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संवैधानिक नैतिकता

Lokesh Pal October 29, 2025 03:25 68 0

संदर्भ

नैतिकता और कानून के मध्य संबंधी बहस ने दार्शनिकों और न्यायविदों को लंबे समय से आकर्षित किया है। यह बहस भारत के संवैधानिक विमर्श मेंसंवैधानिक नैतिकता” की अवधारणा के माध्यम से फिर से उभरी, जो नैतिक शासन को संवैधानिक सिद्धांतों के साथ संतुलित करती है।

संवैधानिक नैतिकता क्या है?

  • परिभाषा: संवैधानिक नैतिकता का तात्पर्य संविधान की अंतर्निहित भावना, मूल्यों तथा दार्शनिक दृष्टिकोण एवं न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के अनुशीलन से है, जो केवल विधिक या प्रक्रियात्मक अनुपालन तक सीमित न होकर शासन, प्रशासन तथा नागरिक आचरण में संविधान के नैतिक सार के प्रतिपादन की अपेक्षा करती है।
  • सार और उद्देश्य: यह एक नैतिक दिशासूचक के रूप में कार्य करता है, जो यह सुनिश्चित करता है कि राजनीतिक शक्ति का प्रयोग संवैधानिक सीमाओं के भीतर ईमानदारी, संयम और जवाबदेही के साथ किया जाए।

ऐतिहासिक और दार्शनिक आधार

  • प्राचीन भारत: धर्म के अंतर्गत कानून और नैतिकता एकीकृत थे, जिसमें कानूनी, नैतिक और आध्यात्मिक कर्तव्य सम्मिलित थे। तिरुक्कुरल जैसे ग्रंथों ने आचरण के मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में आराम (सद्गुण) पर जोर दिया।
  • पाश्चात्य दर्शन: 1960 के दशक का हार्ट–डेवलिन वाद-विवाद ने इस जटिल प्रश्न का अन्वेषण किया कि क्या विधि-व्यवस्था का दायित्व सामाजिक नैतिकता के प्रवर्तन तक विस्तारित होना चाहिए। लॉर्ड डेवलिन ने यह प्रतिपादित किया कि विधि को समाज की सामूहिक नैतिक चेतना की रक्षा हेतु नैतिक मानकों के प्रवर्तन का साधन बनना चाहिए, जबकि एच. एल. ए. हार्ट ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं स्वायत्तता की संप्रभुता के पक्ष में इस प्रकार के विधिक हस्तक्षेप का प्रतिवाद किया।
  • न्यायिक दृष्टिकोण: शॉ बनाम डीपीपी (1962) मामले में, हाउस ऑफ लॉर्ड्स ने माना कि कानून व्यवस्था और नैतिक कल्याण दोनों की रक्षा करता है।
  • भारतीय मान्यता: पी. रथिनम बनाम भारत संघ (1994) मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने स्वीकार किया कि कानून निष्पक्षता और न्याय को प्रतिबिंबित करने वाले नैतिक सिद्धांतों को समाहित करता है।
  • कानून-नैतिकता का परस्पर संबंध: कभी-कभी कानून नैतिकता का नेतृत्व करता है (जैसे- अस्पृश्यता उन्मूलन) और कभी-कभी उसका अनुसरण करता है (जैसे- लैंगिक समानता)।

संवैधानिक नैतिकता बनाम सार्वजनिक नैतिकता (सामाजिक नैतिकता)

  • संवैधानिक नैतिकता: न्याय, स्वतंत्रता, समानता और गरिमा जैसे संविधान के मूल मूल्यों पर आधारित, संवैधानिक नैतिकता गतिशील, समावेशी और बहुसंख्यकवाद-विरोधी है।
    • इसका उद्देश्य अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करना है और यह सुनिश्चित करना है कि शासन बहुसंख्यकवाद की भावना से प्रभावित न हो।
  • सार्वजनिक नैतिकता: सार्वजनिक नैतिकता समाज में प्रचलित सामाजिक, धार्मिक या पारंपरिक मानदंडों पर आधारित होती है।
    • यह प्रायः बहुसंख्यकवाद पर आधारित होती है और भेदभावपूर्ण हो सकती है, जो लोकप्रिय राय के पक्ष में अल्पसंख्यकों के अधिकारों का दमन करती है।
  • मुख्य संघर्ष: संवैधानिक नैतिकता, सार्वजनिक नैतिकता पर एक नियंत्रण के रूप में कार्य करता है।
    • न्यायपालिका प्रायः संवैधानिक नैतिकता के सिद्धांत का अनुसरण करते हुए, उन परिस्थितियों में व्यक्तियों या अल्पसंख्यकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करती है, जब सार्वजनिक नैतिकता उन्हें दरकिनार करना चाहती है (जैसे नवतेज जौहर एवं सबरीमाला मामला)
    • यह अंतर अब समकालीन न्यायशास्त्र में एक मूलभूत अवधारणा है, जो यह सुनिश्चित करती है कि अल्पसंख्यकों के अधिकार बहुमत की संख्यात्मक शक्ति से प्रभावित न हों।

