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भारत में न्यायालय की अवमानना

Lokesh Pal December 12, 2025 02:44 9 0

संदर्भ 

सर्वोच्च न्यायालय ने विनीता श्रीनंदन बनाम बॉम्बे हाई कोर्ट ऑफ ज्यूडिकेचर मामले में नवी मुंबई की एक महिला को आपराधिक अवमानना के लिए दंडित करने वाले बॉम्बे उच्च न्यायालय के आदेश को रद्द कर दिया।

मामले की पृष्ठभूमि

  • अपमानजनक परिपत्र जारी: एक हाउसिंग सोसाइटी की निदेशक ने आवारा कुत्तों को खाना खिलाने से संबंधित मुकदमे के दौरान न्यायाधीशों कोडॉग माफिया’ का हिस्सा बताते हुए एक नोटिस जारी किया।
  • उच्च न्यायालय का स्वतः संज्ञान: बॉम्बे उच्च न्यायालय ने स्वतः अवमानना ​​कार्यवाही शुरू करते हुए माना कि उनकी टिप्पणियों ने न्याय प्रशासन में बाधा उत्पन्न की है।
    • उच्च न्यायालय ने उसकी माफी को मात्र औपचारिक और असत्यनिष्ठ मानते हुए उसे एक सप्ताह के साधारण कारावास एवं 2,000 रुपये के दंड से दंडित किया।
  • सर्वोच्च न्यायालय का हस्तक्षेप: सर्वोच्च न्यायालय ने यह देखते हुए दोषसिद्धि को रद्द कर दिया कि अवमानना ​​की शक्ति न्यायाधीश का व्यक्तिगत कवच नहीं है।
  • पश्चाताप पर बल: सर्वोच्च न्यायालय ने उनके द्वारा प्रारंभिक रूप से व्यक्त किए गए निःशर्त पश्चाताप को ध्यान में रखा और इस बात पर जोर दिया कि न्यायालय की अवमानना ​​अधिनियम (1971) की धारा 12 सद्भावनापूर्ण माफी माँगने पर सजा में छूट प्रदान करती है।

न्यायालय की अवमानना ​​के बारे में

  • न्यायालय की अवमानना ​​उन कृत्यों को संदर्भित करती है, जो न्यायपालिका की गरिमा, अधिकार या प्रभावी कार्यप्रणाली को कमजोर करते हैं।
  • इसका उद्देश्य न्याय व्यवस्था में जनता का विश्वास बनाए रखना, न्यायिक आदेशों का अनुपालन सुनिश्चित करना और न्याय में बाधा उत्पन्न करने वाली घटनाओं से न्यायालयों की स्वतंत्रता की रक्षा करना है।
  • न्यायालय की अवमानना ​​के उदाहरण
    • न्यायाधीशों के विरुद्ध मानहानि के आरोप लगाना।
    • संचालित मामलों में गवाहों या जनमत को प्रभावित करना।
    • न्यायालय की कार्रवाई में बाधा डालना।

न्यायालय की अवमानना ​​संबंधी वैश्विक उदाहरण

वैश्विक स्तर पर, अवमानना ​​संबंधी कानून न्यायिक प्रतिष्ठा की रक्षा की तुलना में न्याय में वास्तविक बाधा उत्पन्न करने को अधिक प्राथमिकता दे रहे हैं।

