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जातिगत पूर्वाग्रह, संवैधानिक नैतिकता और नैतिक शासन

Lokesh Pal October 16, 2025 02:41 40 0

संदर्भ

संविधान लागू होने के 75 वर्ष बाद, मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई पर हमला, आईपीएस अधिकारी वाई. पूरन कुमार द्वारा आत्महत्या तथा अन्य दलित अत्याचार संबंधी घटनाएँ दर्शाती हैं कि जातिगत पूर्वाग्रह अभी भी संस्थाओं और समाज में व्याप्त है, जो संवैधानिक नैतिकता को कमजोर कर रहा है।

हालिया मामलों पर एक अंतर्दृष्टि

  • सर्वोच्च न्यायालय की घटना: मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई पर जूता फेंका गया; इसके बाद सोशल मीडिया पर दुष्प्रचार ने धार्मिक आक्रोश के रूप में प्रच्छन्न जातिगत पूर्वाग्रह को उजागर किया।
  • प्रशासनिक पूर्वाग्रह: IPS वाई. पूरन कुमार ने लगातार जातिगत अपमान का आरोप लगाया; अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत शिकायतों के निवारण में देरी हुई/इनकार किया गया।

जाति के बारे में

  • जाति का ऐतिहासिक आधार: जाति भारत के सबसे पुराने सामाजिक पदानुक्रमों में से एक है, जो व्यक्तियों को जन्म से ही निश्चित दर्जा, व्यवसाय और विशेषाधिकार प्रदान करती है।
  • सांस्कृतिक और नैतिक आयाम: यह केवल एक सामाजिक वर्गीकरण नहीं है, बल्कि एक नैतिक और सांस्कृतिक विचारधारा है, जो असमानता, बहिष्कार और शुद्धता व अपवित्रता की धारणाओं को आकार देती है।
  • आधुनिक भारत में स्थायित्व: आधुनिकीकरण और लोकतंत्र के बावजूद, जाति सामाजिक और व्यावसायिक क्षेत्रों में अवसर, शक्ति और सम्मान तक पहुँच का निर्धारण करती रहती है।

भारत में जाति का ऐतिहासिक संदर्भ

  • प्राचीन मूल: वर्ण व्यवस्था कठोर जाति-आधारित पदानुक्रमों में विकसित हुई, जिसने आध्यात्मिक शुद्धता को व्यवसाय और सामाजिक मूल्य से जोड़ा।
  • औपनिवेशिक संहिताकरण: ब्रिटिश जनगणनाओं और प्रशासनिक श्रेणियों ने जातिगत पहचान को संस्थागत रूप दिया, जिससे संरचनात्मक विभाजन और मजबूत हुए।
  • स्वतंत्रता-पश्चात सुधार: भारतीय संविधान (1950) ने निम्नलिखित के माध्यम से जाति को समाप्त करने का प्रयास किया:-
    • अनुच्छेद-17: अस्पृश्यता का उन्मूलन।
    • अनुच्छेद-15(4) और 16(4): पिछड़े वर्गों के लिए सकारात्मक कार्रवाई।
    • नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम (1955) और अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम (1989): जाति-आधारित भेदभाव को दंडित करना।
      • फिर भी, जैसा कि डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने चेतावनी दी थी, “राजनीतिक लोकतंत्र तब तक नहीं टिक सकता, जब तक वह सामाजिक लोकतंत्र पर आधारित न हो।”

