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उत्तराखंड में बादल फटने और अचानक बाढ़ की घटना

Lokesh Pal August 07, 2025 03:39 38 0

संदर्भ

हाल ही में उत्तराखंड की खीरगंगा नदी में बादल फटने से धराली गाँव में अचानक बाढ़ आ गई, जिससे घर, होटल और बुनियादी ढाँचा नष्ट हो गया और जान-माल की हानि हुई।

संबंधित तथ्य

  • IIT गांधीनगर द्वारा प्राकृतिक आपदा जर्नल में किए गए एक नए अध्ययन में चेतावनी दी गई है कि जलवायु परिवर्तन के कारण बाढ़ के हॉटस्पॉट पश्चिमी भारत के अर्द्ध-शुष्क और कम जोखिम वाले क्षेत्रों में स्थानांतरित हो रहे हैं।

भारत में अचानक आने वाली बाढ़ के बदलते स्वरूप पर IIT गांधीनगर का अध्ययन

  • हॉटस्पॉट शिफ्ट: बढ़ती दैनिक वर्षा और बढ़ते तापमान के कारण, जिससे वायुमंडलीय आर्द्रता में वृद्धि करती है, बाढ़-प्रवण क्षेत्र पारंपरिक क्षेत्रों से आगे बढ़कर शुष्क क्षेत्रों में फैल रहे हैं।
  • डेटा रुझान (2001-2020 बनाम 1981-2000)
    • बढ़ती वर्षा और जलप्रवाह वाली गैर-प्रवण उप-घाटियाँ: 51% से बढ़कर 66.5% हो गईं।
    • घटते गीले घंटों वाले उच्च-जोखिम वाले क्षेत्र: 50.3% से घटकर 48.7% हो गईं।
  • कारक: अत्यधिक वर्षा की घटनाओं और जलधाराओं में तीव्र वृद्धि।
  • जोखिम: भारत में अचानक आने वाली बाढ़ सबसे घातक बाढ़ है, जिसमें प्रतिवर्ष 5,000 से अधिक मौतें होती हैं और गंभीर सामाजिक-आर्थिक क्षति होती है।
  • राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (National Disaster Management Authority- NDMA) के आँकड़े: भारत में 40 मिलियन हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र बाढ़-प्रवण है।

क्लाउडबर्स्ट (बादल फटना) के बारे में

  • परिभाषा: बादल फटना ‘लगभग 10 किमी. x 10 किमी. क्षेत्र में एक घंटे में 10 सेमी. या उससे अधिक वर्षा’ के रूप में परिभाषित किया गया है।
  • क्रियाविधि: पर्वतीय क्षेत्रों में पर्वतीय उत्थान (ऑरोग्राफिक लिफ्ट) नामक प्रक्रिया के कारण:-
    • गर्म वायु पहाड़ी ढलानों के साथ ऊपर उठती है।
    • ऊँचाई पर कम दाब के कारण यह प्रसारित हो जाती है और ठंडी हो जाती है।
    • ठंडक के कारण संघनन होता है और आर्द्रता उत्सर्जित होती है।
    • यदि गर्म और नम वायु ऊपर उठती रहती है, तो इससे वर्षा में देरी हो सकती है, जब तक कि एक बड़ी मात्रा अचानक संघनित होकर मूसलाधार वर्षा के रूप में न गिर जाए।

  • भारत में घटनाएँ: भारत में, मानसून के मौसम में, विशेष रूप से हिमालय, पश्चिमी घाट और पूर्वोत्तर पहाड़ी राज्यों जैसे क्षेत्रों में, बादल फटने की घटनाएँ प्रायः देखी जाती हैं।
  • आकस्मिक बाढ़ से संबंध: बादल फटने से प्रायः आकस्मिक बाढ़ आती है और मई से सितंबर तक, जब देश के अधिकांश हिस्सों में दक्षिण-पश्चिम मानसून का मौसम होता है, यह घटनाएँ सामान्य हो गई हैं।
  • प्रभाव: अचानक, स्थानीय स्तर पर भारी वर्षा।
    • जल निकासी व्यवस्था के अत्यधिक भर जाने और तेजी से जल जमा होने के कारण प्रायः अचानक बाढ़ और भूस्खलन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
  • पूर्वानुमान: छोटे क्षेत्र और कम समयावधि के कारण इसका पता लगाना मुश्किल है।