  • यूनाइटेड किंगडम: वर्ष 2013 मेंन्यायालय की अवमानना करना’ के अपराध को समाप्त कर दिया गया, केवल संचालित कार्रवाई में हस्तक्षेप करने (विचाराधीन) या न्यायालय के आदेशों का उल्लंघन करने से संबंधित अवमानना ​​को ही बरकरार रखा गया।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका: प्रथम संशोधन के तहत मजबूत सुरक्षा प्रदान की गई है, जो अवमानना ​​को केवल न्याय के लिए स्पष्ट और तात्कालिक खतरा’ उत्पन्न करने वाले आचरण तक सीमित करती है (ब्रिज्स बनाम कैलिफोर्निया, 1941)।
    • न्यायाधीशों की आलोचना करना संवैधानिक रूप से संरक्षित है।
  • कनाडा और ऑस्ट्रेलिया: ‘वास्तविक जोखिम’ परीक्षण का पालन करना, जिसमें अवमानना ​​केवल तभी लागू होती है जब किसी व्यक्ति का वक्तव्य न्याय प्रशासन के लिए वास्तविक और पर्याप्त जोखिम उत्पन्न करता है।

न्यायालय की अवमानना ​​के प्रकार

  • सिविल अवमानना: न्यायालय के किसी निर्णय, आदेश, निर्देश या वचन का जानबूझकर उल्लंघन करना या न्यायालय को दिए गए किसी वचन का उल्लंघन करना।
    • अवज्ञा जानबूझकर होनी चाहिए, आकस्मिक या वास्तविक अक्षमता के कारण नहीं।
    • इसका उपयोग न्यायालय के आदेशों का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए किया जाता है (उदाहरण के लिए, सरकारी आदेश, सेवा संबंधी मामले, मुआवजा मामले)
  • आपराधिक अवमानना: इससे तात्पर्य ऐसे प्रकाशन या कार्य से है, जो:-
    • किसी न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में बाधा उत्पन्न करता है या बाधा उत्पन्न करने की प्रवृत्ति रखता है।
    • न्यायिक कार्यवाही में पूर्वाग्रह उत्पन्न करता है या हस्तक्षेप करता है।
    • न्याय प्रशासन में बाधा डालता है।

संवैधानिक और कानूनी ढाँचा 

  • संवैधानिक आधार
    • अनुच्छेद 129: सर्वोच्च न्यायालय कोअभिलेख न्यायालय’ घोषित करता है और उसे स्वयं की अवमानना ​​के लिए दंड देने का अधिकार देता है।
    • अनुच्छेद 215: प्रत्येक उच्च न्यायालय को रिकॉर्ड न्यायालय घोषित करता है और उसे अवमानना ​​के लिए दंड देने का अधिकार देता है।
      • ये शक्तियाँ अंतर्निहित हैं, जिसका अर्थ है कि वे किसी कानून के बिना भी मौजूद हैं।
  • वैधानिक ढाँचा 
    • न्यायालय की अवमानना ​​अधिनियम, 1971 को अवमानना ​​के संबंध में न्यायालयों की शक्तियों को परिभाषित और सीमित करने के लिए पारित किया गया था, जिसमें न्यायिक अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बीच संतुलन स्थापित किया गया था।
    • दंड (धारा 12)
      • 6 महीने तक का साधारण कारावास।
      • 2,000 रुपये तक का जुर्माना, या दोनों।
      • न्यायालय अवमानना ​​करने वाले को बरी कर सकती हैं या सजा कम कर सकती हैं यदि वह वास्तविक रूप से माफी माँगे (न कि ‘बचाव के हथियार’ के रूप में)।
  • बचाव और अपवाद: अधिनियम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए कुछ सुरक्षा उपायों को मान्यता देता है:-
    • सत्य द्वारा औचित्य: सत्य को बचाव के रूप में प्रयोग किया जा सकता है, यदि:
      • यह जनहित में है।
      • यह वास्तविक है (दुर्भावनापूर्ण नहीं)।
    • यह अधिनियम सुरक्षा उपाय प्रदान करता है, जैसे कि-
      • निष्पक्ष आलोचना: न्यायिक कार्यों या निर्णयों की निष्पक्ष, तर्कसंगत और सम्मानजनक आलोचना अवमानना ​​नहीं है।
      • निर्दोष प्रकाशन: लंबित कार्रवाई की जानकारी के बिना प्रकाशन क्षमायोग्य है।
      • निष्पक्ष और सटीक रिपोर्टिंग: न्यायिक आदेशों या कार्रवाई का सटीक प्रकाशन अवमानना ​​नहीं है।