भारत में जातिगत भेदभाव की समकालीन अभिव्यक्तियाँ

  • सामाजिक भेदभाव: आवास, मंदिरों और सामाजिक समारोहों में, खासकर ग्रामीण भारत में, जहाँ जाति-आधारित हिंसा आम है, भेदभाव बना हुआ है।
    • क्वेश्चन ऑफ सिटीज’ (Question of Cities) की एक रिपोर्ट दर्शाती है कि शहरी क्षेत्रों में जाति के आधार पर भारी अलगाव बना हुआ है, जिससे सार्वजनिक सेवाओं, सामाजिक नेटवर्क और आवागमन तक पहुँच प्रभावित होती है। ग्रामीण परिवेश में भी, दलितों को प्रायः मुख्यधारा के सामाजिक स्थानों से दूर, गाँवों के बाहरी क्षेत्रों में रहने के लिए मजबूर किया जाता है।
  • संस्थागत भेदभाव: IIT में दलित छात्रों की आत्महत्या से लेकर दलित अधिकारियों के उत्पीड़न तक, जातिगत पूर्वाग्रह बहिष्कार, उपहास और सम्मान से वंचित करके आधुनिक स्थानों में भी पनपता है।
    • उदाहरण: IIT दिल्ली में दो दलित छात्रों की आत्महत्या के बाद वर्ष 2022 में सर्वोच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप किया और IIT में जातिगत पूर्वाग्रह की जाँच के लिए एक कार्यबल के निर्माण का आह्वान किया।
  • आर्थिक असमानता: दलितों का प्रतिनिधित्व कम वेतन वाले और उपेक्षित व्यवसायों में अधिक है, और उन्हें भूमि, ऋण और पूँजी नेटवर्क से व्यवस्थित रूप से बहिष्कृत किया जाता है।
    • उदाहरण: ऑक्सफैम इंडिया कीडिस्क्रिमिनेशन रिपोर्ट’ 2022 के अनुसार, दलित श्रमिकों को गैर-दलित समकक्षों की तुलना में, नियमित रोजगार में भी, कम वेतन प्राप्त होता है, जो रोजगार क्षेत्र में एक संरचनात्मक पूर्वाग्रह को दर्शाता है।
  • डिजिटल और शहरी जातिवाद: ऑनलाइन अभद्र भाषा, वैवाहिक प्लेटफॉर्म पर जाति आधारित फिल्टर और योग्यता-आधारित’ बहिष्कार प्रायः पारंपरिक सामाजिक पदानुक्रमों की समकालीन अभिव्यक्तियों के रूप में कार्य करते हैं।
    • उदाहरण: ऑनलाइन वैवाहिक प्लेटफॉर्म पर जातिगत फिल्टर की सुविधा जारी रहने के कारण, उपयोगकर्ता अपनी स्पष्ट जातिगत वरीयताओं के माध्यम से डिजिटल सामाजिक संरचना में जातिगत विभाजन को औपचारिक और संस्थागत रूप प्रदान कर देते हैं।
  • राजनीतिक उपेक्षा: आरक्षण के सैद्धांतिक लाभों के बावजूद, दलित प्रतिनिधियों को स्थानीय शासकीय संस्थाओं में प्रायः दिखावटी प्रतिनिधित्व या औपचारिक दबाव जैसी संरचनात्मक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।

आधुनिक संस्थाओं में जातिगत पूर्वाग्रह

  • नौकरशाही: आईपीएस पूरन कुमार के मामले में देखा गया कि कैसे जाति, वरिष्ठ अधिकारियों के बीच भी, बहिष्कार, अपमान और सम्मान से वंचित करके कार्य करती है।
  • शैक्षणिक जगत: रोहित वेमुला की आत्महत्या जैसे मामलों में संस्थागत उदासीनता हाशिए पर स्थित समुदायों की व्यवस्थित उपेक्षा को दर्शाती है।
  • कॉरपोरेट और डिजिटल क्षेत्र: कॉरपोरेट और डिजिटल क्षेत्रों में,सांस्कृतिक अनुकूलता” और “योग्यता” जैसे शब्द प्रायः जाति-आधारित बहिष्कार को छिपा देते हैं। ये शब्द नियुक्ति और पदोन्नति में पूर्वाग्रहों को बढ़ावा देते हैं, जातिगत पदानुक्रम को सूक्ष्म रूप से मजबूत करते हैं और हाशिए पर स्थित समूहों के लिए अवसरों को सीमित करते हैं।
    • उदाहरण: नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च (NCAER) की “समावेश की स्थिति” रिपोर्ट (2021) भारत के निजी क्षेत्र में अंतर्निहित जाति-आधारित बहिष्कार को उजागर करती है, जिसमें बताया गया है कि जातिगत प्रभाव डिजिटल और भौतिक दोनों भर्ती प्रक्रियाओं को प्रभावित करते हैं।