भारत में ऐतिहासिक बादल फटने की आपदाएँ

वर्ष

स्थान

प्रभाव

वर्ष 1908 हैदराबाद, तेलंगाना (तत्कालीन हैदराबाद राज्य)
  • बादल फटने से मूसी नदी उफान पर आ गई, जिससे अनुमानतः 15,000 लोग मारे गए तथा हजारों घर नष्ट हो गए।
वर्ष 1970 अलकनंदा नदी घाटी, उत्तराखंड
  • भीषण बाढ़ और भूस्खलन के कारण 30 बसों का काफिला बह गया।
वर्ष 1998 मालपा, पिथौरागढ़, उत्तराखंड
  • बादल फटने से हुए भूस्खलन से गाँव समाप्त हो गया, जिसमें कैलाश मानसरोवर यात्रा पर गए तीर्थयात्रियों सहित 250 लोग मारे गए।
वर्ष 2005 मुंबई, महाराष्ट्र
  • बादल फटने से 10 घंटे से भी कम समय में 950 मिमी. से अधिक वर्ष हुई, जिससे शहर में जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया तथा बाढ़ के कारण 1,000 से अधिक लोगों की मृत्यु हो गई।
वर्ष 2010 लेह, लद्दाख
  • बादल फटने से आई बाढ़ में 250 से अधिक लोग मारे गए तथा बड़ी संख्या में घरों और सैन्य सुविधाओं को नुकसान पहुँचा।
वर्ष 2013 केदारनाथ, उत्तराखंड
  • भारत की सबसे विनाशकारी प्राकृतिक आपदाओं में से एक। बादल फटने और हिमनद झीलों के फटने की एक शृंखला के कारण अभूतपूर्व बाढ़ और भूस्खलन हुआ, जिसके परिणामस्वरूप 5,700 से अधिक लोगों की मौत हुई और बुनियादी ढाँचे को व्यापक नुकसान पहुँचा।
वर्ष 2016 पिथौरागढ़ और चमोली, उत्तराखंड
  • कई बार बादल फटने से अचानक बाढ़ और भूस्खलन हुआ, जिसके परिणामस्वरूप कई गाँवों में जान-माल का भारी नुकसान हुआ।
वर्ष 2023-2025 उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के विभिन्न स्थानों
  • बादल फटने और अचानक बाढ़ की घटनाएँ सामान्य हो गई हैं, जिसके कारण बुनियादी ढाँचे का विनाश, जान-माल की हानि और तीर्थयात्रा मार्गों में व्यवधान उत्पन्न हो रहा है।

आकस्मिक बाढ़ (फ्लैश फ्लड) के बारे में

  • परिभाषा: भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (IMD) के अनुसार, आकस्मिक बाढ़ एक अचानक, तीव्र बाढ़ की घटना है, जो आमतौर पर थोड़े समय के भीतर, आमतौर पर 6 घंटे से भी कम समय में, भारी वर्षा के कारण होती है, जो प्रायः बादल फटने या तेज आंधी-तूफान से जुड़ी होती है।
  • आकस्मिक बाढ़ के कारण: आकस्मिक बाढ़ वर्षा के अलावा अन्य कारकों के कारण भी हो सकती है:

प्राकृतिक कारक

मानवजनित कारक

  • बादल फटना: एक छोटे से क्षेत्र में अचानक, स्थानीयकृत तीव्र वर्षा (100 मिमी./घंटा से अधिक)।
    • हिमालय में पर्वतीय प्रभाव आर्द्र वायु को ऊपर की ओर धकेलता है, जिससे भारी, अल्पकालिक वर्षा होती है, जो अचानक बाढ़ का एक प्रमुख कारण है।
  • भू-वैज्ञानिक अस्थिरता: तीव्र ढलानों और गहरी घाटियों वाला नवीन, संवेदनशील हिमालय, भूस्खलन और अपशिष्ट के प्रवाह के प्रति संवेदनशील है, जिससे बाढ़ की स्थिति और खराब हो जाती है।
  • ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (GLOFs) – जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने से अस्थिर झीलों का निर्माण होता हैं। हिमोढ़ बाँधों के टूटने से नीचे की ओर भारी बाढ़ आ सकती है। उदाहरण: चमोली बाढ़ (2021)।
  • मानसून ऋतु: अधिकांश आकस्मिक बाढ़ जून-सितंबर में आती है। भारी वर्षा मृदा को संतृप्त कर देती है, जिससे अवशोषण कम हो जाता है और सतही अपवाह बढ़ जाता है।
  • अनियोजित विकास: नदी तल और अस्थिर ढलानों पर बने होटल, सड़कें और घर प्राकृतिक जल निकासी को अवरुद्ध करते हैं, जिससे आपदा का खतरा बढ़ जाता है।
  • वनों की कटाई: विकास के लिए पेड़ों की कटाई से मृदा अपरदन, ढलानों की अस्थिरता और वर्षा जल अवशोषण में कमी होती है।
  • जल विद्युत परियोजनाएँ: बाँध और सुरंगें नदी के प्रवाह को बदल देती हैं, भूकंपीय तनाव बढ़ाती हैं, तथा अत्यधिक मौसम के दौरान विफल हो सकती हैं, जिससे बाढ़ की स्थिति और खराब हो सकती है।

हिमालयी क्षेत्रों में बादल फटने और अचानक बाढ़ की घटनाओं में वृद्धि के कारण

  • हिमालयी राज्यों में बादल फटने और अचानक बाढ़ की बढ़ती आवृत्ति तथा गंभीरता कई प्राकृतिक एवं मानवजनित कारकों का परिणाम है।
  • ये कारक आपस में जुड़े हुए हैं और एक-दूसरे को और भी बदतर बनाते हैं, जिससे इस क्षेत्र की संवेदनशीलता और बढ़ जाती है।
  • पर्वतीय और स्थलाकृतिक कारक: हिमालयी क्षेत्र की खड़ी ढलानें और सँकरी घाटियाँ बादल फटने के लिए विशेष रूप से संवेदनशील हैं।
    • जब बंगाल की खाड़ी से आर्द्र वायुराशियाँ पहाड़ों पर आरोहित होती हैं, तो वे ठंडी होकर संघनित हो जाती हैं, जिससे थोड़े समय के लिए तीव्र वर्षा होती है।
    • हाल का उदाहरण: जून 2025 में, हिमाचल प्रदेश के कुल्लू और कांगड़ा जिलों में बादल फटने से भयंकर बाढ़ आई, जिससे बुनियादी ढाँचा नष्ट हो गया और जान-माल का नुकसान हुआ।
  • जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग: बढ़ते वैश्विक तापमान ने जल चक्र को तीव्र कर दिया है, जिससे वाष्पीकरण दर और वायुमंडलीय नमी की मात्रा बढ़ गई है।
    • हिमालयी क्षेत्र वैश्विक औसत से तेज गति से गर्म हो रहा है, जिससे बादल फटने की घटनाएँ और वर्षा की तीव्रता बढ़ रही है। जहाँ एक ओर पूरे भारत में औसत तापमान वृद्धि 1°C और वैश्विक स्तर पर 1.1°C रही है, वहीं कुछ क्षेत्रों में यह वृद्धि 1.6°C तक पहुँच गई है।
    • हाल का उदाहरण: सिक्किम और उत्तराखंड जैसे क्षेत्रों में देखी गई हिमनदों की पिघलने और वर्षा की तीव्रता में वृद्धि को ग्लोबल वार्मिंग से जोड़ा गया है।
  • ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (GLOF): बढ़ते तापमान के कारण ग्लेशियरों के तीव्रता से पिघलने से हिमालय में हिमनद झीलों का निर्माण हुआ है। ये झीलें विशेष रूप से खतरनाक हैं क्योंकि इनके प्राकृतिक बाँध टूट सकते हैं, जिससे नीचे की ओर भारी मात्रा में जल बह सकता है।
    • हाल का उदाहरण: वर्ष 2023 में सिक्किम में ल्होनक झील विस्फोट के कारण भारी बाढ़, बुनियादी ढाँचे को नुकसान और जान-माल की हानि हुई है।
  • वनों की कटाई और भूमि उपयोग में परिवर्तन: अनियमित निर्माण, वनों की कटाई और नदी तल पर अतिक्रमण ने भूमि की प्राकृतिक अवशोषण क्षमता को कम कर दिया है।
    • बाढ़-प्रवण क्षेत्रों में शहरी विस्तार और बुनियादी ढाँचे का विकास, अपवाह को बढ़ाकर भारी वर्षा के प्रभावों को और बढ़ा देता है।
    • हाल का उदाहरण: अगस्त 2024 में, हिमाचल प्रदेश के कुल्लू-मनाली क्षेत्र में कई बादल फटने से विनाशकारी बाढ़ आई।
      • पर्वतीय राज्यों में बाढ़-प्रवण क्षेत्रों में सड़कों, भवनों और अन्य बुनियादी ढाँचे के निर्माण से इस क्षेत्र में ऐसी प्राकृतिक आपदाओं के प्रति संवेदनशीलता बढ़ गई है।

