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भारत में तटीय अपरदन की समस्या

Lokesh Pal December 05, 2024 05:00 64 0

संदर्भ

संसद के शीतकालीन सत्र में केंद्रीय पर्यावरण, वन, और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) ने आँकड़े प्रस्तुत किए, जिनमें भारत में तटीय अपरदन (Coastal Erosion) के मुद्दे पर प्रकाश डाला गया है।

  • भारत की तटरेखा 13 राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों में विस्तृत है, जिसकी लंबाई 7,500 किलोमीटर से अधिक है।

तटीय अपरदन के संबंध में भारत सरकार द्वारा प्रस्तुत मुख्य आँकड़े

  • तटीय अपरदन का राष्ट्रीय अवलोकन: भारत की 33.6% तटरेखा का क्षरण हो रहा है, 26.9% में अभिवृद्धि हो रही है तथा 39.6% स्थिर बनी हुई है।
  • 40% से अधिक तटीय अपरदन चार राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में देखा गया है:
    • पश्चिम बंगाल (63%), पांडिचेरी (57%), केरल (45%) और तमिलनाडु (41%) में।
  • अध्ययन अवधि: यह अध्ययन राष्ट्रीय तटीय अनुसंधान केंद्र (NCCR) द्वारा उपग्रह इमेजरी और क्षेत्र सर्वेक्षणों का उपयोग करके वर्ष 1990-2018 के बीच की अवधि को कवर किया गया है।
  • संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान: भारतीय राष्ट्रीय महासागर सूचना एवं सेवा केंद्र (INCOIS) द्वारा तैयार बहु-जोखिम भेद्यता मानचित्र (Multi-Hazard Vulnerability Maps- MHVM) जोखिम वाले क्षेत्रों को चिह्नित करने के लिए हाई रिजॉल्यूशन टेर्रीन मैपिंग (High-Resolution Terrain Mapping) का उपयोग करते हैं।
    • ये मानचित्र अत्यधिक जल स्तर, तटरेखा में परिवर्तन, समुद्र स्तर में वृद्धि, तथा ‘हाई रिजॉल्यूशन टेर्रीन मैपिंग’ से प्राप्त डेटा का उपयोग करके सुनामी और झंझा महोर्मि जैसी आपदाओं के प्रति संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान करते हैं।
  • कर्नाटक की जिला-स्तरीय स्थिति
    • दक्षिण कन्नड़: दक्षिण कन्नड़ की 36.66 किमी. लंबी तटरेखा का 17.74 किमी. (48.4 प्रतिशत) हिस्सा वर्ष 1990 से 2018 के मध्य नष्ट हो गया।
    • उडुपी: 34.7 प्रतिशत अपरदन (100.71 किमी. में से 34.96 किमी.)
    • उत्तर कन्नड़: इसकी 175.65 किमी. लंबी तटरेखा के 12.3% भाग पर सबसे कम अपरदन हुआ है।

तटीय क्षरण/तटीय अपरदन के बारे में

  • परिभाषा: तटीय अपरदन वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा प्राकृतिक बलों, मुख्य रूप से समुद्री लहरों, धाराओं, चक्रवातों, ज्वार-भाटे तथा मानवीय गतिविधियों जैसे- रेत खनन, बुनियादी ढाँचे का निर्माण, प्रदूषण, मैंग्रोव का विनाश, ड्रेजिंग आदि के कारण तट रेखाओं में कटाव शुरू  हो जाता है।

तटीय क्षरण के कारण

  • प्राकृतिक कारण
    • समुद्री लहरें और ज्वार: लगातार समुद्री लहरों का आना और उच्च ऊर्जा वाले ज्वार तलछट विस्थापन का कारण बनते हैं।
    • समुद्र स्तर में वृद्धि: जलवायु परिवर्तन के कारण वृद्धि तेज हो जाती है, जिससे तटीय क्षेत्र जलमग्न हो जाते हैं।
    • चक्रवात और झंझा महोर्मि: बार-बार आने वाले चक्रवातों से विशेष रूप से पूर्वी तट पर अपरदन बढ़ जाता है।
  • मानवजनित कारण
    • रेत खनन: अस्थायी निष्कर्षण तलछट संतुलन को बाधित करता है।
    • बुनियादी ढाँचे का विकास: बंदरगाह तथा शहरीकरण प्राकृतिक तलछट प्रवाह को बदलते हैं।
    • मैंग्रोव वनों की कटाई: प्राकृतिक अवरोधों के नष्ट होने से तटीय भेद्यता बढ़ जाती है।
    • प्रदूषण: अपशिष्ट जमाव तथा औद्योगिक निर्वहन तटीय मिट्टी को अस्थिर करते हैं।