संवैधानिक नैतिकता: जाति के विरुद्ध नैतिक आदेश

  • संविधान अनुच्छेद 14-18 के माध्यम से समानता को सुनिश्चित करता है, अस्पृश्यता का उन्मूलन करता है और भेदभाव का निषेध करता है। फिर भी, इन प्रावधानों का नैतिक आधार इस बात पर आधारित है कि संस्थाएँ नैतिक उत्तरदायित्व कैसे निभाती हैं, न कि केवल कानूनी औपचारिकता पूरी करती हैं।
  • संवैधानिक आधार
    • अनुच्छेद-14: सामाजिक पदानुक्रम को अस्वीकार करते हुए, कानून के समक्ष निष्पक्षता और समानता सुनिश्चित करता है।
    • अनुच्छेद-15: भेदभाव का निषेध करता है, मूलभूत समानता और समता को स्थापित रखता है।
    • अनुच्छेद-16: सार्वजनिक रोजगार में अवसर की समानता की गारंटी देता है।
    • अनुच्छेद-17: जाति-आधारित भेदभाव को अस्वीकार करते हुए, अस्पृश्यता का उन्मूलन करता है।
    • अनुच्छेद-21: जीवन और सम्मान की रक्षा करता है, अपमान को एक संवैधानिक अपराध बनाता है।
    • अनुच्छेद-46: राज्य को अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों के कल्याण को बढ़ावा देने और उन्हें शोषण से बचाने का निर्देश देता है।

संस्थागत जातिवाद के नैतिक आयाम

  • निष्पक्षता का उल्लंघन: जातिगत पूर्वाग्रह तटस्थता से समझौता करता है और संस्थागत निष्पक्षता को कमजोर करता है।
  • सहानुभूति की कमी: भेदभाव प्रत्येक रूप में करुणा और मानवीय गरिमा का उल्लंघन है।
  • संवैधानिक कर्तव्य का परित्याग: जातिवाद को सहन करने वाले सरकारी अधिकारी समानता और न्याय को बनाए रखने की अपनी शपथ का उल्लंघन करते हैं।
  • सांस्कृतिक नैतिक अंधता: “परंपरा” या “योग्यतावाद” के रूप में छिपाया गया भेदभाव नैतिक विफलता को दर्शाता है।
  • मानव गरिमा का क्षरण: संस्थागत जातिवाद व्यक्तियों को उनकी सामाजिक पहचान तक सीमित कर देता है, जो अनुच्छेद-21 का उल्लंघन करता है।
  • लोक सेवा में नैतिक जोखिम: जातिगत उल्लंघनों के विरुद्ध कार्रवाई करने में विफलता एक नैतिक जोखिम पैदा करती है, जो यह संकेत देती है कि अधिकारी बिना किसी परिणाम के संवैधानिक नैतिकता का उल्लंघन कर सकते हैं, जिससे पूर्वाग्रह सामान्य हो जाता है।
  • जवाबदेही का सिद्धांत: मूल नैतिक विफलता उन वरिष्ठ अधिकारियों की दंडमुक्ति में निहित है, जो जातिगत शिकायतों की अनदेखी करते हैं या अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के प्रभावी कार्यान्वयन में विलंब करते हैं।
    • संवैधानिक नैतिकता कोई स्वाभाविक भावना नहीं है; इसे विकसित करना पड़ता है।” – डॉ. बी.आर. अंबेडकर