संवैधानिक नैतिकता का विकास

  • जॉर्ज ग्रोट की अवधारणा: ग्रोट ने इसे संविधान के स्वरूपों के प्रति श्रद्धा, कानूनी प्राधिकार में विश्वास और संवैधानिक सीमाओं के अंतर्गत स्वतंत्र आलोचना के रूप में परिभाषित किया।
  • भीमराव अंबेडकर का अनुकूलन सिद्धांत: उन्होंने इसे भारत में लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए आवश्यक माना, जिसके लिए नागरिकों और संस्थाओं में जानबूझकर प्रशिक्षण की आवश्यकता थी।
  • डाइसी का मत: संवैधानिक कानून में न्यायालयों द्वारा समर्थित कानूनी रूप से लागू करने योग्य नियम शामिल होते हैं, जबकि संवैधानिक नैतिकता में संवैधानिक पदाधिकारियों का मार्गदर्शन करने वाली परंपराएँ, आदतें और नैतिक प्रथाएँ शामिल होती हैं, लेकिन उनमें कानूनी प्रवर्तनीयता का अभाव होता है।
  • एस.पी. गुप्ता केस (1982): न्यायमूर्ति वेंकटरमैया ने कहा कि परंपराओं का उल्लंघन संवैधानिक नैतिकता का गंभीर उल्लंघन है, जिसके राजनीतिक परिणाम हो सकते हैं, भले ही न्यायिक दंड न हों।
  • इसलिए, संवैधानिक नैतिकता एक नैतिक दिशासूचक है, जो यह सुनिश्चित करता है कि सत्ता का प्रयोग संवैधानिक सीमाओं के भीतर नैतिक रूप से किया जाए।

संवैधानिक नैतिकता और मूल संरचना सिद्धांत के साथ इसका संबंध

  • संवैधानिक नैतिकता, केशवानंद भारती (1973) में स्थापित मूल संरचना सिद्धांत (BSD) को बनाए रखती है, जो न्यायिक समीक्षा, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र जैसे अपरिवर्तनीय सिद्धांतों की रक्षा करती है।
  • यह सुनिश्चित करती है कि ये मूल्य अक्षुण्ण रहें और संविधान के मूल सिद्धांतों के अनुरूप कानूनी कार्रवाइयों का मार्गदर्शन करें।

संवैधानिक नैतिकता के मुख्य स्तंभ

  • मूल मूल्य: न्याय, स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व, धर्मनिरपेक्षता और गरिमा।
    • ये संवैधानिक नैतिकता का नैतिक आधार बनाते हैं, यह सुनिश्चित करते हुए कि सभी कानून और कार्य लोकतांत्रिक सिद्धांतों के अनुरूप हों।
  • संरचनात्मक सिद्धांत: कानून का शासन, शक्तियों का पृथक्करण, नियंत्रण और संतुलन, और लोकतांत्रिक सिद्धांत।
    • ये सिद्धांत शक्ति संतुलन सुनिश्चित करते हैं और शासन की निरंकुशता को रोकते हैं।
  • कार्यात्मक सिद्धांत: नैतिक शासन और संवैधानिक व्याख्या।
    • ये संवैधानिक नैतिकता को क्रियान्वित करते हैं, शासन में पारदर्शिता और जवाबदेही को बढ़ावा देते हैं।