भारत में तटीय प्रबंधन से जुड़े संगठन

  • राष्ट्रीय सतत् तटीय प्रबंधन केंद्र (NCSCM)
    • परिचय: इसकी स्थापना वर्ष 2011 में तट की सुरक्षा, संरक्षण, पुनर्वास, प्रबंधन और नीतिगत सलाह के लिए एक स्वायत्त संस्थान के रूप में की गई थी।
    • नोडल मंत्रालय: पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (भारत सरकार)।
    • अधिदेश: एकीकृत तटीय क्षेत्र प्रबंधन (ICZM) दृष्टिकोण को राष्ट्रव्यापी रूप से अपनाने का समर्थन करता है।
  • राष्ट्रीय तटीय अनुसंधान केंद्र (NCCR)
    • परिचय: यह पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय का एक संलग्न कार्यालय है।
    • कार्यक्षेत्र: इसका उद्देश्य तटीय प्रक्रियाओं, पारिस्थितिकी तंत्र, तटरेखा क्षरण, प्रदूषण, खतरों और तटीय भेद्यता को संबोधित करने के लिए अनुसंधान को बढ़ावा देना है।
  • भारतीय राष्ट्रीय महासागर सूचना सेवा केंद्र (INCOIS)
    • परिचय: वर्ष 1999 में स्थापित, यह भारत सरकार के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय (MoES) के तहत एक स्वायत्त निकाय है। 
    • यह विभिन्न क्षेत्रों को महासागर से संबंधित सेवाएँ तथा जानकारी प्रदान करता है, जिससे समुद्री संसाधनों का सतत् उपयोग सुनिश्चित होता है।

तटीय क्षरण की यांत्रिक प्रक्रिया

तटीय अपरदन मुख्यतः चार मुख्य प्रक्रियाओं के माध्यम से होता है।

  • अपघर्षण (Corrasion): तीव्र समुद्री लहरें समुद्र तट पर मौजूद कंकड़-पत्थरों जैसी सामग्री को धीरे-धीरे नष्ट करती हैं और लहरों से कटाव के निशान बनाती हैं।
  • घर्षण: रेत और बड़े टुकड़ों को ले जाने वाली लहरें चट्टानों या शीर्षभूमि के आधार को नष्ट कर देती हैं, जिससे सैंडपेपर जैसा प्रभाव उत्पन्न होता है, विशेष रूप से तूफानों के दौरान।
  • हाइड्रोलिक प्रक्रिया: जब लहरें चट्टान से टकराती हैं, तो वे दरारों में वायु को फँसा लेती हैं।
    • जब लहरें पीछे हटती हैं, तो फँसी हुई वायु बलपूर्वक बाहर निकलती है, जिससे चट्टान टूट जाती हैं, विशेषकर इसलिए क्योंकि अपक्षय की क्रिया पहले ही चट्टान को कमजोर कर देती है।
  • सन्निघर्षण (Attrition): लहरों के कारण चट्टानें और कंकड़ आपस में टकराते हैं, जिससे वे छोटे-छोटे टुकड़ों में टूट जाते हैं।