दार्शनिक वक्तव्य

  • अंबेडकर का दृष्टिकोण:  सामाजिक लोकतंत्र स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व पर आधारित होना चाहिए, जिसके बिना राजनीतिक स्वतंत्रता अप्रासंगिक हो जाती है।
  • गांधीवादी नैतिकता: सच्चा स्वराज अस्पृश्यता के उन्मूलन और करुणा को एक नागरिक गुण के रूप में विकसित करने की माँग करता है।
  • रॉल्सवादी न्याय: निष्पक्षता के लिए विरासत में प्राप्त विशेषाधिकारों को समाप्त करना और सभी के लिए समान अवसर सुनिश्चित करना आवश्यक है।
  • कांटियन’ गरिमा: प्रत्येक मनुष्य को अपने आप में एक साध्य के रूप में माना जाना चाहिए, न कि सामाजिक पद द्वारा परिभाषित एक साधन के रूप में।
  • टैगोरवादी मानवतावाद: नैतिक प्रगति जाति और पंथ से ऊपर उठकर, प्रत्येक व्यक्ति में ईश्वर को पहचानने में निहित है।

जातिगत भेदभाव को दूर करने के लिए भारत की पहल

कानूनी और संवैधानिक ढांचा
  • भारतीय संविधान (1950): भारतीय संविधान ने अनुच्छेद-17 के अंतर्गत अस्पृश्यता का निषेध करके और अनुच्छेद-14 के अंतर्गत विधि के समक्ष समानता सुनिश्चित करके समानता की एक ठोस नींव रखी।
    • समानता का अधिकार (अनुच्छेद-15 और 16) और नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम (1955) का उद्देश्य जाति-आधारित भेदभाव को समाप्त करना है।
  • अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989: यह ऐतिहासिक कानून विशेष रूप से दलितों और आदिवासियों को सामाजिक भेदभाव और हिंसा से बचाने के लिए बनाया गया है।
    • यह इन समूहों के विरुद्ध किए गए विभिन्न प्रकार के अत्याचारों को अपराध घोषित करता है और अपराधियों के लिए कड़ी सजा का प्रावधान करता है।
  • आरक्षण नीति (अनुच्छेद-15(4) और 16(4)): ऐतिहासिक अन्याय को दूर करने के लिए, भारत अनुसूचित जातियों (SCs), अनुसूचित जनजातियों (STs) और अन्य पिछड़ा वर्गों (OBCs) के लिए शिक्षा, रोजगार और विधायिकाओं में आरक्षण के माध्यम से सकारात्मक कार्रवाई प्रदान करता है।
    • इन नीतियों का उद्देश्य हाशिए पर स्थित समुदायों का प्रतिनिधित्व और सामाजिक उत्थान सुनिश्चित करना है।
  • नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम (1955): इस अधिनियम ने अस्पृश्यता को एक दंडनीय अपराध बना दिया, जिसका उद्देश्य उन सामाजिक बाधाओं को तोड़ना था, जो ऐतिहासिक रूप से दलितों को बुनियादी अधिकारों और अवसरों से वंचित रखती थीं।
सरकारी योजनाएँ और सामाजिक कार्यक्रम
  • प्रधानमंत्री आदर्श ग्राम योजना (PMAGY): यह योजना अनुसूचित जातियों की महत्त्वपूर्ण आबादी वाले गाँवों के विकास पर केंद्रित है। इस कार्यक्रम का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी कम करना, साक्षरता में सुधार लाना और सामाजिक समावेशन को बढ़ावा देना है।
  • राष्ट्रीय अनुसूचित जाति वित्त एवं विकास निगम (NSFDC): NSFDC एक सरकारी निकाय है, जो अनुसूचित जाति के व्यक्तियों को स्व-रोजगार और उद्यमिता पहलों के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करता है।
  • बाबा साहेब अंबेडकर सामाजिक एकीकरण योजना: शिक्षा, सामाजिक सद्भाव और सशक्तीकरण को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रमों के माध्यम से दलित समुदायों के सामाजिक एकीकरण पर केंद्रित है।
  • डॉ. अंबेडकर फाउंडेशन: यह फाउंडेशन अंबेडकर के जीवन और कार्यों के बारे में शोध और जागरूकता को बढ़ावा देता है, सामाजिक न्याय पहलों का समर्थन करता है और दलित सशक्तीकरण आंदोलन की विरासत को संरक्षित करता है।
जागरूकता और शैक्षिक अभियान
  • भारत रत्न डॉ. बी.आर. अंबेडकर का विजन अभियान: यह पहल युवा भारतीयों को अंबेडकर के जातिविहीन समाज के लक्ष्य के बारे में शिक्षित करने पर केंद्रित है, जिसका उद्देश्य पाठ्यक्रम एकीकरण और सार्वजनिक चर्चाओं के माध्यम से गहरी जड़ें जमाए सामाजिक पदानुक्रमों को चुनौती देना है।
  • सार्वजनिक संस्थानों में जाति संवेदनशीलता प्रशिक्षण: लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी (LBSNAA) जैसी विभिन्न सरकारी और सिविल सेवा अकादमियों ने IAS, IPS और अन्य प्रशासनिक सेवाओं के लिए जाति-संवेदनशीलता प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू किए हैं।