संवैधानिक नैतिकता के संवैधानिक प्रावधान

  • यद्यपि भारतीय संविधान में संवैधानिक नैतिकता शब्द का स्पष्ट रूप से प्रयोग नहीं किया गया है, फिर भी यह इसके कई खंडों में गहराई से समाया हुआ है:
    • प्रस्तावना: यह न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व सहित हमारे लोकतंत्र के आधारभूत सिद्धांतों को रेखांकित करती है।
    • मौलिक अधिकार: यह राज्य शक्ति के मनमाने प्रयोग के विरुद्ध व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा करता है। उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च न्यायालय अनुच्छेद-32 के अंतर्गत इन अधिकारों के प्रवर्तन की अनुमति देता है।
    • निर्देशक सिद्धांत: ये गांधीवादी, समाजवादी और उदार बौद्धिक दर्शन से प्रेरित होकर, संविधान निर्माताओं द्वारा निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए राज्य को दिशा-निर्देश प्रदान करते हैं।
    • मौलिक कर्तव्य: अपने अधिकारों के साथ-साथ, नागरिकों की राष्ट्र के प्रति जिम्मेदारियाँ भी होती हैं।
    • नियंत्रण और संतुलन: इसमें विधायी और कार्यपालिका के कार्यों की न्यायिक समीक्षा, कार्यपालिका पर विधायी निगरानी आदि शामिल हैं।
    • अन्य: कानून का शासन, शक्तियों का पृथक्करण और न्यायपालिका की स्वतंत्रता के सिद्धांत, ये सभी संवैधानिक नैतिकता के सार को स्वाभाविक रूप से बनाए रखते हैं, लोकतंत्र की रक्षा करते हैं और सुशासन को बढ़ावा देते हैं।
      • संवैधानिक नैतिकता सुनिश्चित करने के लिए: अनुच्छेद-77 में प्रावधान है कि राष्ट्रपति, भारत सरकार के कार्यों के अधिक सुविधाजनक संचालन और मंत्रियों के मध्य उक्त कार्यों के आबंटन के लिए नियम बनाएगा।
      • भारतीय संविधान लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को बनाए रखता है और संवैधानिक नैतिकता को बनाए रखने के प्रति देश की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
      • भारतीय संविधान के अनुच्छेद-74 के अनुसार, राष्ट्रपति की सहायता और सलाह के लिए एक मंत्रिपरिषद होगी, जिसका प्रमुख प्रधानमंत्री होगा। राष्ट्रपति अपने कार्यों के निर्वहन में ऐसी सलाह के अनुसार कार्य करेगा।

संवैधानिक नैतिकता की न्यायिक व्याख्या

  • केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973): इस ऐतिहासिक निर्णय में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने मूल संरचना सिद्धांत’ की स्थापना की, जिसके अनुसार, संसद संविधान की मूल संरचना में संशोधन नहीं कर सकती है।
    • न्यायालय ने संवैधानिक नैतिकता को संविधान की मूल संरचना का एक आवश्यक घटक माना, जो संविधान में निहित मौलिक मूल्यों और सिद्धांतों की रक्षा करता है।
  • एस.पी. गुप्ता मामला (पहला न्यायाधीश मामला, 1982): सर्वोच्च न्यायालय ने संवैधानिक उल्लंघन को संवैधानिक नैतिकता का गंभीर हनन बताया।
  • मनोज नारूला बनाम भारत संघ (2014): सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संवैधानिक नैतिकता’ का अर्थ है संविधान के मानदंडों के प्रति नतमस्तक होना और ऐसे किसी भी कार्य से बचना, जो विधि के शासन या न्यायसंगत प्रक्रिया का उल्लंघन करे।”
    • न्यायालय ने अनुच्छेद-75 और मंत्रियों पर आपराधिक आरोपों पर चर्चा की।
      • निर्णय में कहा गया कि संवैधानिक नैतिकता का अर्थ है संविधान के मानदंडों के अनुरूप कार्य करना और मनमाने ढंग से व्यवहार न करना।
      • हालाँकि, न्यायालय ने अयोग्यता लागू नहीं की, इसे प्रधानमंत्री के विवेक पर छोड़ दिया, जो कानूनी बाध्यता के स्थान पर नैतिक अपेक्षा को दर्शाता है।
  • कृष्णमूर्ति मामला (2015): सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संवैधानिक नैतिकता सुशासन के लिए अनिवार्य है।
  • नवतेज सिंह जौहर एवं अन्य बनाम भारत संघ (2018): सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि धारा 377 LGBTQI समुदाय के अधिकारों का उल्लंघन करती है और संविधान के अनुच्छेद-14, 19 और 21 में निहित व्यक्तिगत गरिमा के मौलिक मूल्यों के विपरीत है।
  • न्यायमूर्ति के. एस. पुट्टास्वामी एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (2018): सर्वोच्च न्यायालय ने आधार योजना की संवैधानिक वैधता को कुछ प्रतिबंधों के साथ बरकरार रखा और कार्यपालिका की शक्ति के दुरुपयोग की जाँच में न्यायपालिका की भूमिका पर बल दिया।
    • न्यायालय ने पुनः दोहराया कि उसकी जिम्मेदारी है कि वह संवैधानिक नैतिकता की रक्षा करे और किसी भी ऐसे कानून या कार्यकारी कार्रवाई को निरस्त करे, जो संविधान के विरुद्ध हो।
  • सबरीमाला मामला (2018): तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने कहा कि अनुच्छेद-25 के तहत “सार्वजनिक नैतिकता” को संवैधानिक नैतिकता के अनुरूप होना चाहिए।
    • न्यायालय ने इस विचार को लैंगिक समानता और मौलिक अधिकारों तक विस्तारित किया, हालाँकि बाद में यह मामला पुनर्विचार हेतु नौ न्यायाधीशों की पीठ को भेजा गया।
  • राज्य (NCT दिल्ली) बनाम भारत संघ (2018): न्यायालय ने कहा कि संवैधानिक नैतिकता केवल संविधान के शब्दों का पालन करने तक सीमित नहीं है, यह सहयोगात्मक संघवाद, उदार मूल्यों और संवैधानिक अंगों के मध्य सम्मानपूर्ण निर्णय-प्रक्रिया को भी सम्मिलित करती है।