तटीय अपरदन का प्रभाव

  • भूमि और आवास का नुकसान: तटीय अपरदन के कारण मूल्यवान भूमि का नुकसान होता है, विशेषकर घनी आबादी वाले तटीय क्षेत्रों में। इसके परिणामस्वरूप समुदायों का विस्थापन होता है और महत्त्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्रों को हानि पहुँचती है।
    • उदाहरण: जैसे-जैसे समुद्र सीमा रेखा स्थल की ओर बढ़ रही है, पश्चिम बंगाल के सुंदरवन में मैंग्रोव वन नष्ट हो रहे हैं, जिससे जैव विविधता और इन संसाधनों पर निर्भर स्थानीय समुदायों की आजीविका को खतरा उत्पन्न हो रहा है।
  • कृषि तथा आजीविका पर प्रभाव: तटीय अपरदन से कृषि भूमि का लवणीकरण होता है, जिससे फसल की पैदावार प्रभावित होती है और पारंपरिक कृषि पद्धतियाँ बाधित होती हैं।
    • मछुआरे, जो स्वस्थ तटीय पारिस्थितिकी तंत्र पर निर्भर हैं, भी प्रतिकूल रूप से प्रभावित हो रहे हैं।
      • उदाहरण: केरल के कोच्चि के कुछ हिस्सों में तटीय अपरदन के कारण कृषि क्षेत्रों में खारे जल का प्रवेश हो रहा है।
  • तटीय बाढ़ और झंझा महोर्मि: मानसून और चक्रवातों के दौरान टीलों, मैंग्रोव और प्रवाल भित्तियों जैसी प्राकृतिक बाधाओं के क्षरण से तटीय क्षेत्रों में झंझा महोर्मि और बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है।
  • जैव विविधता पर प्रभाव: तटीय अपरदन से समुद्री और स्थलीय प्रजातियों के आवासों को खतरा उत्पन्न हो रहा है, विशेष रूप से संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्रों जैसे मैंग्रोव, प्रवाल भित्तियों और रेतीले समुद्र तटों पर।
    • इससे जैव विविधता की हानि होती है तथा स्थानीय समुदायों के लिए आवश्यक संसाधनों का ह्रास होता है।
  • जलवायु परिवर्तन के प्रति बढ़ती संवेदनशीलता: अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह में समुद्र का स्तर बढ़ रहा है और तटीय अपरदन हो रहा है, जिससे उनके पारिस्थितिकी तंत्र और बुनियादी ढाँचे को खतरा उत्पन्न हो रहा है।
  • राष्ट्रीय एवं वैश्विक सुरक्षा चिंताएँ
    • जोखिम में रणनीतिक स्थान: भारतीय नौसेना के ठिकानों, बंदरगाहों तथा लक्षद्वीप जैसे द्वीप क्षेत्रों की भेद्यता संबंधी चिंताएँ बढ़ रही हैं।
    • भू-राजनीतिक परिणाम: तटरेखाओं के बदलने के कारण समुद्री संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्द्धा में वृद्धि हो सकती है।
      • उदाहरण: हाल ही में, श्रीलंकाई नौसेना ने द्वीप राष्ट्र के प्रादेशिक जल में कथित अवैध मछली पकड़ने के लिए 18 भारतीय मछुआरों को गिरफ्तार किया है और उनके मछली पकड़ने वाले ट्रॉलर को जब्त कर लिया है।

भारत में तटीय अपरदन से निपटने की चुनौतियाँ

  • जलवायु परिवर्तन के प्रभाव: जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्र का बढ़ता स्तर, तूफानों की बढ़ती आवृत्ति और लहरों के पैटर्न में बदलाव तटीय क्षेत्रों के अपरदन के प्रति संवेदनशीलता को बढ़ाते हैं।
  • अपर्याप्त तटीय प्रबंधन नीतियाँ: हालाँकि एकीकृत तटीय क्षेत्र प्रबंधन (ICZM) मौजूद है, इसका कार्यान्वयन अक्सर कमजोर होता है, असंगत प्रवर्तन और हितधारकों के बीच समन्वय की कमी के कारण अप्रभावी अपरदन प्रबंधन स्थापित होता है।
  • प्राकृतिक तटीय अवरोधों ​​का नुकसान: अक्सर मानवीय गतिविधियों के कारण मैंग्रोव, प्रवाल भित्तियों और रेत के टीलों जैसे प्राकृतिक अवरोधों ​​का विनाश होता है, जिससे तटीय क्षेत्र अपरदन, बाढ़ और अन्य पर्यावरणीय खतरों के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाते हैं।
  • तटीय डेटा और अनुसंधान का अभाव: स्थानीय तटीय गतिशीलता तथा अपरदन प्रवृत्तियों पर अपर्याप्त डेटा और अनुसंधान तटीय संरक्षण के लिए प्रभावी निर्णय लेने और दीर्घकालिक योजना बनाने में बाधा डालते हैं।
  • प्रदूषण: तटीय प्रदूषण, विशेष रूप से प्लास्टिक अपशिष्ट और अनुपचारित सीवेज, समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र और तलछट परिवहन को प्रभावित कर सकते हैं, जिससे अपरदन की समस्याएँ बढ़ सकती हैं।

