। साथ ही, जलवायु जनित अनिवार्यताओं के कारण पूर्व-चेतावनी और प्रतिक्रिया प्रणालियों तथा आजीविका एवं अर्थव्यवस्थाओं को सुरक्षित करने के नए प्रतिमानों की आवश्यकता है।
    • सूचना संचार: यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि अधिक विश्वसनीय जानकारी उपलब्ध कराई जाए ताकि तैयारियों में सुधार किया जा सके और निवासियों को सतर्क किया जा सके।
    • समय आ गया है कि बाढ़ चेतावनी प्रणालियों को आधुनिक बनाया जाए और इसके लिए उन्नत मौसम केंद्र और सायरन लगाए जाएँ, जैसा कि वर्ष 2021 में एक संसदीय पैनल ने सुझाव दिया था।
  • उन्नत बुनियादी ढाँचे और जल निकासी प्रणाली: जल निकासी प्रणालियों सहित अच्छी तरह से डिजाइन और पर्याप्त रूप से अनुरक्षित बुनियादी ढाँचे में निवेश करने से भारी वर्षा के दौरान अतिरिक्त पानी का प्रबंधन और पुनर्निर्देशन करने में मदद मिल सकती है।
    • स्लुइस गेट्स का निर्माण: स्लुइस गेट के वाल्वों को एक दिशा में सील करने के लिए डिजाइन किया गया है और आमतौर पर नदियों और नहरों में जल स्तर और प्रवाह दर को नियंत्रित करने के लिए उपयोग किया जाता है।
    • इनका उपयोग अपशिष्ट जल उपचार संयंत्रों में भी किया जाता है।
    • उदाहरण: ब्रह्मपुत्र और अन्य नदियों की सहायक नदियों पर स्लुइस गेट का निर्माण किया जाना चाहिए और यह एक प्रभावी कदम साबित होगा।
  • सहयोगात्मक कार्रवाई: राज्य और केंद्र सरकारों के बीच सहयोग बढ़ाना, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि संसाधन और प्रयास स्थायी बाढ़ प्रबंधन समाधानों की दिशा में पर्याप्त रूप से निर्देशित हों।
  • लोगों की भागीदारी: बाढ़ प्रतिरोधी आवास और बुनियादी ढाँचे के निर्माण के लिए स्वदेशी ज्ञान को एकीकृत करने की आवश्यकता है।
    • इसके अलावा, वर्षा की विशेषताओं और बाढ़ के पैटर्न में तेजी से बदलाव के कारण लोगों के लचीलेपन की आवश्यकता होती है।
  • संधारणीय भूमि प्रबंधन: बाढ़ के मैदान में पानी और तलछट की आवाजाही में बाधा डालने वाली निर्माण परियोजनाओं पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए।
    • अत्यधिक उत्खनन और वनों की कटाई से बचने जैसी जिम्मेदार भूमि प्रबंधन प्रथाओं को प्रोत्साहित करने से प्राकृतिक परिदृश्य को संरक्षित करने और मिट्टी के कटाव को रोकने में मदद मिल सकती है।
    • तलछट का प्रबंधन करने और प्रवाह में सुधार करने के लिए नदियों की नियमित रूप से सफाई करें।
    • इसके अलावा, परिदृश्य को स्थिर करने और नदियों में तलछट के भार को कम करने के लिए नदी के किनारों पर मिट्टी के कटाव को रोकने की आवश्यकता है।
  • बाढ़ प्रबंधन/कटाव नियंत्रण पर टास्क फोर्स 2004 की प्रमुख सिफारिशों का पालन करने की आवश्यकता
    • भूमिका का विस्तार: केंद्र सरकार की भूमिका का विस्तार। बाढ़ नियंत्रण क्षेत्र में बाढ़ नियंत्रण योजनाओं को वर्तमान 75:25 के अनुपात में 90% केंद्र और 10% राज्य के अनुपात में केंद्र प्रायोजित योजना के माध्यम से वित्तपोषित किया जाना चाहिए।  
    • अधिक निवेश: तटबंधों के रखरखाव के लिए अतिरिक्त केंद्रीय सहायता के रूप में राज्य क्षेत्र में धनराशि निर्धारित करना।
      • केंद्र सरकार जलाशय परियोजनाओं के बाढ़ नियंत्रण घटक के वित्तपोषण पर विचार कर सकती है।
    • केंद्रीय जल आयोग के बाढ़ प्रबंधन संगठन को सुदृढ़ बनाना: समाप्त किए गए सदस्य के पद को बहाल करना तथा विभिन्न एजेंसियों के बीच नीति निर्माण और समन्वय के लिए संबद्ध पदाधिकारियों के पदों को पुनः तैनात करना।
  • अन्य: अतिरिक्त जल को रोकने के लिए वनस्पतियाँ लगाना, ढलान के प्रवाह को कम करने के लिए सीढ़ीनुमा ढलान बनाना, तथा जलोढ़ (बाढ़ से जल को मोड़ने के लिए मानव निर्मित चैनल) का निर्माण करना, बाढ़ के दौरान अतिरिक्त जल को संगृहीत करने के लिए बाँध, जलाशय या होल्डिंग टैंकों का निर्माण करना।

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