व्यवहार में संवैधानिक नैतिकता के उदाहरण

  • भारत: भारतीय सर्वोच्च न्यायालय का तीन तलाक प्रथा को असंवैधानिक घोषित करने का निर्णय संवैधानिक नैतिकता का एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण है। इस निर्णय में कहा गया कि तीन तलाक मुस्लिम महिलाओं के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है और संविधान के अनुरूप नहीं है।
    • नाज फाउंडेशन बनाम सरकार, एनसीटी दिल्ली (2009): दिल्ली उच्च न्यायालय ने वयस्कों के मध्य सहमति से होने वाले समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया, और इसके लिए संवैधानिक नैतिकता के सिद्धांत का हवाला दिया।
      • न्यायालय ने माना कि समलैंगिकता को अपराध घोषित करना संविधान में निहित समानता (अनुच्छेद-14), अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (अनुच्छेद-19), और जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता (अनुच्छेद-21) के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।
      • न्यायालय ने समावेशिता, बहुलता और सहिष्णुता को बढ़ावा देने के लिए संवैधानिक नैतिकता की आवश्यकता पर जोर दिया।
  • अमेरिका: संयुक्त राज्य अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय ने समलैंगिक विवाह को वैध ठहराने का निर्णय दिया, जिससे संविधान में निहित समानता और भेदभाव-निषेध के सिद्धांतों को सुदृढ़ किया गया।
  • दक्षिण अफ्रीका: दक्षिण अफ्रीका का ‘ट्रुथ एंड रिकॉन्सिलिएशन कमीशन’ संवैधानिक नैतिकता को बनाए रखने के उद्देश्य से स्थापित किया गया था, ताकि ‘उत्तर-अपार्थाइड’ समाज में जवाबदेही और मेल-मिलाप को बढ़ावा दिया जा सके।