तटीय क्षरण से निपटने के लिए अंतरराष्ट्रीय प्रयास

  • यूनेस्को द्वारा महासागर दशक (वर्ष 2021-2030): महासागर दशक 2021 से 2030 तक सतत् विकास के लिए परिवर्तनकारी महासागर विज्ञान समाधानों को उत्प्रेरित करने हेतु एक वैश्विक पहल है।
    • यह वैज्ञानिक अनुसंधान और महासागर के स्वास्थ्य को संरक्षित करने और पुनर्स्थापित करने के लिए समाधानों के कार्यान्वयन को बढ़ावा देता है, जिसमें तटीय क्षरण को रोकने के प्रयास भी शामिल हैं।
  • वैश्विक अनुकूलन नेटवर्क (GAN): संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) ने दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन अनुकूलन ज्ञान को साझा करने और आदान-प्रदान करने के लिए वर्ष 2010 में वैश्विक अनुकूलन नेटवर्क की स्थापना की।
  • संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) ने वर्ष 2010 में वैश्विक अनुकूलन नेटवर्क की स्थापना की ताकि वर्ष में जलवायु परिवर्तन अनुकूलन ज्ञान को साझा और आदान-प्रदान किया जा सके।
    • उदाहरण: GAN तटीय अपरदन के प्रभावों को कम करने के लिए सतत् तटीय क्षेत्र प्रबंधन प्रथाओं को लागू करने में छोटे द्वीप राज्यों की सहायता करता है।

तटीय प्रबंधन तकनीकों (हार्ड इंजीनियरिंग और सॉफ्ट इंजीनियरिंग) के बीच अंतर

पहलू

हार्ड इंजीनियरिंग

सॉफ्ट इंजीनियरिंग

दृष्टिकोण अपरदन को नियंत्रित करने के लिए कृत्रिम संरचनाएँ। अपरदन प्रभाव को कम करने के लिए प्राकृतिक समाधान।
लागत उच्च प्रारंभिक लागत तथा रखरखाव। कम लागत, अक्सर दीर्घकालिक बचत के साथ।
पर्यावरणीय प्रभाव प्राकृतिक प्रक्रियाओं और आवासों को बाधित कर सकता है। सामान्यतः अधिक पर्यावरण अनुकूल एवं टिकाऊ।
दीर्घ अवधि  लंबे समय तक चलने वाला लेकिन रखरखाव की आवश्यकता हो सकती है। अनुकूलनीय तथा समय के साथ विकसित हो सकता है।
उदाहरण समुद्री दीवारें, ग्रॉयन (Groynes), ब्रेकवाटर, रॉक कवच। समुद्र तट पोषण, मैंग्रोव पुनरुद्धार, तटीय वनस्पति, रेत के टीलों का स्थिरीकरण।

