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बायोचार की क्षमता

Lokesh Pal August 08, 2025 03:15 3 0

संदर्भ

भारत का कार्बन बाजार वर्ष 2026 में शुरू हो रहा है एवं CO₂ उत्सर्जन की तकनीकें ध्यान आकर्षित कर रही हैं। बायोचार (कृषि और नगरपालिका अपशिष्ट के ऊष्मीय अपघटन का एक कार्बन-समृद्ध उपोत्पाद) नकारात्मक उत्सर्जन के लिए एक मापनीय, सतत् समाधान के रूप में उभर रहा है।

बायोचार के बारे में

  • बायोचार एक चारकोल जैसा पदार्थ है, जो कृषि और वानिकी अपशिष्टों (जिसे बायोमास भी कहा जाता है) से कार्बनिक पदार्थों को नियंत्रित प्रक्रिया में जारण के माध्यम से बनाया जाता है।
    • बायोचार कार्बन को एक स्थिर रूप में परिवर्तित करता है एवं चारकोल के अन्य रूपों की तुलना में अधिक स्वच्छ होता है।
  • कच्चा माल: यह बायोमास स्रोतों जैसे लकड़ी के छोटे टुकड़े, पौधों के अवशेष, खाद या अन्य कृषि अपशिष्ट उत्पादों से बनाया जाता है।
  • उपोत्पाद: सिंथेटिक गैस एवं बायो-तेल, ऊर्जा तथा ईंधन के लिए उपयोगी।
  • प्रक्रिया: बायोचार का उत्पादन पायरोलिसिस के दौरान होता है, जो ऑक्सीजन की सीमित मात्रा युक्त वातावरण में बायोमास का एक ऊष्मीय अपघटन है, जिसे पायरोलिसिस कहा जाता है।
  • भौतिक गुण: बायोचार काला, अत्यधिक छिद्रयुक्त, हल्का, बारीक कणों वाला एवं 70 प्रतिशत कार्बन से बना होता है।
  • गुण: स्थिर कार्बन से भरपूर, मिट्टी में 100-1,000 वर्षों तक बना रह सकता है।
  • भारत में उत्पादन क्षमता
    • भारत में प्रतिवर्ष 600 मिलियन मीट्रिक टन से अधिक कृषि अवशेष एवं 60 मिलियन मीट्रिक टन नगरपालिका ठोस अपशिष्ट उत्पन्न होता है।
      • इसका एक बड़ा हिस्सा खुले वातावरण में जला दिया जाता है या फेंक दिया जाता है, जिससे प्रदूषण एवं ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन होता है।
    • इस अपशिष्ट के 30-50% का उपयोग करके प्रति वर्ष 15-26 मिलियन टन बायोचार प्राप्त किया जा सकता है एवं प्रतिवर्ष 0.1 गीगाटन कार्बन डाइऑक्साइड-समतुल्य (GtCO₂e) पृथक किया जा सकता है।

  • उपोत्पाद एवं ऊर्जा क्षमता
    • सिनगैस: पायरोलिसिस (प्रतिवर्ष 20-30 मिलियन टन) के दौरान उत्पन्न, सिनगैस 8-13 टेरावाट-घंटे (TWh) विद्युत (भारत की वार्षिक विद्युत का 0.5-0.7%) उत्पन्न कर सकती है, जो 0.4-0.7 मिलियन टन कोयले की जगह ले सकती है।
    • बायो ऑयल: प्रति वर्ष 24-40 मिलियन टन उत्पादन से 12-19 मिलियन टन डीजल या केरोसीन (माँग का लगभग 8%) की भरपाई हो सकती है, जिससे कच्चे तेल के आयात में कमी आएगी एवं जीवाश्म ईंधन उत्सर्जन में 2% से अधिक की कमी आएगी।
  • विभिन्न क्षेत्रों में अनुप्रयोग
    • कृषि: मृदा नमी एवं उर्वरता को बढ़ाता है, विशेष रूप से शुष्क तथा क्षरित मृदा में।
      • नाइट्रस ऑक्साइड उत्सर्जन में 30-50% की कमी (कार्बन डाइऑक्साइड से 273 गुना अधिक प्रभावी)।
      • उर्वरक की आवश्यकता को 10-20% तक कम करता है एवं फसल उपज में 10-25% की वृद्धि करता है।
    • कार्बन अवशोषण: संशोधित बायोचार औद्योगिक गैसों से कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित कर सकता है, हालाँकि वर्तमान दक्षता पारंपरिक विधियों की तुलना में कम है।
    • निर्माण: कंक्रीट में 2-5% बायोचार मिलाने से मजबूती एवं ऊष्मा प्रतिरोध में सुधार होता है (20% की वृद्धि) तथा प्रति घन मीटर कंक्रीट में लगभग 115 किलोग्राम CO₂ अवशोषित होती है।
    • अपशिष्ट जल उपचार: एक किलोग्राम बायोचार 200-500 लीटर जल का उपचार कर सकता है।
      • भारत में प्रतिदिन 70 अरब लीटर अपशिष्ट जल उत्पन्न होता है, जिसका अर्थ है कि प्रति वर्ष 25-63 लाख टन बायोचार की आवश्यकता है।
  • अन्य प्रमुख लाभ
    • दीर्घकालिक कार्बन सिंक (100-1,000 वर्ष)।
    • खुले में जलने, लैंडफिल उत्सर्जन एवं शहरी प्रदूषण को कम करता है।
    • उपोत्पाद ऊर्जा सुरक्षा में योगदान करते हैं।
    • ग्रामीण रोजगार उत्पन्न करता है (संभावित: विकेंद्रीकृत उत्पादन इकाइयों के माध्यम से 5.2 लाख नौकरियाँ)।
    • मृदा पुनर्जनन, जल प्रतिधारण एवं जलवायु लचीलेपन को बढ़ावा देता है।
  • चुनौतियाँ
    • कोई मानकीकृत फीडस्टॉक या कार्बन लेखांकन ढाँचा नहीं है।
    • कार्बन क्रेडिट पात्रता में निवेशकों का विश्वास सीमित है।
    • कमजोर निगरानी एवं सत्यापन प्रणाली।
    • हितधारकों के बीच कम जागरूकता।
    • कृषि, ऊर्जा एवं जलवायु क्षेत्रों में नीति विखंडन।
    • क्षेत्रीय अनुकूलन के लिए अपर्याप्त अनुसंधान एवं विकास।

आगे की राह

  • भारत के कार्बन बाजार में बायोचार को एक सत्यापन योग्य कार्बन निष्कासन विधि के रूप में मान्यता प्रदान करना।
  • मौजूदा कार्यक्रमों में इसे एकीकृत करना: फसल अवशेष प्रबंधन, जैव ऊर्जा योजनाएँ एवं जलवायु परिवर्तन पर राज्य कार्य योजनाएँ।
  • बायोमास तथा पायरोलिसिस दक्षता पर क्षेत्र-विशिष्ट अनुसंधान एवं विकास को बढ़ावा देना।
  • ग्रामीण आजीविका को बढ़ावा देने के लिए विकेंद्रीकृत ग्राम-स्तरीय इकाइयाँ विकसित करना।
  • मृदा, जल एवं उत्सर्जन सुधारों के लिए सह-लाभ ढाँचे तैयार करना।

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