भारत में बादल फटने और अचानक बाढ़ के प्रभाव

  • मानवीय प्रभाव: अचानक आने वाली बाढ़ों की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि इनके लिए समय रहते कोई स्पष्ट चेतावनी नहीं मिलती। वर्ष 2013 की केदारनाथ त्रासदी इसका एक दुखद उदाहरण है, जिसमें राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की रिपोर्ट के अनुसार, 5,700 से अधिक लोगों की मृत्यु हुई थी।
    • विस्थापन: हजारों लोग बेघर हो गए; वर्ष 2021 की चमोली आपदा में 600 से अधिक परिवार विस्थापित हुए।
    • स्वास्थ्य पर प्रभाव: बाढ़ के बाद जल जनित बीमारियों का प्रकोप (विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि बाढ़ के बाद ऐसा जोखिम तीन से चार गुना तक बढ़ जाता है)।
  • आजीविका और आर्थिक नुकसान: खड़ी फसलें नष्ट हो गईं; हिमाचल प्रदेश में बादल फटने (2023) से ₹1,000 करोड़ से अधिक मूल्य की बागवानी उपज को नुकसान पहुँचा।
    • पशुधन हानि: पशुपालन और डेयरी विभाग के अनुसार, बाढ़ के दौरान पशुधन की हानि से ग्रामीण आय को प्रतिवर्ष ₹300-500 करोड़ का नुकसान होता है।
    • पर्यटन प्रभावित: उत्तराखंड पर्यटन को वर्ष 2013 की बाढ़ में ₹2,000 करोड़ से अधिक का नुकसान हुआ (राज्य पर्यटन विभाग)।
  • बुनियादी ढाँचे को नुकसान: सीमा सड़क संगठन का अनुमान है कि पहाड़ी राज्यों में बाढ़ के कारण सड़क मरम्मत की लागत प्रति वर्ष ₹500 करोड़ से अधिक हो जाती है।
    • बिजली और दूरसंचार: वर्ष 2013 की बाढ़ ने उत्तराखंड में 25 से अधिक छोटी जलविद्युत परियोजनाओं को नुकसान पहुँचाया।
    • परिवहन व्यवधान: हिमालयी सड़कें कुछ हिस्सों में कई सप्ताह तक अवरुद्ध रहती हैं (सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय)।
  • पर्यावरणीय प्रभाव: भारत मौसम विज्ञान विभाग और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, रुड़की की रिपोर्ट दर्शाती है कि अचानक आई बाढ़ से पहाड़ी जलग्रहण क्षेत्रों में कटाव 30-40% तक बढ़ जाता है।
    • जैव विविधता का नुकसान: नदी घाटियों में वन्यजीव आवास नष्ट हो गए, वर्ष 2016 में पिथौरागढ़ में बादल फटने से हिमालय के प्रमुख कस्तूरी मृग के आवास संबंधी क्षेत्रों को नुकसान पहुँचा।
    • अवसादन: केंद्रीय जल आयोग ने चेतावनी दी है कि बाढ़ के मलबे के कारण वर्ष 2013 के बाद टिहरी जलाशय में गाद जमाव 20% बढ़ गया है।
  • आपदा प्रबंधन चुनौतियाँ: भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (2022) ने सुदूर हिमालयी क्षेत्रों में वास्तविक समय के मौसम संबंधी आँकड़ों के कवरेज में कमियाँ पाईं।
    • पहुँच संबंधी समस्याएँ: राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने पाया है कि उत्तराखंड में बाढ़ से प्रभावित 40% गाँव पहले 24-48 घंटों तक पहुँच से बाहर थे।
    • समन्वय संबंधी मुद्दे: राज्य एजेंसियों के बीच विभाजित जिम्मेदारियों के कारण राहत प्रयासों में देरी होती है।
  • दीर्घकालिक परिणाम: जनगणना के आँकड़े बताते हैं कि वर्ष 2011 से उत्तराखंड के उच्च-जोखिम वाले क्षेत्रों के 200 से अधिक गाँवों में जनसंख्या में गिरावट आई है।
    • आर्थिक मंदी: पर्यटन और जलविद्युत क्षेत्रों में निवेशकों का विश्वास कम हुआ है।
    • बढ़ती संवेदनशीलता: जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल की छठी आकलन रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि हिमालयी राज्यों में 2100 तक अत्यधिक वर्षा की घटनाओं में 50% की वृद्धि हो सकती है।