भारत में तटीय क्षरण से निपटने के लिए सरकारी पहल

  • खतरे की रेखा का निर्धारण: केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) ने देश के संपूर्ण तट के लिए खतरे की रेखा निर्धारित कर दी है।
    • खतरे की रेखा जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्र के स्तर में वृद्धि सहित तटरेखा में होने वाले परिवर्तनों का संकेत है।
    • इस रेखा का उपयोग तटीय राज्यों में एजेंसियों द्वारा आपदा प्रबंधन के लिए एक उपकरण के रूप में किया जाना है, जिसमें अनुकूली एवं शमन उपायों की योजना बनाना शामिल है।
    • खतरे की रेखा केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) द्वारा अनुमोदित तटीय राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों की नई तटीय क्षेत्र प्रबंधन योजनाओं में शामिल है।
  • तटीय विनियमन क्षेत्र (CRZ) अधिसूचना, 2019
    • इसका उद्देश्य तटीय क्षेत्रों का संरक्षण, समुद्री क्षेत्रों की सुरक्षा तथा मछुआरों तथा स्थानीय समुदायों के लिए आजीविका को सुरक्षित करना है। तट के किनारे अपरदन नियंत्रण उपायों की अनुमति देता है।
    • अतिक्रमण को रोकने और अपरदन को कम करने के लिए ‘नो डेवलपमेंट जोन’ (NDZ) की शुरुआत की है।
  • तटीय क्षेत्र प्रबंधन योजनाएँ (CZMPs)
    • राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) के आदेश के अनुपालन में, सभी तटीय राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को CZMPs को अंतिम रूप देने का निर्देश दिया गया।
    • इन योजनाओं में अपरदन-प्रवण क्षेत्रों का मानचित्रण और प्रभावित क्षेत्रों के लिए तटरेखा प्रबंधन योजना (Shoreline Management Plans- SMP) तैयार करना शामिल है।
  • तटीय संरक्षण के लिए राष्ट्रीय रणनीति
    • केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने प्रभावी तटीय संरक्षण उपायों को लागू करने के लिए सभी तटीय राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के लिए दिशा-निर्देशों के साथ एक राष्ट्रीय रणनीति विकसित की है।
  • तटीय प्रबंधन सूचना प्रणाली (Coastal Management Information System- CMIS)
    • CMIS एक डेटा संग्रहण गतिविधि है, जो तटीय क्षेत्रों के निकट डेटा एकत्र करने के लिए की जाती है, जिसका उपयोग संवेदनशील तटीय क्षेत्रों में स्थल-विशिष्ट तटीय सुरक्षा संरचनाओं की योजना, डिजाइन, निर्माण और रखरखाव में किया जा सकता है।
  • कर्नाटक सरकार के प्रयास: कर्नाटक सरकार ने तटीय विनियमन क्षेत्र अधिसूचना (CRZ), 2019 के अनुसार, तटरेखा प्रबंधन योजना तैयार की है।
    • यह विश्व बैंक द्वारा वित्तपोषित कर्नाटक तटीय लचीलापन एवं अर्थव्यवस्था सुदृढ़ीकरण (K-SHORE) परियोजना का क्रियान्वयन कर रहा है।
      • इस पहल का उद्देश्य तटीय सुरक्षा को मजबूत करना और प्राकृतिक आपदाओं के विरुद्ध लचीलापन बढ़ाना, सतत् प्रथाओं के माध्यम से तटीय समुदायों की आजीविका की रक्षा करना और समुद्री प्लास्टिक प्रदूषण की समस्या का समाधान करना है।
  • अन्य
    • भू-स्थानिक मानचित्रण: क्षरण हॉटस्पॉट की निगरानी के लिए भौगोलिक सूचना प्रणाली (GIS) तथा रिमोट सेंसिंग का उपयोग करता है।
      • उदारहण: चिल्का विकास प्राधिकरण ओडिशा के चिल्का झील में तटरेखा में होने वाले परिवर्तनों की निगरानी और अवसादन के प्रबंधन के लिए रिमोट सेंसिंग का उपयोग कर रहा है।
    • सॉफ्ट इंजीनियरिंग तकनीकें: समुद्र तट पोषण और तटरेखा स्थिरीकरण के लिए मैंग्रोव, स्वदेशी पौधों का रोपण।
      • उदाहरण: विशाखापत्तनम, आंध्र प्रदेश (Visakhapatnam, Andhra Pradesh)।  
    • कृत्रिम चट्टानें तथा ब्रेकवाटर: क्षरण को नियंत्रित करने के लिए तरंगीय ऊर्जा को कम करना।
      • उदाहरण: तमिलनाडु ने मछलियों के आवास को बेहतर बनाने तथा लहरों और अपरदन को कम करने के लिए कई स्थानों पर कृत्रिम चट्टानें स्थापित की हैं।
    • समुदाय आधारित दृष्टिकोण: संरक्षण परियोजनाओं में स्थानीय भागीदारी को प्रोत्साहित करना। उदाहरण के रूप में
      • सुंदरी परियोजना: सुंदरी परियोजना का उद्देश्य भारतीय सुंदरबन में 4,000 हेक्टेयर शहरी क्षरित मैंग्रोव को कई स्थानीय प्रजातियों के पौधे लगाकर तथा स्थानीय आजीविका को बढ़ावा देकर पुनर्स्थापित करना है।
    • समुद्र तट पर्यावरण और सौंदर्य प्रबंधन सेवाएँ (Beach Environment & Aesthetics Management Services- BEAMS): ब्लू फ्लैग प्रमाणन की तर्ज पर, भारत ने एकीकृत तटीय क्षेत्र प्रबंधन (ICZM) परियोजना के तहत अपना स्वयं का इको-लेबल (BEAMS) भी लॉन्च किया है।
      • इसे ‘सोसायटी ऑफ इंटीग्रेटेड कोस्टल मैनेजमेंट’ (SICOM) और केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) द्वारा लॉन्च किया गया है।
      • इसका उद्देश्य तटीय प्रदूषण को कम करना, सतत् समुद्र तट विकास को बढ़ावा देना, पारिस्थितिकी तंत्र का संरक्षण करना तथा समुद्र तट पर जाने वालों के लिए स्वच्छता, स्वास्थ्य और सुरक्षा सुनिश्चित करना है।

