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सहकारी समितियाँ

Lokesh Pal November 19, 2024 01:59 43 0

संदर्भ

भारतीय कृषक उर्वरक सहकारी संस्था (Indian Farmers Fertilizer Cooperative- IFFCO) भारत के 18 अंतरराष्ट्रीय सहकारी गठबंधन (International Cooperative Alliance- ICA) सदस्य संगठनों के सहयोग से ICA वैश्विक सहकारी सम्मेलन का आयोजन करने जा रही है। 

ICA वैश्विक सहकारी सम्मेलन की मुख्य विशेषताएँ

  • उद्देश्य: इस सम्मेलन का उद्देश्य सहकारी नवाचार में भारत के नेतृत्व को प्रदर्शित करना तथा सहकारी संगठनों के बीच वैश्विक सहयोग को मजबूत करना है।
  • अपेक्षित परिणाम: इस सम्मेलन से दुनिया भर में सहकारी समितियों के बीच ज्ञान साझा करने, नेटवर्किंग और सहयोग को बढ़ावा मिलने की उम्मीद है, जिससे वैश्विक चुनौतियों के लिए अभिनव समाधान सामने आएँगे।

अंतरराष्ट्रीय सहकारी गठबंधन (International Cooperative Alliance- ICA) के बारे में

  • स्थापना: वर्ष 1895 में लंदन, यू. के. में स्थापित।
  • उद्देश्य: सहकारी विचार को बढ़ावा देना और दुनिया भर में सहकारी समितियों के विकास का समर्थन करना।
  • सदस्यता: इसमें राष्ट्रीय सहकारी संगठन, अंतरराष्ट्रीय सहकारी संगठन और व्यक्तिगत सहकारी समितियाँ शामिल हैं।
    • ICA के कुछ उल्लेखनीय सदस्य हैं- इफको (भारतीय कृषक उर्वरक सहकारी लिमिटेड), कृभको (कृषक भारती सहकारी लिमिटेड), अमूल डेयरी कोऑपरेटिव, द कोऑपरेटिव ग्रुप (यूके), ग्रुप क्रेडिट म्यूचुअल (फ्राँस), कॉप इटालिया (Coop Italia), WOCCU (विश्व क्रेडिट यूनियन परिषद), आदि।

  • मुख्यालय: ब्रुसेल्स, बेल्जियम।
  • ICA की भूमिका 
    • सहकारी सिद्धांतों और मूल्यों की वकालत करता है।
    • सहकारी समितियों को तकनीकी सहायता और क्षमता निर्माण प्रदान करता है।
    • अनुसंधान और नीति विश्लेषण करता है।
    • अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रम एवं सम्मेलन आयोजित करता है।
    • वैश्विक स्तर पर सहकारी समितियों के हितों का प्रतिनिधित्व करता है।

भारत में सहकारी समितियों के लिए संवैधानिक प्रावधान

  • 97वाँ संविधान संशोधन: संविधान में भाग IXB (सहकारी समितियाँ) जोड़ा गया।
    • सहकारी समितियों के गठन के अधिकार को अनुच्छेद-19 (1) के तहत स्वतंत्रता के अधिकार के रूप में शामिल किया गया।
    • सहकारी समितियों के संवर्द्धन से संबंधित अनुच्छेद-43-B को भी राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों में से एक के रूप में शामिल किया गया।
  • बहु-राज्य सहकारी समितियाँ (संशोधन) अधिनियम, 2023: शासन को मजबूत करने, पारदर्शिता बढ़ाने, जवाबदेही बढ़ाने, चुनावी प्रक्रिया में सुधार करने और बहु-राज्य सहकारी समितियों में 97वें संविधान संशोधन के प्रावधानों को शामिल करने के लिए MSCS अधिनियम, 2002 में संशोधन लाया गया है।