जातिगत भेदभाव के लिए वैश्विक पहल

संयुक्त राष्ट्र (UN) और अंतरराष्ट्रीय निकाय
  • नस्लीय भेदभाव उन्मूलन पर संयुक्त राष्ट्र अभिसमय (CERD): संयुक्त राष्ट्र CERD नस्लीय भेदभाव पर विशेष रूप से ध्यान केंद्रित करता है, इसमें नस्लीय भेदभाव के एक रूप के रूप में जाति-आधारित भेदभाव भी शामिल है।
    • नस्लीय भेदभाव उन्मूलन पर संयुक्त राष्ट्र समिति ने भारत और अन्य देशों में जाति-आधारित भेदभाव को समाप्त करने का आह्वान किया है।
  • नस्लवाद के विरुद्ध विश्व सम्मेलन, 2001 (डरबन घोषणा): डरबन घोषणा में, जातिगत भेदभाव को नस्लीय भेदभाव का एक रूप माना गया और वैश्विक समुदाय से इसके विरुद्ध कार्रवाई करने का आग्रह किया गया।
  • अंतरराष्ट्रीय दलित एकजुटता नेटवर्क (International Dalit Solidarity Network-IDSN): एक वैश्विक नेटवर्क जो दलित अधिकारों की वकालत करता है और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर जाति-आधारित भेदभाव के बारे में जागरूकता बढ़ाता है।
    • IDSN, जाति-आधारित असमानता से निपटने के लिए वैश्विक मानकों की आवश्यकता पर प्रकाश डालने के लिए संयुक्त राष्ट्र के साथ मिलकर कार्य करता है।
वैश्विक नागरिक समाज के प्रयास
  • अंतरराष्ट्रीय अभियान: वैश्विक नागरिक समाज संगठन जातिगत हिंसा और भेदभाव को उजागर करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं।
    • #EndCasteDiscrimination और #DalitLivesMatter जैसे अभियानों का उद्देश्य वैश्विक स्तर पर जागरूकता बढ़ाना और सरकारों तथा अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से जाति-आधारित हिंसा एवं भेदभाव के विरुद्ध कार्रवाई करने का आग्रह करना है।
  • जातिगत भेदभाव उन्मूलन के लिए अंतरराष्ट्रीय दिवस: एक वैश्विक आयोजन, जो दलित समुदायों के संघर्षों की ओर ध्यान आकर्षित करता है और सामाजिक समावेशन एवं न्याय का समर्थन करता है।
    • इस दिवस को यूनेस्को और वैश्विक स्तर पर गैर-सरकारी संगठनों द्वारा जाति-आधारित असमानताओं के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए मान्यता दी गई है।
क्षेत्रीय पहल
  • दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग: दक्षिण एशियाई देशों, विशेषकर नेपाल और श्रीलंका ने, मुख्यतः संवैधानिक संशोधनों और सकारात्मक कार्रवाई नीतियों के माध्यम से, जाति-आधारित भेदभाव को दूर करने में महत्त्वपूर्ण प्रगति की है।
    • हालाँकि, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्रों में जातिवाद अभी भी मौजूद है।
  • जाति-आधारित भेदभाव पर क्षेत्रीय सहयोग: दक्षिण एशियाई दलित अधिकार मंच (SAFOD) जैसे विभिन्न दक्षिण एशियाई संगठन, जाति-आधारित भेदभाव को समाप्त करने के लिए क्षेत्रीय सहयोग की दिशा में कार्य करते हैं और पूरे क्षेत्र में कानूनी सहायता, शिक्षा संबंधी कार्यक्रम संचालित करते हैं।
मानवाधिकार और जातिगत समानता के लिए वैश्विक कार्यक्रम
  • मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (UDHR): जातिगत भेदभाव UDHR के कई प्रावधानों के विपरीत है, जिनमें सम्मान, समानता और भेदभाव-मुक्ति का अधिकार शामिल है।
    • अंतरराष्ट्रीय संगठन इन अधिकारों के सशक्त प्रवर्तन के लिए निरंतर प्रयास कर रहे हैं।
  • जातिगत समानता के लिए वैश्विक भागीदारी: दलितों की समानता पर केंद्रित अंतरराष्ट्रीय सरकारों, गैर-सरकारी संगठनों और संस्थानों का एक सामूहिक प्रयास। इसका उद्देश्य आर्थिक सशक्तीकरण, शिक्षा और जनसमर्थन के माध्यम से भेदभाव से निपटना है।