संवैधानिक नैतिकता का महत्त्व

  • कानून और अधिकारों के मध्य संतुलन: संवैधानिक नैतिकता कानून के शासन और व्यक्तिगत अधिकारों की सुरक्षा के मध्य संतुलन बनाए रखती है, जिससे कानूनी कठोरता मौलिक स्वतंत्रताओं को कमजोर न करे।
    • यह सभी नागरिकों के लिए न्याय सुनिश्चित करने वाले नैतिक मानकों में कानूनी अनुपालन को निहित करती है।
  • संवैधानिक अखंडता की नींव: यह संविधान के आधार के रूप में कार्य करती है, जो कानूनों की व्याख्या और संवैधानिक आचरण का मार्गदर्शन करने के लिए नैतिक ढाँचा प्रदान करती है।
    • संवैधानिक नैतिकता संविधान के मूल मूल्यों को सुदृढ़ करती है, यह सुनिश्चित करते हुए कि वे शासन निर्णयों का मार्गदर्शन करें।
  • लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली के लिए आवश्यक: लोकतंत्र में संवैधानिक नैतिकता लोकतांत्रिक संस्थाओं के प्रभावी संचालन के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
    • यह सुनिश्चित करती है कि सत्ता का प्रयोग लोकतांत्रिक आदर्शों के अनुरूप हो, नागरिकों के अधिकारों और स्वतंत्रताओं की रक्षा करते हुए अधिनायकवादी अतिरेक को रोके।
  • शासन के लिए नैतिक दिशा-सूचक: यह निर्वाचित और अनिर्वाचित दोनों प्रकार के अधिकारियों के लिए नैतिक दिशा-सूचक के रूप में कार्य करती है, जिससे उनके निर्णय संविधान की भावना के अनुरूप हों।
    • यह शक्ति के दुरुपयोग को रोकने में सहायता करती है और यह सुनिश्चित करती है कि सभी कार्य संवैधानिक सिद्धांतों पर आधारित हों।
  • बहुमतवाद और मनमानी सत्ता के विरुद्ध सुरक्षा: संवैधानिक नैतिकता को सुदृढ़ करके यह बहुमतवाद और सत्ता की निरंकुशता को रोकती है, यह सुनिश्चित करते हुए कि अधिकार जनमत पर निर्भर न हों।
    • यह विधि के शासन को सशक्त करती है और व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं के क्षरण के विरुद्ध एक प्रतिकारक के रूप में कार्य करती है।
  • नागरिक जिम्मेदारी और सामूहिक सम्मान: संवैधानिक सम्मान की एक सामूहिक संस्कृति विकसित होनी चाहिए, जो शिक्षा, नागरिक जागरूकता और नैतिक नेतृत्व से प्रेरित हो।
    • नागरिकों और नेताओं दोनों को संवैधानिक नैतिकता के सिद्धांतों का पालन करना चाहिए, जिससे एक कार्यशील और न्यायपूर्ण समाज में इसकी भूमिका सुदृढ़ हो।
  • संघवाद और सहयोगी शासन: संवैधानिक नैतिकता सहयोगात्मक संघवाद सुनिश्चित करती है, जो संघ और राज्यों के मध्य पारस्परिक सम्मान और परामर्श की वकालत करती है, जैसा कि राज्य बनाम एनसीटी दिल्ली बनाम भारत संघ (2018) मामले में देखा गया।
  • अल्पसंख्यक अधिकारों की रक्षा: संवैधानिक नैतिकता बहुसंख्यक भावनाओं के विरुद्ध अल्पसंख्यक अधिकारों की रक्षा करती है, यह सुनिश्चित करते हुए कि नीतियाँ धर्मनिरपेक्षता और समानता को कमजोर न करें, जैसा कि सबरीमाला और नवतेज जौहर मामलों में देखा गया।

संवैधानिक नैतिकता के समक्ष चुनौतियाँ

  • न्यायिक अतिक्रमण और असंगति: संवैधानिक नैतिकता पर अत्यधिक निर्भरता से न्यायपालिका द्वारा नीति निर्माण के क्षेत्र में दखल की संभावना बढ़ जाती है, जो निर्वाचित प्रतिनिधियों के लिए आरक्षित होता है। इससे शक्तियों के पृथक्करण में अंसतुलन उत्पन्न हो सकता है।
    • न्यायिक व्याख्याओं में असंगति इसके अनुप्रयोग में अस्पष्टता पैदा करती है, जिससे यह एकसमान नैतिक मानक के रूप में कमजोर पड़ जाती है।
  • बहुमतवाद बनाम संवैधानिक सिद्धांत: जनमत-प्रधान दबाव प्रायः समानता, धर्मनिरपेक्षता और व्यक्तिगत अधिकारों जैसे संवैधानिक मूल्यों के विपरीत होते हैं, जिससे संस्थाओं को संवैधानिक दायित्वों और बहुसंख्यक समुदाय के राजनीतिक विरोध के मध्य संतुलन बनाना पड़ता है।
  • संस्थागत और राजनीतिक कमजोरी: राजनीतिक हस्तक्षेप और संस्थागत स्वतंत्रता का ह्रास — विशेष रूप से निर्वाचन आयोग, न्यायपालिका और मीडिया जैसे निकायों में — जवाबदेही को कमजोर करता है और संवैधानिक नैतिकता के प्रवर्तन को प्रभावित करता है।
  • जन उदासीनता और जागरूकता की कमी: सीमित नागरिक शिक्षा और संवैधानिक आदर्शों के प्रति कमजोर सार्वजनिक सहभागिता भावनात्मक और सांप्रदायिक विमर्श को प्रोत्साहित करती है, जिससे तार्किक और सहभागी संवैधानिक संस्कृति का विकास बाधित होता है।
  • संवैधानिक तानाशाही का जोखिम: सत्ता का अत्यधिक केंद्रीकरण या राजनीतिक व्यक्तित्वों के प्रति व्यक्तिगत निष्ठा संवैधानिक संतुलन को विकृत कर सकती है, जिससे लोकतंत्र के लिए खतरा उत्पन्न करने वाली संवैधानिक तानाशाही का उदय हो सकता है।
  • संवर्द्धन की आवश्यकता: जैसा कि डॉ. बी. आर. अंबेडकर कहा था कि संवैधानिक नैतिकता जन्मजात नहीं होती; इसे नागरिक अनुशासन, संस्थागत अखंडता और लोकतांत्रिक मूल्यों के पालन के माध्यम से विकसित किया जाना चाहिए।
  • डिजिटल युग की चुनौतियाँ: राज्य की निगरानी और डेटा के दुरुपयोग में वृद्धि के कारण गोपनीयता और डिजिटल अधिकारों की रक्षा के लिए संवैधानिक नैतिकता के अनुप्रयोग की आवश्यकता है, जैसा कि न्यायमूर्ति के. एस. पुट्टास्वामी (2017) मामले के निर्णय में पुनः पुष्टि की गई थी।
    • पुट्टास्वामी निर्णय यह रेखांकित करता है कि तेजी से बदलते डिजिटल परिदृश्य में गोपनीयता की रक्षा के लिए संवैधानिक नैतिकता को निरंतर विकसित होते रहना चाहिए।