सहकारी समितियों (Cooperative Societies) के बारे में

  • सहकारी समितियाँ व्यक्तियों के स्वैच्छिक संघ हैं, जो अपनी सामान्य आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आवश्यकताओं एवं आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए एक साथ जुड़ते हैं।
  • वे आपसी मदद और स्व-सहायता के सिद्धांत पर कार्य करते हैं, लाभ अधिकतमकरण पर अपने सदस्यों के कल्याण को प्राथमिकता देते हैं।
  • भारत में सहकारी समितियों की स्थिति
    • वर्तमान में आवास, डेयरी, कृषि, वित्त आदि जैसे विभिन्न क्षेत्रों में 8 लाख से अधिक सहकारी समितियाँ पंजीकृत हैं।
    • भारत सरकार द्वारा वर्ष 2021 में ‘सहकार से समृद्धि’ के विजन को साकार करने के लिए सहकारिता मंत्रालय बनाया गया था।
  • अधिकार क्षेत्र: संविधान के तहत सहकारिता एक राज्य विषय है।
    • संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत राज्य सूची की प्रविष्टि 32 में ‘सहकारी समितियाँ’ विषय का उल्लेख किया गया है।

भारत में सहकारी समितियों के प्रकार

  • उपभोक्ता सहकारी समितियाँ: इन समितियों का उद्देश्य अपने सदस्यों को किफायती मूल्य पर गुणवत्तापूर्ण वस्तुएँ और सेवाएँ प्रदान करना है। उदाहरणों में केंद्रीय भंडार और अपना बाज़ार शामिल हैं।
  • उत्पादक सहकारी समितियाँ: ये समितियाँ छोटे उत्पादकों को संसाधन, प्रौद्योगिकी और बाजार तक पहुँच प्रदान करके उनका समर्थन करती हैं। उदाहरणों में अमूल डेयरी सहकारी समिति और कर्नाटक हथकरघा बुनकर सहकारी समिति शामिल हैं।
  • विपणन सहकारी समितियाँ: ये समितियाँ अपने सदस्यों के लिए बेहतर मूल्य सुनिश्चित करते हुए कृषि और अन्य उत्पादों के सामूहिक विपणन की सुविधा प्रदान करती हैं।
  • ऋण सहकारी समितियाँ: ये समितियाँ अपने सदस्यों, विशेष रूप से ग्रामीण और हाशिए के समुदायों के लोगों को ऋण एवं बचत जैसी वित्तीय सेवाएँ प्रदान करती हैं। उदाहरणों में शहरी सहकारी बैंक और ग्रामीण सहकारी बैंक शामिल हैं।
  • आवास सहकारी समितियाँ: ये समितियाँ संसाधनों को एकत्रित करके और सामूहिक रूप से आवास परियोजनाएँ विकसित करके अपने सदस्यों को किफायती आवास समाधान प्रदान करती हैं।

भारत में सहकारी आंदोलन का विकास

भारत में सहकारी आंदोलन पिछले कुछ वर्षों में काफी विकसित हुआ है, जो सरकारी नीतियों, सामाजिक सुधारों और आर्थिक स्थितियों सहित विभिन्न कारकों से प्रभावित है।

  • स्वतंत्रता-पूर्व युग
    • अनौपचारिक उत्पत्ति: चिट फंड, निधि और ग्राम-स्तरीय पारस्परिक सहायता समितियों जैसे सहकारी समितियों के प्रारंभिक रूप मौजूद थे।
    • औपचारिकीकरण: वर्ष 1904 के सहकारी ऋण समिति अधिनियम और वर्ष 1912 के सहकारी समिति अधिनियम ने औपचारिक सहकारी आंदोलन की नींव रखी।
      • कर्नाटक के गडग जिले के कनागिनहाल गाँव की कृषि ऋण सहकारी समिति, सहकारी ऋण समिति अधिनियम, 1904 के तहत गठित पहली सहकारी समिति थी।
    • गांधीवादी प्रभाव: महात्मा गांधी ने सहकारी सिद्धांतों को बढ़ावा दिया और ग्रामीण समुदायों को सशक्त बनाने और आर्थिक आत्मनिर्भरता हासिल करने के साधन के रूप में उन्हें अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया।
  • स्वतंत्रता के बाद का युग
    • सरकारी सहायता: सरकार ने ग्रामीण विकास और आर्थिक वृद्धि को बढ़ावा देने में सहकारी समितियों की क्षमता को पहचाना।
    • राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम (National Cooperative Development Corporation- NCDC): वर्ष 1963 में स्थापित, NCDC सहकारी समितियों को वित्तीय और तकनीकी सहायता प्रदान करता है।
    • राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड): वर्ष 1982 में स्थापित, नाबार्ड ग्रामीण विकास को बढ़ावा देता है और सहकारी समितियों को ऋण एवं अन्य वित्तीय सेवाएँ प्रदान करता है।
    • विधायी सुधार: बहु-राज्य सहकारी समितियों के बेहतर विनियमन के लिए बहु-राज्य सहकारी समिति अधिनियम, 2002 और 2023 संशोधन तथा 97वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2011 ने सहकारी आंदोलन को और मजबूत किया।