संस्थागत जातिवाद को संबोधित करने का महत्त्व

  • लोकतांत्रिक अखंडता: संस्थाओं के भीतर समानता नागरिक विश्वास और शासन की नैतिक वैधता को बनाए रखती है।
  • सामाजिक एकता: जातिगत पूर्वाग्रहों का उन्मूलन भारतीय लोकतंत्र की आत्मा, बंधुत्व को मजबूत करता है।
  • प्रशासनिक नैतिकता: सहानुभूति के साथ तटस्थता का अभ्यास लोक सेवा में ईमानदारी और जवाबदेही को मजबूत करता है।
  • नैतिक राष्ट्रवाद: नैतिक राष्ट्रवाद यह सुनिश्चित करने में निहित है कि संवैधानिक नैतिकता सामाजिक पदानुक्रम पर विजय प्राप्त करे।
  • शासन में जनता का विश्वास: जाति-तटस्थ मानी जाने वाली संस्थाएँ नागरिक सहयोग को बढ़ाती हैं, जो नीतिगत सफलता के लिए महत्त्वपूर्ण है।
  • समावेशी विकास: हाशिए पर स्थित समूहों को सशक्त बनाने से नवाचार और सामाजिक स्थिरता के लिए एक व्यापक आधार तैयार होता है।

जातिगत भेदभाव उन्मूलन में चुनौतियाँ

  • सामाजिक चेतना में कमी: गहराई से जड़ें जमाए हुए सामाजिक विश्वास, शिक्षा और कानून की उपलब्धियों के बावजूद, सदियों से स्थापित पदानुक्रमिक संरचनाओं में परिवर्तन के प्रयासों का प्रतिरोध करते हैं।
  • आर्थिक निर्भरता: हाशिए पर स्थित समूह आर्थिक रूप से प्रभावशाली जातियों पर निर्भर रहते हैं, जिससे उनकी मुखरता सीमित हो जाती है।
  • संस्थागत उदासीनता: संवेदनशीलता संबंधी प्रशिक्षण का अभाव और कमजोर शिकायत निवारण प्रणालियाँ उदासीनता को बनाए रखती हैं।
  • राजनीतिक विसंगति: वोट बैंक की राजनीति विभाजन को बढ़ावा देती है और सुधार में बाधा डालती है।
  • डिजिटल सामान्यीकरण: ऑनलाइन प्लेटफॉर्मयोग्यता’ की आडंबरपूर्ण परिभाषा और जातिगत रूढ़ियों के महिमामंडन के माध्यम से पूर्वाग्रहों को बढ़ावा देते हैं।
  • कमजोर जवाबदेही: वरिष्ठ अधिकारियों के प्रति अनुशासनात्मक कार्रवाइयों की अनुपस्थिति, दंडमुक्ति की संरचनात्मक स्थिति को जन्म देती है।
  • कार्यान्वयन में कमियाँ: अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत देरी और कम दोषसिद्धि दर इसके निवारक प्रभाव को कमजोर करती हैं।