न्यायालय की अवमानना ​​की प्रक्रिया

  •  संज्ञान लेने के तरीके: न्यायालय तीन तरीकों से आपराधिक अवमानना ​​की कार्रवाई शुरू कर सकते हैं।
    • स्वतः संज्ञान
    • महाधिवक्ता के अनुरोध पर
    • महाधिवक्ता की लिखित सहमति से किसी भी व्यक्ति द्वारा
  • न्यायालय की अवमानना ​​(धारा 14): यदि कदाचार सीधे सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष होता है, तो न्यायालय अवमाननाकर्ता को आरोपों की सूचना देने और बचाव का अवसर प्रदान करने के बाद तत्काल संक्षिप्त कार्रवाई करता है।
  • सूचना, सुनवाई और साक्ष्य: अन्य अवमानना ​​के मामलों में, न्यायालय सूचना जारी करता है, अधिवक्ता के माध्यम से प्रतिनिधित्व की अनुमति देता है, हलफनामों/साक्ष्यों की जाँच करता है और प्राकृतिक न्याय का पालन सुनिश्चित करता है।

न्यायिक प्रतिमान

  • आश्विनी कुमार घोष बनाम अरविंद बोस मामला (वर्ष 1952): न्यायपालिका की निष्पक्ष एवं तार्किक आलोचना को वैध माना, परंतु ऐसा कोई भी वक्तव्य, जो न्यायपालिका में जन-विश्वास को कम करे, अवमानना माना जाएगा।
  • ब्रजप्रकाश शर्मा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामला (वर्ष 1953): यह स्थापित किया कि आपराधिक अवमानना के लिए वास्तविक बाधा सिद्ध करना आवश्यक नहीं है, न्यायालय की प्राधिकरण-हानि की प्रवृत्ति भी पर्याप्त है।
  • बरादनाथ मिश्रा बनाम रजिस्ट्रार, ओडिशा उच्च न्यायालय (वर्ष 1974): न्यायालय ने निर्णय दिया कि न्यायाधीश के विरुद्ध व्यक्तिगत निंदा अवमानना नहीं है, जब तक कि वह न्यायिक कार्य में हस्तक्षेप न करे; ऐसे मामलों में दीवानी कार्रवाई उपयुक्त उपाय है।
  • प्रीतम लाल बनाम मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय (वर्ष 1992): न्यायालय ने कहा कि न्याय-प्रशासन की गरिमा और अधिकार की रक्षा हेतु आवश्यक होने पर अवमानना दंडनीय है।
  • एम.वी. जयराजन बनाम केरल उच्च न्यायालय (वर्ष 2015): सार्वजनिक रूप से न्यायाधीशों के प्रति अपमानजनक/गालीपूर्ण भाषा का प्रयोग संस्थागत अधिकार को क्षति पहुँचाता है और आपराधिक अवमानना है।
  • शन्मुगम बनाम मद्रास उच्च न्यायालय (वर्ष 2025): न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अवमानना संबंधे शक्तियाँ न्याय-प्रणाली की अखंडता की रक्षा हेतु हैं, न कि न्यायाधीशों को व्यक्तिगत अपमान से बचाने के लिए।

