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आधुनिक भारत के लिए एक रूपरेखा के रूप में चोल विरासत

Lokesh Pal July 29, 2025 02:35 10 0

संदर्भ

भारतीय प्रधानमंत्री तमिलनाडु के गंगईकोंड चोलपुरम् में आदि तिरुवथिराई उत्सव में शामिल हुए।

आदि तिरुवथिराई उत्सव के बारे में

  • आदि तिरुवथिरई एक महत्त्वपूर्ण तमिल शैव उत्सव है, जो शैव भक्ति परंपरा के सम्मान में मनाया जाता है।
  • यह चोल वंश द्वारा संरक्षित भक्ति परंपरा को दर्शाता है, जिसे तमिल शैव धर्म के 63 संत-कवियों नयनारों के भजनों के माध्यम से स्मरण और उत्सव के रूप में मनाया जाता है।”
  • इस वर्ष का उत्सव विशेष रूप से इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसका आयोजन राजेंद्र चोल के जन्म नक्षत्र तिरुवथिरई (आर्द्रा) के साथ संयोग में हो रहा है, जिसकी शुरुआत 23 जुलाई से हो चुकी है।

संबंधित तथ्य 

  • भारतीय प्रधानमंत्री ने चोल राजवंश के शासन, सांस्कृतिक प्रभाव और नौसैनिक शक्ति को भारत के विकास के लिए एक मॉडल बताया।

प्रमुख घोषणाएँ

  • तमिलनाडु में राजराजा चोल और राजेंद्र चोल प्रथम की प्रतिमाएँ स्थापित की जाएँगी।
  • राजेंद्र चोल प्रथम की स्मृति में स्मारक सिक्का जारी किया जाएगा।
  • चोल विरासत को राष्ट्रीय चेतना में एकीकृत करने पर जोर दिया जाएगा।
  • प्राचीन कलाकृतियों के संरक्षण और उनकी स्वदेश वापसी हेतु भारत द्वारा किए गए प्रयासों को रेखांकित किया जाएगा, वर्ष 2014 से अब तक भारत ने 600 से अधिक कलाकृतियाँ पुनः प्राप्त की हैं, जिनमें से 36 तमिलनाडु से संबंधित हैं।

चोल कौन थे?

  • चोल, प्रारंभिक तमिलकम के तीन प्रमुख राजवंशों में से एक थे, जिन्हें संगम साहित्य में प्रायःमुवेंधरकहा जाता है। अशोक के शिलालेखों में भी उनका उल्लेख मिलता है।
  • चोल साम्राज्य का 9वीं शताब्दी के मध्य में विजयालय के शासनकाल में पुनरुत्थान हुआ, जो संभवतः पल्लव राजवंश  का एक पूर्व जागीरदार था।

प्रमुख चोल शासक और उनके योगदान

विजयालय चोल (848-871 ई.)

  • चोल साम्राज्य के संस्थापक पांड्य-पल्लव प्रतिद्वंद्विता का लाभ उठाकर सत्ता में आए।
  • मुत्तरैयार राजवंश ने तंजावुर पर अधिकार स्थापित किया और देवी निशुंभसुदिनी (दुर्गा) के लिए एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया।
  • तंजावुर के शहरी पुनर्निर्माण का कार्य आरंभ किया।

राजराज प्रथम (985–1014 ई.)

  • राजराज प्रथम ने नौसैनिक अभियानों का नेतृत्व किया और श्रीलंका, मालदीव तथा भारत के पश्चिमी तट के कुछ क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की।
  • विजित क्षेत्रों में प्रशासनिक नियंत्रण बनाए रखने हेतु चोलों ने वायसराय नियुक्त किए, जैसे चोल-पांड्य (पांडियानाडु), चोल-लंकेश्वर (श्रीलंका), और चोल-गंगा (कर्नाटक)।
  • उन्होंने तंजावुर में बृहदेश्वर मंदिर का निर्माण कराया, जिसके शिलालेखों में उनकी उपलब्धियों का विस्तृत उल्लेख मिलता है।
  • जावा में एक बौद्ध विहार के निर्माण में सहायता करके सांस्कृतिक कूटनीति का समर्थन किया।

राजेंद्र प्रथम (1014–1044 ई.)