बादल फटने और अचानक बाढ़ के लिए पहल तथा कार्रवाई

भारतीय पहल

नीतिगत एवं संस्थागत ढाँचा

  • आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005– भारत में आपदा तैयारी, शमन और प्रतिक्रिया के लिए एक कानूनी ढाँचा प्रदान करता है।
  • राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (National Disaster Management Authority- NDMA)– अत्यधिक वर्षा की घटनाओं, अचानक आने वाली बाढ़ और ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (GLOF) के प्रबंधन हेतु दिशा-निर्देश जारी करता है।
  • राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (SDMA)– उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और सिक्किम जैसे बादल फटने की आशंका वाले राज्यों के लिए राज्य-विशिष्ट आपदा कार्य योजनाएँ तैयार करता है।
  • राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन नीति (2009)– अचानक आने वाली बाढ़ सहित सभी आपदाओं के लिए पूर्व चेतावनी प्रणालियों, सामुदायिक भागीदारी और जोखिम न्यूनीकरण पर जोर देती है।
  • राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना (2019) – बादल फटने से होने वाली आपदा जोखिम न्यूनीकरण (DRR) रणनीति:
    • जोखिम को समझना – बादल फटने की घटनाओं, भूस्खलन के खतरे के क्षेत्रीकरण और अन्य संबंधित खतरों पर डेटा संकलित तथा बनाए रखना।
    • DRR में निवेश करना -तीव्र जल के निर्बाध प्रवाह को सुनिश्चित करने के लिए प्राकृतिक जल निकासी प्रणालियों और नालों की मरम्मत एवं रखरखाव करना।
    • क्षमता निर्माण – बादल फटने की घटनाओं से निपटने और तैयारी के लिए स्थानीय निकायों की क्षमताओं को मजबूत करना; बीमा तथा जोखिम हस्तांतरण तंत्र को बढ़ावा देना।

निगरानी और प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियाँ

  • भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (India Meteorological Department- IMD) डॉप्लर मौसम रडार नेटवर्क – हिमालयी राज्यों में विस्तारित कवरेज, जिससे तीव्र वर्षा की घटनाओं का अल्पकालिक पूर्वानुमान संभव हो सके।
  • केंद्रीय जल आयोग (Central Water Commission- CWC) बाढ़ पूर्वानुमान नेटवर्क – वास्तविक समय जल स्तर और वर्षा के आँकड़ों के लिए टेलीमेट्री का उपयोग करते हुए 325 से अधिक पूर्वानुमान केंद्रों का संचालन करता है।
  • फ्लैश फ्लड गाइडेंस सिस्टम (Flash Flood Guidance System- FFGS) – एक वास्तविक समय पूर्व चेतावनी उपकरण, जो फ्लैश फ्लड के खतरों की 6-24 घंटे पहले सूचना प्रदान करता है।
    • वर्ष 2020 से कार्यरत।
    • क्षेत्रीय पहल: भारत, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश और श्रीलंका को शामिल करती है।
    • तकनीकी विशेषताएँ: 4 किमी. x 4 किमी. स्थानिक कवरेज पर उच्च-रिजॉल्यूशन पूर्वानुमान; संवेदनशील हिमालयी भू-भाग और शहरी आकस्मिक बाढ़ क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करते हुए वाटरशेड स्तर पर संचालित।
  • भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) भुवन जियोपोर्टल – संवेदनशील क्षेत्रों का मानचित्रण करने, वर्षा पैटर्न की निगरानी करने और हिमालयी ग्लेशियरों की निगरानी करने के लिए उपग्रह इमेजरी का उपयोग करता है।
  • भारतीय हिमालयी क्षेत्र हिमनद झील निगरानी परियोजना – संभावित रूप से खतरनाक हिमनद झीलों का उपग्रह-आधारित मानचित्रण और निगरानी करके GLOFs का पूर्वानुमान लगाना।