न्यायालय की अवमानना के पीछे तर्क

  • न्यायिक प्राधिकरण की रक्षा: अवमानना संबंधी शक्तियाँ सुनिश्चित करती हैं कि न्यायालय के आदेशों का पालन हो, जिससे न्यायपालिका का नैतिक और संस्थागत अधिकार सुरक्षित रहता है।
    • यदि आदेशों का पालन न हो, तो निर्णय केवल सलाह बन जाएँगे और न्यायपालिका के अधिकार-संरक्षक होने की भूमिका कमजोर होगी।
  • विधि के शासन को सुनिश्चित करना: न्यायालय के आदेशों का अनुपालन संविधान की सर्वोच्चता बनाए रखने और कार्यपालिका की निरंकुशता रोकने के लिए अनिवार्य है।
    • सर्वोच्च न्यायलय बार एसोसिएशन बनाम भारत संघ (वर्ष 1998) में कहा गया कि अवमानना शक्ति, विधि के शासन को बनाए रखने का अभिन्न अंग है।
  • न्यायिक स्वतंत्रता की सुरक्षा: अवमानना संबंधी प्रावधान न्यायाधीशों को निराधार आरोपों, दुरुपयोग और बदनाम करने से बचाते हैं, जिससे वे निष्पक्ष निर्णय ले सकें।
    • इन रे’ अरुंधति रॉय मामले (वर्ष 2002) में न्यायालय ने कहा कि न्यायाधीशों पर अनुचित आरोप जन-विश्वास को कमजोर करते हैं।
  • न्याय प्रशासन सुनिश्चित करना: अवमानना संबंधी शक्तियाँ, न्यायालय के भीतर या बाहर होने वाले ऐसे आचरण को रोकती हैं जो सुनवाई में बाधा उत्पन्न करता है या निर्णय को प्रभावित करता है।
    • साक्ष्यों को प्रभावित करना, कार्रवाई में व्यवधान उत्पन्न करना, या भ्रामक सामग्री प्रकाशित करना न्यायिक निष्पक्षता को क्षति पहुँचाता है।
  • जन-विश्वास बनाए रखना: विश्वसनीय न्याय-प्रणाली हेतु जनता का विश्वास आवश्यक है; अवमानना अधिकार का उपयोग न्यायपालिका की सार्वजनिक छवि की रक्षा हेतु किया जाता है।
    • E.M.S. नमबूदिरिपाद बनाम टी.एन. नम्बियार (वर्ष 1970) मामले में कहा गया कि न्यायाधीशों पर असंयमित हमले न्याय व्यवस्था में जनता के विश्वास को कम करते हैं।

अवमानना की आलोचना

  • मुक्त अभिव्यक्ति का हनन: आपराधिक अवमानना की व्यापक व्याख्या, विशेषतः न्यायालय को बदनाम करने’ की संकल्पना, न्यायिक कार्यप्रणाली की वैध आलोचना को भी दबा सकती है।
    • एम.वी. जयराजन (वर्ष 2010) मामला दर्शाता है कि जवाबदेही से संबंधित मुद्दों को भी अवमानना मान लिया जाता है।
    • इससे अनुच्छेद 19(1)(a) एवं अनुच्छेद 19(2) के प्रतिबंधों के बीच असंतुलन उत्पन्न होता है।
  • अस्पष्टता: ‘न्यायालय की अवमानना’ की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है, जिससे असंगत व्याख्या और चयनात्मक उपयोग की संभावना बढ़ती है।
    • विधि आयोगों (200वीं रिपोर्ट और 274वीं रिपोर्ट) ने पाया कि यह अपराध अप्रचलित है और इसका दुरुपयोग होने की संभावना है।
  • हित-संघर्ष: कई अवमानना मामलों में न्यायाधीश स्वयं ही अपने विरुद्ध आरोपों की सुनवाई करते हैं, जिससे निष्पक्षता और प्राकृतिक न्याय पर प्रश्न उठते हैं।
    • न्यायमूर्ति सी.एस. कर्णन के अवमानना ​​​​कार्यवाही (वर्ष 2017) के दौरान, आलोचकों ने तर्क दिया कि जिस संस्था की अधिकारिता पर सवाल उठाया गया था, उसी संस्था ने मुकदमे का संचालन किया, जिससे हितों का अंतर्निहित टकराव उत्पन्न हुआ।
  • जवाबदेही पर दमनकारी प्रभाव: अवमानना का भय पत्रकारों, शोधकर्ताओं और नागरिक समाज को न्यायपालिका की आलोचनात्मक समीक्षा से रोकता है।
    • न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्ण अय्यर इस बात पर जोर देते हैं कि आलोचना के प्रति अत्यधिक संवेदनशीलता सार्वजनिक बहस को बाधित करती है, जो लोकतांत्रिक निगरानी के लिए आवश्यक है।
  • प्रक्रियात्मक विलंब: कार्रवाई शुरू करने के लिए अवमानना अधिनियम, 1971 की धारा 20 में निर्धारित एक वर्ष की वैधानिक समय-सीमा के बावजूद, अवमानना के मामले प्रायः वर्षों तक लंबित रहते हैं, जिससे उनकी तात्कालिकता समाप्त हो जाती है और मनमानी की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं।।
    • सरकारी अधिकारियों के विरुद्ध लंबे समय तक संचालित अवमानना ​​​​की कार्रवाइयों सहित कई उदाहरण यह दर्शाते हैं कि विलंबित प्रवर्तन से निवारण कमजोर होता है और उच्च न्यायालयों में मामलों का बोझ बढ़ जाता है।