तटीय प्रबंधन के लिए वैश्विक उदाहरण

  • OECD की ‘रिस्पॉन्डिंग टू राइजिंग सी रिपोर्ट’ के अनुसार: डेनमार्क, जर्मनी, नीदरलैंड और यूनाइटेड किंगडम ने भविष्य में समुद्र के स्तर में वृद्धि से निपटने के लिए भवन और तटीय बुनियादी ढाँचे के लिए डिजाइन मानकों को मजबूत किया है।
  • चीन के ‘स्पंज’ (Sponge) शहर: स्पंज सिटी चीन में एक शहरी नियोजन मॉडल है, जो पूरी तरह से जल निकासी प्रणालियों पर निर्भर रहने के बजाय हरित बुनियादी ढाँचे को मजबूत करके बाढ़ प्रबंधन पर जोर देता है।

आगे की राह 

  • तटीय अनुकूलन उपायों का कार्यान्वयन: तटीय अनुकूलन से तात्पर्य उन रणनीतियों और कार्यों से है, जो तटीय क्षेत्रों को जलवायु परिवर्तन, बढ़ते समुद्री स्तर और तूफान एवं अपरदन जैसे प्राकृतिक खतरों के प्रभावों से बचाने के लिए डिजाइन किए गए हैं।
    • उदाहरण: पारंपरिक कठोर इंजीनियरिंग समाधान जैसे कि समुद्री दीवारें, ब्रेकवाटर और जेट्टी का उपयोग तटीय अपरदन को कम करने के लिए किया जा सकता है।
  • प्रकृति आधारित समाधानों (NbS) का कार्यान्वयन: जैसे कि मैंग्रोव पुनरुद्धार, बाँस की बाड़ और सीप की चट्टानों को प्रभावी विकल्प के रूप में बढ़ावा दिया जा सकता है।
  • तटीय डेटा सिस्टम को मजबूत करना: सटीक डेटा संग्रह के लिए तटीय प्रबंधन सूचना प्रणाली (CMIS) को और अधिक क्षेत्रों तक विस्तारित करना।
    • उपग्रह इमेजरी, GIS मैपिंग और वास्तविक समय एआई आधारित अपरदन निगरानी का लाभ उठाना।
  • तटरेखा प्रबंधन योजनाएँ (SMP): तटीय क्षेत्र प्रबंधन योजनाओं (CZMP) में पहचाने गए सभी अपरदन-प्रवण क्षेत्रों के लिए SMP की तैयारी एवं कार्यान्वयन में तेजी लाना।
  • तटीय अपरदन के कारण विस्थापित लोगों का पुनर्वास और पुनर्स्थापन: राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) को 15वें वित्त आयोग की वर्ष 2021 की रिपोर्ट के अनुरूप नीति विकसित करनी चाहिए, जिसमें पहली बार नदी तटीय तथा अपरदन के कारण विस्थापित लोगों के पुनर्वास एवं पुनर्स्थापन की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया है।
  • प्रतिमान बदलाव का आह्वान: तटीय अपरदन के प्राकृतिक तथा मानव-प्रेरित दोनों कारकों को संबोधित करने वाले प्रतिक्रियात्मक उपायों से स्थायी, सक्रिय रणनीतियों की ओर स्थानांतरित होने की तत्काल आवश्यकता है।

निष्कर्ष

  • तटीय अपरदन को प्रभावी ढंग से संबोधित करने के लिए एक स्थायी और सहयोगात्मक दृष्टिकोण आवश्यक है।
  • विज्ञान, नीति और सामुदायिक कार्रवाई को एकीकृत करके, भारत अपने तटीय पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा कर सकता है, अपने समुदायों की सुरक्षा सुनिश्चित कर सकता है और जलवायु परिवर्तन की उभरती चुनौतियों के विरुद्ध लचीलापन बढ़ा सकता है।

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