भारत में बहु-राज्य बनाम एकल-राज्य सहकारी समितियाँ

विशेषता

बहु-राज्य सहकारी समिति

एकल-राज्य सहकारी समिति

अधिकार क्षेत्र बहु-राज्य सहकारी समिति अधिनियम, 2002 के तहत पंजीकृत संबंधित राज्य सहकारी समिति अधिनियम के तहत पंजीकृत
परिचालन क्षेत्र कई राज्यों में कार्य कर सकती हैं। एक ही राज्य के भीतर संचालित होता है।
नियामक प्राधिकरण केंद्रीय सहकारी समितियाँ रजिस्ट्रार सहकारी समितियों के राज्य रजिस्ट्रार
गठन में आसानी केंद्रीय पंजीकरण और अनुपालन आवश्यकताओं के कारण अधिक जटिल यह अपेक्षाकृत आसान है क्योंकि इसमें राज्य-स्तरीय पंजीकरण शामिल है।
शासन बहु-राज्य सहकारी समिति अधिनियम, 2002 और उसके नियमों द्वारा शासित संबंधित राज्य सहकारी समिति अधिनियम और नियमों द्वारा शासित
वित्तीय विनियमन केंद्रीय वित्तीय विनियमों और दिशा-निर्देशों के अधीन राज्य स्तरीय वित्तीय विनियमों और दिशा-निर्देशों के अधीन
कर निहितार्थ विभिन्न राज्यों में अलग-अलग कर प्रभाव हो सकते हैं। कर निहितार्थ सामान्यतः राज्य के कर कानूनों द्वारा नियंत्रित होते हैं।
सदस्य आधार इसमें कई राज्यों के सदस्य हो सकते हैं। सदस्य आमतौर पर एक ही राज्य से होते हैं।
परिचालन का पैमाना वे बड़े पैमाने पर परिचालन के लिए अधिक लचीलापन और क्षमता प्रदान करते हैं, साथ ही उन्हें अधिक कठोर अनुपालन तथा नियामक निगरानी की भी आवश्यकता होती है। उनका फोकस अधिक स्थानीय है और वे छोटे पैमाने के परिचालन के लिए अधिक उपयुक्त हो सकते हैं।
उदाहरण इफको (IFFCO), अमूल (Amul), एनसीडीएफआई (NCDFI)  राज्य स्तरीय सहकारी बैंक, प्राथमिक कृषि ऋण समितियाँ, आवास समितियाँ।

भारत में सहकारिता की भूमिका

भारत के सामाजिक-आर्थिक विकास में सहकारी समितियों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में। उन्होंने लाखों लोगों को सशक्त बनाया है, आजीविका में सुधार किया है और राष्ट्रीय विकास में योगदान दिया है। यहाँ उनकी प्रमुख भूमिकाओं पर चर्चा की गई है:

  • ग्रामीण विकास
    • ऋण और वित्तीय सेवाएँ: सहकारी बैंक और ऋण समितियाँ किसानों एवं ग्रामीण उद्यमियों को किफायती ऋण उपलब्ध कराती हैं, जिससे वे अपने व्यवसायों में निवेश कर सकते हैं और उत्पादकता में सुधार कर सकते हैं।
      • सहकारी समितियाँ देश में कुल कृषि ऋण का 20% प्रदान करती हैं, जिससे किसानों को वित्त तक पहुँच सुनिश्चित होती है।
    • इनपुट आपूर्ति: सहकारी समितियाँ उचित मूल्य पर बीज, उर्वरक और कीटनाशक जैसे गुणवत्तापूर्ण कृषि इनपुट खरीदती हैं और वितरित करती हैं, जिससे किसानों को समय पर उनकी पहुँच सुनिश्चित होती है।
      • सहकारी समितियाँ भारत में कुल उर्वरकों का 35% वितरित करती हैं और 25% उर्वरकों का उत्पादन करती हैं।
    • बाजार तक पहुँच: सहकारिताएँ किसानों की उपज को एकत्रित करके, बेहतर कीमतों पर बातचीत करके और उन्हें घरेलू तथा अंतरराष्ट्रीय बाजारों से जोड़कर बाजार तक पहुँच की सुविधा प्रदान करती हैं।
    • बुनियादी ढाँचे का विकास: सहकारिताएँ अक्सर ग्रामीण बुनियादी ढाँचे, जैसे सिंचाई प्रणाली, सड़क और भंडारण सुविधाओं में निवेश करती हैं, जिससे पूरे समुदाय को लाभ होता है।
  • गरीबी को कम करना
    • आय सृजन: सहकारिताएँ प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से बड़ी संख्या में लोगों को, खास तौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में, रोजगार के अवसर प्रदान करती हैं। उदाहरण के लिए, अमूल डेयरी सहकारी समिति ने गुजरात में लाखों डेयरी किसानों को आजीविका प्रदान की है।
    • कौशल विकास: सहकारिताएँ अक्सर अपने सदस्यों के कौशल को बढ़ाने के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करती हैं, जिससे उन्हें अपनी उत्पादकता और आय में सुधार करने में मदद मिलती है।
    • सामाजिक सुरक्षा जाल: सहकारिताएँ सामाजिक सुरक्षा जाल के रूप में कार्य कर सकती हैं, जो आर्थिक कठिनाई या प्राकृतिक आपदाओं के समय अपने सदस्यों को सहायता प्रदान करती हैं।
  • सामाजिक और आर्थिक सशक्तीकरण
    • महिला सशक्तीकरण: महिला स्वयं सहायता समूह, जो अक्सर सहकारिता आधारित होते हैं, महिलाओं को वित्तीय संसाधन, प्रशिक्षण और अपनी चिंताओं को व्यक्त करने के लिए एक मंच प्रदान करके उन्हें सशक्त बनाते हैं।
    • हाशिये पर पड़े समूह: सहकारिताएँ आदिवासी समुदायों और छोटे किसानों जैसे हाशिये पर पड़े समूहों को संसाधनों और बाजारों तक पहुँच प्रदान करके उन्हें सशक्त बना सकती हैं।
    • सामुदायिक विकास: सहकारिताएँ शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और अन्य सामाजिक कल्याण गतिविधियों में निवेश करके सामुदायिक विकास में योगदान देती हैं।
  • खाद्य सुरक्षा
    • कृषि उत्पादकता में वृद्धि: सहकारिताएँ आधुनिक कृषि पद्धतियों को अपनाने को बढ़ावा देती हैं, जिससे अधिक पैदावार एवं बेहतर गुणवत्ता प्राप्त होती है।
      • सहकारी समितियाँ देश में कुल चीनी उत्पादन में 31% और भारत में उत्पादित कुल दूध में 10% से अधिक का योगदान देती हैं।
      • वे मछुआरों के व्यवसाय में 21% से अधिक का योगदान करते हैं, मछली पकड़ने के उद्योग और तटीय समुदायों का समर्थन करते हैं।
    • कुशल खाद्य वितरण: सहकारिताएँ खाद्यान्न और अन्य कृषि उत्पादों का कुशल वितरण सुनिश्चित करती हैं, बर्बादी को कम करती हैं और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करती हैं।
    • मूल्य स्थिरीकरण: सहकारी समितियाँ कृषि उत्पादों के खरीदार और विक्रेता दोनों के रूप में कार्य करके कीमतों को स्थिर करने में मदद कर सकती हैं।
      • सहकारी समितियाँ देश में उत्पादित गेहूँ का 13% और धान का 20% से अधिक खरीद करती हैं, जिससे किसानों को उचित मूल्य मिलता है।

      • उपभोक्ता सहकारी समितियाँ उपभोक्ताओं को उचित मूल्य पर आवश्यक वस्तुएँ और सेवाएँ प्रदान करती हैं।

सहकारिता को मजबूत करने के लिए सरकारी पहल

  • सहकारिता मंत्रालय: वर्ष 2021 में सहकारिता मंत्रालय की स्थापना ने सहकारी क्षेत्र की आवश्यकताओं और चुनौतियों से निपटने के लिए एक समर्पित मंच प्रदान किया है।
  • वित्तीय सहायता: सरकार विभिन्न योजनाओं और कार्यक्रमों के माध्यम से सहकारी समितियों को वित्तीय सहायता प्रदान करती है।