आगे की राह

  • संवैधानिक मूल्यों को बढ़ावा देना: शासन और नीति निर्माण को न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के सिद्धांतों के अनुरूप होना चाहिए, ताकि संवैधानिक आदर्श राज्य की प्रत्येक कार्रवाई का मार्गदर्शन करें।
  • मौलिक अधिकारों की रक्षा करना: नागरिकों के मौलिक अधिकारों को मनमाने कार्यों से सुरक्षित रखना चाहिए, ताकि विधि के शासन को सुदृढ़ किया जा सके और न्यायिक निगरानी को लोकतांत्रिक सुरक्षा कवच के रूप में बनाए रखा जा सके।
  • लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और नागरिक शिक्षा को मजबूत करना: लोकतांत्रिक संस्थाओं को पारदर्शिता, भागीदारी और जवाबदेही के साथ कार्य करना चाहिए, जबकि नागरिक शिक्षा को नागरिकों में संवैधानिक नैतिकता के प्रति सम्मान को प्रोत्साहित करना चाहिए।
  • राजनीतिक जवाबदेही को सुदृढ़ करना: नागरिकों को शासन में सक्रिय रूप से भाग लेना चाहिए और अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों को जवाबदेह ठहराना चाहिए, ताकि शासन संवैधानिक नैतिकता पर आधारित हो, न कि दलगत हितों पर।
  • संवैधानिक संस्थाओं की स्वतंत्रता और सहयोग सुनिश्चित करना: संवैधानिक निकायों की स्वायत्तता को बनाए रखना और विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के मध्य सहयोग को प्रोत्साहित करना आवश्यक है, ताकि शक्ति संतुलन और संवैधानिक नियंत्रण बना रहे।
  • न्यायिक संयम और परंपराओं को सुदृढ़ करना: न्यायपालिका को न्यायिक संयम का पालन करना चाहिए, जबकि प्रमुख संवैधानिक परंपराओं—जैसे अध्यक्ष की निष्पक्षता और राज्यपाल की तटस्थता—को आचार संहिता में शामिल किया जाना चाहिए ताकि शासन नैतिक और पूर्वानुमेय बन सके।
  • मीडिया और नागरिक समाज को सशक्त बनाना: स्वतंत्र और जिम्मेदार मीडिया तथा सक्रिय नागरिक समाज संवैधानिक नैतिकता को बढ़ावा देने, उल्लंघनों को उजागर करने और लोकतांत्रिक जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए अत्यंत आवश्यक हैं।

निष्कर्ष

संवैधानिक नैतिकता, नैतिक शासन के संचालन को संवैधानिक परिसीमाओं के भीतर संतुलित एवं स्थिर करती है, जिससे उत्तरदायित्व, न्याय तथा समावेशिता के आदर्श सुरक्षित रहते हैं। यह राजनीतिक स्वार्थों पर संविधान की सर्वोच्चता का संरक्षण करते हुए डॉ. भीमराव अंबेडकर की उस दार्शनिक दृष्टि का प्रतिरूप प्रस्तुत करती है, जिसमें संविधान की नैतिक आत्मा के दृष्टिकोण को सिद्धांतों में अडिग, किंतु लोकतांत्रिक परिवर्तन हेतु अनुकूलनशील बताया है।

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