हिमालयी खतरों के लिए विशिष्ट कार्यक्रम

  • हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने के लिए राष्ट्रीय मिशन (National Mission for Sustaining the Himalayan Ecosystem- NMSHE)- जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (National Action Plan on Climate Change- NAPCC) का एक भाग; यह हिमनदों के पीछे हटने, जलवायु अनुकूलन और चरम मौसम जोखिम न्यूनीकरण पर केंद्रित है।
  • हिमालयी जलवायु जोखिम और अनुकूलन कार्यक्रम – पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (Department of Science and Technology- DST) द्वारा संचालित; यह जोखिम मानचित्रण और जलवायु मॉडलिंग पर केंद्रित है।
  • उत्तराखंड राज्य आपदा न्यूनीकरण एवं प्रबंधन केंद्र (Disaster Mitigation and Management Centre- DMMC) – सूक्ष्म स्तर पर जोखिम क्षेत्रीकरण, प्रशिक्षण और जन जागरूकता अभियान चलाता है।

समुदाय और क्षमता निर्माण

  • आपदा मित्र योजना- आपदा-प्रवण जिलों में प्रथम प्रतिक्रिया हेतु NDMA स्वयंसेवकों का प्रशिक्षण।
  • ग्राम आपदा प्रबंधन योजनाएँ और मॉक ड्रिल – उच्च जोखिम वाले गाँवों में SDMA और गैर-सरकारी संगठनों (NGO) द्वारा आयोजित।
  • ढलान स्थिरीकरण के लिए इको-इंजीनियरिंग- भूस्खलन और मलबे के प्रवाह को रोकने के लिए वनस्पति आवरण जैसी जैव-इंजीनियरिंग तकनीकें।

वैश्विक पहल

अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन और रूपरेखाएँ

  • आपदा जोखिम न्यूनीकरण हेतु सेंडाई फ्रेमवर्क (2015-2030) – बाढ़ सहित आपदाओं से होने वाली मृत्यु दर, आर्थिक नुकसान और बुनियादी ढाँचे की क्षति को कम करने के लिए वैश्विक समझौता।
  • पेरिस समझौता (2015) – वैश्विक तापमान वृद्धि को सीमित करने और अप्रत्यक्ष रूप से चरम मौसम जोखिम को कम करने के लिए जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) के अंतर्गत अंतरराष्ट्रीय जलवायु संधि।

वैश्विक निगरानी और पूर्वानुमान प्रणालियाँ

  • विश्व मौसम विज्ञान संगठन (World Meteorological Organization- WMO) वैश्विक आकस्मिक बाढ़ मार्गदर्शन प्रणाली (GFFGS) – भारत सहित सदस्य देशों को आकस्मिक बाढ़ के लिए वास्तविक समय की चेतावनियाँ और जोखिम मानचित्र प्रदान करती है।
  • SERVIR हिमालय कार्यक्रम- राष्ट्रीय वैमानिकी एवं अंतरिक्ष प्रशासन (National Aeronautics and Space Administration- NASA) और संयुक्त राज्य अमेरिका अंतरराष्ट्रीय विकास एजेंसी (United States Agency for International Development- USAID) की एक संयुक्त पहल, जो हिंदू कुश-हिमालय क्षेत्र में बाढ़, भूस्खलन और जलवायु संबंधी खतरों की निगरानी के लिए उपग्रह डेटा का उपयोग करती है।
  • अंतरराष्ट्रीय एकीकृत पर्वतीय विकास केंद्र (ICIMOD) GLOF प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियाँ, नेपाल और भूटान में हिमनद झीलों की निगरानी और वास्तविक समय की चेतावनियाँ प्रदान करने के लिए स्थापित, जो भारत के लिए एक सबक है।

