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ग्राहकवाद, संरक्षण और मुफ्तखोरी

Lokesh Pal May 15, 2025 03:02 8 0

संदर्भ

भारत के राजनीतिक विमर्श में हालिया बहसें चुनावी राजनीति में मुफ्तखोरी, ग्राहकवाद और संरक्षण की लोकतांत्रिक वैधता तथा आर्थिक स्थिरता पर प्रश्न चिह्न लगाती हैं।

ग्राहकवाद, संरक्षण और मुफ्तखोरी के बारे में

ग्राहकवाद (Clientelism)

  • यह एक पारस्परिक संबंध को संदर्भित करता है, जहाँ मतदाताओं को चुनावी समर्थन के बदले में नकदी, शराब या उपहार जैसे भौतिक लाभ प्राप्त होते हैं।
  • इस आदान-प्रदान में प्रायः स्थानीय दलालों या कार्यकर्ताओं के माध्यम से राजनेताओं द्वारा निगरानी तंत्र शामिल होता है।
    • उदाहरण: कई भारतीय राज्यों में चुनाव से पूर्व शराब और नकदी का वितरण।

संरक्षण (Patronage)

  • संरक्षण हेतु समर्थकों को नौकरी, ऋण या आवास जैसे राज्य अथवा निजी संसाधनों का दीर्घकालिक, निरंतर आवंटन शामिल है।
  • इसमें एक आवर्ती राजनीतिक संबंध शामिल है।
    • उदाहरण: तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में अनौपचारिक नेटवर्क के माध्यम से सरकारी नौकरियाँ  प्रदान करने के मामले।

मुफ्तखोरी  (Freebies)

  • मुफ्त वस्तुएँ सार्वभौमिक रूप से वितरित की जाने वाली वस्तुएँ या लाभ हैं, जिनमें प्रत्यक्ष पारस्परिक अपेक्षाएँ नहीं होती हैं। वितरण मानदंड समावेशी होते हैं और आमतौर पर उनकी निगरानी नहीं की जाती है।
    • उदाहरण: दिल्ली और कर्नाटक में महिलाओं के लिए मुफ्त बस यात्रा या उत्तर प्रदेश में छात्रों के लिए मुफ्त लैपटॉप।

भारत में ग्राहकवाद, संरक्षण और मुफ्त उपहारों की प्रयोज्यता

  • गुप्त मतदान प्रणाली: भारत का गुप्त मतदान, मतदान की गोपनीयता सुनिश्चित करता है, जिससे राजनेताओं के लिए वोटों की निगरानी करना मुश्किल हो जाता है, जिससे ‘लाभ के लिए वोट’ के सौदे की प्रभावशीलता कम हो जाती है।
  • बड़े निर्वाचन क्षेत्र का आकार: उच्च मतदाता आबादी दीर्घकालिक संरक्षक-ग्राहक संबंधों की निगरानी या रखरखाव करने की क्षमता को कम करती है, जिससे प्रक्रिया मुश्किल हो जाती है।
  • लोकतांत्रिक परिपक्वता: बढ़ी हुई चुनावी जागरूकता ने मतदाताओं को कई पार्टियों से लाभ स्वीकार करने और स्वतंत्र रूप से यह चुनने का अधिकार दिया है कि उन्हें किसे वोट देना है।
  • कमजोर राजनीतिक कैडर: स्थानीय पार्टी कार्यकर्ताओं और क्षेत्रीय पार्टी आधार में गिरावट से निरंतर संरक्षण नेटवर्क की व्यवहार्यता कम हो जाती है।
  • डिजिटल हस्तांतरण: प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (DBT) के उपयोग ने सामाजिक कल्याण वितरण को अवैयक्तिक बना दिया है, बिचौलियों को कम किया है और मुफ्त सुविधाओं को अधिक सार्वभौमिक और पारदर्शी बनाया है।

ग्राहकवाद, संरक्षणवाद और मुफ्तखोरी की विशिष्ट विशेषताएँ

पहलू

ग्राहकवाद

संरक्षण

मुफ्तखोरी 

वितरण की प्रकृति चयनात्मक, व्यक्तिगत लक्ष्यीकरण चयनात्मक, दीर्घकालिक संबंध सार्वभौमिक, वर्ग/समूह लक्ष्यीकरण
समय चुनाव के समय  सतत् प्रक्रिया चुनाव पूर्व या चुनाव पश्चात्
निगरानी एवं अनुपालन उच्च, राजनीतिक एजेंटों के माध्यम से मध्यम, निष्ठा पर आधारित कम या बिलकुल नहीं, न्यूनतम निगरानी
वापसी की उम्मीद स्पष्ट वोट/अभियान समर्थन समय के साथ वफादारी अंतर्निहित राजनीतिक सद्भावना
उदाहरण (भारत) चुनाव के दौरान शराब/नकदी पार्टी कार्यकर्ताओं को नौकरी या सब्सिडी निशुल्क बिजली, साइकिल, नकद हस्तांतरण।