आगे की राह 

  • स्पष्ट परिभाषाएँ: ‘न्यायालय की अवमानना’ के दायरे को सीमित करना और वस्तुनिष्ठ मानदंडों को संहिताबद्ध करना दुरुपयोग को कम कर सकता है।
  • न्यायाधीश और संस्था में अंतर: किसी न्यायाधीश को व्यक्तिगत रूप से निशाना बनाने वाली आलोचना को न्यायिक कार्यप्रणाली पर हमलों से अलग किया जाना चाहिए, जिससे आनुपातिक प्रतिक्रिया सुनिश्चित हो सके।
  • सत्य और जनहित रक्षा को मजबूत करना: धारा 13 के अंतर्गत मजबूतसत्य-आधारित’ बचाव लागू करना, साक्ष्य-आधारित आलोचना की सुरक्षा करेगा और न्यायिक जवाबदेही को बढ़ाएगा।
  • अवमानना ​​शक्ति का प्रयोग अंतिम उपाय के रूप में करना: न्यायालयों को दंड आरोपित करने से पहले चेतावनी, मार्गदर्शन और सुलह को प्राथमिकता देनी चाहिए।
    • ब्रिटेन नेन्यायालय की अवमानना’ के अपराध को वर्ष 2013 में समाप्त कर दिया, यह कहते हुए कि यह प्रावधान अप्रासंगिक है और आधुनिक मुक्त अभिव्यक्ति मानकों के अनुकूल नहीं है।
  • न्यायिक पारदर्शिता और संचार को बढ़ावा देना: तर्कसंगत प्रतिक्रियाएँ देना और खुलेपन को बढ़ावा देना, बार-बार अवमानना ​​का आह्वान किए बिना स्वाभाविक रूप से सम्मान का निर्माण कर सकता है।

निष्कर्ष 

अवमानना ​​के लिए एक संतुलित ढाँचा तैयार किया जाना चाहिए जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित किए बिना न्यायिक अधिकार की रक्षा करे, यह सुनिश्चित करते हुए कि भारत की न्याय प्रणाली के भीतर जवाबदेही, गरिमा और लोकतांत्रिक पारदर्शिता सह-अस्तित्व में रहें।

अभ्यास प्रश्न

‘न्यायपालिका की अवमानना’ ​​संबंधी शक्ति प्रभावी न्याय वितरण के लिए आवश्यक है, लेकिन इसका उपयोग लोकतांत्रिक असहमति को दबाने के उपकरण के रूप में नहीं किया जाना चाहिए।’ वर्तमान न्यायिक निर्णयों और भारत में अवमानना ​​कानून की रूपरेखा के संदर्भ में टिप्पणी कीजिए।

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