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क्या सर्वोच्च न्यायालय किसी राज्य द्वारा पारित अधिनियम पर रोक लगा सकता है?

Lokesh Pal July 07, 2025 02:30 6 0

संदर्भ

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने नंदिनी सुंदर एवं अन्य बनाम छत्तीसगढ़ राज्य मामले में निर्णय दिया कि न्यायिक निर्देश के बाद किसी राज्य द्वारा अधिनियम पारित करना न्यायालय की अवमानना ​​नहीं है।

मामले की पृष्ठभूमि

  • जुलाई 2011 में न्यायालय ने छत्तीसगढ़ में किसी भी माओवादी विरोधी अभियान में विशेष पुलिस अधिकारियों (Special Police Officers- SPO) के प्रयोग पर प्रतिबंध लगा दिया।
  • राज्य को SPO से आग्नेयास्त्र वापस लेने का निर्देश दिया और केंद्र को SPO भर्ती प्रक्रिया के लिए धन देना बंद करने का निर्देश दिया।
  • न्यायालय ने माना कि ऐसी भर्ती संविधान के अनुच्छेद-14 और 21 (समानता और जीवन के अधिकार) का उल्लंघन है।

न्यायालय के निर्णय के बाद छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ सहायक सशस्त्र पुलिस बल अधिनियम, 2011 लागू किया गया।

  • इस अधिनियम ने नक्सली हिंसा के विरुद्ध आधिकारिक सुरक्षा बलों की सहायता के लिए एक नया सहायक बल बनाया।
  • इसने अग्रिम पंक्ति के पदों पर तैनाती पर रोक लगा दी और न्यूनतम 6 महीने का प्रशिक्षण अनिवार्य कर दिया।
  • केवल योग्य SPO को ही इसमें शामिल किया जा सकता था।

अवमानना ​​याचिका: नए अधिनियम को वर्ष 2011 के निर्णय द्वारा प्रतिबंधित प्रथाओं को पुनर्जीवित करने के रूप में देखा गया, जिसके कारण न्यायालय के आदेश की अवहेलना करने के लिए अवमानना ​​याचिका दायर की गई।

न्यायालय ने अवमानना ​​याचिका को यह तर्क देते हुए खारिज कर दिया कि:

  • अनुपालन: छत्तीसगढ़ ने वर्ष 2011 के सभी निर्देशों को लागू किया है और अनुपालन रिपोर्ट प्रस्तुत की है।
  • विधायी शक्ति: राज्य विधानमंडल को कानून पारित करने का पूर्ण अधिकार है, बशर्ते कि
    • यह कानून संविधान का उल्लंघन नहीं करता है। 
    • यह कानून राज्य की विधायी क्षमता के अंतर्गत आता है।
  • कानून बनाने में कोई अवमानना ​​नहीं: किसी अदालत के निर्णय के आधार को प्रभावित करने वाला नया कानून पारित करना स्वतः अवमानना (Contempt of Court) नहीं माना जा सकता, जब तक कि वह कानून सीधे-सीधे अदालत के आदेश की अवहेलना न करे।। इसके बजाय, ऐसे कानूनों को केवल निम्नलिखित आधारों पर चुनौती दी जा सकती है:
    • असंवैधानिकता के आधार पर, या
    • विधायी क्षमता की कमी।
  • शक्तियों का पृथक्करण: जैसा कि इंडियन एल्युमिनियम कंपनी बनाम केरल राज्य मामले (1996) में दोहराया गया है, न्यायालयों को न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के बीच संवैधानिक संतुलन का सम्मान करना चाहिए।

शक्तियों का पृथक्करण एक संगठनात्मक संरचना है, जिसमें जिम्मेदारियाँ, प्राधिकार और शक्तियाँ केंद्रीय रूप से न होकर समूहों (सरकार की शाखाओं) के बीच विभाजित होती हैं।

न्यायालय की अवमानना ​​से तात्पर्य न्यायालय के प्रति अवज्ञा या अनादर के किसी भी कृत्य से है जो उसके अधिकार, न्याय या गरिमा को कमजोर करता है।

  • न्यायालय की अवमानना ​​अधिनियम, 1971: यह अधिनियम अवमानना ​​को दो श्रेणियों में वर्गीकृत करता है:
    • सिविल अवमानना: न्यायालय के आदेश या वचन की जानबूझकर अवज्ञा।
    • आपराधिक अवमानना: कोई भी कार्य (बोलकर, लिखकर या अन्यथा) जो:
      • न्यायालय के अधिकार को बदनाम या कम करता है।
      • न्यायिक कार्यवाही में पूर्वाग्रह या हस्तक्षेप करता है।
      • किसी भी तरह से न्याय प्रशासन में बाधा डालता है।
  • अवमानना ​​क्या नहीं है?
    • न्यायिक कार्यवाही की निष्पक्ष और सटीक रिपोर्टिंग।
    • मामले के निपटारे के बाद न्यायिक निर्णय की उचित और निष्पक्ष आलोचना।
  • दंड
    • छह महीने तक का साधारण कारावास या ₹2,000 तक का जुर्माना या दोनों।
    • यदि अदालत द्वारा अभियुक्त को माफी प्रदान की जाती है, तो वह इस दंड से मुक्त हो सकता है।

संवैधानिक प्रावधान

  • अनुच्छेद-129 और 215: सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय की अभिलेख न्यायालय के रूप में शक्तियाँ, जिसमें स्वयं की अवमानना ​​के लिए दंडित करने की शक्ति शामिल है।
  • अनुच्छेद-142: सर्वोच्च न्यायालय अवमानना ​​कार्यवाही सहित पूर्ण न्याय सुनिश्चित करने के लिए कार्य कर सकता है।
  • अनुच्छेद-19(2): अवमानना ​​अनुच्छेद-19(1) के तहत मुक्त भाषण को सीमित करने का आधार है।

CoC पर महत्त्वपूर्ण मामले

  • ई.एम.एस. नंबूदरीपाद बनाम टी.एन. नांबियार (1970): केरल के CM को न्यायपालिका के वर्गीय पूर्वाग्रह के बारे में अपमानजनक टिप्पणी करने के लिए आपराधिक अवमानना ​​का दोषी ठहराया गया था, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सीमाओं की पुष्टि करता है।
  • प्रशांत भूषण केस (2020): सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि भूषण के सोशल मीडिया पोस्ट ने न्यायपालिका में जनता के विश्वास को कम किया है; प्रतीकात्मक ₹1 का जुर्माना लगाया।
  • जस्टिस सी.एस. कर्णन बनाम भारत का माननीय सर्वोच्च न्यायालय (2017): सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के विरुद्ध अपमानजनक आरोपों के लिए उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को 6 महीने जेल की सजा सुनाई गई, जो एक अभूतपूर्व अवमानना ​​का मामला है।
  • अरुंधति रॉय (2002) के मामले में: नर्मदा बाँध मामले के संदर्भ में न्यायालय को बदनाम करने के लिए रॉय पर जुर्माना लगाया गया और एक दिन की जेल हुई।

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