आगे की राह

  • सामाजिक और मनोवृत्तिगत परिवर्तन: लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी (LBSNAA) जैसी प्रशिक्षण अकादमियों और न्यायिक संस्थानों में जाति-संवेदनशीलता और सामाजिक न्याय मॉड्यूल को एकीकृत करना।
    • स्कूल और कॉलेज के पाठ्यक्रमों में ज्योतिराव फुले, पेरियार, नारायण गुरु और बी.आर. अंबेडकर जैसे सुधारकों को शामिल करने के लिए संशोधन करना और कम आयु में ही जागरूकता बढ़ाना।
    • बंधुत्व, समानता और संवैधानिक नैतिकता को मूल नागरिक मूल्यों के रूप में बढ़ावा देने वाले राष्ट्रव्यापी नागरिक अभियान संचालित करना।
    • सामाजिक और आर्थिक प्रोत्साहनों के माध्यम से अंतर्जातीय विवाह और सामुदायिक एकीकरण को प्रोत्साहित करना।
  • संस्थागत और कानूनी उपाय: जाति-आधारित उत्पीड़न के लिए शून्य-सहिष्णुता की नीतियों को लागू करना, अनुपालन को अधिकारियों की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट (ACR) से जोड़ना।
    • गोपनीय शिकायत तंत्र के साथ मंत्रालयों, विश्वविद्यालयों और सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों में जाति संवेदनशीलता प्रकोष्ठ स्थापित करना।
    • समावेशन, प्रतिनिधित्व और प्रणालीगत पूर्वाग्रह का आकलन करने के लिए समय-समय पर सामाजिक लेखा परीक्षा करना।
    • फास्ट-ट्रैक अदालतों और सख्त जवाबदेही के माध्यम से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के प्रवर्तन को सशक्त बनाना।
    • नागरिक चार्टर ढाँचे के माध्यम से पुलिस, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं जैसे सार्वजनिक संस्थानों में भेदभाव-विरोधी प्रतिज्ञाओं और शिकायत निवारण को शामिल करना।
  • आर्थिक और डिजिटल सशक्तीकरण: हाशिए पर स्थित समुदायों के लिए ऋण, भूमि सुधार और उद्यमिता योजनाओं तक पहुँच का विस्तार करना।
    • ऑनलाइन जातिगत वैमनस्य और फेक न्यूज पर अंकुश लगाने के लिए सूचना प्रौद्योगिकी नियमों को लागू करना, जिससे नैतिक डिजिटल नागरिकता सुनिश्चित हो।
  • प्रशासक की भूमिका: नैतिक प्रहरी के रूप में कार्य करना, संवैधानिक मूल्यों की सक्रिय रूप से रक्षा करना।
    • सामाजिक न्याय और सहानुभूति के प्रति प्रतिबद्धता का आकलन करने के लिए नेतृत्व की भूमिकाओं के लिए नैतिक जाँच सुनिश्चित करना।
    • पीड़ितों की देखभाल, प्रतिशोध को रोकने और गोपनीयता बनाए रखने के कर्तव्य का पालन करना।
    • जवाबदेही तंत्र को मजबूत करना, निष्क्रियता के लिए वरिष्ठ अधिकारियों को जिम्मेदार ठहराना और शासन में नैतिक उत्तरदायित्व को शामिल करना।

निष्कर्ष

जातिगत भेदभाव भारत में अधूरी नैतिक क्रांति का द्योतक है। हालाँकि कानून राजनीतिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करता है, लेकिन सच्ची समानता के लिए सामाजिक और नैतिक परिवर्तनों की आवश्यकता है। जैसा कि डॉ. भीमराव अंबेडकर ने चेतावनी दी थी कि केवल राजनीतिक समानता सामाजिक असमानता को समाप्त नहीं कर सकती। वास्तविक न्याय और मानवीय लोकतंत्र की स्थापना के लिए जनमानस में संवैधानिक नैतिकता, सम्मान और न्याय की भावना को दृढ़ करना अनिवार्य है।

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