  • तुंगभद्रा नदी तक नियंत्रण बढ़ाया और गंगा नदी  तक उत्तरी अभियानों का नेतृत्व किया।
  • पाल वंश पर विजय प्राप्त करने के उपलक्ष्य में उन्होंनेगंगईकोंडकी उपाधि धारण की तथा उसकी स्मृति में गंगईकोंड चोलपुरम् की स्थापना की ।
  • श्रीविजय साम्राज्य (सुमात्रा) के विरुद्ध सफल नौसैनिक अभियान चलाए और समुद्री प्रभाव का विस्तार किया।
  • कदरामकोंड, मुदिकोंडा चोल और पंडित चोल जैसी उपाधियाँ धारण कीं।
  • मलाया प्रायद्वीप में व्यापार को बढ़ावा दिया एवं  चोल नौसैनिक शक्ति को मजबूत किया।

कुलोत्तुंग प्रथम (1070–1122 ई.)

  • वेंगी के पूर्वी चालुक्यों को चोलों के साथ एकीकृत किया, जिससे राजनीतिक सुदृढ़ीकरण सुनिश्चित हुआ।
  • भूमि सर्वेक्षण और राजस्व सुधार (इंग्लैंड की डोम्सडे बुक के समकालीन) लागू किए।
  • धार्मिक सहिष्णुता का पालन किया, शैव होने के बावजूद, नागपट्टिनम में बौद्ध मंदिरों का समर्थन किया।
  • वेंगी और गंगावाड़ी जैसे क्षेत्रों की क्षति तथा होयसल और पांड्य वंशों के लगातार आक्रमणों के कारण चोल साम्राज्य के पतन की प्रक्रिया प्रारंभ हुई।

चोल विरासत क्यों महत्त्वपूर्ण है?

  • सामरिक और नौसैनिक शक्ति
    • राजराजा चोल ने एक दुर्जेय नौसेना का निर्माण किया और राजेंद्र चोल प्रथम ने श्रीलंका, मालदीव और दक्षिण-पूर्व एशिया में विदेशी अभियानों का नेतृत्व किया, जिससे भारत की समुद्री शक्ति और विदेशी पहुँच का प्रारंभिक प्रमाण मिलता है।
    • भारतीय प्रधानमंत्री ने इस विरासत को ऑपरेशन सिंदूर जैसी आधुनिक पहलों से जोड़ा, और रक्षा एवं समुद्री सुरक्षा पर भारत के वर्तमान दृष्टिकोण पर प्रकाश डाला।
  • प्रशासनिक उत्कृष्टता: चोलों ने कुडावोलाई प्रणाली, जो चुनावी लोकतंत्र का एक प्रारंभिक रूप था, के माध्यम से स्थानीय स्वशासन का बीड़ा उठाया।
  • जल प्रबंधन: चोलों ने चोलगंगम् झील जैसी उन्नत जल संरक्षण प्रणालियाँ लागू कीं।
  • सांस्कृतिक कूटनीति और एकता: इस राजवंश ने पूरे एशिया में मजबूत व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंध बनाए।
    • प्रधानमंत्री ने काशी तमिल संगमम् और सौराष्ट्र तमिल संगमम् जैसे आधुनिक प्रयासों को याद किया, जो सांस्कृतिक एकता के लिए चोलों के प्रयासों को प्रतिबिंबित करते हैं।
  • सांस्कृतिक एकता और विरासत संरक्षण: व्यापार, मंदिर वास्तुकला और कूटनीति के माध्यम से, चोलों ने दक्षिण-पूर्व एशिया में भारतीय प्रभाव का विस्तार किया, जो अंगकोर वाट और बोरोबुदुर जैसे स्मारकों में स्पष्ट दिखाई देता है।
    • भारतीय प्रधानमंत्री ने इसकी तुलना काशी तमिल संगमम् और सौराष्ट्र तमिल संगमम् जैसे समकालीन प्रयासों से की, जिनका उद्देश्य भारत के सांस्कृतिक संबंधों को सुदृढ़ करना है।
    • भारतीय प्रधानमंत्री ने शांति और पारिस्थितिकी संतुलन के मार्गदर्शक सिद्धांतों के रूप में शैव परंपरा और तिरुमुलर (अनबे शिवम) की शिक्षाओं पर जोर दिया।
    • प्राचीन परंपरा को आधुनिक उपलब्धियों से जोड़ते हुए, शिव शक्ति बिंदु (चंद्रयान-3 लैंडिंग स्थल) का उल्लेख किया।
    • एक भारत, श्रेष्ठ भारतदृष्टिकोण के हिस्से के रूप में चोल विरासत को दोहराया।