क्षेत्रीय एवं सीमा पार सहयोग

  • दक्षिण एशिया फ्लैश फ्लड गाइडेंस सिस्टम (SAFFGS) – अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, भारत, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका के लिए फ्लैश फ्लड की पूर्व चेतावनी हेतु एक सहयोगात्मक मंच।
  • हिमालयन यूनिवर्सिटी कंसोर्टियम और क्षेत्रीय अनुसंधान नेटवर्क – हिमालयी क्षेत्र में जलवायु-जनित खतरों पर संयुक्त अनुसंधान को बढ़ावा देना।

भारत के लिए प्रासंगिक वैश्विक सर्वोत्तम प्रथाएँ

  • जापान का वास्तविक समय वर्षा तीव्रता मानचित्रण- सटीक चरम वर्षा पूर्वानुमान के लिए सघन रडार और भू-गेज नेटवर्क का उपयोग करता है।
  • यूरोपीय संघ कोपरनिकस आपातकालीन प्रबंधन सेवा – उपग्रह-आधारित त्वरित बाढ़ मानचित्रण और आपदा आकलन सहायता प्रदान करती है।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका राष्ट्रीय मौसम सेवा आकस्मिक बाढ़ निगरानी – सामुदायिक स्तर की प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों के लिए रडार, उपग्रह और भू-अवलोकनों को एकीकृत करती है।

भारत में अचानक बाढ़ और बादल फटने की भविष्यवाणी की चुनौतियाँ

  • ये छोटे पैमाने पर (1–30 वर्ग किमी.) और कम समय (एक घंटे से भी कम) के लिए घटित होते हैं, जिससे चेतावनी देने का समय अत्यंत सीमित होता है।
  • कमजोर निगरानी नेटवर्क: हिमालयी क्षेत्रों में डॉप्लर रडार, स्वचालित मौसम केंद्र और वर्षामापी यंत्रों की कमी।
  • दुर्गम भू-भाग: खड़ी ढलानें, पथरीली जमीन और पर्वतीय उत्थान के कारण अप्रत्याशित और तीव्र अपवाह होता है।
  • बादलों का जटिल व्यवहार: ऊर्ध्वगामी वायु प्रवाह का अचानक पतन, वर्षा के समय पर बिजली का प्रभाव और ब्लैक कार्बन प्रदूषण भविष्यवाणी को कठिन बना देते हैं।
  • डेटा की कमी और मॉडल की सीमित उपलब्धता: हिमालयी क्षेत्र के मौसम पूर्वानुमान के लिए उच्च-रिजॉल्यूशन मॉडल की उपलब्धता सीमित है और उपग्रह तथा जमीनी आँकड़ों के बीच समुचित एकीकरण की भी कमी है।
  • चेतावनी प्रसारण प्रणाली में अंतराल बना रहता है: अलर्ट प्रायः दूरदराज के गाँवों तक समय पर नहीं पहुँच पाते और प्रायः स्थानीय भाषाओं में इनका अभाव भी देखा जाता है।
  • सीमा पार जलप्रवाह समस्याएँ: सीमा पार जलप्रवाह से जुड़ी समस्याओं के समाधान में एक बड़ी बाधा यह है कि पड़ोसी देशों से निकलने वाली नदियों के संदर्भ में वास्तविक समय में डेटा साझा नहीं किया जाता है।
  • नीति और वित्त पोषण सीमाएँ: कोई समर्पित राष्ट्रीय योजना नहीं, बंजर क्षेत्रों में तकनीक स्थापित करने और बनाए रखने की उच्च लागत।