        पहल 

उद्देश्य

PACS के लिए आदर्श उपनियम PACS में प्रशासन, पारदर्शिता और समावेशिता में सुधार लाना।
PACS का कंप्यूटरीकरण PACS का आधुनिकीकरण और उनकी दक्षता में सुधार।
नई बहुउद्देशीय PACS/डेयरी/मत्स्य सहकारी समितियाँ सहकारी नेटवर्क को अछूते क्षेत्रों तक विस्तारित करना।
विकेंद्रीकृत अनाज भंडारण योजना फसल-उपरांत होने वाले नुकसान को कम करना तथा किसानों की आय में सुधार करना।
सामान्य सेवा केंद्र (CSCs) के रूप में PACS ग्रामीण नागरिकों को विभिन्न ई-सेवाएँ प्रदान करना।
कृषक उत्पादक संगठनों (FPOs) का गठन किसानों को सशक्त बनाना और उनकी बाजार पहुँच में सुधार करना।
खुदरा पेट्रोल/डीजल आउटलेट PACS के आय स्रोतों में विविधता लाना।
PACS के लिए एलपीजी डिस्ट्रीब्यूटरशिप PACS के आय स्रोतों में विविधता लाना।
पीएम भारतीय जन औषधि केंद्र ग्रामीण क्षेत्रों में किफायती दवाओं तक पहुँच में सुधार।
प्रधानमंत्री किसान समृद्धि केंद्र (PMKSK) किसानों को उर्वरकों और संबंधित सेवाओं तक आसान पहुँच प्रदान करना।
पीएम-कुसुम अभिसरण किसानों के बीच सौर ऊर्जा अपनाने को बढ़ावा देना।
ग्रामीण जल आपूर्ति का संचालन एवं रखरखाव ग्रामीण क्षेत्रों में PACS की पहुँच का उपयोग करना।
सहकारी समितियों के लिए माइक्रो-एटीएम ग्रामीण नागरिकों को उनके घर तक वित्तीय सेवाएँ उपलब्ध कराना।
डेयरी सहकारी समितियों के लिए रुपे किसान क्रेडिट कार्ड डेयरी किसानों को ऋण एवं अन्य वित्तीय सेवाएँ प्रदान करना।
मत्स्य कृषक उत्पादक संगठनों (FFPOs) का गठन मत्स्यपालकों को सशक्त बनाना तथा उनकी बाजार पहुँच में सुधार करना।