कुडावोलाई प्रणाली (बैलेट पॉटचुनाव)

  • तमिलनाडु के उत्तरमेरुर में स्थित शिलालेखों पर आधारित, चुनावी प्रक्रिया का सबसे प्राचीन प्रलेखित रूप।
  • पात्र उम्मीदवारों के नाम ताड़ के पत्तों पर लिखकर एक पॉट में रखे जाते हैं।
  • निष्पक्षता सुनिश्चित करने हेतु एक बालक द्वारा सार्वजनिक रूप से लॉटरी निकाली जाती।
  • पारदर्शिता, निष्पक्षता और सामूहिक वैधता सुनिश्चित की जाती है।
  • पात्रता मानदंड:
    • आयु: 35-70 वर्ष।
    • भूमि स्वामित्व: कर-योग्य भूमि का स्वामी होना आवश्यक।
    • योग्यता: वैदिक ग्रंथों का ज्ञान या प्रशासनिक क्षमता।
    • आपराधिक रिकॉर्ड या घरेलू दुर्व्यवहार से मुक्त होना आवश्यक।
  • अयोग्यताएँ
    • ऋण न चुकाने वाले, शराबी, और वर्तमान सदस्यों के निकट संबंधी चुनाव प्रक्रिया से अपात्र माने जाते थे।
    • वार्षिक लेखा-परीक्षण अनिवार्य था, यदि कदाचार सिद्ध हो जाता, तो संबंधित व्यक्ति को पद से बर्खास्त कर जुर्माना लगाया जाता था।
    • उदाहरण: शिलालेख संख्या 24 (एपिग्राफिया इंडिका [Epigraphia Indica]) में एक कोषागार अधिकारी की गबन के कारण बर्खास्तगी दर्ज है।

चोल युगीन स्थानीय शासन की प्रमुख विशेषताएँ

  • प्रशासन: चोल प्रशासनिक ढाँचा दो आधारभूत इकाइयों पर आधारित था
    • सभा – ब्राह्मण बस्तियों के लिए।
    • उर- गैर-ब्राह्मण गाँवों के लिए।
  • परिषदों के पास वास्तविक प्रशासनिक शक्तियाँ थीं- राजस्व संग्रह, सिंचाई, मंदिर प्रबंधन और न्याय प्रदान करना।
  • जवाबदेही तंत्र
    • पदाधिकारियों का अनिवार्य वार्षिक लेखा-परीक्षण।
    • कर्तव्य का दुरुपयोग या लापरवाही भविष्य की भूमिकाओं के लिए अयोग्यता का कारण बनती थी।
    • नैतिक निष्ठा और नागरिक आचार-विचार शासन के केंद्र में थे।

सामरिक और सांस्कृतिक महत्त्व

  • लोकतांत्रिक लोकाचार
    • शिलालेख पर अंकित औपचारिक चुनावी नियम (जैसे- उत्तरमेरुर शिलालेख)।
    • यह व्यवस्था उस समय यूरोप की प्रतिनिधिक शासन प्रणालियों की तुलना में कहीं अधिक उन्नत थी और जमीनी स्तर पर लोकतंत्र की सजीव अभिव्यक्ति प्रस्तुत करती थी।
  • शासन के साथ नैतिकता का एकीकरण
    • पात्रता और अयोग्यता नैतिक आचरण पर आधारित, न कि केवल स्थिति पर।
    • नैतिक लोक सेवा, नागरिक उत्तरदायित्व और विश्वास को बढ़ावा दिया।
  • विकेंद्रीकृत प्रशासन
    • व्यापारी संघों (जैसे- मणिग्रामम, अय्यावोले) के साथ सत्ता साझा की।
    • व्यापार नेटवर्क, शासन की वैधता और स्थायी नागरिक प्रणालियों को बढ़ावा दिया।

प्रणाली की सीमाएँ

  • पूरी तरह से समतावादी नहीं: महिलाओं, मजदूरों और भूमिहीनों को इससे बाहर रखा गया।
  • जाति और संपत्ति के स्वामित्व के कारण सत्ता तक पहुँच सीमित थी।

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