आगे की राह

  • पूर्व चेतावनी और पूर्वानुमान को मजबूत बनाना: हिमालयी राज्यों में डॉप्लर मौसम रडार और स्वचालित मौसम केंद्र (Automatic Weather Station- AWS) की पहुँच बढ़ाना।
    • अंतिम छोर तक कनेक्टिविटी के लिए मोबाइल-आधारित स्थानीय अलर्ट नेटवर्क के साथ फ्लैश फ्लड गाइडेंस सिस्टम (FFGS) को एकीकृत करना।
    • वास्तविक समय की निगरानी के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI)/मशीन लर्निंग (ML) आधारित अल्पकालिक वर्षा पूर्वानुमान मॉडल और उच्च-रिजॉल्यूशन युक्त उपग्रह डेटा का उपयोग करना।
  • जोखिम-सूचित भूमि उपयोग एवं अवसंरचना: उच्च जोखिम वाली ढलानों, बाढ़ के मैदानों और जलग्रहण क्षेत्रों में निर्माण-निषेध क्षेत्र लागू करना।
    • सभी हिमालयी शहरों के लिए वर्षा तीव्रता मानचित्र और जोखिम क्षेत्रीकरण मानचित्रों को अद्यतन करना।
    • लचीले अवसंरचना के विकास को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, जिसमें ढलानों का स्थिरीकरण, बाढ़-रोधी आवासों का निर्माण तथा हरित छतों जैसी पारिस्थितिकी अभियांत्रिकी आधारित उपाय शामिल हों।
  • समुदाय-आधारित तैयारी: स्थानीय आपदा प्रतिक्रिया टीमों और स्वयंसेवकों को निकासी और प्राथमिक उपचार में प्रशिक्षित करना।
    • गाँव और विद्यालय कार्यक्रमों में आपदा अभ्यास शामिल करना।
    • स्थान-विशिष्ट प्रतिक्रियाओं के लिए आधुनिक आपदा प्रबंधन के साथ स्वदेशी ज्ञान को एकीकृत करना।
  • एकीकृत जल एवं जलग्रहण प्रबंधन: अतिरिक्त वर्षा को अवशोषित करने के लिए प्राकृतिक जल निकासी प्रणालियों और आर्द्रभूमि को पुनर्स्थापित करना।
    • नदी बेसिन-स्तरीय बाढ़ प्रबंधन योजनाओं को लागू करना।
    • बाढ़ के जोखिम को कम करने के लिए वर्षा जल संचयन और ग्लेशियर-आधारित जल प्रबंधन को बढ़ावा देना।
  • नीति, समन्वय और अनुसंधान: IMD और ISRO के सहयोग से NDMA के तहत एक राष्ट्रीय बादल फटने और अचानक बाढ़ के जोखिम न्यूनीकरण मिशन की स्थापना करना।
    • संभावित GLOF खतरों की पहचान के लिए सूक्ष्म-जलवायु अध्ययन और हिमनद झील निगरानी का संचालन करना।
    • सीमा पार नदी घाटियों पर डेटा साझा करने के लिए सीमा पार सहयोग को मजबूत करना।
    • जैसा कि IIT गांधीनगर अध्ययन में सुझाया गया है, नीति निर्माताओं को इस उभरते जलवायु-संचालित खतरे से निपटने के लिए बाढ़-जोखिम मानचित्रों को पुनः परिभाषित करना चाहिए और आपदा प्रबंधन रणनीतियों में सुधार करना चाहिए।
  • जलवायु-अनुकूल विकास: आपदा नियोजन में सतत् विकास लक्ष्य 11 (सतत् शहर) और सतत् विकास लक्ष्य 13 (जलवायु कार्रवाई) को शामिल करना।
    • हिमालय में बादलों के सूक्ष्म भौतिकी परिवर्तनों को सीमित करने के लिए ब्लैक कार्बन और एरोसोल उत्सर्जन को कम करना।
    • मानव-जनित भेद्यता को कम करने के लिए कम कार्बन, पर्यावरण-संवेदनशील पर्यटन को बढ़ावा देना।

निष्कर्ष

बादल फटने और अचानक बाढ़ जैसी चरम मौसम की घटनाओं की बढ़ती आवृत्ति और गंभीरता, हिमालयी क्षेत्र में जीवन तथा बुनियादी ढाँचे दोनों के लिए महत्त्वपूर्ण जोखिम पैदा करती है। बादल फटने और अचानक आने वाली बाढ़ जैसी आपदाओं से नागरिकों के जीवन के अधिकार (अनुच्छेद-21) को गंभीर खतरा उत्पन्न होता है। ऐसी स्थितियों के प्रभाव को कम करने के लिए शमन रणनीतियों को सतत् विकास लक्ष्यों (SDG), विशेष रूप से SDG 11 (सतत् शहर और समुदाय) तथा SDG 13 (जलवायु कार्रवाई) के साथ संरेखित करना आवश्यक है।

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