भारत में सहकारी समितियों के लिए प्रमुख चुनौतियाँ

  • शासन संबंधी मुद्दे
    • पारदर्शिता और जवाबदेही का अभाव: कई सहकारी समितियाँ वित्तीय लेन-देन और निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में पारदर्शिता की कमी से पीड़ित हैं। इससे भ्रष्टाचार और धन का दुरुपयोग हो सकता है।
    • सीमित सदस्य भागीदारी: निर्णय लेने में सदस्यों की कम भागीदारी सहकारी समितियों को कमजोर कर सकती है और उन्हें बाहरी प्रभावों के प्रति दुर्बल बना सकती है।
    • अप्रभावी शासन संरचनाएँ: निदेशक मंडल और प्रबंधन समितियों सहित कमजोर शासन संरचनाएँ सहकारी समितियों के प्रभावी कामकाज में बाधा डाल सकती हैं।
      • कमजोर कॉरपोरेट प्रशासन के कारण कई सहकारी बैंक विफल हो गए हैं, जिसके परिणामस्वरूप वर्ष 2004-05 से गैर-अनुसूचित शहरी सहकारी बैंकों (UCB) के 145 विलय हुए हैं, जिनमें वर्ष 2021-22 में 9 विलय शामिल हैं।
  • वित्तीय बाधाएँ
    • वित्त तक सीमित पहुँच: सहकारी समितियों, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित सहकारी समितियों को अक्सर बैंकों और वित्तीय संस्थानों जैसे पारंपरिक स्रोतों से वित्त प्राप्त करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
    • उच्च ब्याज दरें: यहाँ तक कि जब वे ऋण प्राप्त करने में सफल हो जाती हैं, तो सहकारी समितियों को अक्सर अन्य व्यवसायों की तुलना में अधिक ब्याज दरों का भुगतान करना पड़ता है।
    • गैर-निष्पादित परिसंपत्तियाँ (NPAs): सहकारी बैंकों की एक बड़ी संख्या उच्च NPA से ग्रसित है, जो उनकी वित्तीय स्थिति को खराब कर सकती है।
      • खराब वित्तीय स्थितियों के कारण, वर्ष 2023 में 17 सहकारी बैंकों को बंद कर दिया गया, जिसमें भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) द्वारा सबसे अधिक वार्षिक लाइसेंस रद्द किए गए।
  • क्षमता निर्माण 
    • कुशल कर्मियों की कमी: कई सहकारी समितियों में अपने संचालन को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने के लिए आवश्यक कौशल और विशेषज्ञता का अभाव है।
    • खराब वित्तीय प्रबंधन: कमजोर वित्तीय प्रबंधन प्रथाओं से वित्तीय नुकसान और अस्थिरता हो सकती है।
    • सीमित तकनीकी अपनाना: प्रौद्योगिकी को धीमी गति से अपनाने से सहकारी समितियों की वृद्धि और दक्षता में बाधा आ सकती है।
  • प्रतिस्पर्द्धा
    • निजी क्षेत्र से प्रतिस्पर्द्धा: सहकारी समितियों को अक्सर निजी क्षेत्र की संस्थाओं से कड़ी प्रतिस्पर्द्धा का सामना करना पड़ता है, जिनके पास बेहतर संसाधनों और प्रौद्योगिकी तक पहुँच हो सकती है।
    • बाजार पर प्रभुत्व: बड़ी कंपनियाँ बाजारों पर हावी हो सकती हैं, जिससे सहकारी समितियों के लिए प्रतिस्पर्द्धा करना जटिल हो जाता है।
    • कीमतों में उतार-चढ़ाव: इनपुट और आउटपुट कीमतों में उतार-चढ़ाव सहकारी समितियों की लाभप्रदता को प्रभावित कर सकता है।
  • जनता के विश्वास की कमी
    • ऐतिहासिक मुद्दे: कुछ सहकारी समितियाँ वित्तीय कुप्रबंधन और भ्रष्टाचार से जुड़ी रही हैं, जिसके कारण उनके बारे में नकारात्मक धारणा बनी है।
    • पारदर्शिता का अभाव: कार्यों और वित्तीय लेन-देन में पारदर्शिता का अभाव जनता के विश्वास को कम कर सकता है।
    • अप्रभावी शासन: भाई-भतीजावाद तथा पक्षपात सहित खराब शासन पद्धतियाँ जनता के विश्वास को और कम कर सकती हैं।
      • उदाहरण के लिए, पंजाब और महाराष्ट्र सहकारी बैंक (पीएमसी बैंक) को धोखाधड़ी की प्रथाओं और कुप्रबंधन के कारण एक बड़े संकट का सामना करना पड़ा, जिसके कारण गंभीर नकदी संकट उत्पन्न हो गया तथा इसके जमाकर्ताओं को असुविधा हुई।

आगे की राह

  • शासन को मजबूत करना: पारदर्शिता, जवाबदेही और सदस्य भागीदारी को बढ़ावा देना।
  • वित्तीय प्रबंधन में सुधार: अच्छी वित्तीय प्रथाओं को लागू करना और वित्त के वैकल्पिक स्रोतों की तलाश करना।
  • क्षमता निर्माण: सहकारी सदस्यों और कर्मचारियों के लिए प्रशिक्षण तथा विकास कार्यक्रमों में निवेश करना।
  • नीति समर्थन: सहकारी समितियों के विकास और वृद्धि को प्रोत्साहित करने के लिए एक सहायक नीति वातावरण बनाना।
  • सहयोग और नेटवर्किंग: ज्ञान और संसाधनों को साझा करने के लिए सहकारी समितियों के बीच सहयोग को बढ़ावा देना।
  • सार्वजनिक विश्वास की कमी को संबोधित करना: नियमित वित्तीय ऑडिट, वित्तीय विवरणों का सार्वजनिक प्रकटीकरण और पारदर्शी निर्णय लेने की प्रक्रिया जैसे मजबूत पारदर्शिता उपायों को लागू करना।

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