न्यायिक हस्तक्षेप और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय

  • एस. सुब्रमण्यम् बालाजी बनाम तमिलनाडु राज्य (वर्ष 2013): न्यायालय ने चुनाव-पूर्व वादों की वैधता को बरकरार रखा, यदि वे सार्वजनिक उद्देश्य को आगे बढ़ाते हैं, लेकिन मुफ्त उपहारों को विनियमित करने के लिए एक रूपरेखा की माँग की।
  • मुफ्त उपहारों पर सर्वोच्च न्यायालय की जनहित याचिका (वर्ष 2022): न्यायालय ने कल्याण और मुफ्त उपहारों के मध्य अंतर करने के लिए व्यापक परामर्श का आह्वान किया, तथा निरीक्षण के लिए एक विशेषज्ञ निकाय की सिफारिश की।
  • चुनाव आयोग की भूमिका (वर्ष 2022 सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी): चुनाव आयोग की सीमित कार्रवाई की आलोचना की तथा वितरण के माध्यम से अनुचित प्रभाव को रोकने के लिए सख्त दिशा-निर्देश तैयार करने को कहा।
  • ‘कैश फॉर वोट’ पर निर्णय (आंध्र प्रदेश): न्यायालय ने नकदी वितरण को चुनावी कदाचार माना तथा जनप्रतिनिधित्व अधिनियम के कठोर क्रियान्वयन का आग्रह किया।

चुनौतियाँ

  • राजनीतिक दुरुपयोग: अत्यधिक ग्राहकवाद वोट खरीदने की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करता है, जिससे लोकतांत्रिक जवाबदेही कमजोर होती है।
    • उदाहरण: तमिलनाडु चुनाव (वर्ष 2016, और 2021) के दौरान नकदी के बड़े पैमाने पर वितरण के आरोप लगे।
  • राजकोषीय बोझ: उचित लक्ष्य के बिना ‘मुफ्त उपहार’ राज्य के बजट पर दबाव डाल सकते हैं।
    • उदाहरण: पंजाब और दिल्ली में बिजली सब्सिडी ने सार्वजनिक वित्त को प्रभावित किया है।
  • विनियामक ढाँचे का अभाव: कल्याण और प्रलोभन के मध्य अंतर को परिभाषित करने वाला कोई स्पष्ट ढाँचा नहीं है, जिससे नीतिगत भ्रम और न्यायिक अतिक्रमण होता है।
  • कमजोर संस्थागत निगरानी: मजबूत राजनीतिक कैडर की गिरावट से अनौपचारिक लेन-देन के लिए राजनीतिक अभिकर्ताओं को जवाबदेह ठहराना जटिल हो जाता है।
  • सार्वजनिक धारणा और भ्रांति: सार्वभौमिक कल्याण योजनाओं को प्रायः उनके विकासात्मक प्रभाव के बावजूद गलत तरीके से लोकलुभावन या अलोकतांत्रिक करार दिया जाता है।

आगे की राह

  • आवश्यकता आधारित आवंटन: नीतियों को मापने योग्य विकासात्मक परिणामों के साथ कमजोर आबादी पर लक्षित किया जाना चाहिए। 
    • उदाहरण के लिए: बिहार की लड़कियों के लिए साइकिल योजना के कारण स्कूलों में लड़कियों का नामांकन बढ़ा।
  • प्रभाव आकलन तंत्र: संस्थागत तंत्रों को कल्याणकारी योजनाओं के दीर्घकालिक सामाजिक और आर्थिक प्रभाव का आकलन करना चाहिए।
  • कानूनी ढाँचा और परिभाषाएँ: संसद और चुनाव आयोग को कल्याण को प्रलोभनों से अलग करने वाली एक स्पष्ट कानूनी परिभाषा विकसित करनी चाहिए।
  • वित्तपोषण में पारदर्शिता: अनौपचारिक ग्राहकवाद को रोकने के लिए अभियान व्यय और निजी वित्तपोषण को जाँच के दायरे में लाया जाना चाहिए।
  • व्यय पर सीमा: राजकोषीय अस्थिरता से बचने के लिए राज्यों को मुफ्त उपहारों पर व्यय के एक निश्चित स्तर तक सीमित किया जा सकता है।
    • उदाहरण के लिए, मुफ्त उपहारों पर व्यय को SGDP के 1% तक सीमित करना।
  • अन्य लोकतंत्रों से सीखना: ब्राजील और अर्जेंटीना ने नागरिक पहचान-पत्र आधारित लक्ष्यीकरण के साथ कल्याणकारी वितरण को औपचारिक रूप दिया है, जिससे अनौपचारिक ग्राहकवादी राजनीति के लिए जगह कम हो गई है।

निष्कर्ष

मुफ्तखोरी और पुनर्वितरण की राजनीति की आलोचना कुछ संदर्भों में मान्य है, लेकिन ऐसी सभी प्रथाओं को एक साथ रखने से अनौपचारिक तथा अत्यधिक ग्राहकवाद का वास्तविक मुद्दा अस्पष्ट हो जाता है। पारदर्शिता, प्रभाव आकलन और लोकतांत्रिक जवाबदेही पर सुधारों को केंद्रित करने से यह सुनिश्चित होगा कि राजनीतिक वितरण चुनावी लाभ के बजाय विकासात्मक लक्ष्यों के साथ संरेखित हो।

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